Saturday, September 20, 2014

पिछली सदियों में


पिछली सदियों में
जितना खालीपन था उससे
 मैं लोक भरती रही
तुमसे चुराई हुई भाषा में और चुराए हुए समय में भी।
तुम्हारी उदारता ने मेरी चोरी को
चित्त न धरा ।
न धृष्टता माना।
न ही खतरा।
 हर बोझ पिघल जाता था
जब नाचती थीं फाग
गाती थी सोहर
काढती थी सतिया
बजाती थी गौना ।
मैं खुली स्त्री हो जाती थी।
मुक्ति का आनंद एक से दूसरी में संक्रमित होता था।
कला और उपयोग का संगम
गुझिया गोबर गीत का मेल
अपने अभिप्राय रखते थे मेरी रचना में
इतिहास मे नहीं देती सुनाई जिसकी गूँज
मैं लिखना चाहती हूँ
उसकी चींख जो
मुझे बधिर कर देगी जिस दिन
उससे पहले ही।
मुझे अलंकरण नहीं चाहिए
न ही शिल्प
सम्भालो तुम ही
सही कटावों और गोलाइयों की
नर्म गुदगुदी
अभिभूत करती कविता !
मुझसे और बोझ उठाए नहीं उठता।
नीम के पेड़ के नीचे
चारपाई पर औंधी पड़ी हुई
सुबह की ठंडी बयार और रोशनी के शैशव में
आँख मिचमिचाती  मैं
यानि मेरी देह की
दृश्यहीनता सम्भव होगी जब तक
मैं तब तक नहीं कर पाओँगी प्रतीक्षा
मुझे अभी ही कहना है कि
मुझे गायब कर दिया गया भाषा का अपना हिस्सा
शोधना होगा अभी ही।