Saturday, February 16, 2008

पतनशीला पोस्ट ........

कितनी तल्खियाँ ,बेचैनियाँ हैं ...अतृप्त आत्माओं का संलाप- विलाप है ...व्यंग्य के माने समझने मे भी दिमाग में दर्द होने लगा .....दर्द अनरगल होने लगा....झरने लगा ....फेनिल दर्द !! बेदर्दी । हर्ट होने लगा । यू नो व्हेयर ? जस्ट हेयर !! दिल में प्लेन वनीला आइसक्रीम नही । झागदार आइसक्रीम ! ऐसे में हडबडिया पोस्ट ही आयेगी न !बूढे भंगड समझते क्यो नही ![या सब समझ जाते हैं...होपलेसली पतनशील बूढाज़ !!] जलेबी सी बात करते हैं । व्यंग्य का बडा शौक है ? पतन नज़दीक है , देख रखना ।आखिर क्या ज़रूरत थी ? कहना नही आता तो चुप क्यो नही रहते । व्यक्ति और विचार में फर्क नही कर सकते ?गॉन आर द डेयज़ ...जब तुमहारा ज़िक्र था ...पर ...
पर हमसे मतलब ? हमें क्यूँ बहस में कूद फान्द करने की पडी है । अब्बी , बस अब्बी कोई गरिया जाएगा ।आखिर क्या ज़रूरत थी ? कहना नही आता तो चुप क्यो नही रहते । डैम्म.....!! आये मेरी बला से । पर फेनिल दर्द रिस क्यूँ रहा है ? बेतरह !! कब तक ?
खैर छोडो । अपनी पोस्ट ठेलो । शांति से खेलो , खेल जो खेलना है । उबलो नही वर्ना गिर पडोगे ।
अपना तो राजनीति में विश्वास नही । सीधे सीधे लिखे जायेंगे ।आप्को लगती हो राजनीति तो लगा करे । हमसे मतलब ?
ऐसा नही कि नाम लेते डरते हैं हम । पर ये अपना इश्टाइल है । और नाम भी कितने लें । एक हो तो लें भी ।

कुछ सवाल अब भी मुँह बाए खडे हैं लाजवाब हैं । लाइलाज हैं । संगत कुसंगत हो गयी । । पर सवाल अब भी लाइलाज़ !! ।हम नही देखेंगे उन्हें ।कौन क्या है ? हमे क्या ? हमारी बला से। पर अतृप्त आत्माएँ अब भी रुदाली बनी हैं ...और उस पर फेनिल झरझराता , झबराया ,गदराया,फुँफकारता दर्द !!

नोट-- इस पोस्ट का कोई अर्थ नही है । यदि किसी को लगता हो तो लगे , हमारी बला से !!!

Friday, February 8, 2008

स्‍त्री एक पज़लिंग, अनरेलायबल मिस्‍ट्री है?

बिलाग के बाबा लोग और बडका लोग चोखेर बाली को समझ नही पा रहे । यू नो वाय ? अबे ,तिरिया चलित्तर को जब भगवान नही समझ सका तो तू तो आदमी है ; गलतियों का पिटारा , बेचारा । औरत को समझने में पूरी ज़िन्दगी इहाँ उँहा झक मारता रह जाता है ।कमबख्त ! समझ नही आता आखिर चाहती क्या है । पाँयचा दो गिरेबाँ पकडती है । देखो शर्त मानी शांतनु ने और उल्लू बना । बाबा लोग को उनसे बडा हमदर्दी है । क्या है कि एक उत्पीडित मेने सेल बानाय का है अबी , इसी टाइम । बहुत हुआ !पत्नी खाना नही बनाती ? ब्लॉगिंग करती है ? फेमिनिस्म का डर दिखाती है ? एकजुट होकर झण्डा उठाती है ? सम्वाद चाहती है ?? मिस्ट्री बनती जा रही है ? तो उत्पीडित पति मिलें ---- अध्यक्ष ,मेन सेल । ब्लॉग पर आ रही हैं ,चलो आने दिया । जाने इनके पति क्या खाकर जीते होंगे [ब्लॉगिंग से फुर्सत हो तो खाना बनाएँ ! उँह! ] कविता लिखी , लिखने दी ।हमने वाह वाह ही की । विमर्श करने लगी , हमने कहा लगे रहो अच्छा लिख लेती हो । विवाद में पडना चाहा , सो हमने रोका । माने नही , बुरी-भली सुन के मानीं । पाब्लो फाब्लो पढने लगीं । चलो वह भी कर लेने दिया । अब ई का बला है ?? ओह मैन ! विमेन विल बी विमेन आल्वेज़ ! सैड्ड्ड !इतनी आवाज़ उठाकर भी कहती है आवाज़ बुलन्द् करो !
देखो , सीधी बात है ।इतना टाइम नही , सम्वाद फम्वाद , मवाद ,विवाद करने को । शुरु से यही सिखाया गया है - औरत एक मिस्ट्री है , कोई समझ न पाया , ऐसी ही इसकी हिस्ट्री है । इसलिए चाह कर भी इसके पास नही गये कभी डर से । हनुमान जी को याद किया । जब पास आये तो मुकाबला कर लेंगे इस मर्दानगी के अहसास से आये । वह कभी नही बोली ।खुल के बोलती ही नही हमारी तरह ;कैसे समझें । बोलने का कल्चर ही नही मिला ! तो टाइम बर्बाद करने का नही ।
वैसे भी इन्हें कभी संतोष नही होने का ।ये नया शगल कर देखने दो । स्त्रियाँ ही पढें , वे ही लिखें । उनकी दुनिया उन्हें मुबारक।तुम वहाँ मत जाना । जाने क्या चक्रव्यूह रचा है । एक बार कह दिया , हम साथ हैं सार्थक सम्वाद चाहते हैं तो गला पकड लेंगी । करना रोज़ सम्वाद । हम ताली बजाएँगे, तुम गाल बजाना । ओके ।
कबीर ने भी कह दिया है वही जो हम कह रहे हैं
"नारी की झाँई परत अन्धा होत भुजंग " साँप तक अन्धा हो जाता है हम तो....
वह महाठगिनी है । हमसे पूछो ।आस्क मेन ।जाना ही है पास तो सचेत जाओ । एजेन्डा साफ हो ।

Tuesday, February 5, 2008

ब्लॉगिंग और पाब्लो नेरुदा पढने में कोई फर्क नही है ....

शॉपिंग के लिए जाती औरतें ,करवाचौथ का व्रत करती औरतें , सोलह सोमवार का उपास करती औरतें , होली पर गुझियाँ बनाती औरतें , पडोसिन से गपियाती औरतें -- अजीब नही लगतीं । बहुत सामान्य से चित्र हैं । लेकिन व्रत ,रसोई,और शॉपिंग छोड कर ब्लॉगिंग करती या पाब्लो नेरुदा पढती औरतें सामान्य बात नही । यह समाजिक अपेक्षा के प्रतिकूल आचरण है। आपात स्थिति है यह । ब्लॉगिंग और नेरुदा पति ही नही बच्चों के लिए भी रक़ीब हैं । यह डरने की बात है । अनहोनी होने वाली है । सुविधाओं की वाट लगने वाली है । स्त्री क्यो इतना डराती है ? पहले ही समाज कितना डरता है ?यदि उसने अपनी असंख्य सम्भावनाओं को एक्स्प्लोर कर लिया फिर क्या वो बन्ध कर रहेगी एक परिवार ,पति प्रेमी से ? फिर क्यों पकवान बना बना तुम्हें पेट के रास्ते रिझाएगी ?उसने आइना ढूंढ लिया तो अनर्थ हो जाएगा । डरो ,डरो ,स्त्री से । उसका डर ही तुम्हे हिंसक बनाएगा । क्योंकि तुम उसे नही बान्ध पाए तो तुम्हे बन्धना होगा ;वह तुमसे ऊंचा उडने लगेगी ।उसे अपनी जगह ,अपना कमरा , अपना आउटलेट मत दो । अपना कुछ मत दो । सम्पत्ति भी नही ,संतति भी नही । एक म्यान में दो तलवारें कैसे भी नही रह पाएँगी । सृष्टि का आधार नष्ट हो जाएगा ।
उसे समझाओं ....ब्लॉगिंग सिर्फ कृष्ण प्रेम की कविताएँ चेपने के लिए है ,रेसिपी लिखने के लिए है ,विमर्श करने के लिए नही । किताबें सिर्फ पढने के लिए हैं ,उनसे ज़िन्दगी नही चलती । इसके लिए किताबी दुनिया और असल दुनिया में अन्तर बढाओ , फासले पटने मत दो । तुम समझते नही हो , दिस इज़ अ सीरियस मैटर ।

Monday, February 4, 2008

घास बस मेरी तरह है...

बहुत कुछ अलग है हर स्त्री में । फिर भी अनुभवों का एक अन्धेरा कोना सभी का एक सा है।इसलिए तो सीमाओं के पार भी एक संसार है जो सीमातीत है ।पाकिस्तानी कवयित्री - किश्वर नाहिद की यह कविता बहुत प्रभावित कर गयी । सोचा क्यो न आप लोगो से इसे बाँटा जाए।

घास भी मेरी तरह है-
पैरों तले बिछ कर ही पूरी होती है
इच्छा इसके जीवन की ।
गीली होने पर, क्या होता है इसका अर्थ?
लज्जित होने की जलन ?
या आग वासना की?

घास भी मेरी तरह है-
जैसे ही यह होती है सिर उठाने योग्य
आ पहुँचता है कटाई करने वाला,
उन्मत्त ,बना देने को इसे मुलायम मखमल
और कर देता है इसे चौरस।

इसी तरह मेहनत करते हो तुम
औरत को भी चौरस करने की ।
न तो खिलने की इच्छा पृथ्वी की,
न ही औरत की ,मरती है कभी ।

मेरी बात पर ध्यान तो,वह विचार
रास्ता बनाने का ठीक ही था।
जो लोग सह नही पाते हैं बिगाड
किसी परास्त मन का
वे बन जाते हैं पृथ्वी पर एक धब्बा
और तैयार करते हैं रास्ता दमदारों के लिए-

भूसी होते हैं वे
घास नही ।
घास बस मेरी तरह है ।

अनुवाद-मोज़ेज़ माइकेल

कहती हैं औरते -सं -अनामिका ,साहित्य उपक्रम ,इतिहास बोध प्रकाशन ,2003