अक्शारधाम का अर्थ है सर्वग्य,सर्वव्यापी,निराकार ब्रह्म{अक्शर} का निवास स्थान जहा चिर भक्ति, शान्ति और पवित्रता मिलती है।
अक्शरधाम मन्दिरो की स्थापना के साथ साथ स्वामिनरायण ने ५०० ऐसे साधुओ [परमहस] को ज़िम्मेदारी दी कि वे नित्य कम से कम ५ व्यक्तियो को सम्प्रदाय के ५ नियमो का, शान्ती और अहिम्सा का उपदेश करेन्गे. इसके बाद ही वे भोजन के अधिकारी होगे.
लेकिन हाल की ही घटना सोचने पर मज्बूर करती है कि सम्प्रदाय का वर्तमान स्वरूप क्या है. अ[पने शान्त ,निर्मल,स्वभाव के लिए साधु कहे जाने वाले ये व्यक्ति क्यो उग्र और हिम्सक हो बैठे.
पहला,दिल्ली का अक्शरधाम जिस prime location और जितनी बडी ज़मीन पर, जितना विराट और भव्य बना है वह मुझे हमेशा से सोचने पर मजबूर करता रहा है कि आखिर इस सन्गठन के पास इतनी बेशुमार दौलत कैसे है.और न केवल दौलत है वरन वह और दौलत खीच रहा है और फल रहा है ,फैल रहा है. मन्दिर के विस्तअर का अन्दाज़ा मुझे लोगो [श्रद्धालुओ} कीब ातो से हुआ जो ५ घन्टे तक वहा घूम घूम कर थक चुके थे और उसकी भव्यता की प्रशन्सा करते नही अघा रहे थे.
व्यापार के इस रूप की समझ और भी पुष्ट हो ग जब पता चला कि मन्दिर के ही अन्दर ,मन्दिर द्वारा ही सन्चालित एक दूकान है जिस पर शैम्पू, साबुन ,घडिया , कपडे और न जाने क्या दुनिया भर का समान बिकता है।
म्यूज़िकल फ़ाउन्टेन और तरह तरह केचित्र मूर्तिया लोगो का मनोरन्जन करती है। "आम के आम गुठलियो के दाम" . लोग ब्रह्मानन्द के पात्र भी होते है, पर्यटन का विकास होता है, सम्प्रदाय का प्रचार ही नही मुनाफ़ा भी होता है।
सोने की मूर्तिया देखने के लिये लोग पैसे देकर जाते है और स्वर्ण मन्डित स्वामिनारायण को देखकर खुद को धन्य समझते है.
इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओ को आहत करना नही है, केवल एक आलोचनात्मक सोच पैदा करना है जो मन्दिर के अन्दर ""साबुन"" बेचने वाले व्यापारीको पहचान सके.
व्यापार मे सम्प्रदाय का परिवर्तन ,मन्दिर मे बाज़ार की पैठ वही खतरा है जो अभी अभी सधुओ की लडाई मे अप्रत्यक्श दिखा है। इसलिये मुझे अक्शरधाम के सधुओ के हिम्सक होने पर ज़्यादा अचरज नही हुआ।
{जानकारी मित्र व भक्त, अनुभव व विचार लेखिका के}
सभी चित्र सौजन्य से- varenya.blogspot.com}
7 comments:
आख़िर सच तो बोलना ही पड़ेगा ना. इसमें लोगों के नाराज़ होने की क्या फिक्र. एक बात और, आपसे जलन-सी होती है कि जितना आजकल हम नहीं घूम पा रहे आप उससे ज़्यादा घूमती-फिरती और सोचती नज़र आ रही हैं.
अरे भुपेन इसमें क्या दिक्कत है नौकरी छोडो हो जाओ बेरोज़गार नोटपैड की तरह
आपने विचारोत्तेजक लेख लिखा है। विशाल अक्षरधाम मन्दिर वाक़ई बेहतरीन शिल्प का नमूना हैं। लेकिन मन मैं पैठी काम-कांचन की इमारत विशालतर होती है। उसे ढहाए बिना ऐसे मंदिर खड़े करने से यही सब होता है।
गुजरात स्वामिनारायण संप्रदाय का गढ़ है, अतः इस के बारे में काफी कुछ नजदीक से देखने को मिला है.
ये लोग पेशेवराना अन्दाज में सम्प्रदाय का संचालन करते है. इसी वजह से अकूत सम्पती के मालिक बन पाए है. समृद्ध गुजराती इनके शिष्य है.
मगर कहते है, साधू लक्ष्मी को त्याग बना जाता है, यहाँ साधू लक्ष्मी के लिए बना जाता है.
सम्प्रदाय की सम्पती पर साधूओं का नियत्रंण ही फसाद की जड़ है.
सिर्फ साबुन और तेल बेचने से इतनी सम्पति जमा नहीं होती दरअसल विदेशों में रह रहे इस सम्प्रदाय के भक्त सम्प्रदाय को बहुत पैसा भेजते रहते हैं। अब उन बेचारों को यह कहाँ पता है कि उनके पूज्य साधू यहाँ उसी सम्पति के लिये लड़ मरते हैं।
@सुजाता जी
आज के लेख में मात्रा की अशुद्धियाँ कुछ ज्यादा ही हो गई है। "क्ष" लिखने के लिये kSha टाईप करें। (बरहा में)
॥दस्तक॥
सत्य!
जब धर्म का प्रचार, मठ और मठाधिशों के माध्यम से होने लगता है तो अक्सर यही देखने में आता है। मुख्य भावना धर्म के प्रचार की न रहकर सर्वोच्च बनने की हो जाती है और धर्म, धर्म ना रह कर व्यापार हो जाता है।
नोट्पैड भई अक्षरधाम तो एक दुकान है, हमने भी जयपुर शहर मेँ एक दुकन देखी है। http://naadkari.blogspot.com पर मुलहिज़ा फ़रमाएँ! टिप्पणी का इंतज़ार रहेगा।
सस्नेह
अनुपम
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