Wednesday, January 16, 2008

..बराबरी मत माँगो वर्ना सम्मान नही मिलेगा .

बात ज़रा कठिन अन्दाज़ से शुरु कर रही हूँ पर है उतनी ही आसान । टॉमस एस कुह्न ने अपनी किताब वैज्ञानिक क्रांतियों की संरचना में प्रतिमान -परिवर्तन का नियम देते हुए कहा - प्रतिमान परिवर्तन का तरीका यह नही है कि विरोधियों को कनविंस किया जाएगा बल्कि यह है कि विरोधी अंत में मारे जाते हैं
बेशक सचमुच में नही । मारे जाने का अर्थ प्रतीकात्मक है :)। काकेश के ब्लॉग पर जो विमर्श हुआ बिना लाग लपेट के कहा गया और टिप्पणियाँ भी अलग से दर्ज की गयीं । घुघुती जी ने करारे और कडे जवाब दिए । बहुत से मेरे मन की बातें कह दीं ।
महिलाओ से सम्बन्धित बातें उठाने और विमर्श करने पर फेमिनिस्ट तो करार दे ही दिया गया है पर इतना समझ आ गया है कि मेरे ,घुघुती जी ,नीलिमा, रंजना ,रचना ,स्वप्नदर्शी व अन्यों को केवल उस पल का इंतज़ार करना है जब स्त्री को देखने के नज़रियों [स्त्री के खुद को देखने और दूसरो की नज़र में भी]में परिवर्तन आने से विरोधियों का नाश हो जाएगा क्योंकि काकेश के यहाँ टिप्पणियाँ दिखा रही हैं कि वे कनविंस होने की स्थिति में तो बिलकुल नही हैं ।
कमाल कर दिया है आदम जी ने तो -

इन बैवकुफ समाज वादी औरतो को भी नहीं पता ये समाज का कितना अहित कर रही है।

एक औरत अपने स्त्री होने का फायदा उठा कर पुरूष से ज्यदा माल बेचती है तब उसे याद नही आती बराबरी

कई बस में सफर कर रहे हो या ट्रैन के टिकट की लाईन हो क्यों इन्हें बराबर नही रखा जाता वास्तव में प्रकृति ने हम सभी को अलग अलग रोल दिये हैं और हमें ये करने होंगे। क्यों बराबर धरती नहीं है कही पहाड तो कही तलाब, क्यों बराबर ऋतु नही हैं। आखिर पुरूष तो बराबरी कर 9 मास तक बच्चे को पेट में नहीं रख सकता।

अगर स्त्रियाँ सम्मान चाहती है तो मेरी राय में रात को 2 बजे शराब पीकर समुद्र पर धुमना सम्मान नहीं दिला सकता इस दौड में कई आज कल धुम्रपान मदिरा पान कर रही है कल क्या वो बराबर होकर पुरूष की तरह बलात्कार करना पसंद करेंगी

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इस समझ का कोई जवाब दिया जा सकता है ? इस तरह की सोच का केवल संहार किया जा सकता है ।
इन्हें कोई बराबरी , खासतौर से स्त्री-पुरुष की बराबरी का मतलब समझा सकता है ?
मैने बार बार कहा है कि बाज़ारवाद ने पितृसत्ता के औजारों और शोषण के तरीकों को और भी महीन और बारीक बनाया है । कुछ ऐसा कि शोषित को खुद पता नही चलता कि उसका शोषण हो रहा है ।वह उसे आत्मसात कर लेता है ।सो , जब औटो एक्स्पो में कारों के साथ खडी हॉट माडलों की खटाखट तस्वीरें पुरुष भीड उतार रही थी , उस समय वह मॉडल खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही थी ।क्यों ? स्त्री के सेक्सी और हॉट होने का पैमाना कौन तय करता है ? कौन तय करता है कि उसका मुख्य काम पुरुष की दृष्टि में सुन्दर और उपयोगी साबित होना है ?
और बराबरी की बात ? वह भी तो पुरुष का ही मान दण्ड है । कैसा धोखा है देखिये । अच्छा , शोर मचा रही हैं बेवकूफ समाजवादी औरतें ,चलो , सोचते हैं ,पर पहले हमारी बराबरी हर फील्ड में कर के दिखाओ । तब हम तुम्हे स्वतंत्रता दे देंगे ।मान लेंगे कि तुम स्वतंत्रता के काबिल हो ।चक दे इंडिया इसलिए बार बार याद आती है । लडकियों की टीम को विश्व कप हॉकी में भाग लेने से पहले अपनी योग्यता साबित करने के लिए पुरुषों की टीम से लडने के लिए कहा जाता है । पुरुष आइना बना खडा है हर ओर । उसी में झाँक कर अपना अस्तित्व साबित करना है । क्यों ?
आदम ने साफ कहा , बराबरी मत माँगो वर्ना सम्मान नही मिलेगा । यह चेतावनी है । यह अन्डरटोन है। और हम अब पढ सकते है अनलिखा, सुन सकते हैं अनलिखा , देख सकते हैं छिपा हुआ । यही तो डर है आदम को भी आदमी को भी पितृसत्ता को भी ।
मैने <पहले भी लिखा था कि बराबरी का मतलब यह नही कि हम एक दूसरे के प्रति असम्वेदन शील हो जाएँ इस तरह कि बस ,रेल,मेट्रो में किसी महिला को असुविधाजनक स्थिति में खडे देख बैठे बैठे यह सोचें कि -हुँह , बराबरी चाहिये थी न ,लो अब खडी रहो और हो जाओ बराबर , हमने तो कहा था कि घर बैठो आराम से। रेप होते चुपचाप देखेंगे या सहयोग देंगे क्योंकि उकसाया तो तुम्ही ने था न ....
भई हमारी बराबरी करने निकलोगी तो सडक पर छेडेंगे,
ऑफिस में फब्तियाँ कसेंगे,
घर में ताने देंगे,
मीडिया मे चरित्र पर लांछन लगायेंगे ,
पुरुष मित्रों को एकत्र कर जीना मुहाल कर देंगे,
फिर भी न मानी तो रेप करेंगे ,
तब तक जब तक कि खुद ही हमारे पहलू में आ कर न गिर जाओं ......और
तब भी बख्शा नही जाएगा , आखिर कैसे बराबरी करने निकलीं । घर में सम्मानित माँ ,बेटी, पत्नी बहन बन कर रहने में क्या बुराई थी ? पर तुम खुद ही चाहती हो कि पुरुष तुम्हें देखें, तुम्हारे पीछे पडें ....तिरिया चरित्र ... भगवान भी नही समझ सका .... पहेली बना देंगे तुम्हे.. अबूझ ... ताकि तुम्हे समझने का दुस्साहस ही न करे कोई ...स्त्रियां सम्मान चाहती हैं तो परिवार के बीच सुरक्षित रहें ..... और वेश्यालयों में जाने वाले ?
पिता ,भाई, बेटे ,पति को अब भी यह मानने में संकोच है कि स्त्री परिवार संरचना के भीतर भी उतनी ही प्रताडित है जितनी कि परिवार संरचना से बाहर । अविवाहित स्त्री को भी नही बख्शते ,विधवा को भी नही, वेश्यालयो को भी नही और पत्नियों को भी नही ।
इसलिए बदलते प्रतिमानों के इस युग में स्त्री-विरोधी समझाने से नही मानने वाले , वे मारे जाने वाले हैं । चाहे इसमें 100 साल और लग जाएँ ।

13 comments:

Rachna Singh said...

agar mera naam sahii karlae ya shamil kar lae to chcha lagega

सुजाता said...

रचना आपका नाम बिल्कुल शामिल कर लिया है । कंटेंट पर भी कुछ् विचार व्यक्त करें ...

काकेश said...

अच्छा रहा आपका विमर्श. मेरा मानना है कि स्त्री को बराबरी मांगनी क्यों पड़े और फिर किससे मांगे. कौन है वो जो ये बराबरी देगा ..क्या पुरुष ?? ये तो पितृसत्तात्मक समाज की अवांछनीय नियति है. तोड़ो कारा तोड़ो ..अब तो तोड़ो ..मत मांगो बराबरी.स्त्री कोई विमर्श की वस्तु नहीं..समाज का एक हिस्सा है ..ना पुरुष से कमतर ना बढ़कर...

Arun Arora said...

हम तो जी यहा समाज के अपने जैसे दबे कुचले लोगो को इकट्ठा करने मे लगे है.जो शाम को अपने घर मे भी डरे सहमे सारी शक्तिया बटोर कर घुसने का साहस कर पाते है...एक फ़ोरम बनायेगे.कि हमे भी घर मे समाज मे बराबर का अधिकार मिले..आप से प्रार्थना है कि भाइ साहब को भी इजाजत दे..:)

सुजाता said...

काकेश माँगना नही है किसी से । यह तो आदम साहब के कथन का निहितार्थ है । वैसे गलतफहमी तो यही है कि पुरुष की जेब में सर्टीफिकेट रक्खे हैं जिन्हे हमे लेना है । घुघुती जी के इस सम्बन्ध में अब तक के लेखन से सहमत हूँ ।

Jitendra Chaudhary said...

अधिकार मांगे थोड़े ही जाते है..
फिर मांगो तो तब, जब किसी के पास रखवाए हों, कि भई, वापस करो, अपने अधिकार है,जब चाहो तब जताओ।

वैसे तस्वीर के दोनो रुख देखो, उस बेचारे अरूण पंगेबाज का भी देखो, बेचारा बहुत सहमा सहमा घूम रहा है। उसका भी तो कोई उद्दार करो।

Rachna Singh said...

aap ne sab likh diya , bahut hee sahii aur achche shabdo mae

mae apni ek kavita dae rahee hun
सम्मानित , अपमानित होती हूँ मै

सम्मानित , अपमानित होती हूँ मै
क्योंकी मै स्त्री हूँ , माँ हूँ , बहिन हूँ , पत्नी हूँ
उनसे तो मै फिर भी लाख दर्जे अच्छी हूँ
जिनका कोई मान समान ही नहीं हैं
जब भी
सम्मानित , अपमानित होती हूँ मै
जिन्दगी की लड़ाई मै , आगे ही बढ़ी हूँ
औरो से उपर ही उठी हूँ
नहीं तोड़ सके हैं वह मेरा मनोबल
जो करते है सम्मानित , अपमानित मुझे
क्योंकी मैने ही जनम उनको दिया है
दे कर अपना खून जीवन उनको दिया है
दे कर अपना दूध बड़ा उनको किया है
नंगा करके मुझे जो खुश होते है
भूल जाते है उनके नंगेपन को
हमेशा मैने ही ढका है

Anonymous said...

@arun
sir sometimes when the issue is serious , dont jest on it . if you cant give a serious comment on serious issue please abstain from commenting
regds

Anonymous said...

क्षमा करें, मूढ़ बुद्धि हूँ, समझ नहीं पाया, कृपया समझायें नारी किस प्रकार की स्वतंत्रता या बराबरी चाहती है पुरुष के मुकाबले ताकि मैं भी इस धुआं धार बहस का हिस्सा बन सकूं. इसे व्यंग न समझें मैं गंभीरता से कह रहा हूँ.

सुजाता said...

निशाचर जी,
बताना कतई ज़रूरी नही ; फिर भी एक रूढ छवि है स्त्री की - उससे आज़ादी , उसे दोयम दर्जे का प्राण्री मानने की सोच से आज़ादी , इनसान हो सकने की आज़ादी । शादी के लिए जाते हैं तो कौन कहता है कि हमारी लडकी समझदार है होशियार है सब जानती है , कहा जाता है गऊ है ।
काम करने में सबसे आगे ,कभी न थकने वाली । आप कहते हैं -तुम ही सब सम्भाल सकती हो - वह पिसती जाती है ।
बिन घरनी घर भूत का डॆरा -- क्यों भई क्यों कहा जाता है । ताकि वह घरनी मूर्खों की तरह इसे अपना सौभाग्य समझ ज़िन्दगी भर सुपर वूमेन बनने की कोशिश में खटती रहे ।
वह त्याग,दया,क्षमा,शील की मूर्ति है ,देवी है - इन बकवास बातों से मुक्ति ।
और बहुत कुछ है , अभी इतना ही

Rachna Singh said...

निशाचर भाई
सदर नमस्ते , आप तो अपने को निशाचर लिख रहें हैं और हम आप को भाई , तो मर्यादा का आप हमेशा ध्यान रखे , हर नारी आप से बस यही चाहती है बाक़ी समय बहुत आगे जा चुका है , आप को कुछ भी समझने से अब कोई लाभ नही होगा क्योंकी इस पोस्ट मे जो कहा गया हैं वह शाश्वत सत्य है , नारी को अब महीशासुर मर्दिनी बनना होगा और नाश करना होगा बुराईयों का । स्वंत्रता मिले ६० वर्ष हो चुके है , भारत को , और भारत मे नारी और पुरुष तथा कुछ अन्य जो ना नारी थे ना पुरुष सब शामिल थे , तो स्वंत्रता मांगने का प्रशन ही गलत है फिर इसे आप को कौन समझा सकता है ?? और बहस तो यहाँ हो ही नहीं रही फिर आप क्यो इतना परेशान है । कुछ पश्येमान होते तो सही होता

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

स्त्री परिवार संरचना के भीतर भी उतनी ही प्रताडित है जितनी कि परिवार संरचना से बाहर --
ये १००% सत्य बात लिखी है आपने --

अनूप भार्गव said...

यदि शोषण/भेद भाव को कानून संरक्षण दे रहा है तो वह सरासर गलत है और उसे किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता , उस के खिलाफ़ सामूहिक आवाज़ उठाई जानी चाहिये ।
लेकिन अगर यह हमारी निजी मानसिकता में है तो उस का इलाज़ भी ’निजी स्तर’ पर करना होगा , one person at a time.
काम कठिन है लेकिन कोई दूसरा रास्ता भी नहीं ।
Generalization does not help and it does not serve any purpose.