जब कहानी की बात होती है अंतोन चेखव की कहानियों की सहजता, क्षिप्रता ,और गहराई याद हो आती है । यह वो कहानी है जहाँ कहानी अपने विकास के चरम पर पहुँच जाती है ।बहुत विचित्र लगता है कि हिन्दी उपन्यास ने जो मकाम 30 साल में हासिल किया उसे हिन्दी कहानी ने एक दशक में पा लिया । खैर , अंतोन चेखव की याद आज यूँ आयी कि शिक्षक की स्थिति पर विचार करते हुए उन्होने कुछ महत्वपूर्ण बातें कह दीं थीं जो इस चाण्क्य भूमि में बडी प्रासंगिक लगीं ।
"अध्यापक को तो कलाकार होना चाहिए,अपने काम से उसे गहरा अनुराग होना चाहिए ,और हमारे देश में तो वह मज़दूर ही है.... वह भूखा है, दबा हुआ है,दो जून की रोटी खाने के डर से भयभीत है,अल्पशिक्षित व्यक्ति है।.....जबकि उसे गाँव में सबसे प्रमुख व्यक्ति होना चाहिए,ताकि वह सब सवालो का जवाब दे सके, ताकि किसान उसे आदर्णीय व्यक्ति समझें, कोई भी उस पर चीखने -चिल्लाने की जुर्रत न करे ...उसका अपमान न कर सके, जैसा कि हमारे यहाँ आएदिन सभी करते हैं- थाने दार ,दरोगा,दुकानदार,पादरी,स्कूल का प्रिंसिपल और वह बाबू जो स्कूलों का इंस्पेक्टर कहलाता हैपर जिसे शिक्षा में सुधार की नही बल्कि इस बात की हीचिंता होती है कि आदेशों के पालन में कोई कमी न रह जाए । आखिर यह बात बेतुकी है कि जिसे जनता को शिक्षित करने का,सभ्य बनाने का काम सौंपा गया हो उसे दो कौडियाँ मिलें !"
बहुत कुछ यही हालात हमारे देश में शिक्षा और अध्यापक के भी हैं । पब्लिक स्कूलों और बडी संख्या में महिला अध्यापकों को छोड दिया जाए तो सरकारी स्कूलों और नुक्कड के छुटभैय्ये स्कूलों की बहुत सी अध्यापिकाएँ इसी तरह की ज़िल्लत और शर्मिन्दगी उठाती हैं । खुद स्कूलों में काम करके देख चुकी हूँ । बहुतों के अनुभव सुन चुकी हूँ । प्रिंसिपलों और स्कूल के बाबू और यहाँ तक कि चपरासी भी उससे कई गुना हैसियत रखते हैं । सम्पन्न परिवारों की स्त्रियों के लिए यह काम पॉकेट मनी और बच्चॉं को उसी प्रतिष्ठत स्कूल में मुफ्त पढा लेने का सवाल है ।वहीं पुरुषों के लिए यह घर चलाने का सवाल होता है ।एक स्कूल मैनेजमेंट के एक सदस्य को कहते सुना था - 'कितने टीचर चाहियें? अभी ट्रक भर कर मंगवा सकता हूँ । और वह भी 1500 रु. में । यह मेरे लिए कोई समस्या नही । ' हैरानी न हों लेकिन यह सच है । समस्या बहुत जटिल है । कई मुह वाली ।जिसके कई पहलू हैं । एक पोस्ट में समे पाना सम्भव नही ।
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4 comments:
समस्या वाकई बहुत जटिल है
बहुत खूब. आपको पता है या नही लेकिन में बताना चाहूँगा आजकल सरकारी स्कूलों में मध्यान्ह भोजन योजना लागू कि गई है और विचित्र बात यह है कि बच्चों के लिए भोजन बनाने का काम भी कई जगह इन्ही शिक्षकों को ही करना पड़ रहा है.
स्थिति बहुत बुरी है और ऐसे में हम आशा करते हैं कि अध्यापकों को पैसे का लालच ना हो, वे ट्यूशन ना पढ़ाएँ, वे सादा जीवन जीयें और त्याग करें। ऐसा जीवन भी किसी जमाने में अध्यापक जीते थे परन्तु तब उनका आदर भी खूब होता था । खैर, सच तो यह है कि जैसा वेतन अध्यापकों को मिलता है, उससे बहुत अधिक वे समाज को देते हैं ।
घुघूती बासूती
kabhi dilli university mein professor/reader/lecturer ban kar dekhiye vahi rani/raja lagegi/lagega....baki duniya to majdoorana mehnat kar rahi hogi.han bas naukari permanent honi chahiye aur university ke chatukaron ya consipirators mein apka nam hona chahiye.
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