Tuesday, January 29, 2008

जादा तकलीफ है तो ऑटो में जाया करो ना ....यहाँ तो ऐसे ही होता है

वह जितनी जगह छोड रही थी,वो उतनी जगह घेरता जा रहा था । वह सिमट रही थी। वो फैल रहा था ।कुछ नया नही हो रहा था।हमेशा से ऐसा ही चला आ रहा था ।अपनी जगह न छोडने का मतलब था अनचाहे ,बेढंगे ,बेहूदे स्पर्श को झेलना । डटे रहना सही है या सिमटना । खिडकी के पास वाली सीट पर एक हद के बाद सिमटने को जगह ही कहाँ बची थी । उसने झटके से सीट से उठते हुए मन में कुछ गालियाँ बकी और खडी हो गयी । उस आदमी ने और बाकी औरतों-मर्दों ने उसे विचित्र दृष्टि से देखा मानो कहते हों- बडी सनकी है ,स्टाइल मार रही है, हुँह !!। ये उसकी बेवकूफी थी । इतनी मुश्किल से तो ब्लूलाइन बस में जगह मिलती है , देखो पगली उसे छोड तन कर खडी हो गयी ।अब खाओ आजू- बाजू वालों के धक्के । उसने घूरा ।"क्या मैडम ! अपन को मत घूरो , बस में साला भीड ही इतनी ऐ, तिल धरने की जगह नही ऐ, जादा तकलीफ होती है तो औटो में जाया करो ना ,और वैसे भी अपन को शौक नई है तुम्हारे ऊपर गिरने का...[धीमे से कहा ]वैसे भी इतनी खूबसूरत नही है स्स्सा#@ंं"बस में कुछ घट गया था । शायद किसी का बटुआ मारा गया था , आंटी चिल्ला रही थी ।अफरा-तफरी मची हुई थी, वो तीन लौंडे बस के ठीक पीछे से भीड को कुचलते हुए आगे के दरवाज़े तक पहुँच रहे थे चोर को स्टॉप पर उतरने न देने के लिए। "अबे , पकडो साले को भैंन की .. साले ...कमीन ..साले " वे दबादब गालियाँ दे रहे थे एकाएक जैसे भीड पागल हो गयी थी। महिलाएँ महिलाओं की सीट पर चुप पडी थीं । लौंडे और बाकी आदमी सबको धकियाते , किसी का जूता,किसी का पैर ,किसी का सर कुचलते हुए आगे जा रहे थे । आपात स्थिति थी । कुछ पलों की इस धकम पेल में दम घुटने को आया ।पैर कुचला गया था । दुपट्टा भीड में जाने कहाँ खिंच गया था । आगे से बचने की कोशिश में पीठ पर कन्धे पर निरंतर थापें पडी थीं । बस रोकी गयी थी । नीचे वो चोर् पिट रहा था और उसकी माँ- बहन एक कर दी गयी थी । अब सब शांत था , लौंडे वापस सवार हुए । बस चल पडी । लौंडे पीछे खडे अपनी मर्दानगी का हुल्लास प्रकट कर रहे थे और सगर्व उसकी ओर देख रहे थे । अधेड पुरुष धूर्त मुस्कान के साथ उनके समर्थन में थे ।' भैय्या तैने सई करी , वाकी खाल उधेर दी साला चो..'अगले स्टॉप पर बस रुकी । उसने निश्चय किया । उतरना आसान नही था । आगे निकलने के लिए जगह आसानी से नही बनाते दोनो ओर की सीटों पर लटकी सवारियाँ। मन कडा किया आंखें बन्द की तीर सी सीधी बाहर । नीचे उतरी .राहत तो थी । दूसरी बस का इंतज़ार करने लगी । पन्द्रह मिनट बीते पर एक बस आ पहुँची ; दरवाज़ों से लटकते शोहदे । वो उतरेंगे । फिर तुम्हें चढाएंगे । फिर यथास्थान आ जाएंगे । हँसती -खिलखिलाती वे पाँचों लडकियाँ उसके देखते देखते समा गयीं । बस के भीतर कहाँ । नही पता । उनके पास कोई समाधान न था । उसकी हिम्मत नही हुई ।पहले सीट छोडी, फिर बस । अब क्या ?एक दिन औटो , दो दिन तीन दिन ।नही । सम्भव नही । उसे याद आया । उस दिन औटो वाला 50 रु में माना था ।
उसने कहा 'मीटर से तो 35 ही आते है'
'तो मीटर वाला ढूंढ लो '
मजबूरी थी । आस पास कुछ और नही था । देर अलग हो रही थी।
10 मीटर चल कर पान के खोके पर लाकर रोक दिया ।
'क्या हुआ भैय्या'
'...'
'क्या हुआ ?'
'..'
वह चला गया । पान मसाला लिया । पैकेट खोला ,बडे अन्दाज़ से खडा होकर मुँह में भरा । पानवाडी से बतियाने लगा । उसका गुस्सा पार हो चुका था । वह उतरी और चिल्लाई ।
'ये क्या बकवास है ; पागल दिखती हूँ जो यहाँ लाकर खडा कर दिया है ? चलता क्यो नही है '
बिना विचलित हुए उसने कहा' अरे मैडम , अभी तो गैस भी भ्ररवानी है आगे वाले पम्प से , आप बैठो आराम से ज़रा '
वह उबल पडी 'बदतमीज़ आदमी ! पहले नही बोल सकता था गैस भरवानी है पान खाना है,पेशाब करना है। आराम से बैठो ?? आराम से बैठ्ने का टाइम होता तो ऑटो लेती मैं ?'मन हुआ एक झापड धर दे मुँह पर ।
वह अविचलित । बुडबुडा रहा था । उसे समझ आ गया था । यहाँ बेकार है गुस्सा करना भी ।नम्बर नोट किया । कम्पलेंट करने को ।
वापस चल पडी , जहाँ से चली थी ।

9 comments:

Abhishek Ojha said...

अच्छा लेख... इस पर तो यही टिप्पणी की जा सकती है... जायें तो जायें कहाँ?

Dr Parveen Chopra said...

पढ़ कर मन बहुत दुःखी हुया..अगर बड़े शहरों का यह हाल है तो कसबों और गांवों का क्या हाल होगा। महिला सशक्तिकरण गुट भी कुछ देख-सुन रहे हैं क्या ..

anuradha srivastav said...

ये तो अक्सर होता है। कभी भीड का हवाला तो कभी धक्के का । कोई और उपाय भी नहीं है। महानगरीय जीवन-शैली की विडम्बना है और नारी होने का खामियाज़ा।

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म, सवाल सिर्फ़ महानगरीय जीवन शैली की विडम्बना का नही है, यह सवाल है हमारी मानसिकता का। छोटे शहरों में और कस्बाई इलाके में ये दिक्कतें, यही बातें किसी और रूप में हमारे सामने मौजूद है ही।
"हम' ऐसे क्यों बनते जा रहे हैं यह विश्लेषण करने वाली बात है।

विनीत कुमार said...

sach kahu to khoon khaul jaata hai aisa padkar, jab aap jaldi me hote hai aur saamnewala itminaan hota hai

Sanjay Karere said...

1. अगर यह सोच कर लिखा है कि ऐसा सिर्फ लड़कियों के साथ ही होता है, तो गलत हो.
2. अगर यह सोच कर लिखा है कि सारे मर्द शोहदे ही होते हैं, तो गलत हो.
3. अगर यह सोच कर लिखा है कि सिर्फ महिलाएं ही अन्‍याय की शिकार होती हैं, तो भी गलत हो.

क्‍योंकि इस तरह बस पुरुषों को भी छोड़नी पड़ती हैं. ऑटोवाले पुरुषों से भी इसी तरह बदतमीजी करते हैं (बल्कि पुरुषों से तो मारपीट तक कर देते हैं) और अन्‍याय पुरुषों के साथ भी होता है..यहां तक कि यौन उत्‍पीड़न भी.

लेकिन आपकी मूल भावना को अच्‍छे से समझ पाया हूं पर कोई दिखावे भर का कमेंट नहीं कर सकता.

अनामदास said...

जिसने ये सब देखा नहीं है, जाना नहीं है, झेला नहीं उसे लगेगा कि ये सब कितना नाटकीय है लेकिन दिल्ली जैसा नारीविरोधी शहर कोई दूसरा नहीं है.मुंबई की लोकल ट्रेन की तरह दिल्ली में सिर्फ़ महिलाओं के लिए बस क्यों नहीं चल सकती, हालाँकि सिद्धांतत सिर्फ़ महिलाओं के लिए कुछ भी करने का खयाल अटपटा लगता है लेकिन जहाँ पुरूष पशु हो रहे हों यह उन्हें बताने जैसा कि तुम्हारा इंसानियत पर शक है इसलिए इस गाड़ी तुम नहीं चढ़ सकते, सिर्फ़ महिलाओं की ट्रेन देखकर भी लोग नहीं समझते कि उन्हें ख़तरनाक जानवर से भी बुरा समझा जाता है...दिल्ली की बसों के मामले में तो बहुत सख़्ती की ज़रूरत है, ऑटो वाले तो नंबरी हरामी हैं, इतना बुरा हाल भारत के किसी और शहर में नहीं है. बहुत अच्छा, सही और ज़रूरी लिखा है आपने.

azdak said...

अनामदास वाली टिप्‍पणी के पीछे-पीछे हूं.. मुझे तो लगता है औरतें घर से दो जोड़ी चप्‍पल लेकर निकला करें.. एक पैर के लिए दूसरी इन हरामियों का करम करने के लिए..

सुजाता said...

संजय मैने क्या सोच कर लिखा इस पोच में काहे पडे हो , तुम क्या सोचते हो वह महत्वपूर्ण है क्योंकि सब मर्द शोहदे नही और सब मर्द उत्पीडक नही इसलिए इसमे दुख मनाने का क्या है ? कुछ ऐसी टोन झलकती है आपकी बात में ।
डॉ प्रवीन ,ओझा जी दुख तो होता ही है उससे ज़्यादा ज़लालत महसूस कराने वाली बात है ।
प्रमोद जी अनामदास जी , बात सही है ।कल से पहनने की चप्पल और मारने की और रही । पर चप्प्लों से पीटना और अलग एल-स्पेशल चलाना मदद तो करेगा पर कहाँ तक? दिन में कितनो को चप्पल मारी जाएगी और एल स्पेशल का मतलब है सीधा कॉलेज ऑफिस जाना सीधे घर आना । सीधा जाना सीधे घर वापिस आना यही हिदायत तो देती है माँ बाप पति लडकी को । इसी सोच से तो निजात चाहिये ।