अभी असीमा पर बात करते करते मुद्दे पूरी तरह उठे भी नही हैं ,पूजा चौहान के प्रतिरोध के प्रतीकों को समझा भी नही गया है कि एक और उदाहरण पेश है मर्दवादी समाज और व्यवस्था का हमारे सामने ‘किरण बेदी’ के रूप मे जो दिल्ली की कमिश्नर बनने की दौड में पीछे धकेल दी गयीं हैं ।‘अ वूमेन हू डेयर्स ‘।डॆयरिंग वूमेन के लिए हमारे समाज के पास गालियाँ और ताने हैं तो व्यवस्था के पास भी अपने हथियार है ।क्योंकि निर्णय लेने की स्थिति जब पुरुष की होगी तो निश्चित रूप से वह व्यवस्था के और अपने हित में एक पुरुष को ही चुनेगा ।आज राष्ट्र की पहली महिला राष्ट्रपति जब कमान सम्भाल रही हैं तो किरण बेदी –देश की पहली महिला आई.पी.एस को देश ने निराश किया है ।असीमा जब मुँह खोलती है तो अकेली पड जाती है ।गालियों और धमकियों की शिकार होती है । क्या मायने यह है कि जब भी पुरुषवादी व्यवस्था मे महिला हिम्मत करेगी तो उसे मुँह की खानी होगी ?मेरी सोच गलत है तो यह भी बताया जाए कि किरण बेदी के साथ हुए अन्याय को हम किस दृष्टि से देखें? क्या यह सर उठाती स्त्री से मर्दवादी व्यवस्था की ईर्ष्या ?? राष्ट्रपति चुनाव में प्रतिभा पाटिल को भी तो मोहरा बनाया गया है राजनीति का ।इसे महिला-सम्मान और सशक्तिकरण की नज़र से दिखाया जा रहा है ताकि पीछे की राजनीति को ढँका जा सके ।अत्यंत खेद की बात है कि आज तक भी हम स्त्रियों को मोहरा बना रहे हैं या रास्ते से बडी चालाकी से हटा रहे हैं ।डर है अपनी सालो की सत्ता के खोने का ?
याद करना होगा कि यह वही दिल्ली पुलिस है जो लडकियों से छेडछाड को रोकने के लिए अपने विज्ञापनो में समाज के मर्दों का आहवान करती है ।जिस विभाग की मानसिकता समाज की स्त्रियों के लिए ऐसी है वह विभाग की स्त्रियों के लिए क्या सोचता होगा यह अनुमान लगाया जा सकता है ।
किरण बेदी से दो साल जूनियर युद्ध वीर सिह को दिल्ली का कमिश्नर बनाया गया है ।वे २००९ मे रिटायर होन्गे और किरण बेदी तब तक रिटायर हो चुकी होन्गी । मेरिट और सीनियॊरिटी ---किसआधार पर यह फ़ैसला लिया गया है क्या यह जानने का कष्ट महिला सशक्तिकरण की दुहाई देने वाली सरकार करेगी ? क्या आम जनता को नही लगता कि यहां कुछ गलत हुआ है ?
जब भी यह सोचने की कोशिश करो कि ’सब ठीक ही है शायद ’तभी एक प्रमाण मिल जाता है सब गलत होने का ।अपनी बेटियो को किरण बेदी बनाने के ख्वाब देखने वाले माता-पिता शायद अब कभी ऐसा ख्वाब देखने की बेवकूफ़ी नही करेन्गे । शायद इससे बेहतर वे अपनी बेटी को ऐसे अफ़सर से ब्याहना ज़्यादा पसन्द करेन्गे !!सवाल उठ रहे है लगातार तब तक जब तक कि सवालो का अन्तहीन सिलसिला सत्ता के एकाधिपतियो को आतन्कित न कर दे ।
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8 comments:
अपनी बेटियो को किरण बेदी बनाने के ख्वाब देखने वाले माता-पिता शायद अब कभी ऐसा ख्वाब देखने की बेवकूफ़ी नही करे
अगर सोच यही रहती तो आज आप इस बरे मे लेख लिख कर आक्रोश नही दिखा रही होती,जरूरत है इस स्माज को 10000 किरण बेदियो की,जब ऐसा होगा तो कोई एसा नही कर पायेगा
मुझे लगता है किरण बेदी को उसकी ईमानदारी ने मारा है. इनकी जगह कोई पुरूष भी होता तो वह भी अन्याय का शिकार होता. वैसे ही प्रतिभाजी की जगह कोई और भी जो मेडम को समर्पित होता राष्ट्रपति बन सकता था. यह न तो नारी सशक्तिकरण का मामला है न विरोध का.
सोनिया सुपर प्रधानमंत्रि है, पुरूष महमोहनजी उनकी उँगलियों पर नाचते है. यह कौन सी पुरूष प्रधानता का उदाहरण है.
किरण बेदी के साथ ऐसा केवल इसलिये नहीं हुआ होगा कि वे महिला हैं। अपनी शर्तों पर और कानून के अनुसार काम करने तथा किसी से न दबने की उनकी छवि से भी ऐसा हुआ होगा।
सही लिखा आपने.
दो दिन पहले मर्दवादी समाज का एक उदाहरण मैंने भी दिया था. इन सब वाकयों से समाज के महिलाओं के पगति व्यवहार का पता चलता है.
मैं स्वयं ऐसे अनेकों पुरुषों को जानता हूं जो इमानदार रहे, अपने हिसाब से नौकरी की, कभी नेताओं की जी हजुरी नहीं की और अनेकों बार इस तरह की विफलताओं को प्राप्त होते रहे. एक प्रकरण में तो प्रताडित करने वाली मंत्री महिला थीं. किरण बेदी का मामला स्त्री या पुरुष होने का नहीं है, ऐसा मुझे लगता है.
कौन कहता है कि किरण बेदी महिला है? वह तो शेर है, मर्दों की मर्द...
ट्रांसफर पोस्टिंग वाले गीदड़ों ने उनके साथ खेल खेला है जो यह साबित करता है कि किरण बेदी इनके लिए बड़ी चुनौती है.
व्यवस्था तो हमेशा ही मर्दवादी होती है। किरण बेदी जैसी आईपीएस अफसर को दिल्ली का पुलिस कमिश्नर न बनाने का फैसला भी दिल्ली की महिला मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने लिया है। उनकी आका सोनिया गांधी भी महिला हैं। लकिन, व्यवस्था में जैसी ही कोई ताकतवर होता है वो मर्दवादी हो जाता है। साफ है मर्दानगी तभी तक चलेगी, जब तक उनसे ज्यादा कोई मर्द न मिले। साफ है किरण बेदी शीला दीक्षित और सोनिया से ज्यादा मर्द हैं। और, अभी के पुलिस कमिश्नर कम मर्द।
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