Monday, October 22, 2007
बाज़ार में खडा रावण
इधर बहुत दिन से कुछ लिखने का वक़्त और् समां नही बन्ध पा रहा । बीच बीच में झांक ज़रूर जाती हूँ कि किसने क्या लिखा । खैर , अब जबकि त्योहारों का आलम है और हम अभी अभी रावण को फूँक कर हटे हैं तो एक आंखिन-देखी की एक पोस्ट भी चिपका ही देते है । हुआ यूँ कि रावण –जलन [ दहन कह लीजिये ] की पूर्व सन्ध्या पर हम दिल्ली के तिलक नगर की ओर एक कार्यक्रम अटेंड करने चल रहे थे । टैगोर गार्डन आते आते सडक के दोनो ओर का नज़ारा देख मुँह खुले खुले रह गये ।लाल-बत्ती, चौराहा तिराहा. फुटपाथ, पार्क जहाँ जहाँ जगह हो सकती थी वही वही बडी बडी मूँछों और दांत वाले, अट्टहास करते रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के विशालकाय पुतले जलने को तैयार पडे थे । कुछ दशानन ,धड और बाकी अंग ट्रकों में सवार होकर सडकों पर दौडने लगे थे न जाने किन गंतव्यों तक पहुँचने के लिए । यह रावण का बाज़ार था । बोर्ड लगे थे- मोहन रावण वाला, सोनू रावण वाला [कोई राम या रामू रावण वाला भी रहा हो तो आश्चर्य नही ] । यह बाज़ार है । राम रावण में बन्धुता है । रावण के भरोसे कई रामों के घर के चूल्हे जल रहे हैं । अखबारें बता रही हैं पुतलों की मांग बढ रही है । पुतले जलाने का चलन बढा है । जयपुर से बडी डिमांड आ रही है । क्या लोग दशहरा को वाकई धर्म की विजय का पर्व मानकर मनाने लगे है ? क्या रावण दहन से वे अपने बच्चों को अच्छाई का पाठ पढाने लगे हैं ।
चलिए चाहे जितना चाहे बाज़ार को गरियाएँ पर इतना ज़रूर हुआ है कि बाज़ार ने सबको अवसर प्रदान किये हैं । वह हर तरह का वे-आउट सुझाता है । सैकडों तरीके और उपाय हरएक के लिए हैं उसके पास ।बाज़ार –दर्शन बडा प्रबल दर्शन है जो हर धर्म ,हर सभ्यता, हर संस्कृति के अनुरूप खुद को ढाल लेता है । त्योहार प्रधान इस देश में वह और भी सफल हुआ है । बाज़ार बिना त्योहार की कल्पना असम्भव है । इसलिए भई हम तो अक्तूबर माह के आने से पहले भय से काँपने लगते हैं। जेबें ढीली होते होते नया साल मनाने की नौबत आ जाती है । श्राद्धों में , नवरात्रों में व्रत के खाने में, आलू चिप्स में, डांडिया के डी जे में ,दुर्गा पूजा के पंडालों में,गीतों में, मेहन्दी में ,शादी में , करवाचौथ में, दीवाली मेलों में,पटाखों में,लडियों में ,मिठाइयों में, उपहारों में, दूज में, गोवर्धन में ...........सब में, सबके बीच बाज़ार उपस्थित रहता है । और इसी के बीच खडा है रावण जो बार बार जल रहा है पर रक्तबीज सा पल रहा है । जितना ही जलता है उतना ही बढता है ।
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11 comments:
बढ़िया विश्लेषण किया है..
जिगर मा बड़ी आग है गाने वाले देश में सब कुछ जलाया जा सकता है। नहीं जलाया जा सकता तो भ्रष्टाचार और उससे उपजी बुराईयों को। पैसे की जो आग लगी है, के लिए जो भागमभाग मची है , उसको न तो बुझाया जा सकता है, न रोका जा सकता है। अब तो नेट पर आग लग रही है ब्लागों की, विचारों की अभिव्यक्ति की, तो इसे बुझाना भी तो संभव नहीं है। आग लगाने बुझाने का कारोबार तेजी पर है भारत में।
बढ़िया है. बहुत मन लगा कर विवेचना की है.
अब आपको पढ़कर तो अपनी बात ही सच लगने लगी है:
आज का रावण
किसी के लिये जी हजुरी है
तो किसी के पेट भरने की मजबूरी है..
किसी की आँख का अंजन है (नेताओं के लिये)
तो कहीं किसी का मनोरंजन है.
पाप पर पुण्य की विजय
असत्य पर सत्य की जीत
अब सिर्फ सियासी नारा है
किताबों के पाठों का
एक मात्र सहारा है.
आज भ्रष्टाचार, आराजकता,
व्यभिचार के जमाने में
जो भी खुश दिखाई देता है
उसका बस एक कारण है
उसने मान लिया है कि
उसका पूजनीय रावण है.
अच्छा विश्लेषण किया है
सुजाता जी बहुत बड़िया लिखा है , बड़िया विशलेश्न और बड़िया भाषा, जल्दी जल्दी लिखिए
बाजार के रावण की तो अभी शुरूआत ही है। थोडे दिनो मे एस एम एस से ही रावण मरेंगे। यह भी कहा जा सकता है कि घर बैठे पसन्द का रावण मारने के लिये रिमोट का लाल बटन दबाइये। तब इस देशी बाजार की हवा निकल जायेगी। मुनाफा अगर ज्यादा है तो 'रावण फ्रेश' वाले भी आ जायेंगे। बस देखते जाइये।
सशक्त लेखन के लिए बधाई।
बाजार का रावण तो हम हर साल जलाते है लेकिन क्या कभी हमने अपने अन्दर के रावण को जलाने की कोशिश की? बड़ा सोचनीय प्रश्न है .. लेकिन आपका विश्लेषण सराहनीय है. बहुत बहुत साधुवाद
अच्छा लिखा, और उससे भी अच्छा कि लिखा,....जारी रहें
कभी होने का मौका मिले, तो रावण हो जाना। मगर राम कभी मत होना।
सटीक!!
आपमे दिखते हुए के पार देख लेने की क्षमता बढ़िया है!!
जारी रखें
आपने बिल्कुल सही ढंग से "रावण-दर्शन" किया है। सचमुच लोगों की जितनी भीड़ "रावण" के दर्शन (आतिशबाजी) के लिए लगती है, उतनी देवी-दुर्गा के दर्शन के लिए नहीं।
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