Wednesday, March 7, 2007
शोहरत पैसे और चकाचौन्ध का आत्महन्ता पहलू
"आषाद का एक दिन "[मोहन राकेश]के कालिदास की बेचैनी जितनी वास्तविक लगती है उतना ही गुमनाम ,लघु मानव को हैरान करती है। वह समझ नही पाता कि जिन चीज़ो के लिये वह सघर्ष करते हुए जीता है उन्हे भरपूर पाकर भी कोई निराश, कुन्ठित, हताश कैसे हो जाता है।यह "खास" होने का अकेलापन है शायद जो एक बनावट भरे जीवन मे विषाद की परछाई खडी कर देता है और सम्वेदनशील मन उस परछाई से चाह कर भी पीछा नही छुडा पाता।""वो लम्हे"" ऐसे ही विषाद की घटाओ से घिरी फ़िल्म है जो बालीवुड स्टार की मनःस्थिति के असामान्य हो जाने को दर्ज करती है। इस अभिनेत्री मे सुइसाइडल टेन्डेन्सी है जिसका जन्म स्ट्रगल के दिनो मे पैदा हुए एक अनुपस्थित छवि के भय से होता है। उसे एक ऐसी ईर्ष्यापूर्ण लड्की दिखाई देती है जो उसे भीड से अलग होते ही अकेले मे घेर कर मार डालना चाहती है।"हैलूसिनेशन" कही जाने वाली यह एक दिमागी बीमारी है. कन्गना रनौत ने अभिनय ठीक-ठाक कर लिया है लेकिन वे मुझे अकेली ऐसई अभिनेत्री लगी जिसके चेहरे पर केवल एक विषाद का ही भाव आता है उनकी "गैन्गस्टर" मे भी यही भाव प्रमुख है. पता नही उन्हे बेस्ट न्यु कमर और फ़ेस आफ़ द इयर अवार्ड कैसे मिल गया. खैर मुद्दा यह नही है। प्रसिद्ध गायिका ब्रिट्नी स्पीयर्स का भई यही हाल है आजकल । उनमे भी सुइसाइडल टेन्डॆन्सी पाई गई है और वे अस्पताल मे है. वे अस्पताल मे चिल्लाते हुए घूमती है"i am fake! i am fake!" हैरानी है कि केवल कुछ के ही साथ ऐसा क्यो होता है। बाकि खुद को इससे कैसे बचा ले जाते है।य कि उनके अनतर्मन मे कभी प्रश्न खडे ही नही होते सत्य और नकलीपन को लेकर,स्व और स्व की दूसरो द्वारा निर्मित छवि को लेकर। शायद ऐसे खन्डित व्यक्तित्व वाले लोग हम सामान्य समझ्र जान्र वाले लोगो से ज़्यादा सच्चे है जिनमे खुद के भीतर झाकने का साहस है फिर भले ही वे बाकि लोगो को असामान्य क्यो न दिखाई दे।
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1 comment:
आपके पिछले और इस, दोनों लेखों में लेखन-उद्देश्य के विस्तार की कमी झलकती है। फिर भी प्रयास हिन्दी में है। यूनिकोड में है, सराहनीय है। धीरे-धीरे बहुत कुछ मिलने लगेगा हम पाठकों को।
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