स्नोव्हाइट कीकहानी तो सुनी होगी ? उसकी सौतेली माँ स्नोव्हाइट के सौन्दर्य से ईर्ष्या करती थी और उसे मरवाने के भरसक प्रयास करती थी । अपने जादुई दर्पण से वह पूछती रहती थी –“दर्पण मेरे ये तो बता , सबसे सुन्दर कौन भला ?” उत्तर में सुनना चाहती थी अपना नाम । पर दर्पण कभी झूठ बोलता है भला ? वह बिन्दास कहता था –‘स्नोव्हाइट “! सो हमने मान लिया कि दर्पण झूठ नही बोलता । तथ्य स्थापित हो गया । वैज्ञानिक इसे नही मानेंगे । मै भी नही मानती । खुद देख रखे हैं ऐसे दर्पण जो बहुत मोटा { समीर जी जैसा :)स्माएली लगा दी है समीर भाई ) बहुत पतला (मसिजीवी जी जैसा, स्माइली नही लगाइ गयी है ) बहुत लम्बा , बहुत ठिगना , बहुत दूर [जीतू जी की तरह ] या बहुत पास [यह नही बतायेंगे ] दिखा कर आपको हँसा सकते है , रुला और चौँका सकते हैं ।
खैर दर्पण एक और भी रहा । पच्छिम । पूरब का दर्पण । दर्पन झूठ नही बोलता । सो पच्छिम ने भी पूरब के बारे में कभी नही बोला ।पच्छिम का दर्पण जिज्ञासु था । पूरब में आया । देखा भाला ,घूमा फिरा । यहाँ का इतिहास लिखा सबसे पहले । साहित्य का इतिहास लिखा सबसे पहले क्या नाम था ...अम्म्म...”... एस्त्वार द ला लित्रेत्युर एन्दुई ....ब्ला ब्ला ह्म्म । यहाँ क्या किसी को एतिहास लिखना आता था कभी ।
तो जी । क्या हुआ कि । वे घूमे फिरे । फिर लिखा । {व्यापार और शासन तो किया ही} और लिखा यह कि ये तो जी जादू –टोना-टोटका करने वाले ,देसी , गँवार ,अन्धविसवासी ,आस्था भक्ति वाले , इर्रेसनल , वगैरा वगैरा वाले लोग है पूरबिया लोग ।
ठोक बजा कर कहा ।तो लो जी एक और कहानी याद आ गयी कि अंग्रेज़ी की किताब में “स्टोरीज़ रीटोल्ड “मेँ हुआ करती थी । एक गाँव था । जहाँ किसी को यह नही पता था कि दर्पण क्या होता है । कभी किसी ने दर्पण नही देखा था । वही किसी बुडबक को मिल गया रहा शीशा । उसने देखा । चकमक पत्थर जैसा । उसमे किसी दाढी वाले आदमी को देख संत समझ लिया और घर ले जाकर छुपा दिया । रोज़ खेत पर जाने से पहले अपना चेहरा ,यानी संत के दर्शन करता और तब जाता । पत्नी का खोपडा घूमा । पीछे से एक दिन ढूंढा कि पति किसे निहार कर जाता है । शीशा देखा । सुन्दर स्त्री दिखी । बस सियापा और क्या ?
तो पूरब ने कभी अपनी व्याख्या अपने मुँह से कर के अपने आप नही बताया था । ना खुद अपना विसलेसन कभी किया था –कि मै क्या हूँ ,कैसा हूँ वगैरा । तो जब इतिहास लिखे गये पूरब के बारे में , उपन्यास लिखे गये ,तबही पच्छिम के आइने ने संसार भर को भी और पूरब को भी उसका प्रतिबिम्ब दिखाया । अनपढ , गवाँर , अन्धविसवासी ,व्रत त्योहार वाले , असभ्य । अब दर्पण तो झूठ नही बोलता ।तो पूरब वाला मानने लगा कि यही सच है । यही इमेज है । अब तो बुडबक खुदही अपना प्रचार करने लगा वैसे ही जैसा पच्छिम ने कहा कि वह है । पूरब ने आत्मसात कर लिया इस छवि को और इसी को बनाए रखने मेँ ऊर्जा लगाने लगा ।
सो ई है दर्पण की कहानी । एडवर्ड सईद का “ओरियंटलिज़्म “ । सरलीकृत अन्दाज में ।यह उद्देश्य नही । ओरियंटलिज़्म माने प्राच्यवाद माने पच्छिम के प्राच्यविदो द्वारा पूरब को दिखाया गया आइना ।प्राच्यविद । ध्यान दीजिये “प्राच्यविद “।
तो जब हमने बात की थी रसोई नष्ट करने की मतलब सिर्फ यह था कि इस मुद्दे पर क्रांति की ज़रूरत है । स्त्री पक्ष की सत्ता है रसोई ,वही नष्ट कर सकती है । हालाँकि मै मानती हूँ कि रसोई को सत्ता मानना भी स्त्री का बुडबकपना है ।
तो रसोई नष्ट करने की बात पर स्त्री के इस रसोई –सत्ता के मालकिन रूप का बडा महिमामंडन किया गया । तब ही सोचा था कि कुछ समझा दें बालकों को , ज्ञान की राह दिखा दें ।पर क्या है कि बिना बडे- बडे नाम लिये लोग बात नही सुनते । सो एडवर्ड सईद का रसोई संसकरण यह बनाया है हमने कि
****स्त्री ने कभी अपनी व्याख्या नही की । वह महान है । वह उद्देश्यो के भटकाव में , पुरुष की तरह समय नष्ट नही करती । वह सृजन करती है । मौलिक सृजन ।कभी यह सृजन रसोई में होता है कभी गर्भ में । वह जीवन में रस और रंग लाती है {किसके ? अजी बैचलरों के !} जीवन को व्यवस्था देती है , सुचारू रूप से चलाती है {आपको समय पर खाना पीना ,कपडा -लता प्रेस किया हुआ ,रति ,संतान,संतान का होमवर्क ,माता पिता की सेवा, बहनों को मेवा सब समय पर कोई देता रहे तो जीवन सुचारू रूप से नही चलेगा भला? } फिर पितृसता कहे कि वह महान है । कुछ नही माँगती , क्षमाशील है , तपस्विनी है , ममतामयी है । ब्ला ब्ला ब्ला .........
जब इतना चढाओगे , चने के झाड पर, तो बेवकूफ तो बनेगी ही निश्चित तौर पर ।
कहोगे” तुम्ही तो हो जो सब सम्हालती हो “ और लम्बी तान कर सो जाओगे तो तारीफ के बोझ की मारी रात देर तक जाग सुबह के व्यंजनो ,ऑफिस –स्कूल के कपडों को सहेजेगी ही ।
“बडी बहू बडी सीधी है जी । आज तक पलट कर जवाब नही दिया । चाहे मै कुछ भी कहती रही । बडी भोली है “” बस यही दर्पण है । तुम सीधी हो । गलत बात का विरोध नही कर सकतीं । बना दिया मूल्य । अब कैसे ना करे तदानुरूप आचरण । भोला होना ,अबोध होना एक गुण हो गया ।
तो दर्पण झूठ ना बुलाए । पितृ सत्ता यही आईना स्त्री को दिखा -दिखा कर अब तक बुद्धू बनाती आयी है । जब दर्पणो की असलियत कोई स्त्री जान जाती है तो खतरे की घंटी बज जाती है स्त्रीविदों के लिए । स्त्रीविद । प्राच्यविद । इस तरह की बात करके आप भविष्य निधि की तरह निवेश कर रहे होते हो । एक बार इमेज बना दो फिर हर साल प्रीमियम भरो---“ मुझे बस तुम्हारे हाथ का खना ही अच्छा लगता है । “ और पाओ ढेर सारा इंश्योरेंस और पॉलिसी मैच्योर होने पर ढेर सारा कैश । बल्ले बल्ले !!
सो इस मनोवैज्ञानिक निवेशीकरण को समझा जा रहा है मी लॉर्ड !!!!!
स्त्री आज खुद को समझ सकने और अभिव्यक्त कर सकने में सक्षम हो रही है । उसे धीरे -धीरे इस आइने को तोडने के लिए तैयार होना है जो आज तक उसे पितृ सत्ता के पुजारी पुरष और स्त्रियाँ दिखाती आयीं है ।
******
सो दर्पण भी षड्यंत्रकारी हो सकता है , वह झूठ बोल सकता है , चाल चल सकता है । वह किसके हाथ में है और किसे दिखाया जा रहा है यह सोचना ज़रूरी है इससे पहले कि उस पर विश्वास करने चलें ।
खैर दर्पण एक और भी रहा । पच्छिम । पूरब का दर्पण । दर्पन झूठ नही बोलता । सो पच्छिम ने भी पूरब के बारे में कभी नही बोला ।पच्छिम का दर्पण जिज्ञासु था । पूरब में आया । देखा भाला ,घूमा फिरा । यहाँ का इतिहास लिखा सबसे पहले । साहित्य का इतिहास लिखा सबसे पहले क्या नाम था ...अम्म्म...”... एस्त्वार द ला लित्रेत्युर एन्दुई ....ब्ला ब्ला ह्म्म । यहाँ क्या किसी को एतिहास लिखना आता था कभी ।
तो जी । क्या हुआ कि । वे घूमे फिरे । फिर लिखा । {व्यापार और शासन तो किया ही} और लिखा यह कि ये तो जी जादू –टोना-टोटका करने वाले ,देसी , गँवार ,अन्धविसवासी ,आस्था भक्ति वाले , इर्रेसनल , वगैरा वगैरा वाले लोग है पूरबिया लोग ।
ठोक बजा कर कहा ।तो लो जी एक और कहानी याद आ गयी कि अंग्रेज़ी की किताब में “स्टोरीज़ रीटोल्ड “मेँ हुआ करती थी । एक गाँव था । जहाँ किसी को यह नही पता था कि दर्पण क्या होता है । कभी किसी ने दर्पण नही देखा था । वही किसी बुडबक को मिल गया रहा शीशा । उसने देखा । चकमक पत्थर जैसा । उसमे किसी दाढी वाले आदमी को देख संत समझ लिया और घर ले जाकर छुपा दिया । रोज़ खेत पर जाने से पहले अपना चेहरा ,यानी संत के दर्शन करता और तब जाता । पत्नी का खोपडा घूमा । पीछे से एक दिन ढूंढा कि पति किसे निहार कर जाता है । शीशा देखा । सुन्दर स्त्री दिखी । बस सियापा और क्या ?
तो पूरब ने कभी अपनी व्याख्या अपने मुँह से कर के अपने आप नही बताया था । ना खुद अपना विसलेसन कभी किया था –कि मै क्या हूँ ,कैसा हूँ वगैरा । तो जब इतिहास लिखे गये पूरब के बारे में , उपन्यास लिखे गये ,तबही पच्छिम के आइने ने संसार भर को भी और पूरब को भी उसका प्रतिबिम्ब दिखाया । अनपढ , गवाँर , अन्धविसवासी ,व्रत त्योहार वाले , असभ्य । अब दर्पण तो झूठ नही बोलता ।तो पूरब वाला मानने लगा कि यही सच है । यही इमेज है । अब तो बुडबक खुदही अपना प्रचार करने लगा वैसे ही जैसा पच्छिम ने कहा कि वह है । पूरब ने आत्मसात कर लिया इस छवि को और इसी को बनाए रखने मेँ ऊर्जा लगाने लगा ।
सो ई है दर्पण की कहानी । एडवर्ड सईद का “ओरियंटलिज़्म “ । सरलीकृत अन्दाज में ।यह उद्देश्य नही । ओरियंटलिज़्म माने प्राच्यवाद माने पच्छिम के प्राच्यविदो द्वारा पूरब को दिखाया गया आइना ।प्राच्यविद । ध्यान दीजिये “प्राच्यविद “।
तो जब हमने बात की थी रसोई नष्ट करने की मतलब सिर्फ यह था कि इस मुद्दे पर क्रांति की ज़रूरत है । स्त्री पक्ष की सत्ता है रसोई ,वही नष्ट कर सकती है । हालाँकि मै मानती हूँ कि रसोई को सत्ता मानना भी स्त्री का बुडबकपना है ।
तो रसोई नष्ट करने की बात पर स्त्री के इस रसोई –सत्ता के मालकिन रूप का बडा महिमामंडन किया गया । तब ही सोचा था कि कुछ समझा दें बालकों को , ज्ञान की राह दिखा दें ।पर क्या है कि बिना बडे- बडे नाम लिये लोग बात नही सुनते । सो एडवर्ड सईद का रसोई संसकरण यह बनाया है हमने कि
****स्त्री ने कभी अपनी व्याख्या नही की । वह महान है । वह उद्देश्यो के भटकाव में , पुरुष की तरह समय नष्ट नही करती । वह सृजन करती है । मौलिक सृजन ।कभी यह सृजन रसोई में होता है कभी गर्भ में । वह जीवन में रस और रंग लाती है {किसके ? अजी बैचलरों के !} जीवन को व्यवस्था देती है , सुचारू रूप से चलाती है {आपको समय पर खाना पीना ,कपडा -लता प्रेस किया हुआ ,रति ,संतान,संतान का होमवर्क ,माता पिता की सेवा, बहनों को मेवा सब समय पर कोई देता रहे तो जीवन सुचारू रूप से नही चलेगा भला? } फिर पितृसता कहे कि वह महान है । कुछ नही माँगती , क्षमाशील है , तपस्विनी है , ममतामयी है । ब्ला ब्ला ब्ला .........
जब इतना चढाओगे , चने के झाड पर, तो बेवकूफ तो बनेगी ही निश्चित तौर पर ।
कहोगे” तुम्ही तो हो जो सब सम्हालती हो “ और लम्बी तान कर सो जाओगे तो तारीफ के बोझ की मारी रात देर तक जाग सुबह के व्यंजनो ,ऑफिस –स्कूल के कपडों को सहेजेगी ही ।
“बडी बहू बडी सीधी है जी । आज तक पलट कर जवाब नही दिया । चाहे मै कुछ भी कहती रही । बडी भोली है “” बस यही दर्पण है । तुम सीधी हो । गलत बात का विरोध नही कर सकतीं । बना दिया मूल्य । अब कैसे ना करे तदानुरूप आचरण । भोला होना ,अबोध होना एक गुण हो गया ।
तो दर्पण झूठ ना बुलाए । पितृ सत्ता यही आईना स्त्री को दिखा -दिखा कर अब तक बुद्धू बनाती आयी है । जब दर्पणो की असलियत कोई स्त्री जान जाती है तो खतरे की घंटी बज जाती है स्त्रीविदों के लिए । स्त्रीविद । प्राच्यविद । इस तरह की बात करके आप भविष्य निधि की तरह निवेश कर रहे होते हो । एक बार इमेज बना दो फिर हर साल प्रीमियम भरो---“ मुझे बस तुम्हारे हाथ का खना ही अच्छा लगता है । “ और पाओ ढेर सारा इंश्योरेंस और पॉलिसी मैच्योर होने पर ढेर सारा कैश । बल्ले बल्ले !!
सो इस मनोवैज्ञानिक निवेशीकरण को समझा जा रहा है मी लॉर्ड !!!!!
स्त्री आज खुद को समझ सकने और अभिव्यक्त कर सकने में सक्षम हो रही है । उसे धीरे -धीरे इस आइने को तोडने के लिए तैयार होना है जो आज तक उसे पितृ सत्ता के पुजारी पुरष और स्त्रियाँ दिखाती आयीं है ।
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सो दर्पण भी षड्यंत्रकारी हो सकता है , वह झूठ बोल सकता है , चाल चल सकता है । वह किसके हाथ में है और किसे दिखाया जा रहा है यह सोचना ज़रूरी है इससे पहले कि उस पर विश्वास करने चलें ।
मै स्त्री ।मै जननी । महान । मै मौलिक सृजन कर्ता । मै पगली । मै ममतामयी । मै क्षमाशील । मै साध्वी कि सती । व्रती उपासी । सरल । हिसाब किताब में कमजोर ।त्रिया चरित्र । सडक पर कार लेकर नाक में दम करने वाली , पहले सूरजमुखी फिर ज्वालामुखी ।ज़िद्दी । ज़ोर ज़ोर से हँसने वाली । जो भी हूँ । खुद हूँ । खुद रहूँ । खुद जानूँ ।खुद देखूँ । कोई और मेरा आईना [ ।स्त्रीविद !] क्यो हो ?
11 comments:
व्हूजावे एक्री बियां. ज न व्हू मोन्त्र पा एं मिर्वार
बढिया है।
@मैथिली जी
अर्थ भी समझा दीजिये ।
@ अनूप जी
धन्यवाद !
साधुवाद ! मै मैथिली जी और अनूप जी से सहमत हूं ।
कोई और मेरा आईना क्यो हो ?
बहुत अच्छे! पढकर अच्छा लगा
शानू
सुजाता जी, आपने "एस्त्वार द ला लित्रेत्युर एन्दुई" लिखा था तो सोचा कि आप फ्रेन्च जानती होंगीं!
आईना-हमारे जैसा..हा हा!! कितना हँसू...अब क्या कहें बस स्माईली लगाये दे रहे हैं. बाकि तो जैसा दिखी होगी, आप खुद ही जानती हो..जब आईना हमारे जैसा होगा :)
बाकि तो बढ़िया लिखा है. क्या भईया मैथली जी-फिर भी अर्थ नहीं बताये-यहाँ किसी फ्रेंच से पूछा जाये क्या?? :)
बाउ लोग बढिया टिपियाये है :)
अच्छा लिखा है।
****स्त्री ने कभी अपनी व्याख्या नही की । वह महान है । वह उद्देश्यो के भटकाव में , पुरुष की तरह समय नष्ट नही करती । वह सृजन करती है । मौलिक सृजन ।कभी यह सृजन रसोई में होता है कभी गर्भ में । वह जीवन में रस और रंग लाती है {किसके ? अजी बैचलरों के !} जीवन को व्यवस्था देती है , सुचारू रूप से चलाती है {आपको समय पर खाना पीना ,कपडा -लता प्रेस किया हुआ ,रति ,संतान,संतान का होमवर्क ,माता पिता की सेवा, बहनों को मेवा सब समय पर कोई देता रहे तो जीवन सुचारू रूप से नही चलेगा भला? } फिर पितृसता कहे कि वह महान है । कुछ नही माँगती , क्षमाशील है , तपस्विनी है , ममतामयी है ।
सही कहा है आपने। (कृपया इसे झाड़ पर चढ़ाना न समझें :) )
बहुत अच्छा लिखा.. शिल्प की दृष्टि से भी.. मगर इतना आत्मविश्वास बनाये रखिये कि कोई दिखाता भी रहे आईना.. लेकिन आप अपने ही आईने में देखिये बस..
दुनिया है.. हम एक दूसरे के बारे में राय तो बनायेंगे ही..
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