पिछले दिनोँ आलोक जी की कविता ‘भागी हुई लडकियाँ ’ बहुत चर्चा में रही । कारण था असीमा की आप-बीती का प्रकाशन जिसमें अलोक जी के कवि हृदय और व्यक्तित्व में अंतर्विरोध देख कर दुख हुआ ।किसी निर्णय पर पहुँचना नही है मुझे न इतनी औकात है मेरी ।इस विषय पर पहले ही लिख चुकी हूँ ।लेकिन बहुत उत्सुकता थी आलोक धन्वा की कविता “भागी हुई लडकियाँ ”पढने की ।अभय तिवारी जी ने वह इच्छा पूर्ण कर दी ।उन्हे धन्यवाद!
कविता पढने के बाद वह अधूरी सी लगी । एकतरफ़ा ।शायद एक स्त्री-स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर कवि को लडकियोँ के भागने में क्रांतिधर्मिता का दर्शन होता हो जो समाज की संरचना मेँ आमूल-चूल परिवर्तन के बहुत प्रारम्भिक संकेत होँ ।महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के ‘कविता क्या है’ सम्बन्धी लेख से असंतुष्ट होकर आचार्य शुक्ल को फिर से लिखना पडा था “कविता क्या है”।न मै आचार्य शुक्ल हूँ न आलोक जी द्विवेदी हैं ;उनके आस पास भी कही नही ठहरते हम शायद इसलिए आलोक जी से असंतुष्ट होने का जोखिम लिया जा सकता है । ऐसे में “भागी हुई लडकियाँ ”का दूसरा भाग बहुत कम चेष्टा से ,रच दिया है। अ-कवि [अप्रतिष्ठित औत स्त्री :) ]की कविता शायद ऐसी ही हो सकती होगी |
और एक तरफ़ा शायद यह भी है । इसलिए दूसरा भाग कहा है ।यह सचमुच की भागी लडकियां है रतजगो में भागी नही।
तो एक पक्ष यह भी -----
आलोक धन्वा को समर्पित , क्योन्कि उन्ही की कविता से प्रेरित है यह कविता ।
*****
भागी हुई लडकियाँ
कडे जीवट वाली होती हैं
जीती हैं
मौत को शर्मसार करतीं ।
यूँ भी जब तक
गर्भ् में ही मार न दी जाएँ
मरती नही लडकियाँ
आसानी से।
कडी जान होती हैं।
भागी हुई लडकियों के सामने
नही होते विकल्प ।
उनके रास्ते वेश्यालयों तक जाकर
बन्द होते हैं हमेशा के लिए
और भागने के बाद
झरोखे से झाँकने की भी नही रहती हकदार !
उजाले के सफेद पुरुषों को
रात के ग्लानिमय अन्धेरे में
अपनी चूहों,झींगुरों से अटी पडी मैली कोठरी में ,एक के बाद एक
देती हैं राहत ।
भागी हुई लडकियों को
बेच जाते हैं उनके प्रेमी
दलालों द्वारा बलत्कृत होने और्
तब्दील होने
एक रंडी में ।
एक निर्विकल्प दुनिया
खिंच जाती है
चारो ओर ।
खरीदारों के हाथ किसी मवेशी की तरह
टटोलते हैं उनकी देह
और लगाते हैं कीमत ।
*** बज़ारू, बेआबरू
मानते है जिन्हे;
आश्चर्य ! !
वे भी पालती हैं भ्रम इज़्ज़त के
और मुँह सिए पडी रहती हैं
सीले कोनों में रोगों से अटी देह लिए ।
वे नही कहना चाहतीं अपनी पीडा
शर्मिन्दगी के घृणित,कुत्सित पल
नही बांटना चाहतीं।
तीस के बाद
बुढाने लगती हैं तेज़ी से
इसलिए
उनकी लडकियाँ
[जिन्हे भागने की नही पडी
ज़रूरत] ज्ल्दी-जल्दी होने लगती हैं बडी
सीखने लगती हैं हुनर ।
****
घर के भीतर्
शौचालय-सा शहर में वेश्यालय है।
रसोई-सा पवित्र नही पर उससे अहम
जहाँ से निवृत्त्त होकर
पाक-मना
परिवार-संरचनाओं के मुखिया
लौटते है।
फर्क यह है
इन्हे कोई अपना नही कहता सार्वजनिक शौचालय की भाँति ।
जिन्हे गन्दगी छोडने के बाद
अपनी,साफ करने
कोई नही आता ।
****
सीधे-सादे-भोले लोग
सोचते हैँ
भागी हुई लडकियाँ
आत्महत्या क्यों नही कर लेतीं?
मौत से बदतर ज़िन्दगी से
खुद मौत ही बेहतर नही ?
ये सीधे, भोले लोग
समझते क्यों नही
भागी हुई लडकियों के
लौटने के दरवाज़े
ये खुद ही
बन्द कर चुके हैं।
इन्होने बदल दिया है
कोठो को
वॉल्व में ,
भागी हुई लडकियों को रंडियों में,
हत्या को
आत्महत्या में।
।
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26 comments:
[चुप्प]
चुप्प क्यों ?
बहुत खूब लिखा है आपने । रौंगटे खड़े करने वाले सच को बिना किसी लीपा पोती के आपने प्रस्तुत किया है ।
घुघूती बासुती
एक बहुत बड़ा कड़वा सच, बड़े बेबाक तरीके से कहा गया ऐसे कि दिल को झकझोरता चला गया!
ये सीधे, भोले लोग
समझते क्यों नही
भागी हुई लडकियों के
लौटने के दरवाज़े
ये खुद ही
बन्द कर चुके हैं।
इन्होने बदल दिया है
कोठो को
वॉल्व में ,
भागी हुई लडकियों को रंडियों में,
हत्या को
आत्महत्या में।
..................वास्तव मे..रोगटे खड़े कर देने वाला सच...नगाडे की भाँति बजते एक एक शब्द...ऐसी रचनाये लिखने के लिये गज भर का कलेजा चाहिये..यथार्थ है..महज एक कल्पाना भरे शब्द नही.
सादर,
आप नाप लीजिये । इनका कलेजा गज भर से कम नहीं होगा।
अगली कविता
सरोज स्मृति पार्ट टू और अगला उपन्यास राग दरबारी पार्ट टू गढ़ दीजिए । जाता क्या है। उल्टी करने में सिर्फ मुह ही तो फाड़ना पड़ता है।
अपने भीतर कै रखने वाले anonymous को मरचा लग गया ।
कन्चन,घुघुती जी,विजेन्द्र विज जी शुक्रिया ।यह वाकई सच है ।कई शोध यह दर्शाते हैं कि वश्याओं में बहुत बडी सन्ख्या भागी और भगाई गयी लडकियों की है ।शोध यह भी दर्शाते हैं कि भागी हुई लडकियों का अक्सर हश्र यही होता है ।समय मिलने पर इस विषय पर और लिखने का इरादा है ।अनाम भाई का उत्तर देना मूर्खता होगी ।
अब बस कुछ कहने के लिये रहा ही नही...
अच्छी बात है कि भाग -२ रूमानी नहीं लग रहा.. सच्चाई सा खुरदुरा और कड़वा कसैला.. मैंने देखी हैं ऐसी भागी हुई लड़कियां.. मिला हूँ उन से मुम्बई के वेश्याओं के महल्ले कमाठीपुरा में.. एड्स से पीड़ित अपने पहले प्रेमी के लिए सिर्फ़ गालियों से भरी हुई..जिसके साथ भाग के आई थी वो लड़की..अब बूढ़ी हो चुकी है.. पर रहती उसी जगह है..मुझे उसके आगे की अपनी लाचारी नहीं भूलती..भला आदमी कितनी सीमाओं में जीता है.. उसकी मदद करने की भी सीमाएं होती हैं.. वैसा नरक मैंने और जगह नहीं देखा..
आप ने सच लिखा है..
काबिले तारीफ लेखनी. यह लिखना सब के बस में नहीं. बधाई लिजिये.
आपने तो इस पीड़ित हृदय का सारा दर्द ही उड़ेल दिया है।
लेखनी को और धार दीजिये।
मंगल कामनायें
चुप्प
क्योंकि भारी चुप्पी ही सहज प्रतिक्रिया थी।
मुझे आमतौर पर कविता ब्लॉगिंग की विधा नहीं लगती, कम कविताएं चिट्ठों पर पढ़ता हूँ, इसे पढ़ना शुरू किया क्योंकि एक तो तुम्हारा बंधुआ पाठक हूँ, दूसरा शीर्षक रोककर पढ़वाता है। पर पढ़ने के बाद दिल बैठाते सच से सामना होता है।
शुक्रिया लिखने के लिए
sachch!!! badhai
बहुत बढिया कविता ! अनोनेमस भाई की काव्य प्रतिभा को सादर नमन
सुजाता जी!
एक कड़वे सच को पूरी बेबाकी से बयान किया है आपने. बधाई नहीं दे पाऊँगा क्योंकि ये बात बधाई के काबिल हरगिज़ नहीं कि आपको या किसी भी कवि या लेखक को ऐसा लिखना पड़े.
अरे ज़रा जल्दी जल्दी लिखा कीजिये, आज तारीख़ दस हो गई है, अभी तक कोई नया लेख नहीं !
कुछ नया मिलेगा इस बहाने मैं हर रोज़ यहाँ टहले आ जाता हूँ। पर....
थोडी कृपा करें अपने पाठकों पर।
सुजाता जी कविता पढ़्कर रौगंटे खड़े हो गये...नया क्या है सच ही है मगर सच बहुत कड़वा है इसे लिखना भी हर किसी के बस की बात नही...भागी हुई लड़कियों का कोई अस्तित्व नही...एक तरफ़ आईना है और दूसरी तरफ़ आपकी कविता जो आईने की तरह साफ़ है...
सुनीता(शानू)
भागी हुई लड़कियों की चर्चा आते ही मुझे मंजीत टिवाणा की एक कविता अक्सर याद आती है...
कुछ लड़कियां लंबे रूट की बस होती हैं
जो आस-पास की सवारी नहीं उठातीं।
देव प्रकाश
Good job!
actually, that's brilliant. Thank you. I'm going to pass that on to a couple of people.
Good job!
actually, that's brilliant. Thank you. I'm going to pass that on to a couple of people.
Nice Article.
बेहतरीन व वास्तविक
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