प्रशांत की पोस्ट "प्रेम करने वाली लड़की जिसके पास एक डायरी थी" पढकर सहसा मन मे आया कि वाकई हर लड़की के पास एक ऐसी लिखी-अनलिखी डायरी ज़रूर होती है जिसे वह अपने प्रेमी-पति-निकटस्थ से छिपाती है।यूँ यह व्यक्तिगत स्पेस का मामला माना जा सकता है क्योंकि यह कतई ज़रूरी नही कि हर व्यक्ति अपनी डायरी को सार्वजनिक करना,या कम से कम कुछ दोस्तो के साथ बांटना ही चाहे।यह उसका अपना इलाका है और मनोविज्ञान की माने तो मानव मन की कई ऐसी परते हैं जिसके बारे मे वह खुद भी बहुत नही जानता तो दूसरे तो क्या ही जानेंगे।मै क्या और कितना बताना चाहती हूँ यह तय करना मेरा अधिकार है ,सही है।
लेकिन बात मै कहीं और भी ले जाना चाह्ती हूँ।
चूँकि "डायरी" हिन्दी लेखन की एक अलग विधा है सो इतना तो तय है कि किसी व्यक्ति की नितांत निजी अभिव्यक्तियों में कुछ ऐसा ज़रूर है जो डायरी लेखन को एक विधा का दर्जा दिलाता है।बाहर की दुनिया में देखे गए ,भोगे गए अनुभवों की कोई व्यक्ति कैसी व्याख्या करता है और उस व्याख्या मे उसके अपने जीवन के भोगे गए ,देखे गए यथार्थ क्या भूमिका अदा करते हैं यह जानना बहुत दिलचस्प हो सकता है।और अक्सर उपयोगी !
वह डायरी जहाँ कोई लड़की अपने राज़ छिपाती है वह अप्रत्यक्षत: उसके समाज ,उसके परिवेश,उसके समय और उसकी मन:स्थिति की आलोचना के लिए पुष्ट आधार बन सकते हैं।ठीक वैसे ही जैसे सपना की डायरी या आज से लगभग एक शताब्दी पूर्व लिखी गयी दुखिनी बाला की जीवनी।
अब मै यह सोचती हूँ कि हम जब खुद को छिपाना चाहते हैं तो उसके पीछे की मानसिकता क्या है ? क्या हम एक विशिष्ट छवि को बरकरार रखना चाहते हैं? और नितांत निजी डायरी शायद दुनिया की नज़रों मे आपको पतनशील ,बागी , बेवफा ,बे ईमान ,कायर ,पागल या ऐसा कुछ लेबल दिलवा सकती है जिसके कारण आपकी बनाई छवि , अपेक्षित छवि टूट सकती है और आपका सीधा सपाट चलता खुशहाल(जो शायद प्रतीत ही होता है)जीवन नष्ट हो सकता है।
ऐसे मे भी मुझे लगता है कि बाहरी दबाव डायरी लिखने और फिर उसे छिपाने के पीछे काम करते हैं , ऐसा कतई नही है कि कोई व्यक्ति चूँकि एक निरपेक्ष जीव है इसलिए वह यह प्राइवेसी चाहता है।इस मायने मे पर्सनल जो भी है वह दर असल पॉलीटिकल है।
इस या उस ब्लॉग पर लिखते हुए भी किसी का दिमाग यदि सावधान दिमाग है तो वह खुद ब खुद शब्दों,वाक्यों,घटनाओं मे एक ऐसा फिल्टर लगा देगा कि जो सामने आए वह वही हो जो वह चाहता है कि आए।शायद कुछ मानक हैं ,कुछ मापदण्ड जिसके अनुसार हम अपनी हर एक पोस्ट सम्पादित करते हैं और वही दिखाते हैं जो दिखाना ठीक हो मानको के अनुरूप।ये मानक कौन तय करता है? समाज !
लेकिन मानव मन की यह चालाकी क्या हर बार काम करती है ? कहीं न कहीं लाइनों के बीच का अनलिखा दिख जाता है और ताड़ने वाला दिमाग उस महत्वपूर्ण अनलिखे को समझ कर नृतत्वशास्त्र ,समाज्रशास्त्र,साहित्यशास्त्र,सबॉल्टर्न इतिहास जैसे महत्वपूर्ण ज्ञान शाखाओं के लिए अमूल्य अवदान दे जाता है।
मै सचमुच चाहती हूँ कि प्रेम करने वाली उस लड़की की डायरी मै पढ सकूँ और जान सकूँ कि वह सरल लड़की कैसे बनाई गयी थी,खुद को छिपाना उसे कैसे सिखाया गया था ,उसकी सामाजिक कंडीशनिंग किस तरह हुई थी और प्रेम को लेकर उसकी अवधारणा अपनी थी या समाज की दी हुई?जो भी हो मै उम्मीद करना चाहती हूँ कि प्रेम करने वाली लड़की अपने परिवेश परिवार और समाज के दबावों से मुक्त होकर प्रेम करे और उसकी डायरी सामाजिक लर्निंग के विखण्डन की प्रक्रिया की ओर उसे ले जाए ..इस तरह से डायरी लिख लिख कर छिपाने की उसे ज़रूरत न रह जाए और कभी अचानक हाथ लग जाने पर उसकी डायरी सपना की डायरी की तरह सन्न ,अवाक कर देने वाली न हो।
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14 comments:
Great!!
kamobash yahee isee se milte-julte khyaal mujhe bhee aaye the.
अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि ऐसी diaris में जादा कुछ नही होता, बस अपने निजी अनुभव, अपने ढंग से देखी दुनिया का बखान| अत्यन्त निजी बातें शायद ही कोई diary में लिखता हो, उसके लिए मन कि परतें महफूज जगह होती हैं|
वाह ! बहुत ही अच्छा लगा आपका यह आलेख.
मुझे लगता है स्त्री हो या पुरूष किसी के लिए भी डायरी नितांत ही व्यक्तिगत ,अनुभूतियाँ या सोच का अभिव्यक्त रूप होता है और उसके लिए वह लगभग वैसा ही होता है जैसे अपने ही शरीर का वह अंग जिसे वह सार्वजनिक रूप से उघाड़ नही सकता.
हर लड़की के पास एक ऐसी लिखी-अनलिखी डायरी ज़रूर होती है जिसे वह अपने प्रेमी-पति-निकटस्थ से छिपाती है।
bahut sundar pryas hae....aur aapka apna ek style bhi hae....
डायरी हाथ लगी थी-सब सफेद पन्नों पर सफेद हर्फों में ही दर्ज था. पूछने पर पता चला कि उन्हें हर्फ नहीं, अहसास कहते हैं. पुरुष की नजर लिए हूँ अतः पढ़ न पाया. शायद आपके हाथ लगे तो आप पढ़ पायें.
क्या अब भी लोग पुरानी वाली डायरी जैसा कुछ लिख रहे हैं ?
अनामिका जी एक कविता है" स्त्रिया"-
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।
सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।
हे परमपिताओं,
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!
मेरे एक अदने से पोस्ट को पूरी पोस्ट में बदलने का शुक्रिया.. मेरे उस पोस्ट में मैंने कुछ भी नहीं चिपाया.. किसी मित्र जो प्रेम में होती है उसके पास अक्सर एक डायरी देखता रहा हूं.. मगर दूसरी तरफ जो लड़की किसी के प्रेम में नहीं होती है उसके पास डायरी होने का अनुपात कम होता है.. मन में कई बार ये इच्छा होती थी और है भी कि उसकी डायरी पढ़ सकूं.. बस इन्हीं बातों को शब्दों में उतार दिया..
जहां तक ब्लौग का सवाल है.. मैं इसे पर्सनल डायरी नहीं मानता हूं.. खासकरके हिंदी ब्लौग.. अंग्रेजी में फिर भी यह चल सकता है क्योंकि उसमें अनगिनत ब्लौगों की भीड़ में अपनी पहचान छुपाना बहुत आसान काम है, मगर हिंदी में यह अभी भी संभव नहीं है.. उस दिन के इंतजार में हूं जब किसी फेक प्रोफाईल से भी ब्लौग लिख सकूं और फिर भी कोई अनुमान ना लगा सके कि मैं कौन हूं..
प्रशांत सही कहा , हिन्दी मे अभी यह सम्भव नही।
स्वप्नदर्शी जी , धन्यवाद।
शाश्वत जी,
मै पोस्ट मे यही कहना चाहती थी कि हर डायरी मे दर्ज केवल निजी नही होता, मनुष्य़ सामाजिक प्राणी है और उसका हर निर्णय हर इच्छा और हर दमित इच्छा भी समाज के बीच होने के कारण है तो डायरी एक एसा डक्यूमेंट बन जाता है जिसमे एक व्यक्ति की आँख से देखा समझा गया समय दर्ज रहता है।और यह व्यक्ति गाँधी जैसा व्यक्ति हो जिसके सामने जीवन इतने विशद कैनवास पर बिखरा हो तो वह और भी महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हो जाता है।
रंजना जी , इरशाद जी धन्यवाद!
अनुराग जी कविता के लिए आभार !
समीर जी , डायरी शायद वर्चुअल हो ,आप गूगल मेक्यों नही ढूंढते।
अरविन्द जी ,
पुरानी को परिभाषित तो कर दीजिए ।
अब डायरियों का मौसम आयौ रे भैया !
ऐसे ही एक फूलन हुई थी
बिना लिखे डायरी/ब्लॉग
उसकी जिंदगी फिल्म बन गई।
ब्लॉग तब होता नहीं था
होता भी तो फूलन को
कीबोर्ड चलाना नहीं
ट्रिगर दबाना आता था।
सच। डर लगता है
जो निडर हैं उनसे।
post pdhi or apni likhi kai daires yaad bhi aagayi.mujhe lagta hai hum dairy likhte hai or bakhubi use chipate bhi hain lekin humare man me hota hota hai kash ise koi pdhle or bina sawal-javab ke hume jaan le.ya kash koi hota jise hum nyi purani sb daires pdha sakte
’एक कैंसर विजेता की डायरी’ का छोटा सा अंश मैंने चोखेर बाली पर पढ़ा। उसमें अनराधा ने जो कुछ लिखा वो भी कुछ कम साहस का काम नहीं है। मेरे अपने मन में आत्मकथा लिखने की जो इच्छा बार-बार सर उठाती है, अनुराधा की डायरी के छोटे से अंश से ही उसे काफी बल मिला है। अगर ईमानदारी से लिखी जाएं तो मुझे डायरी और आत्मकथा में ज़्यादा फर्क नहीं लगता। तसलीमा नसरीन का तो शायद आधे से ज़्यादा लेखन डायरी, आत्मकथा या संस्मरण ही है। रजनीश या राजेंद्र यादव के जीवन की जो बातें सार्वजनिक हैं उन्हें ही लोग नहीं पचा पाते अगर ये डायरी लिखते तो क्या होता !
http://joshikavi.blogspot.com/2009/01/blog-post_14.html
करती नींद हराम डायरी ।
कैसी है हे राम! डायरी ॥
करते जो हालात कराता
कुछ ना आए काम डायरी ॥
वह लिखने में कब आता है
जो देती अंजाम डायरी ॥
नहीं दीखती जिनको मंजिल
उनके लिए मुकाम डायरी ॥
ज्यादातर को गुठली भर है
कुछ के खातिर आम डायरी ॥
राजा भोज साफ़ बच जाते
गंगू को इल्ज़ाम डायरी ॥
दुनिया की डायरियाँ झूठी
सच जो लिक्खें राम डायरी ॥
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