कभी दिन थे ... गर्मियों के मौसम में ,जब मकान एक मंज़िल से ऊपर नही थे ,छतों पर सोया करते थे चारपाइयाँ बिछा कर और नीन्द आने तक चाँद को घूरते रहते थे कल्पना करते हुए कि उसका टेढा मुँह कैसा लगता होगा वहाँ पहुँचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों को ।
हवा की लहर चलती थी तो चेहरों पर गर्मी से खिंचा तनाव पुँछ जाता था ।बच्चे थे । नीन्द से फासला रखते थे ।जब तक कि वह पस्त न कर दे । ऊपर आँख उठाओ तो काला रहस्यमय अनंत संसार पलकें झपकाने नही देता था – क्या पता अन्धेरे में हमारे जगते-जगते तैयार हो रहा हो कोई कृष्ण छिद्र ।ब्लैक होल । भौतिकी की कक्षा में पढा हुआ सब दिमाग में कौतूहल पैदा करता था । कहीं कोई तारा गिन रहा होगा अपनी अंतिम साँसें । नक्षत्र दिशाएँ बदल रहे होंगे । खत्म होता विशाल तारा ,सूर्य से भी कई गुना बडा , जब खाली करेगा अपनी जगह अंतरिक्ष में तो उस कालिमा में अनायास ही खिंच जाएँगे आस पास के सभी पिण्ड और धीरे धीरे बहुत कुछ जब तक कि समाने को कुछ न बचे । सप्तर्षि ढूंढते थे कभी और खुश होते थे । कभी कोई हवाई जहाज़ लाल बत्तियाँ टिमकाता गुज़रता था कछुए सा । हम सोचते थे कहाँ जाता होगा ? किन्हे ले जाता होगा ? क्या उन्हें हम दिखते होंगे ?क्या हम जहाज़ में बैठ कर अपना घर पहचान पाँएंगे ?
दिन भर के रोटी-पानी की दौड-धूप से हारे माता-पिता ज्यूँ ही बिस्तर पर लेटते ,निन्दाई बेहोशी उन्हे घेर लेती थी ।टेबल फैन के आगे लेटने के लिए बच्चों में दबी अवाज़ में हुई लडाई या घमासान वे नही देख पाते थे । सुन पाते थे तो एक झिडकी ज़ोर से आ गिरती थी और ताकतवाला ,रुबाब वाला बच्चा बाज़ी मार लेता था । लातें चलती रहती थीं इस चारपाई से उस चारपाई । हम छुटकों को एक ही चारपाई पर साथ में सुलाए जाने का बडा कष्ट था ।चारपाइयाँ कम थीं । रात भर हममें धींगा-मुश्ती होती ।कभी अचानक नन्हीं बूंदे पडने लगतीं तो सोते हुए लोग हडबडा कर ,चारपाइयाँ,गद्दे ,चादरें उठा कर भागते । सूरज बडी जल्दी में रहता था उन दिनों। इधर अभी नीन्द आना शुरु होती और उधर वे खुले आकाश के नीचे सोते बेसुधे बच्चों पर किरणों के कोडे बरसाना शुरु कर देते ।रात भर लडे हम छुटकों को कोडों की यह मार भी बेअसर थी । माता कब नीचे जाकर रसोई में जुटी पिता कब बाज़ार से दूध ,भाजी-तरकारी ले आए कभी पता नही लगा । हमें अभी बहुत काम था । दिन भर खेलना था ,लडना था, कूद-फान्द करनी थी ,पेन-पेंसिल ,कॉपी,बिस्तर और फ्रॉक-रूमाल के झगडे सुलटाने थे । होमवर्क भी करना था । सो देर तक सो कर इन कामों के लिए ऊर्जा का संचय करते थे ।
सोचती हूँ तीस साल बाद हमारी संतानें “वे दिन ”किस तरह याद करेंगी ! खैर फिलहाल तो न छत नसीब है[जिन्हे नसीब है वे मच्छरों से आतंकित हैं] न आंगन नसीब है न ही वह निश्चिंतता । पर आज भी मन हो आता है खुले काले चमकते तारों भरे रहस्यमय आकाश के नीचे लेटे रहें ।पहाडों पर पहुँच कर यह सम्मोहन और भी बढ जाता है ,जब आकाश में तारे ज़मीन पर किसी बच्चे के हाथ से बिखर गये सितारों की तरह लगते है जिन्हे वह स्कूल में दिया या राखी सजाने को लाया था और जिन्हे बुहारती हुई माँ उन्हे कूडा कह दे।ऊँचाई से आसमान तारों से बेतरतीबी से अटा पडा दिखाई देता है । दिमाग में अजीब सी खुजली मचती है उन्हे देखते ,आँखें और भी गडी जाती हैं ।शायद यह सम्मोहन है ही इसलिए कि रहस्य है ।
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4 comments:
जन्मदिन की शुभकामनाएं ढेरों
अरे अविनाश जी आप तो सच समझ लिए !! वैसे शुभकामना लौटाना नही चाहिए,सो ले लेते है,सच वाले जन्मदिन पर काम आयेगी। :)
बचपन की यादें अच्छी हैं ।
नीन्द से फासला रखते थे ।जब तक कि वह पस्त न कर दे । sachchii,badi mehnat se neend bhagaatey they un dino...bachpan yaad dilaa diyaa aapne aaj
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