
जहाँ भी निकल जाए इनसान ..एक आशियाना साधारण ,छोटा ,जैसा भी , बनाता है उसमें रमता जाता है और धीरे धीरे एक गृहस्थी एक साम्राज्य खडा कर लेता है अपने आस- पास । फिर वक़्त गुज़रने के साथ उसमें से बहुत कुछ कबाड बनता जाता है ।फिर दिक्कत आती है उस कबाड़ के मैनैजमेंट की ।
{साफ कर दूँ कि यह कबाड़ वह कबाड़खाने वाला नही है ।}
कुछ दिन तक अनदेखा करते रहो घर को , रसोई को ,पढने की मेज़ को , किताबों-कपडों की अलमारी को और अचानक एक दिन घर कबाड़ खाना लगने लगता है और हम सब उसके कबाड़प्रिय कबाड़ी । 4-5 साल पहले दीवाली पर मन कर के खरीदा हुआ सुन्दर लैम्प शेड कब आँखों को खटकने लग जाता है पता ही नही चलता । पहले बडे मन से हम चीज़ें यहाँ-वहाँ से इकट्ठा करते हैं और वक़्त बीतते बीतते वे कबाड में तब्दील होने लगती हैं । पर मोह उन्हें फेंकने से रोके रखता है । जब बच्चे थे , घर में एक कोना ऐसा था जिसे हम खड्डा कहा करते थे ।वहाँ हर वह चीज़ जो काम की नही थी आँख मून्दकर फेंक दी जाती थी । कुछ पुराने जूते-चप्पल, एक-दो बाल्टियाँ ,पुराना हीटर ,एक खराब प्रेस ,पुराने अखबार ,मैगज़ींस ,स्पेयर बर्तन जिनकी कब ज़रूरत पडने वाली है पता नही ,सब कुछ उस अन्धे कुएँ में चला जाता था अनंत काल के लिए ।धीरे-धीरे नया सामान आता और पहले का नया सामान पुराना पड़ जाता । और खड्डा फैलता जाता था ।छतों पर पुराने ज़माने के ब्लैक एण्ड वाइट टीवी और कुछ लकडियाँ बारिशों में भीगते रहें और उसकी लकड़ी फूलती रही ।बहुत् साल बाद उससे छुटकारा पाया । अब भी यही हाल है ।फर्क यह है कि अब कोई खड्डा नही । इस छोटे से तीन कमरों के घर में कबाड़खाना बनाने लायक जगह नही है । इसलिए कबाड़ और असल सामान में फर्क धीरे-धीरे मिटता जा रहा है । जो आज नया है कल कबाड हो जाता है ।समेटे नही सिमटता । फिर भी नए कपडे खरीदे जाते हैं , पुराने फट नही रहे पर फेड तो हो रहे हैं ;अलमारी को साँस नही आ रहा । धुले कपडे -मैले कपड़े -घर आकर उतारे गये कपड़े ,धोबन दे गयी जो कपड़ॆ ,ऑल्ट्रेशन को जाने वाले कपड़े , ड्राईक्लीनिंग से आये कपड़ॆ बच्चे के छोटे हो गये कपड़े ,सब जहाँ जगह मिलती है पसर जाते हैं ।एक टेबल है । उस पर किसका सामान हो यह लड़ाई रहती है । श्रीमान जी मेरा सामान शिफ्ट करते हैं ,पीछे से मैं उनका कर देती हूँ । बच्चे का कहाँ जाएगा अभी कैसे सोचें ।अपने से फुरसत नही ।रसोई कभी कभी ज्वालमुखी सी बाहर फट पड़्ने वाली सी दिखाई देती है ।झल्लाहट होती है ।सामान ही सामान है इस घर में । सदियों से पड़ी सड़ती एक चीज़ जैसे ही ठिकाने लगाओ दूसरे तीसरे दिन कोई पूछ लेता है उसके बारे में ।
बिल आते हैं ,चिट्ठियाँ आती हैं , बैंक वालों के नितनये चिट्ठे आते हैं ,कुछ ज़रूरी खत भी आते हैं । सब इकट्ठे होते हैं ,एक दिन ढेर बन जाने के लिए ,जिसमें से किसी दिन अचानक अड्रेस प्रूफ के तौर पर ढूंढना पड़ जाता है कोई बिल ,या कुछ और । और नही मिलता । पुरानी किताबें पढी नही जातीं नयी आ जाती हैं हर बुक फेयर से ।
एक वक़्त ऐसा भी शादी के बाद कि घर से खाली हाथ निकले थे ,साल भर के अन्दर बहुत बड़ी चीज़े न सही पर बहुतेरा सामान इकट्ठा कर लिया था । सिर्फ गृहस्थों का यह हाल नही ।एक मित्र अकेली रहती थीं । उन्होने भी धीरे-धीरे एक साम्राज्य खड़ा कर लिया था अपने आस-पास । लगभग हर घर में अब देखती हूँ एक स्टोर रूम है जहाँ कुछ भी लाकर पटका जा सकता है । किसी के आने की खबर पर जहाँ बहुत कुछ ठूंसा जा सकता हो । कबाडखाना अलग न हो तो सारा घर ही कबाड़ी की दुकान में तब्दील हो जाता है ।
कभी कभी सोचती हूँ एक आदमी हर वक़्त तैनात चाहिये घर को कबाड बनने से बचाने के लिए । पुराने सामान को झड़्ने पोंछने के लिए । रद्दी की सॉर्टिंग के लिए । उतारे गये जूतों और इस्तेमाल न होने वाले चप्पलों को सहेज कर रखने के लिए । गर्मियों के आने पर स्वेटर कम्बल पलंगों और अलमारियों में धँसाने के लिए, कोट -शॉलें ड्राइक्लीन कराकर सम्भालने के लिए ।जूठे बर्तनों को उठा कर रसोई में पहुँचाने के लिए ,चादरें और तकिये के लिहाफ बदलने के लिए ,रैक से बाहर टपकती किताबों को बार बार रैक में पहुँचाने ले लिए, अलमारियों में कपड़े लगातार ठिकाने पर रखते रहने के लिए .............खपते रहने के लिए .....कबाड़ सहेजते समेटते हुए .....कबाड़ बनते रहने के लिए ......