Thursday, September 6, 2007

एक पगलाए वक्त में रस-चर्चा

जब काव्य में रस की बात होती है तो सबसे पहले रसराज श्रृंगार [आम भाषा में प्रेम –और उसके भी दोनो पक्ष संयोग और वियोग ] का नाम आता है ।“पृथ्वीराज रासो” की परम्परा के रासो काव्य युद्ध और श्रृंगार के वर्णनों से अटे पडे हैं। यानि वीर और श्रृंगार रस इनमें प्रमुख हैं। श्रृंगार का बखान क्या करूँ, वह हमेशा प्रासंगिक रहेगा और सबका स्वानुभूत भी । युद्ध के वर्णनों में मिलने वाले वीर रस और अन्य दो रस- रौद्र व जुगुप्सा मुझे बात करने को अधिक प्रासंगिक जान पड रहे हैं ।चलिए वीर रस की बात करें।वीर रस की प्रेरक स्थितियाँ होती हैं जब अधर्म , अत्याचार और अन्याय का सर्वत्र बोलबाला हो ।खलनायक के दुराचरण और निर्बलों पर उसका अन्याय वीर रस के नायक को भडकाने और रस की पूर्ण निष्पत्ति में सहयोग देते हैं। ऐसे में जननायक के रूप में खडा नायक वीर रस से स्फूर्त और सद्दुदेश्य से संचरित होता है और उसका वीरतापूर्वक शस्त्र उठा कर शत्रु पर वार करना वीर रस का निष्पादन करता है । ऐसे में रौद्र रस वीर का सहयोगी बन कर प्रकट होता है । रौद्र शब्द अधिकांश लोगों ने शिव के रौद्रावतार या रौद्र रूप के विषय में सुना होगा । रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है [स्थायी भाव माने वे मूल भाव जो आदिम काल से मनुष्य के मन में रहते आये है और रहेंगे ,और अनुकूल अवसर आते ही प्रकट हो जाते हैं] ।यह क्रोध दुराचारी के चिढाने और हरकतों से बाज़ न आने पर वीर नायक में उतपन्न होता है।ऐसे में नायक की क्रोध से आंखे लाल होना, बाँह ,होंठ फडकना ,हुंकार करना, चुनौती देना रौद्र रस का सृजन करते हैं। ये दोनो रस मिलकर युद्ध के वातावरण को सजीव बनाते हैं तो वहीं युद्ध के बाद लाशों और् खून् से लिथडे कटे शरीर ,मरघट सी नीरवता और गिद्धों चीलों का लाशों में से आँख जिह्वा नोच नोच कर खाना ऐसा घृणित वातावरण बनाते हैं जिनसे जुगुप्सा रस की निष्पत्ति होती है माने कै करवा सकने की क्षमता वाला उबकाई भरा वातावरण्।
यह वीरता प्रदर्शन और क्रोध कभी भी निर्बल और शोषित के प्रति नही होता ।उद्देश्य की पवित्रता और धर्म संस्थापना की मंशा से ही होता है। लेकिन अगर क्रोध और बल-प्रदर्शन कमज़ोर के प्रति होने लगे,मानो कंस का मथुरावासियों पर अत्याचार , तो वहाँ क्या रस होगा ;न,न...रसाभास....रसाभाव.....या शायद रसभंग ! रसभंग की ये स्थितियाँ हमें आज हर ओर दीख पड रही हैं ।डारविन के विकासवाद [survival of the fittest] ने यूँ भी प्रतिस्पर्द्धा में निर्बलों के पिछड जाने और सबलों के और और सबल होते जाने को वैज्ञानिक वैधता दे ही दी तो कार् मालिक और चालक के रिक्शेवाले के प्रति असम्वेदनशील होकर जैसे तैसे आगे बढ जाने में अचरज क्या है ? मनों का बोझ लादे असहाय रिकशावाला लाख चाह कर भी जो कुछ नही कर सकता,और उसे भी उसी सडक पर ही चल कर आगे तक जाना है उस पर भी बेसब्र गाडियाँ लगातार “पीं-पीं” चींखती रहती हैं और थूक में चबाई सभ्य गालियाँ उस पर फेंकते हुए सबसे आगे बढ जाती हैं।यहाँ कार मालिक का रौद्र रूप रौद्र रस की खिल्ली सी उडाता लगता है । क्या यह आँखें लाल होना क्रोध से बाँहें फडकना अधर्मी,दुराचारी के कुकृत्यों के कारण है ? यह रौद्र है ? या पागलपन ? शायद पागलपन ही है । ये अतिवादी प्रतिक्रियाएँ और अकारण का गुस्सा जिसमें पगलाया आदमी एक उमा खुराना पर गुस्सा होकर कई निरपराधों के वाहन जला डालता है या सीलिंग के विरोध में सडकों पर उतर आकर पत्थरबाज़ी करता,ट्रकें जलाता है। या कमज़ोर को सामने देखते ही जिसे अचानक अपनी शक्ति का भान हो जाता है जिसके दम्भ में वह सडक पर ही पीट पीट कर किसी की हत्या कर डालता है । या वर्दी का गुंडा “मारो साले को !” कहते हुए प्रशासन की दी हुई बंदूक से, समर्पण को तैयार निहत्थे गुण्डे को भून डालता है । ऐसे लोगो को कौन सा वीर कहा जाए ? युद्धवीर ...दानवीर ... कर्मवीर....दयावीर....। न । न यह वीरता है न यह कोई रस है ।महज़ बल-प्रदर्शन वीरता नही और महज़ क्रोध रौद्र नही ।यह दिमागी बुखार है जिसका कोई वैक्सीन नही ।वर्ना पडोसी के कुत्ते को जान से सिर्फ इसलिए मार डालना कि उसका भौंकना पसन्द नही,या अपनी ही संतान को मार डालना सिर्फ इसलिए कि वह पिता के हिस्से के चिप्स खा गया दुरुस्त दिमागी हालत के लक्षण तो कतई नही हैं ।गरीब परिवारों के बच्चों की बोटियाँ चबाने वाले मोनिन्दर सिंह ही वहशी नही हैं सिर्फ ।यह इस पगलाए वक्त के हर उस आदमी का वहशी जुनून है जिसे अपने हाथ् का डंडा और असहाय की चमडी दीखती है बस ।
तो वीर और रौद्र रस की स्थितियाँ आज सम्भव नहीं । ये दोनो रस रस चर्चा में बहिष्कृत होने चाहिए । ये निहायत अप्रासंगिक हैं । बचा –जुगुप्सा रस । वह निहायत प्रासंगिक है ।निठारी की कोठी के भीतरी नज़ारे को यदि कोई कवि छन्दोबद्ध करे तो जुगुप्सा रस का अब तक का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण बन पडेगा ।भीड के विरोध-प्रदर्शन और पुलिस के शांति-प्रयासों के बाद का सडकों का नज़ारा भी जुगुप्सा रस के लिए मॉडीफाएड स्थिति होगी ।इसे रस भंग कहने वाले मूर्ख होंगे । अब बाकि बचे रसों की बात । हास्य रस् भी श्रृंगार का साथी है और कभी अप्रासंगिक नही होने वाला । करुण रस तो शायद अब रसराज हो जाए क्योंकि सर्वत्र स्थितियाँ इसकी प्रेरक ही हैं । सरकारी-प्रशासनिक अफसरों-गुंडो और आतंकवाद के दौर में भय रस भी अति प्रासंगिक है और वैज्ञानिक –प्रौद्योगिक तरक्की के चलते अद्भुत रस भी यदा-कदा दीख जाएगा । अभी बहुत कुछ अद्भुत होना बाकी है ।भक्ति रस विवादास्प्द रस की श्रेणी में है क्योंकि भक्ति वाले शांत रस और उसके स्थायी भाव निर्वेद में कोई रुचि न रखकर धर्म और राजनीति में अधिक दिलचस्पी दिखा रहे है ।बम-बम भोला में रमते हुए लाठी बल्लम लिए कुश्ती के दाव पेंच भी खेलते रहते हैं । वात्सल्य रस या कहे माता पिता का संतान के प्रति प्रेम –यह भी प्रश्न चिह्नित है ।इसकी प्रतिकूल परिस्थितियाँ वात्सल्य भाव के पुष्टिकरण में बाधा बन रहा है ।केवल कृष्ण की बाल-लीलाओं में आनन्द लेने को जेंडर-बायस कहा जा रहा है ।बालिका-शिशु की अठखेलियों को अभी तक नज़रान्दाज़ किया गया है।
सो नतीजा यह कि सब रसों में वीर और रौद्र रस को छोडकर बाकि सभी रस काव्य में और समाज में अपनी अपनी प्रासंगिकता के लिए अडे है ।रौद्र और वीर को या तो अपना स्वरूप बदलना होगा या मिटना होगा या अप्रासंगिक होना होगा माने सिर्फ किताब तक सीमित रहना ।ऐसी कोई स्थिति समाज में नही होगी जिससे प्रेरित हो कर हम वीर या रौद्र का उदाहरण दे सकें या जिनके आधार पर कवि काव्य लिख सके ।

6 comments:

आशुतोष कुमार said...

itnee neeras rascharcha!

सुजाता said...

उफ़! आशुतोष ,आपने इसे गन्ने वाला रस तो नही समझा था न !

Udan Tashtari said...

अब चाहे रौद्र कहें या पागलपन..मगर आँखे लाल हो चुकी हैं और बाहें भी फड़क रही है..पूरा लेख किसी तरह खत्म करते करते. कोर्स में पढ़ाने के लिये लिखते लिखते यहाँ चैंप दिया क्या?

वीर और रौद्र रस की स्थितियाँ आज सम्भव नहीं । ये दोनो रस रस चर्चा में बहिष्कृत होने चाहिए ।
अब एक नया रस निकला है पकाऊ रस!! सुना है आपने कभी इस बारे में??

वैसे चर्चा महत्वपूर्ण है..वीर और रौद्र रस के उदाहरण ही कहाँ रह गये हैं वरना मैं जरुर लिखता उस पर.

अब आप गद्य संभालिये (यही वाला) और मैं कविता की कोशिश करता हूँ-नये पकाऊ रस पर.

मौज की टिप्पणी है-अन्यथा न लेना. स्माईली ले लें दो ठो. :) :)

Anonymous said...

समीर जी अन्यथा नही लिया ।बस सोचा कि - पकाने का सारा ठेका समीर जी ने लिया है क्या ? हम क्यो‍ नही पका सकते ? सो लिख मारा यह लेख दो दिन लगाकर ! बदलाव के लिए यह अच्छा रहा न!
:)

ghughutibasuti said...

सुजाता जी, लेख पसन्द आया । सभी रसों के बारे में बताने के लिए धन्यवाद । हिन्दी का ग्यान सीमित है । मेरा शब्दकोष जुगुप्सा का अर्थ निन्दा, बुराई, अश्रद्धा और घृणा बता रहा है । क्या आपका भी यही तात्पर्य है ?
घुघूती बासूती

सुजाता said...

हां घुघुती जी ।जुगुप्सा का अर्थ यही है । आपका ’शब्द्कोश’ सही है ’शब्द्कोष’ नही :)