Sunday, June 10, 2007

जय सुरकण्डा माता !!

धनोल्टी जाकर ,सुरकण्डा देवी की चढाई चढते हुए मन मे अधिक उत्साह भी नही था और शक्ति भी नही सो थोडी दूर चलकर ही टट्टू ले लिए गये । लर्निग तो हमारी आस्तिक के रूप मे हुई पर धीरे धीरे डी लर्निन्ग भी कर ली और नास्तिक हो गये । सो तपोवन की सुनसान पहाडी चढाई जो टाट्टू पर नही थी और कठिन भी थी ,वह हमे अधिक रोमान्चक और उत्साहवर्धक लगी । खैर कल बैठे बैठे अचानक सुरकण्डा देवी की याद आयी और भी कुछ जो देखा था और उद्वेलित कर रहा था याद आया और यह कविता बन पडी । कविता से त्रस्त लोग माफ़ करे ।


शायद इस सपाट अभिव्यक्ति से भार्तीय स्त्री और समाजीकरण की कुछ सच्चाएयां स्पष्ट हो सकें ।


सितारों वाली साडी,
भरी -भरी चूडियां,
हील वाले सैंडिल,गोद में बच्चा ,कुछ महीने का,
और कंधे पर पर्स लटकाए,जिसमें से
दूध की बोतल,तौलिया, नैपियां ,
झांक रही है ।
और
वह
हांफ़ रही है
चढते हुए सुरकण्डा देवी की चढाई
अत्यन्त कटीली ।
पति ने रास्ते में बुरांश का रस,१० रु। गिलास।
दुलराया शिशु को
और खरीदे नारियल ,बताशे , माता के लिए बिन्दी, मेहन्दी, सिन्दूर वगैरह.............
टट्टू पर सवार लोगो को उपर चढते को हिकारत से देखा
और कहा खुले आम----
"माता खुश होती है
उन भक्तों से जो पैदल चढाई करके आएं"
और देखा पत्नी की ओर
उसे भांपते हुए और समर्थन प्राप्ति के विशवास में ।

7 comments:

रंजन (Ranjan) said...

"माता खुश होती है
उन भक्तों से जो पैदल चढाई करके आएं"

"माता क्या करती है ?
उन भक्तो का जो टट्टु पर सवार हो के आये है,
माता नाराज नहीं होती,
या कहे की नाराज नहीं होती, इसलिये माता है.
माता "माँ" सी है, खुश होती है,
कहती है, अच्छा किया तु अकेला नहीं आया/आयी
अपने साथ टट्टु भी ले आई/आया"


गुस्ताखी के लिये माफी, आपकी कविता में कुछ लाईन मैने भी लगा दी.

Arun Arora said...

"कहती है, अच्छा किया तु अकेला नहीं आया/आयी
अपने साथ टट्टु भी ले आई"

राह का और टट्टू के साथ का काव्यातमक विवरण अच्छा है
वैसे ये टाईटल भी अच्छा लगता
सुरकंडा माता की यात्रा एक ट्ट्टू के साथ
:)
हम स्माईली लगा दिये है ध्यान दिया जाय

राजीव रंजन प्रसाद said...

और कहा खुले आम----
"माता खुश होती है
उन भक्तों से जो पैदल चढाई करके आएं"
और देखा पत्नी की ओर
उसे भांपते हुए और समर्थन प्राप्ति के विशवास में ।

:)
बहुत खूब)

*** राजीव रंजन प्रसाद

Anonymous said...

टट्टू से ऊपर जाने का सारा अपराध बोध एक कविता में धुल गया। :) बढ़िया जुगाड़ है!

ePandit said...

:)

Udan Tashtari said...

अच्छा लिखा है. और अच्छा किया कि लिख दिया. :)

मसिजीवी said...

टटृटू के साथ हमारी सहानुभूति थी और अब भी है।