Saturday, February 14, 2009

प्यार करने वाले कभी डरते नही,जो डरते हैं वो ...


जी हाँ , शायद वैलेंटाइंस डे का रंग है यह, मैने कभी नही मनाया, पर आज मनाने का मन है।जाती हूँ गुलाब खरीदने।पर पहले दो लाइने लिख दूँ।सोच रही हूँ,प्यार पर कुछ कहने का क्या हक बनता है जबकि इस एक नाम के मायने हर एक के लिए अलग अलग हो जातें हों।इसलिए प्यार क्या है पर नही कहना ही सब कुछ कह देने जैसा है।'ये भी नही,ये भी नही'करके शायद कोई उस तक पहुँच पाए।
शायद यह आश्चर्य की बात नही कि समाज फिल्मों मे प्यार करने वालों को जुदा होते देख जितना रोता है उतना ही खफा होता है जब यह सीन अपने घर मे देखने को मिल जाए। कत्लो गारत मच जाती है,लड़के-लड़कियाँ सूली से लटका दिए जाते हैं,राजवंशों के प्रेम की बात तो बिलकुल ही नही करूंगी।ऑनर किलिंग्स और इमोशनल ब्लैकमेलिंग पर केन्द्रित है मेरी दृष्टि।
ऐसा क्या है कि हमारा समाज प्यार का समर्थन नही करता लेकिन विवाह का पूरा पूरा समर्थन उसे प्राप्त है चाहे वह विवाह पीड़ादायक ही क्यो न हो, उसे निभाए चले जाना बहुत ज़रूरी बना दिया जाता है।अगर मै प्यार की फितरत पर जाऊँ तो बात कुछ समझ मे आती है।प्रेम अपने मूल स्वरूप मे आपको आज़ाद करता है, हिम्मत देता है,बहुत बार बागी बना देता है,अपनी ख्वाहिशों के प्रति सचेत करता है,और अकेलेपन की चाहत रखता है।
इसके ठीक विपरीत विवाह बान्धता है,उलझाता है,सामाजिक सुरक्षा सबसे ऊपर होती है,घरबारी आदमी पंगा नही लेना चाहता,समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहता है,ख्वाहिशों का केन्द्र बदल कर "अन्य" हो जाताहै,और विवाह हमेशा सार्वजनिक उत्सव की तरह मनाया जाता है और यह दखलान्दाज़ी ताउम्र चलती रहती है।
विवाह संस्थाबद्ध है तो प्रेम व्यवस्था-भंजक है।प्रेम एकांत है विवाह सामाजिक स्वीकृति है।शादी के नियम हो सकते हैं,प्यार का कोई रूल नही।

प्रेम और विवाह के इस मूल स्वरूप को समझ लेने के बाद साफ हो जाता है कि कोई भी मॉरल-सेना क्यों प्यार का विरोध करती है।प्यार आज़ाद करता है और हम आज़ाद ही तो नही होने देना चाह्ते।इसलिए आस पड़ोस ,घर परिवार नाते रिश्तेदारों से लेकर सभी प्यार के विरुद्ध अपने अपने बल्लम उठा कर खड़े दिखाई देते हैं।

समाज और व्यक्ति का यह द्वन्द्व हमेशा चलता रहता है और समाज दण्ड और पुरसकार की नीति अपना कर हमेशा ही व्यक्ति को नियंत्रित करने के प्रयास मे रत रहता है।यह दण्ड कंट्रोल करने वाले ग्रुप की समझ के मुताबिक घर-
निकाला भी हो सकता है,जायदाद से बेदखली भी हो सकती है,मौत भी हो सकती है या पार्क बेंच पर बैठा देख शादी करवा देना भी हो सकता है।
मुझे यह कहने मे कतई शक नही कि हमारा समय और समाज प्रेम विरोधी है,इसलिए मुझे हैरानी नही कि बहुत से माता-पिता वैलेंटाइंस डे की खिलाफत से प्रसन्न दिखाई दे रहे हों और मन ही मन मे राम सेना की जयजयकार भी कर रहे हों।प्यार अच्छा है, पर कहानियों में.....जिन्हें पीढी दर पीढी सुनाया जाए हीर-रांझे, सोनी-महिवाल की दुखांत गाथा के रूप मे अवास्तविक स्वप्नलोक की सूरत देकर।और सीख दी जाए हमेशा राम-सीता के वैवाहिक प्रेम के आदर्श की,प्रेम निवेदन पर जहाँ काट दी जाए नाक किसी स्त्री की।

Friday, February 13, 2009

यारी टुटदी है तो टुट जाए...

अशोक कुमार पाण्डेय said...
अरे अविनाश जी
विगत दस पान्च सालो का एक गाना बताइये जो स्त्री विरोधी ना हो!
फ़िल्म अब बाज़ारू माध्यम है और बाज़ार के लिये औरत की देह एक सेलेबल कमोडिटी तो और उम्मीद क्या की जाये।

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यूँ मै भी सहमत हूँ कि पंजाबी मे इस तरह की प्रेमभरी झिड़की लड़के लड़कियों को दी जाती है,मोए,मरजाणे,फिट्टे मूँ वगैरह वगैरह ....गाना लोकप्रिय हो रहा है...
पर फिलहाल मै सोच रही हूँ कि एक गीत कम से कम बॉलीवुड मे ऐसा है जो स्त्री विरोधी नही सुनाई देता, हालाँकि देखने से गीत मे हलकापन आता है पर सुनने पर यह किसी चोखेरबाली के शब्द प्रतीत होते हैं।हमारी तो बिन्दिया चमकेगी और चूड़ी खनकेगी , आप दीवाने होंते हों तो होते रहिए हम अपना रूप कहाँ ले जाएँ भला!!हम तो नाचेंगे आप नाराज़ होते हों तो हों!जवानी पर किसी का ज़ोर नही,इसलिए लाख मना करे दुनिया पर मेरी तो पायल बजेगी,मन होगा तो मैं तो नाचूंगी, छत टूटती है तो टूट जाए।और उस पर भी गज़ब लाइने यह कि - मैने तुझसे मोहब्बत की है, गुलामी नही की सजना ,दिल किसी का टूटे चाहे कोई मुझसे रूठे मै तो खेलूंगी , यारी टुटदी है तो टुट जाए।जिस रात तू बारात ले कर आएगा , मै बाबुल से कह दूंगी मै न जाऊंगी न मै डोली मे बैठूंगी , गड्डी जाती है तो जाए।फिल्म के सन्दर्भ से परे हटाकर ,एक प्रेमी को प्रेमिका की यह बातें कहते सुनें तो मुमताज़ चोखेरबाली ही नज़र आएगी।

आप सुनिए और बताइए -

Thursday, February 12, 2009

पिंक चड्डी - बहस का फोकस तय कीजिए

पिंक चड्डी का आह्वान सैंकड़ों कमेंटस दिला सकता है खास तौर से जब आपका ध्यान पिंक चड्डी का आह्वान करने वाली एक स्त्री पर केन्द्रित हो।पितृसत्तात्मक मानसिकता के आगे क्या रोचक बिम्ब उजागर होता होगा यह कल्पना करके? इसलिए सूसन की हिमाकत पर कीचड़ उछालना-उछलवाना ज़रूरी है जो उस बिम्ब का इस्तेमाल आपको शर्मिन्दा करने के लिए कर रही है जिसकी कल्पनाओं मे कभी किसी पुरुष ने ब्रह्मानंद की प्राप्ति की हो।आफ़्टर आल रात के दो बजे किसी बार मे पिंक चड्डी पहन नाचने वाली लड़की को झेला (एंजॉय)किया जा सकता है, मुँह पर तमाचे की तरह आ पड़ने वाली पिंक चड्डी का सामूहिक विरोध स्वरूप उपहार भेजने वाली को कैसे सहा जा सकता है?मेरी दिली इच्छा है कि टिप्पणी कार वाला काम करके सभी कमेंट्स को यहाँ चेप दूँ पर वही जाकर पढ लें , मै अपनी बात कहूंगी,यह काम टिप्पणीकार के लिए ही छोड़ दूँ।

यह पोस्ट देखी और इस बात से कतई हैरान नही थी कि पिंक चड्डी आह्वान के पीछे की ऐतिहासिक गतिविधियों को किनारे पर धकेल कर भ्रष्ट होती स्त्रियाँ और भ्रष्ट होते स्त्री आन्दोलन पर ही बहस होने वाली है क्योंकि शायद वहाँ पोस्ट का फोकस ही यह था।
मै समझना चाहती हूँ कि पिंक चड्डी की ज़रूरत क्यों आ पड़ी होगी?

पिंक प्रतीक है - स्त्रैण का ।
चड्डी और वह भी जनाना - प्रतीक है स्त्री की प्राइवेट स्पेस का।


अब देखिए -
पब मे दिन दहाडे(रात के दो भी नही बजे थे)आप लड़कियों को खदेड़ खदेड़ कर मार मार कर चपत घूँसे लगा लगा कर और दुनिया भर के पत्रकार बुला कर उनके सामने अपने शौर्य का प्रदर्शन कर रहे हैं।किसी स्त्री के अंग को आपको हर्ट करने , छूने का अधिकार किसने दिया? उसके इस प्राइवेट स्पेस मे दखल देने का अधिकार आपको किसने दिया?उन लड़कों को मैने पिटते नही देखा जो उस वक़्त साथ थे।यह कितना अपमानजनक था किसी स्त्री के लिए एक सभ्य मनुष्य़ समझ सकता है।
अगर दुनियावाले लड़कियों मे यह डर बैठाना चाहते हैं कि रात को दो बजे घूमोगी तो हम तो रेप ही करेंगे तो मुझे लगता है कि अहिंसात्मक विरोध के लिए प्राइवेट स्पेस के प्रतीक के रूप मे पिंक चड्डी से बेहतर विकल्प नही हो सकता,जबकि इस लोकतांत्रिक देश की सरकार मुतालिख जैसों को कानून के साथ खिलवाड़ करने की छूट दे रही हो और हर गली नुक्क्ड़ पर दो चार संस्कृति के स्वयमभू ठेकेदार लड़कियों का राह चलना दूभर कर दें और हम मे से कोई किसी एक स्त्री की फजीहत करते हुए उसके मोबाइल का नम्बर बांटने लगें।

कुछ लोग इंतज़ार मे है कि देखते हैं कौन शर्मिन्दा होता है - मुतालिख या निशा सूसन ?

इस प्रश्न मे निहित है कि वे मान कर चल रहे हैं कि इस मुद्दे मे उनका कोई कंसर्न नही , वे तमाशबीन की तरह केवल और केवल सूसन के शर्मिन्दा होने की बाट जोह रहे हैं।भई, स्त्री अपनी चड्डी भेजेगी तो शर्मिन्दा उसे ही होना चाहिए न !!

जो समाज जितना बन्द होगा और जिस समाज मे जितनी ज़्यादा विसंगतियाँ पाई जाएंगी वहाँ विरोध के तरीके और रूप भी उतने ही अतिवादी रूप मे सामने आएंगे।सूसन के यहाँ अश्लील कुछ नही, लेकिन टिप्पणियों मे जो भद्र जन सूसन पर व्यक्तिगत आक्षेप कर रहे हैं वे निश्चित ही अश्लील हैं।मुझे लगता है यह तय कर लेना चाहिये कि इस बहस का फोकस क्या है , सूसन या रामसेना या पिंक चड्डी या स्त्री के विरुद्ध बढती हुई पुलिसिंग और हिंसा।

या चड्डी निर्माता और चड्डी विक्रेता या तहलका ।

बड़ा मुद्दा क्या है ? असल मुद्दा क्या है?