Tuesday, April 27, 2010

बच्चे हमारे खेत की मूली नही हैं !


















खुला बड़ा मैदान हो , घास हो , मिट्टी हो और दो चार बच्चे ...अब उन्हे किसी की परवाह नही ..वे मुक्त हैं ,उनकी दुनिया किसी वयस्क का उपनिवेश नही है , वे अपने नियम खुद बनाएंगे , खुद ही फैसला सुनाएंगे ..वे मिट्टी मे लोट पोट होंगे ...आप डपटते रहिए..वे आनन्द के गोते लगाएंगे ..आप झरने से बहते कल-कल पानी ,हवा मे झूमते पेड़ों की ताली बजाती पत्तियों और बुलबुलों के कलरव का सा आनन्द लेंगे उनके इस आनन्द भरे खेल मे।
लेकिन यह भी सपने जैसा लगता है।महानगरों में बच्चों के खेलने की जगहें लगातार कम हो रही हैं , मॉल बढ रहे है।जो पार्क हैं भी वे या तो बूढों के अड्डे हैं या जवानों ने सुबह शाम वॉक के लिए कब्ज़ा लिए हैं।बच्चों के लिए चेतावनियाँ लिख दी गयी हैं - साइकिल चलाना मना है , गेन्द लाना मना है , पकड़े जाने पर जुर्माना ...छोटे छोटे बच्चे सड़क पर क्रिकेट खेलें या साइकिल चलाएँ क्या ?
खेलना बच्चों के लिए ठीक वैसे ही ज़रूरी और नैसर्गिक क्रिया है जैसे कि भूख लगने पर भोजन करना।और जो अनुभवी हैं वे जानते हैं कि खेलना बच्चों को खाने से भी अधिक ज़रूरी और प्रिय दिखाई पड़ता है।खेल का समय बच्चों का वह स्पेस है जो बड़ों की दुनिया मे किसी भी तरह उन्हे हासिल नही होता।प्रकृति के समीप होना , आस पास को जानना , भावनात्मक , समाजिक और शारीरिक विकास के लिए 'खेलना'एक बेहद ज़रूरी बात है जिसे तमाम शिक्षाविद, समाजशास्त्री, बाल विशेषज्ञ बार बार कह चुके।शिशु-शिक्षण प्रणालियों में किंडरगार्टन और मॉंन्टेसरी पद्धति सभी मे खेल के द्वारा सीखने पर ज़ोर दिया गया।खेल मानवीय विकास का बेहद नैसर्गिक और बेहद सामान्य तरीका है।

बाहर खेलने की जगहें और अवसर ही नही रहेंगे तो बच्चे अपने आप टी वी , कम्प्यूटर जैसे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की ओर रुख करेंगे।इसका एक बड़ा कारण शिक्षा और खेल पर बराबर ज़ोर न होना भी है । कितने स्कूल खेलने के लिए छोटे बच्चों को रोज़ के टाइम टेबल मे जगह देते हैं।नर्सरी का बच्चा भी पूरा दिन कक्षा मे बन्धक की तरह बिठाया जाता है। खिड़की से बाहर झाँकने और पढने के घण्टे में तितली पकड़ने मे मस्त होने पर बुरी तरह लताड़ा जाता है, दोस्त बनाने की कोशिश में शिक्षक की झिड़कियाँ खाता है , उस नन्हे आज़ाद पंछी को लगातार 'चुप' रहने को कहा जाता है।उन्हे खेलने दीजिए , बढने दीजिए ..नही तो वे कुण्ठित हो जाएंगे ।कैसे इन्हे समझाएँ कि स्कूल को जेल मत बनाईये जहाँ खेलने का समय बचाने के लिए बच्चा अपना टिफिन छोड़ दे और दिन भर भूखा रहे ।प्राण जाए पर खेल न जाए !
ऐसे मे यह महसूस होता है कि शिक्षा के अधिकार से भी ज़रूरी बाल- अधिकार 'खेलने का अधिकार' है जिसे हम बच्चों से छीन रहे हैं। राजेश जोशी की कविता 'बच्चे काम पर जा रहे हैं 'एक और दर्दनाक पक्ष दिखाती है।यहाँ वे बच्चे हैं जो किसी भी अधिकार से वंचित हैं , दर असल वे बचपन से ही वंचित हैं । वे असमय प्रौढ हो जाने को अभिशप्त हैं।खेल -कूद की उम्र मे काम पे जाना और पढने की बजाए गाहक को रिझाना सीखना उनके साथ वह अमानवीय अत्याचार है जिसे रोकने मे राज्य और समाज दोनों ही नाकाबिल साबित हुए हैं।

किसी भी समाज और देश का भविष्य इससे तय होता है कि वह अपने बच्चों ,भावी नागरिकों के साथ कैसे पेश आता है।बच्चे हमारे खेत की मूली नही हैं ! उन्हे उनका बचपन नही मिलना इस बात का संकेत है कि हमें हमारा भविष्य नही मिलेगा !

16 comments:

Rangnath Singh said...

'खेलने का अधिकार'... नया आइडिया है।

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

honesty project democracy said...

देश और सामाजिक स्थिति का सजीव चित्रण करता हुआ एक विचारणीय रचना के शानदार प्रस्तुती के लिए धन्यवाद / ऐसे ही विचारों के सार्थक प्रयोग ब्लॉग के जरिये करने से ही ब्लॉग को सशक्त सामानांतर मिडिया के रूप में स्थापित करने में सहायता मिलेगा / हम आपको अपने ब्लॉग पोस्ट http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/04/blog-post_16.html पर देश हित में १०० शब्दों में ,विचार व्यक्त करने के लिए आमंत्रित करते हैं / उम्दा विचारों को हमने सम्मानित करने का भी प्राबधान कर रखा है / पिछले हफ्ते उम्दा विचार व्यक्त करने के लिए अजित गुप्ता जी सम्मानित की गयी हैं /

सुजाता said...

रंगनाथ जी ,
दिल्ली बाल अधिकार आयोग ने स्पष्ट कहा है कि पार्कों मे खेलने से रोकना बच्चों के 'राइट टू प्ले' के उल्लंघन है।सम्विधान के अनुच्छेद 39(एफ)के तहत स्थानीय निकाय बच्चों को पार्क मे खेलने से नही रोक सकते।यह बच्चो के मौलिक अधिकार का हनन है।

इससे भी बुरा है कि स्थितियाँ ही ऐसी बना दी जाएँ कि बच्चे खेल ही भूल जाएँ !नन्हे-मुन्नो के बस्ते कई किलों के हों , कुछ बच्चे काम पर जाते हों, खेलने की जगहें ही न बचें , आस -पास मॉल ही मॉल खड़े हों ...तो बेचारे बच्चे मौलिक अधिकार का क्या तेल डालेंगे !

सुशील छौक्कर said...

आपने एक सही विषय को उठाया है। इस बात का अहसास मुझे भी हुआ तब जब मेरी बेटी बच्चों के साथ खेलने को बहुत मचलती थी। हमारे इधर बाहर खेलने को कुछ भी नही है। एक जमुना में खेतो की जगह है पर वहाँ वो नही जाती थी। जब कोई बच्चा हमारे घर आता था तो उसके जाने पर खूब रोती थी। फिर यह सब देखकर मैंने एक स्कूल में बेटी का नाम लिखा दिया जहाँ वो बच्चों के साथ खूब खेले। और उसने कभी भी स्कूल जाने के लिए मना नही किया। वो बताती है पापा स्कूल में खेलने के लिए पार्क है। और मैं अपने फ्रेंड के साथ खूब खेलती हूँ। पर खेलने के लिए पार्क होने की किसे चिंता है। बस जिसे देखो वही खाली जगह को बेचकर पैसा कमाना चाहता है। और सरकार के बनाए पार्क की हालात कैसी होती है आप जानती ही है। सच तो ये है कि हम कंक्रीट के जगल बनाकर तरक्की की मिसाल देना चाहते है। अक्सर मेरे दिमाग में ये ख्याल आता है कि हम सब अपने बच्चों को बहुत प्यार करते है और् उनके लिए पता नही क्या क्या करना चाहते है। पर अपने बच्चों के लिए रहने के लिए स्वच्छ वातावरण देने के बारें में कुछ नही सोचते है। कैसा प्यार करते है हम?

M VERMA said...

सुन्दर विचार
शिक्षा के अधिकार से शायद ज्यादा जरूरी है 'खेलेने का अधिकार'.

दिलीप said...

bahut hi sundar vichar saamne rakha...

http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

Richa said...

ek dum sateek baat kahi hai aapne...

अजित गुप्ता का कोना said...

सुजाता, बहुत अच्‍छा लिखा है। बधाई।

सुजाता said...

पोस्ट को पसन्द करने के लिए सभी का धन्यवाद!

Alpana Verma said...

शीर्षक पढ़ कर आई.

विषय गंभीर उठाया है,बच्चों के सम्पूर्ण विकास के लिए उन्हें खेलने के लिए भी प्रयाप्त समय देना ज़रूरी है .

Anonymous said...

खेलों से वंचित नई पीढ़ी सामाजिक और मानसिक रूप से कितनी स्वस्थ्य होगी? जब नीव ही खोखली हो तो ईमारत कमज़ोर होनी ही है. ऐसे बच्चे बीमार शरीर और मानसिकता के साथ जीने को मजबूर होंगे. ये जल्दी बूढ़े होंगे और जब तक जियेंगे दिल की बीमारी, अस्थमा, मधुमेह, मोटापे, डिप्रेशन, शिजोफ्रेनिया, कमज़ोर लीवर और गुर्दे जैसी आधुनिक बीमारियों को ढोते रहेंगे. यह सायबर युग का अभिशाप है, जिसे वर्तमान और आने वाली पीढियां भुगतेंगी.

kunwarji's said...

अल्पना जी ने तो मेरे हिस्से की बात भी कह दी जी!

आपका धन्यवाद है जी!

कुंवर जी,

बवाल said...

आपने सही फ़रमाया जी-
के बच्चे हमारे ख़ेत की मूली(कड़वे)नहीं हैं बल्कि
गाजर(मीठे) हैं।
और मीठी चीज़ों से कड़वा व्यवहार जाएज़ नहीं है।

ePandit said...

एकदम सही मुद्दा उठाया आपने, सचमुच आजकल के बच्चों से उनका बचपन छीनकर जीवन मशीनी बना दिया जा रहा है।

अर्चना said...

"बाहर खेलने की जगहें और अवसर ही नही रहेंगे तो बच्चे अपने आप टी वी , कम्प्यूटर जैसे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की ओर रुख करेंगे।" बिल्कुल सही बात है....