जी हाँ , शायद वैलेंटाइंस डे का रंग है यह, मैने कभी नही मनाया, पर आज मनाने का मन है।जाती हूँ गुलाब खरीदने।पर पहले दो लाइने लिख दूँ।सोच रही हूँ,प्यार पर कुछ कहने का क्या हक बनता है जबकि इस एक नाम के मायने हर एक के लिए अलग अलग हो जातें हों।इसलिए प्यार क्या है पर नही कहना ही सब कुछ कह देने जैसा है।'ये भी नही,ये भी नही'करके शायद कोई उस तक पहुँच पाए।
शायद यह आश्चर्य की बात नही कि समाज फिल्मों मे प्यार करने वालों को जुदा होते देख जितना रोता है उतना ही खफा होता है जब यह सीन अपने घर मे देखने को मिल जाए। कत्लो गारत मच जाती है,लड़के-लड़कियाँ सूली से लटका दिए जाते हैं,राजवंशों के प्रेम की बात तो बिलकुल ही नही करूंगी।ऑनर किलिंग्स और इमोशनल ब्लैकमेलिंग पर केन्द्रित है मेरी दृष्टि।
ऐसा क्या है कि हमारा समाज प्यार का समर्थन नही करता लेकिन विवाह का पूरा पूरा समर्थन उसे प्राप्त है चाहे वह विवाह पीड़ादायक ही क्यो न हो, उसे निभाए चले जाना बहुत ज़रूरी बना दिया जाता है।अगर मै प्यार की फितरत पर जाऊँ तो बात कुछ समझ मे आती है।प्रेम अपने मूल स्वरूप मे आपको आज़ाद करता है, हिम्मत देता है,बहुत बार बागी बना देता है,अपनी ख्वाहिशों के प्रति सचेत करता है,और अकेलेपन की चाहत रखता है।
इसके ठीक विपरीत विवाह बान्धता है,उलझाता है,सामाजिक सुरक्षा सबसे ऊपर होती है,घरबारी आदमी पंगा नही लेना चाहता,समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहता है,ख्वाहिशों का केन्द्र बदल कर "अन्य" हो जाताहै,और विवाह हमेशा सार्वजनिक उत्सव की तरह मनाया जाता है और यह दखलान्दाज़ी ताउम्र चलती रहती है।
विवाह संस्थाबद्ध है तो प्रेम व्यवस्था-भंजक है।प्रेम एकांत है विवाह सामाजिक स्वीकृति है।शादी के नियम हो सकते हैं,प्यार का कोई रूल नही।
प्रेम और विवाह के इस मूल स्वरूप को समझ लेने के बाद साफ हो जाता है कि कोई भी मॉरल-सेना क्यों प्यार का विरोध करती है।प्यार आज़ाद करता है और हम आज़ाद ही तो नही होने देना चाह्ते।इसलिए आस पड़ोस ,घर परिवार नाते रिश्तेदारों से लेकर सभी प्यार के विरुद्ध अपने अपने बल्लम उठा कर खड़े दिखाई देते हैं।
समाज और व्यक्ति का यह द्वन्द्व हमेशा चलता रहता है और समाज दण्ड और पुरसकार की नीति अपना कर हमेशा ही व्यक्ति को नियंत्रित करने के प्रयास मे रत रहता है।यह दण्ड कंट्रोल करने वाले ग्रुप की समझ के मुताबिक घर-
निकाला भी हो सकता है,जायदाद से बेदखली भी हो सकती है,मौत भी हो सकती है या पार्क बेंच पर बैठा देख शादी करवा देना भी हो सकता है।
मुझे यह कहने मे कतई शक नही कि हमारा समय और समाज प्रेम विरोधी है,इसलिए मुझे हैरानी नही कि बहुत से माता-पिता वैलेंटाइंस डे की खिलाफत से प्रसन्न दिखाई दे रहे हों और मन ही मन मे राम सेना की जयजयकार भी कर रहे हों।प्यार अच्छा है, पर कहानियों में.....जिन्हें पीढी दर पीढी सुनाया जाए हीर-रांझे, सोनी-महिवाल की दुखांत गाथा के रूप मे अवास्तविक स्वप्नलोक की सूरत देकर।और सीख दी जाए हमेशा राम-सीता के वैवाहिक प्रेम के आदर्श की,प्रेम निवेदन पर जहाँ काट दी जाए नाक किसी स्त्री की।