Thursday, February 12, 2009

पिंक चड्डी - बहस का फोकस तय कीजिए

पिंक चड्डी का आह्वान सैंकड़ों कमेंटस दिला सकता है खास तौर से जब आपका ध्यान पिंक चड्डी का आह्वान करने वाली एक स्त्री पर केन्द्रित हो।पितृसत्तात्मक मानसिकता के आगे क्या रोचक बिम्ब उजागर होता होगा यह कल्पना करके? इसलिए सूसन की हिमाकत पर कीचड़ उछालना-उछलवाना ज़रूरी है जो उस बिम्ब का इस्तेमाल आपको शर्मिन्दा करने के लिए कर रही है जिसकी कल्पनाओं मे कभी किसी पुरुष ने ब्रह्मानंद की प्राप्ति की हो।आफ़्टर आल रात के दो बजे किसी बार मे पिंक चड्डी पहन नाचने वाली लड़की को झेला (एंजॉय)किया जा सकता है, मुँह पर तमाचे की तरह आ पड़ने वाली पिंक चड्डी का सामूहिक विरोध स्वरूप उपहार भेजने वाली को कैसे सहा जा सकता है?मेरी दिली इच्छा है कि टिप्पणी कार वाला काम करके सभी कमेंट्स को यहाँ चेप दूँ पर वही जाकर पढ लें , मै अपनी बात कहूंगी,यह काम टिप्पणीकार के लिए ही छोड़ दूँ।

यह पोस्ट देखी और इस बात से कतई हैरान नही थी कि पिंक चड्डी आह्वान के पीछे की ऐतिहासिक गतिविधियों को किनारे पर धकेल कर भ्रष्ट होती स्त्रियाँ और भ्रष्ट होते स्त्री आन्दोलन पर ही बहस होने वाली है क्योंकि शायद वहाँ पोस्ट का फोकस ही यह था।
मै समझना चाहती हूँ कि पिंक चड्डी की ज़रूरत क्यों आ पड़ी होगी?

पिंक प्रतीक है - स्त्रैण का ।
चड्डी और वह भी जनाना - प्रतीक है स्त्री की प्राइवेट स्पेस का।


अब देखिए -
पब मे दिन दहाडे(रात के दो भी नही बजे थे)आप लड़कियों को खदेड़ खदेड़ कर मार मार कर चपत घूँसे लगा लगा कर और दुनिया भर के पत्रकार बुला कर उनके सामने अपने शौर्य का प्रदर्शन कर रहे हैं।किसी स्त्री के अंग को आपको हर्ट करने , छूने का अधिकार किसने दिया? उसके इस प्राइवेट स्पेस मे दखल देने का अधिकार आपको किसने दिया?उन लड़कों को मैने पिटते नही देखा जो उस वक़्त साथ थे।यह कितना अपमानजनक था किसी स्त्री के लिए एक सभ्य मनुष्य़ समझ सकता है।
अगर दुनियावाले लड़कियों मे यह डर बैठाना चाहते हैं कि रात को दो बजे घूमोगी तो हम तो रेप ही करेंगे तो मुझे लगता है कि अहिंसात्मक विरोध के लिए प्राइवेट स्पेस के प्रतीक के रूप मे पिंक चड्डी से बेहतर विकल्प नही हो सकता,जबकि इस लोकतांत्रिक देश की सरकार मुतालिख जैसों को कानून के साथ खिलवाड़ करने की छूट दे रही हो और हर गली नुक्क्ड़ पर दो चार संस्कृति के स्वयमभू ठेकेदार लड़कियों का राह चलना दूभर कर दें और हम मे से कोई किसी एक स्त्री की फजीहत करते हुए उसके मोबाइल का नम्बर बांटने लगें।

कुछ लोग इंतज़ार मे है कि देखते हैं कौन शर्मिन्दा होता है - मुतालिख या निशा सूसन ?

इस प्रश्न मे निहित है कि वे मान कर चल रहे हैं कि इस मुद्दे मे उनका कोई कंसर्न नही , वे तमाशबीन की तरह केवल और केवल सूसन के शर्मिन्दा होने की बाट जोह रहे हैं।भई, स्त्री अपनी चड्डी भेजेगी तो शर्मिन्दा उसे ही होना चाहिए न !!

जो समाज जितना बन्द होगा और जिस समाज मे जितनी ज़्यादा विसंगतियाँ पाई जाएंगी वहाँ विरोध के तरीके और रूप भी उतने ही अतिवादी रूप मे सामने आएंगे।सूसन के यहाँ अश्लील कुछ नही, लेकिन टिप्पणियों मे जो भद्र जन सूसन पर व्यक्तिगत आक्षेप कर रहे हैं वे निश्चित ही अश्लील हैं।मुझे लगता है यह तय कर लेना चाहिये कि इस बहस का फोकस क्या है , सूसन या रामसेना या पिंक चड्डी या स्त्री के विरुद्ध बढती हुई पुलिसिंग और हिंसा।

या चड्डी निर्माता और चड्डी विक्रेता या तहलका ।

बड़ा मुद्दा क्या है ? असल मुद्दा क्या है?

24 comments:

स्वप्नदर्शी said...

sahmat 100%

Unknown said...

शर्मिंदा तो इंसानियत हो रही है.......

मुद्दा तो तय होना ही चाहिए...........

कुश said...

निशा और मुतलिक दोनो ही विरोध प्रदर्शन कर रहे है.. दोनो को ही देश की संस्कृति की चिंता है.. मुतलिक को लग रहा है की लड़किया पब में जाएगी तो देश की संस्कृति भ्रष्ट हो सकती है.. निशा को लग रहा है की खुले आम गुंडा गर्दी करके निर्दोष लोगो को मारने से देश की संस्कृति भ्रष्ट हो जाएगी..

दहेज, घूसखोरी, आतंकवाद, बाढ़, सूखा, जैसी समस्याओ पर ना तो मैने कभी राम सेना देखी ना ही कभी पिंक चड्डी...

अगर राम का नाम लेने वाली सेना में इतना दम है की सरे आम लोगो को मार सकते है तो फिर जब मुंबई में दस बारह आतंकवादियो ने जो आतंकवाद मचाया था तब कहा गयी थी उनकी मर्दानगी.. सिर्फ़ इसलिए की पब में बैठे लोगो के पास हथियार नही है.. आप कुछ भी कर सकते हो..

जब डेढ़ साल की मासूम बच्ची का बलात्कार उसका ही ताऊ कर देता है.. तब ना राम का नाम लेने वाली सेना आती है.. ना ही पिंक चड्डी..

सुरेश जी ने जो भी सवाल निशा से किए है वे सभी सवाल मुतालिक के लिए भी लागू होते है.. अगर पिंक चड्डिया श्रीनगर नही गयी तो कौनसी राम सेना चली गयी...

सुजाता जी के एक कमेंट से सहमत हू..
"पिंक चड्डियों की ज़रूरत सरासर इस देश की नाकामी बयान करती है।"

श्री राम का नाम लेने वाली सेना याद रखे की जूते का जवाब चप्पल होता है.. उन्हे शुक्र मानना चाहिए की अभी तक चड्डिया ही मिली है. मुँह पर चप्पल खाने को नही मिले..

फिल्म देव डी का दृश्य याद आ रहा है.. जब पारो सेक्स के लिए बिस्तर खुद लेकर खेत में जाती है.. तो देव उसको थप्पड़ मारकर चला जाता है.. शायद कोई भी पुरुष स्त्री को सेक्स के लिए पहल करता देखकर पचा नही पाएगा..

अब शायद वक़्त बदल रहा है.. स्त्रियो ने ये ठान लिया है की वो खुद को संस्कृति के ठेकेदारो से जूते खाने के लिए नही बनी है.. उनके मुँह पर चड्डिया मारकर जवाब देना भी जानती है..

फिर क्या पता किसी सेना के नौजवान की बहन ही उसके मुँह पर मारकर ये पुनीत कार्य करे..

अंत में यही कहना चाहूँगा.. की विरोध के तरीके पर बहस की जा सकती है.. मगर विरोध पर नही.. जैसा मैने शुरू में कहा.. दोनो ही विरोध कर रहे है.. बस सोच और तरीके का फ़र्क है..

अनिल कान्त said...

इतना बवाल और इतना प्रदर्शन और इतनी राजनीति अन्य मुद्दों पर क्यों नही होती ...जब बलात्कार होते हैं , जब बाढ़ पीड़ित भूख से मरते हैं , जब किसान आत्म हत्या करते हैं .....तब सभी के सभी कहाँ जाते हैं पता नही चलता

डॉ .अनुराग said...

दुखद है की एक स्वस्थ बहस फ़िर अपने मूल मुद्दे से ग़लत मोड़ की ओर मुड गयी है ...ये ज्ञान ओर विद्वता का अपव्यय है ..किसी भी बहस को निजी ओर व्यक्तिगत नही होना चाहिये..
न तो मै मुतालिक को संस्क्रति का सरंक्षक मानता हूँ ,ओर न पब जाने वाली लड़कियों को संस्क्रति का दूत ....न हमारी संस्क्रति इतनी कमजोर है की लड़कियों के पब में जाने से टूट कर गिर जायेगी ....
यहाँ सवाल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का है ..जब तक कोई व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के दायरे में रहकर कोई भी असामाजिक या गैर कानूनी कार्य नही कर रहा है ..किसी समूह या व्यक्ति को (उनकी नापसंदगी के कारण )उसको किसी भी तरह से रोकने का कोई अधिकार नही है .
जब हम किसी समाज में रहते है तो उसके कई अलिखित नियम कानून होते है जो आदर ,स्नेह ,स्वतंत्रता ओर एक दूसरे की भावनाओं के सम्मान का प्रतीक का मिश्रण होते है ...समाज के ढांचे को ओर व्यवस्थित करने के लिए हम ने मिलकर एक राज्य की स्थापना की ओर उसमे पुलिस ओर कानून व्यवस्था की ..जिसका काम प्रत्येक नागरिक को न्याय ओर सुरक्षा प्रदान करना है ..जाहिर है राज्य प्रशासन ने अगर कोई पब खुलवाया है तो वहां जाकर कोई भी पी सकता है ..उसमे जाने आने ,बंद करने का अधिकार केवल ओर केवल पुलिस ओर कानून व्यवस्ता को है...यदि किसी व्यक्ति को आपति है तो .... सभ्य समाज में विरोध करने के कई तरीके है...कानूनी ओर सामजिक दोनों रूपों में ....
पर यदि हम इस ढाँचे को तोड़कर स्वंय निर्णय लेगे .तो शायद हम ख़ुद ही एक अव्यवस्था को जन्म देंगे .क्यूंकि कल को किसी एक को किसी दूसरे की कोई बात पसंद नही आयी तो ? वैसे भी संस्क्रति की परिभाषा एक के लिए अलग है दूसरे के लिए अलग.
हम सब जानते है की बडो को आदर देने के लिए प्रणाम करना-चरण छूना हमारी सामाजिक व्यवस्था -परम्परा है ..पर इसे थोपा नही जा सकता ....यदि मोहल्ले का कोई बच्चा आपको प्रणाम नही कर रहा है तो आप या कोई ओर उसे पीट नही सकते की प्रणाम करो .ज्यादा से ज्यादा उसके घरवाले या निकट के लोग कह सकते है या उसे समझा सकते है की उसे बडो का आदर करना चाहिये ...
हमारी स्वतंत्रता की सीमा की हद वहां जाकर ख़त्म हो जाती है जहाँ से दूसरे की सीमा शुरू हो जाती है ...
पहाडो में ओर अक्सर कई महल्लो में कई बार बहुत सारी औरतो ने शराब की दुकानों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किए है ओर उनकी वाजिब मांग ओर सामाजिक व्यवस्था के तहत सरकारों ओर वहां के स्थानीय प्रशासन ने उनकी मांग को सुना भी है ....अधिक मात्रा में शराब पीकर गाड़ी चलाना ...अपराध है हमारे कानून में ....(उसमे कही भी उल्लेख नही है की ये कानून स्त्री के लिए अलग है पुरूष के लिए अलग )जाहिर है कानून सबके लिए बराबर है ........

विरोध करने के तरीके को लेकर असहमति हो सकती है ..पर विरोध से नही ....

डॉ .अनुराग said...

वैसे अगर पब में खाली लड़को को भी पीटा जाता तो भी मेरे विरोध की भाषा यही रहती

Anonymous said...

सही कहा.. बहस को असल मुद्दे से भटकाने ये कुछ हा्सील नहीं होगा.. हिसां कभी समाधान नहीं.. और राम सेना के मुकाबले कम से कम ’चड्डी’ अभीयान अहिसंक तो है...

Hima Agarwal said...

कुश और डा0 अनुराग की टिप्‍पढ़ी के बाद कहने को कुछ रह ही नहीं जाता।
बहस का फोकस तो तय होना ही चाहिए।

Arvind Mishra said...

कुश और अनुराग ने काफी कुछ कह दिया है -यह खून का बदला खून वाली मानसिकता से हल होने वला मुद्दा नहीं है ! वैसे भी रामसेना और चड्ढी सेना कितने फीसदी लोगों की नुमाईंदगी कर रहे हैं ? बस माहौल खराब हो रहा है ! १४ क तो समर शेष अभी है ही !

Sanjay Grover said...

यदि मोहल्ले का कोई बच्चा आपको प्रणाम नही कर रहा है तो आप या कोई ओर उसे पीट नही सकते की प्रणाम करो .ज्यादा से ज्यादा उसके घरवाले या निकट के लोग कह सकते है या उसे समझा सकते है की उसे बडो का आदर करना चाहिये ...
magar hum ye kaise taye kareNge ki jo bachcha pair chhu raha hai wo sachmuch aadar kar rahaa hai, paakhand nahiN kar rahaa. kya KarmkandoN ya PrateekoN ko itna mahatv dena thik hai? KahiN KarmkandoN ya PrateekoN ko hi Sanskriti samajh lene ki hi vajah se hi to nahiN ho raha ye sab?
Baqi KUSH aur ANURAG ne bahut kuchh kah hi diya hai.

सुजाता said...

संजय ,कुश और अनुराग जी ने बात को काफी हद तक आसान किया है।

अजित वडनेरकर said...

बहुत अच्छी पोस्ट। सभी टिप्पणियां भी बहस को सकारात्मक रूप से देखती हुईं...

Ashish Maharishi said...

कैंपेन को पूरो सपोर्ट है।

Ashish Maharishi said...

http://www.bhaskar.com/2009/02/13/0902130103_pink_chaddi_campaign_and_pink_condom_campaign.html

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

गाँधी जो शराब बंदी के पक्ष मे थे के कथित चेले पब विरोधियों को गांधीगिरी के नाम पर गुलाबी चड्डी बाट कर गाँधी के विचारो के साथ बलात्कार कर रहे है ऐसा मेरा मानना है

Anonymous said...

धीरू भाई
जरूरी नही कि हर विरोध को गाँधी वादी ही बता दिया जाय और उसके लिए जरूरी हो जाय कि वो गांधी के आदर्श इस्तेमाल करें. मोरल पुलिसिंग की बकवास व्यक्तिगत आजादी पर हमला है
इस पोस्ट और कुश जी, अनुराग जी और संजय जी की टिप्पणियाँ वो सब कुछ कह दे रही हैं जो कुछ मन में आ सकता था

roushan said...

हाँ हम कह सकते हैं कि देश के सामने ढेर सारी समस्यायें और भी हैं पर क्या प्राथमिकता तय करनी होगी कि पहले इस समस्या पर हल्ला मचे फ़िर इस और इस बीच किसी अन्य समस्या पर चर्चा गैर जरूरी होगी?
इन विरोधों में वही प्रतीक इस्तेमाल हो रहे हैं जो स्त्रियों के ख़िलाफ़ रहे हैं. एक सीमा रेखा की तरह थोप दिया गया कि ये शर्म की दहलीज है इसे पार नही करना है. अब उसी सीमारेखा उसी दहलीज को अगर महिलायें बतौर हथियार इस्तेमाल कर रही हैं तो पुरुषों या समाज को बुरा लग रहा है
गुहार मचाई जा रही है कि ये तब कहाँ थी जब................
जिन्हें इन विरोधों से आपत्ति है उन्हें ख़ुद में झांकना होगा

Anonymous said...

गुलाबी चड्डी तो बाज़ार में ख़त्म हो गई है. तो गुलाबी कंडोम भेज दे.

azdak said...

लात लगायें भैंसा जोर लगाके हइशा..

आशीष कुमार 'अंशु' said...

प्रमोद मुतालिक और गुलाबी चड्डी अभियान चला रही (Consortium of Pubgoing, Loose and Forward Women) निशा (०९८११८९३७३३), रत्ना (०९८९९४२२५१३), विवेक (०९८४५५९१७९८), नितिन (०९८८६०८१२९) और दिव्या (०९८४५५३५४०६) को नमन. जो श्री राम सेना की गुंडागर्दी के ख़िलाफ़ होने के नाम पर देश में वेलेंटाइन दिवस के पर्व को चड्डी दिवस में बदलने पर तूली हैं. अपनी चड्डी मुतालिक को पहनाकर वह क्या साबित करना चाहती है? अमनेसिया पब में जो श्री राम सेना ने किया वह क्षमा के काबिल नहीं है. लेकिन चड्डी वाले मामले में श्री राम सेना का बयान अधिक संतुलित नजर आता है कि 'जो महिलाएं चड्डी के साथ आएंगी उन्हें हम साडी भेंट करेंगे.'
तो निशा-रत्ना-विवेक-नितिन-दिव्या अपनी-अपनी चड्डी देकर मुतालिक की साडी ले सकते हैं. खैर इस आन्दोलन के समर्थकों को एक बार अवश्य सोचना चाहिए कि इससे मीडिया-मुतालिक-पब और चड्डी क्वीन बनी निशा सूसन को फायदा होने वाला है. आम आदमी को इसका क्या लाभ? मीडिया को टी आर पी मिल रही है. मुतालिक का गली छाप श्री राम सेना आज मीडिया और चड्डी वालियों की कृपा से अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सेना बन चुकी है. अब इस नाम की बदौलत उनके दूसरे धंधे खूब चमकेंगे और हो सकता है- इस (अ) लोकप्रियता की वजह से कल वह आम सभा चुनाव में चुन भी लिया जाए. चड्डी वालियों को समझना चाहिए की वह नाम कमाने के चक्कर में इस अभियान से मुतालिक का नुक्सान नहीं फायदा कर रहीं हैं. लेकिन इस अभियान से सबसे अधिक फायदा पब को होने वाला है. देखिएगा इस बार बेवकूफों की जमात भेड चाल में शामिल होकर सिर्फ़ अपनी मर्दानगी साबित कराने के लिए पब जाएगी. हो सकता है पब कल्चर का जन-जन से परिचय कराने वाले भाई प्रमोद मुतालिक को अंदरखाने से पब वालों की तरफ़ से ही एक मोटी रकम मिल जाए तो बड़े आश्चर्य की बात नहीं होगी. भैया चड्डी वाली हों या चड्डे वाले सभी इस अभियान में अपना-अपना लाभ देख रहे हैं। बेवकूफ बन रही है सिर्फ़ इस देश की आम जनता.

Neeraj Rohilla said...

सुजाता,
विद्वान लोगो को अचानक से आम जनता की फ़िक्र होने लगी है कि वो चड्ढियों के चलते बेवकूफ़ बन रही है।

कुतर्क देकर बहस का रूख दूसरी तरफ़ करने का तरीका बहुत पुराना है। विरोध भी हो तो उनके नजरिये से जिसे उनकी सहमति हो, वाह रे विद्वानों। जरा विरोध शब्द की व्याख्या ही देख लेते शब्दकोश में।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

हिंसा (मुथालिक) और अश्लीलता (चड्ढी-प्रेषण) दोनो निन्दनीय हैं। दोनो का विरोध किया जाना चाहिए। लेकिन इस कार्य में इन्हीं साधनों का प्रयोग तो कतई नहीं किया जा सकता।

वैसे डॉ. अनुराग ने जिन मुद्दों का जिक्र किया वे अधिक महत्वपू्र्ण, गम्भीर, और जवाबदेही तय करने वाले हैं। नंगई की प्रतिस्पर्धा के बजाय कुछ सभ्यता के विकास की बात पर बहस हो तो बात बने।

Anonymous said...

मोहल्‍ला में सविता भाभी के बहाने स्‍त्री विमर्श का डंका पीटने वाले
ब्‍लॉगर पत्रकार अविनाश जी के सारे स्‍त्री विमर्श की कलई उस समय खुल गई,
जब उन्‍होंने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्‍वविदद्यालय की एक छात्रा
के साथ जहां अभी कुछ दिनों पहले वे क्‍लास लेने जाते थे के साथ
जबर्दस्‍ती करने की को‍शिश की. लड़की की तबीयत ठीक नहीं थी। उन्‍होंने
उसे किसी काम के बहाने से ऑफिस बुलाया और फिर उसके लाख मना करने के
बावजूद उसे अपनी नई कार से (अविनाश जी ने अभी कुछ ही दिन पहले नई गाडी
खरीदी है) उसे घर छोड़ने गए। फिर वहां उसे चुपचाप छोडकर आने के बजाय लगभग
जबरदस्‍ती करते हुए उसका घर देखने के बहाने उसके साथ कमरे में गए। लडकी
मना करती रही, लेकिन संकोचवश सिर्फ रहने दीजिए सर, मैं चली जाऊंगी जितना
ही कहा। वे उसकी बात को लगभग अनसुना करते हुए खुद ही आगे आगे गए और उसका
घर देखने की जिद की। लडक को लगा कि पांच मिनट बैठेंगे और चले जाएंगे।
लेकिन उनका इरादा तो कुछ और था। उन्‍होंने घर में घुसने के बाद
जबर्दस्‍ती उसका हाथ पकडा, उसके लाख छुडाने की कोशिश करने के बावजूद उसे
जबर्दस्‍ती चूमने की कोशिश की। लडकी डरी हुई थी और खुद को छुडाने की
कोशिश कर रही थी, लेकिन इनके सिर पर तो जैसे भूत सा सवार था। अविनाश ने
उस लडकी को यहां तक नारी की स्‍वतंत्रता का सिद्धांत समझाने की कोशिश की
कि तुम डर क्‍यों रही हो। कुछ नहीं होगा, टिपिकल लडकियों जैसी हरकत मत
करो, तुम्‍हें भी मजा आएगा। मेरी आंखों में देखो, ये जो हम दोनों साथ
हैं, उसे महसूस करने की कोशिश करो। डरी हुई लडकी की इतनी भी हिम्‍मत नहीं
पडी कि कहती कि जाकर अपनी बहन को क्‍यूं नहीं महसूस करवाते। लडकी के हाथ
पर खरोंचों और होंठ पर काटने के निशान हैं। लडकी अभी भी बहुत डरी हुई है।
ये है पूरे ब्‍लॉग जगत और समाज में स्‍त्री विमर्श का झंडा उठाए घूमने
वाले अविनाश का असली चेहरा।

Devesh said...

असल में सब के सब अपने आप को मार्केट करने के लिए कंसेप्ट बेच रहे हैं, निशाना है अलग-अलग क्लास और कैटेगिरी के लोग। कई बार तो लोगों को ये चाले नजर ही नहीं आती और कुछ को आती भी है तो वे बहती गंगा में हाथ के साथ नहा-धो लेने में विश्वास करते हैं। चाहे श्री राम सेना का मुतालिक हो या सूसन सबको चाहिए इमोशनल सपोर्ट क्रिएट करने वाला ऐसा फंडा जो बिना एड और एक्सपेंडेचर के उन्हें ब्रांड बना दे, जिससे ये वक्ती नायक बाद में अपनी दुकानें चलाते रहें। मुतालिक ने पहले पब में हंगामा मचाया और बाद में वेलेंटाइन डे प्रोग्राम घोषित कर दिया, बस फिर क्या था, सज गई दुकान... गृहमंत्री का बयान और विरोध शबाब पर आ गया कल जिसे कोई जानता तक नहीं था नेशनल फीगर हो गया... अकल के अजीर्ण वाले बयानवीर ब्लागरों से ले कर फुरसती धंधेबाजों को काम मिल गया... कुछ कमअकल लोग बेकार में ही अब्दुल्ला दीवाना बन कर लगे नाचने....
खैर उनका तो काम हो गया अब चैप्टर नंबर दो शुरू होना था विरोध का... इसके लिए कुछ तय दुकानों की मोनोपाली है उनके बयान-बयान और स्ट्रेटेजी घोषित हो ही रही थी कि निशा सूसन के दिमाग के न्यूज एनालिसिस सेंसे ने सेक्स भडकाऊ, दिल धडकाऊ और बत्ती बुझाऊ टाइप का आइडिया उगल मारा और पुरानी दुकानों का दिवाला पिटने के साथ ही शुरू हो गया पिंक चड्ढी कैंपेन... अब यहां भी निठल्ले ज्ञानियों को कर्तव्य विद् लाइम लाइट एक्सपोजर का बोध हो गया और सौ पचास रुपए की चड्ढी की कीमत पर फेमेनिस्टि और एडवांस होने की डिग्री बंटने लगी। दुकान तो ऐसे सजाई गई गोया चड्ढी नहीं संपूर्ण स्त्रीत्व को पैक करके मुंह पर मार दिया गया है। चड्ढी भेजने के आइडिए के मायने सूसन बेहतर जाने पर किसी भी आम लडकी या औरत से पूछ कर देखें कि उसकी चड्ढी के मायने क्या हैं चाहे वह दुनिया के किसी भी हिस्से में रहती हो।