Tuesday, November 27, 2007

पधारो म्हारे देस ......तस्लीमा !!

अचानक यह देश लेखकों ,बुद्धिजीवियों ,कलाकारों के प्रति सम्वेदनशील् हो गया है ।बंगाल में सी पी एम की करतूतों के चलते मार्क्सवाद को गालियाँ पडने लगी हैं [ मार्क्स होते तो बडे शर्मसार होते ] ।नन्दीग्राम में वामपंथियों का बावरापन समझ नही आ रहा । पर ऐसे में भाजपा और संघ को बडा अच्छा अवसर मिला है सेकुलर और पाक दामन साबित होंने का । एम एफ हुसैन पता नही कहा हैं पर तस्लीमा ज़रूर यहाँ दिल्ली में राजस्थानी आवभगत पा रही हैं । मनमोहन और बुद्धदेव के बीच क्या चल रहा है ? शायद समझ आ रहा है । पर जब मोदी भी तस्लीमा को गुजरात मे न्योता दे रहे हों तो लगता है कि तीनों विचारधाराएँ मिलकर लोकतंत्र का बैंड बजा रही हैं । सारे राजनीतिक मुहावरे पिट चुके और परिभाषाएँ झूठी साबित हो चुकी हैं ।
लोकतंत्र एक शासन पद्धति होने से पहले एक जीवन शैली है । लोकतंत्र को जिये बिना चलाया नही जा सकता ।अधकचरी मानसिकता और उपचेतन समाज में दो-चार बुद्धिजीवी नन्दीग्राम को सेज़ बनने या युद्धभूमि बनने और तस्लीमा को निशाना बनाने से रोक पाएँगे ?वह जन जिसके हित मे यह शासन व्यवस्था तथाकथित रूप से काम करती है क्या जनमत -निर्माण के बेहतरीन माध्यमों के उपलब्ध होने के बावजूद जनमत सुनना चाहती है ? क्या यहाँ जन इतना सचेत और प्रबुद्ध है कि वह राजनीतिक क्रीडाओं को समझ सके और निरपेक्ष फैसला दे ?

5 comments:

Ashish Maharishi said...

Good

Anonymous said...
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Batangad said...

लोकतंत्र में सेक्युलर शब्द जितना सांप्रदायिक उपयोग हुआ है। उतना शायद किसी शब्द का नहीं। सबसे सही बात ये कि लोकतंत्र को जिए बिना नहीं चलाया जा सकता।

Reetesh Mukul said...

"मार्क्स होते तो बडे शर्मसार होते" -- बिल्कुल सही पंक्ति है | अपने आप को ये जो भी नाम दे, दरअसल ये मार्क्सवाद ,समाजवाद, हिंदुत्व पर भक्षण करने वाले Parasite है|

रवीन्द्र प्रभात said...

बहुत सुंदर और सारगर्भित , बधाई स्वीकारें !