Monday, August 20, 2007

विज्ञापन ---चाहिये एक फुल-टाइम ,घरेलू,गधेलू, जड ,जवान,स्वस्थ नौकर

विज्ञापन हिन्दी-लेखन की अद्यतन विधा है [यह मेरा मानना है]।पॉपुलर भी [नही है तो हो जाएगी]।हाशियाई विमर्श में हम दोनो ओर हैं। कुछ प्रसंगों में मुख्यधारा और कुछ म्रं सीमांत या हाशिये पर हैं।जहाँ हम मुख्यधारा हैं वहाँ हाशिये के प्रति सम्वेदनशीलता लाख प्रतिबद्धता के बाद भी नही आ पाती ।इसलिए जब नौकर पर एक कहानी लिखने का सोचा तो नही लिख पाए। आराम और फुरसत से ब्लाग लिखते हुए अपने नायक के सन्दर्भ में फुरसत की बात जम नही रही थी ।नौकर का फुर्सत और आराम मे होना या कहें अस्मितावान होना मालिक होने के भाव को चुनौती देता है ।इसलिए कहानी का केन्द्रीय भाव पकड नही आता था । कहानी का फॉर्म नही जम रहा था ।तभी यह अद्यतन विधा याद आयी । यूँ भी कहा जाता है [पता नही कहाँ कहा जाता है ] कि लेखक विधा नही चुनता उसका कथ्य अपने लिए उपयुक्त विधा का चुनाव अपने आप कर लेता है । सो हमारे कथ्य और मंतव्य ने अपने लिए विज्ञापन विधा का चुनाव स्वयँमेव कर लिया ।

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चाहिये एक फुल-टाइम ,घरेलू,गधेलू, जड ,जवान,स्वस्थ नौकर [बच्चोँ को प्रेफरेंस दी जाएगी ]जिसे थकान न होती हो ;होती भी हो तो बताए न, जो कम रोटी और कम नीन्द पर ज़्यादा काम कर सके,जिसे आराम हराम हो ,जिसे अखबार पढना,चिट्ठी लिखना न आता हो ,जिसकी किसी समसामयिक विषय पर अपनी कोई राय न हो, जिसके चहरे पर आशा और आँखों में सपने न हों ,नौकर होने के कारण जिसके हाड-गोड आसानी से तोडे जा सकें,जिसका परिवार न हो, हो तो गाँव में हो जहाँ उसे जाने की छुट्टी नही दी जाएगी क्योंकि गाम जाकर ये नौकर जात वापस नही आते, विवाह की आज़ादी नही होगी ,विवाहित होने पर पत्नी-बच्चे गाँव मेँ ही रहे तो अच्छा ,दोस्ती-मित्रता की आज़ादी नही होगी ,जो सबके सोने के बाद सोए और सबके जागने से पहले जाग जाए,जिसके रीढ की हड्डी और गर्दन की हड्डी न हो या तोडी जा चुकी हो और वह गर्दन सीधी करके खडा न हो सकता हो लेकिन काम करने का उसमें ज़बर्दस्त जोश हो , ,जो परेशान होकर भागने का प्रयास न करे अन्यथा चोरी का केस लिखवा कर पकडवा लिया जाएगा [पिटाई होगी सो अलग] ,जो डाँट खाने पर मुँह न खोले ,वफादारी में कुत्ते के समान, स्वभाव में गऊ , बोलने में बकरी समान , बोझ ढोने में गधे के समान, फुर्ती में घोडे के समान उपयोगिता में बैल के समान और मालिक के सामने मेमने के समान् हो। और अंतत: वह सिर्फ और सिर्फ नौकर हो ।
बीमारी व दुर्घटना की स्थिति मे‍ इलाज की गारन्टी नही ।योग्य उम्मीदवार सम्पर्क करे‍-बाक्स नम्बर -१०००

Friday, August 3, 2007

भागी हुई लडकियाँ –भाग-2

पिछले दिनोँ आलोक जी की कविता ‘भागी हुई लडकियाँ ’ बहुत चर्चा में रही । कारण था असीमा की आप-बीती का प्रकाशन जिसमें अलोक जी के कवि हृदय और व्यक्तित्व में अंतर्विरोध देख कर दुख हुआ ।किसी निर्णय पर पहुँचना नही है मुझे न इतनी औकात है मेरी ।इस विषय पर पहले ही लिख चुकी हूँ ।लेकिन बहुत उत्सुकता थी आलोक धन्वा की कविता “भागी हुई लडकियाँ ”पढने की ।अभय तिवारी जी ने वह इच्छा पूर्ण कर दी ।उन्हे धन्यवाद!
कविता पढने के बाद वह अधूरी सी लगी । एकतरफ़ा ।शायद एक स्त्री-स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर कवि को लडकियोँ के भागने में क्रांतिधर्मिता का दर्शन होता हो जो समाज की संरचना मेँ आमूल-चूल परिवर्तन के बहुत प्रारम्भिक संकेत होँ ।महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के ‘कविता क्या है’ सम्बन्धी लेख से असंतुष्ट होकर आचार्य शुक्ल को फिर से लिखना पडा था “कविता क्या है”।न मै आचार्य शुक्ल हूँ न आलोक जी द्विवेदी हैं ;उनके आस पास भी कही नही ठहरते हम शायद इसलिए आलोक जी से असंतुष्ट होने का जोखिम लिया जा सकता है । ऐसे में “भागी हुई लडकियाँ ”का दूसरा भाग बहुत कम चेष्टा से ,रच दिया है। अ-कवि [अप्रतिष्ठित औत स्त्री :) ]की कविता शायद ऐसी ही हो सकती होगी |
और एक तरफ़ा शायद यह भी है । इसलिए दूसरा भाग कहा है ।यह सचमुच की भागी लडकियां है रतजगो‍ में भागी नही।
तो एक पक्ष यह भी -----
आलोक धन्वा को समर्पित , क्योन्कि उन्ही की कविता से प्रेरित है यह कविता ।
*****
भागी हुई लडकियाँ
कडे जीवट वाली होती हैं
जीती हैं
मौत को शर्मसार करतीं ।
यूँ भी जब तक
गर्भ् में ही मार न दी जाएँ
मरती नही लडकियाँ
आसानी से।
कडी जान होती हैं।
भागी हुई लडकियों के सामने
नही होते विकल्प ।
उनके रास्ते वेश्यालयों तक जाकर
बन्द होते हैं हमेशा के लिए
और भागने के बाद
झरोखे से झाँकने की भी नही रहती हकदार !
उजाले के सफेद पुरुषों को
रात के ग्लानिमय अन्धेरे में
अपनी चूहों,झींगुरों से अटी पडी मैली कोठरी में ,एक के बाद एक
देती हैं राहत ।
भागी हुई लडकियों को
बेच जाते हैं उनके प्रेमी
दलालों द्वारा बलत्कृत होने और्
तब्दील होने
एक रंडी में ।
एक निर्विकल्प दुनिया
खिंच जाती है
चारो ओर ।
खरीदारों के हाथ किसी मवेशी की तरह
टटोलते हैं उनकी देह
और लगाते हैं कीमत ।
*** बज़ारू, बेआबरू
मानते है जिन्हे;
आश्चर्य ! !
वे भी पालती हैं भ्रम इज़्ज़त के
और मुँह सिए पडी रहती हैं
सीले कोनों में रोगों से अटी देह लिए ।
वे नही कहना चाहतीं अपनी पीडा
शर्मिन्दगी के घृणित,कुत्सित पल
नही बांटना चाहतीं।
तीस के बाद
बुढाने लगती हैं तेज़ी से
इसलिए
उनकी लडकियाँ
[जिन्हे भागने की नही पडी
ज़रूरत] ज्ल्दी-जल्दी होने लगती हैं बडी
सीखने लगती हैं हुनर ।
****
घर के भीतर्
शौचालय-सा शहर में वेश्यालय है।
रसोई-सा पवित्र नही पर उससे अहम
जहाँ से निवृत्त्त होकर
पाक-मना
परिवार-संरचनाओं के मुखिया
लौटते है।
फर्क यह है
इन्हे कोई अपना नही कहता सार्वजनिक शौचालय की भाँति ।
जिन्हे गन्दगी छोडने के बाद
अपनी,साफ करने
कोई नही आता ।
****
सीधे-सादे-भोले लोग
सोचते हैँ
भागी हुई लडकियाँ
आत्महत्या क्यों नही कर लेतीं?
मौत से बदतर ज़िन्दगी से
खुद मौत ही बेहतर नही ?
ये सीधे, भोले लोग
समझते क्यों नही
भागी हुई लडकियों के
लौटने के दरवाज़े
ये खुद ही
बन्द कर चुके हैं।
इन्होने बदल दिया है
कोठो को
वॉल्व में ,
भागी हुई लडकियों को रंडियों में,
हत्या को
आत्महत्या में।