Friday, March 28, 2008

मनुष्य़ मूलत: कबाड़ी है ..


जहाँ भी निकल जाए इनसान ..एक आशियाना साधारण ,छोटा ,जैसा भी , बनाता है उसमें रमता जाता है और धीरे धीरे एक गृहस्थी एक साम्राज्य खडा कर लेता है अपने आस- पास । फिर वक़्त गुज़रने के साथ उसमें से बहुत कुछ कबाड बनता जाता है ।फिर दिक्कत आती है उस कबाड़ के मैनैजमेंट की ।
{साफ कर दूँ कि यह कबाड़ वह कबाड़खाने वाला नही है ।}
कुछ दिन तक अनदेखा करते रहो घर को , रसोई को ,पढने की मेज़ को , किताबों-कपडों की अलमारी को और अचानक एक दिन घर कबाड़ खाना लगने लगता है और हम सब उसके कबाड़प्रिय कबाड़ी । 4-5 साल पहले दीवाली पर मन कर के खरीदा हुआ सुन्दर लैम्प शेड कब आँखों को खटकने लग जाता है पता ही नही चलता । पहले बडे मन से हम चीज़ें यहाँ-वहाँ से इकट्ठा करते हैं और वक़्त बीतते बीतते वे कबाड में तब्दील होने लगती हैं । पर मोह उन्हें फेंकने से रोके रखता है । जब बच्चे थे , घर में एक कोना ऐसा था जिसे हम खड्डा कहा करते थे ।वहाँ हर वह चीज़ जो काम की नही थी आँख मून्दकर फेंक दी जाती थी । कुछ पुराने जूते-चप्पल, एक-दो बाल्टियाँ ,पुराना हीटर ,एक खराब प्रेस ,पुराने अखबार ,मैगज़ींस ,स्पेयर बर्तन जिनकी कब ज़रूरत पडने वाली है पता नही ,सब कुछ उस अन्धे कुएँ में चला जाता था अनंत काल के लिए ।धीरे-धीरे नया सामान आता और पहले का नया सामान पुराना पड़ जाता । और खड्डा फैलता जाता था ।छतों पर पुराने ज़माने के ब्लैक एण्ड वाइट टीवी और कुछ लकडियाँ बारिशों में भीगते रहें और उसकी लकड़ी फूलती रही ।बहुत् साल बाद उससे छुटकारा पाया । अब भी यही हाल है ।फर्क यह है कि अब कोई खड्डा नही । इस छोटे से तीन कमरों के घर में कबाड़खाना बनाने लायक जगह नही है । इसलिए कबाड़ और असल सामान में फर्क धीरे-धीरे मिटता जा रहा है । जो आज नया है कल कबाड हो जाता है ।समेटे नही सिमटता । फिर भी नए कपडे खरीदे जाते हैं , पुराने फट नही रहे पर फेड तो हो रहे हैं ;अलमारी को साँस नही आ रहा । धुले कपडे -मैले कपड़े -घर आकर उतारे गये कपड़े ,धोबन दे गयी जो कपड़ॆ ,ऑल्ट्रेशन को जाने वाले कपड़े , ड्राईक्लीनिंग से आये कपड़ॆ बच्चे के छोटे हो गये कपड़े ,सब जहाँ जगह मिलती है पसर जाते हैं ।एक टेबल है । उस पर किसका सामान हो यह लड़ाई रहती है । श्रीमान जी मेरा सामान शिफ्ट करते हैं ,पीछे से मैं उनका कर देती हूँ । बच्चे का कहाँ जाएगा अभी कैसे सोचें ।अपने से फुरसत नही ।रसोई कभी कभी ज्वालमुखी सी बाहर फट पड़्ने वाली सी दिखाई देती है ।झल्लाहट होती है ।सामान ही सामान है इस घर में । सदियों से पड़ी सड़ती एक चीज़ जैसे ही ठिकाने लगाओ दूसरे तीसरे दिन कोई पूछ लेता है उसके बारे में ।
बिल आते हैं ,चिट्ठियाँ आती हैं , बैंक वालों के नितनये चिट्ठे आते हैं ,कुछ ज़रूरी खत भी आते हैं । सब इकट्ठे होते हैं ,एक दिन ढेर बन जाने के लिए ,जिसमें से किसी दिन अचानक अड्रेस प्रूफ के तौर पर ढूंढना पड़ जाता है कोई बिल ,या कुछ और । और नही मिलता । पुरानी किताबें पढी नही जातीं नयी आ जाती हैं हर बुक फेयर से ।

एक वक़्त ऐसा भी शादी के बाद कि घर से खाली हाथ निकले थे ,साल भर के अन्दर बहुत बड़ी चीज़े न सही पर बहुतेरा सामान इकट्ठा कर लिया था । सिर्फ गृहस्थों का यह हाल नही ।एक मित्र अकेली रहती थीं । उन्होने भी धीरे-धीरे एक साम्राज्य खड़ा कर लिया था अपने आस-पास । लगभग हर घर में अब देखती हूँ एक स्टोर रूम है जहाँ कुछ भी लाकर पटका जा सकता है । किसी के आने की खबर पर जहाँ बहुत कुछ ठूंसा जा सकता हो । कबाडखाना अलग न हो तो सारा घर ही कबाड़ी की दुकान में तब्दील हो जाता है ।
कभी कभी सोचती हूँ एक आदमी हर वक़्त तैनात चाहिये घर को कबाड बनने से बचाने के लिए । पुराने सामान को झड़्ने पोंछने के लिए । रद्दी की सॉर्टिंग के लिए । उतारे गये जूतों और इस्तेमाल न होने वाले चप्पलों को सहेज कर रखने के लिए । गर्मियों के आने पर स्वेटर कम्बल पलंगों और अलमारियों में धँसाने के लिए, कोट -शॉलें ड्राइक्लीन कराकर सम्भालने के लिए ।जूठे बर्तनों को उठा कर रसोई में पहुँचाने के लिए ,चादरें और तकिये के लिहाफ बदलने के लिए ,रैक से बाहर टपकती किताबों को बार बार रैक में पहुँचाने ले लिए, अलमारियों में कपड़े लगातार ठिकाने पर रखते रहने के लिए .............खपते रहने के लिए .....कबाड़ सहेजते समेटते हुए .....कबाड़ बनते रहने के लिए ......

20 comments:

रवीन्द्र प्रभात said...

बढिया है जी , आनंद आ गया !

Ghost Buster said...

सटीक. (ज्यादा कुछ कहते डरते हैं जी. आप संटी भी जल्दी उठा लेती हैं.)

Unknown said...

सुजाता जी यही जीवन है, कभी-सुख तो कभी दुख। और इसमें परिवर्तन तो होगे ही। अच्छा लिखा आपने । बधाई आपको।।

अनूप शुक्ल said...

सही है। घोस्ट बस्टर की बात भी।

मुनीश ( munish ) said...

totally ghareloo type article. sahi hai aur kya!

सुजाता said...

रवीन्द्र जी ,नीशू व अनूप जे क धन्यवाद पसन्द करने के लिये ।
@घोस्ट बस्टर जी
घोस्ट को संटी का क्या डर !!
@ मुनीश जी ,
घरेलू तो है ही आर्टिकल । मैं भी तो घरेलू हूँ । इसलिए कभी कभी घरेलू बातें लिखने का मन होता जाता है :-)

Batangad said...

और, कबाड़खाने का मैनेजमेंट करते-करते जिंदगी गुजर जाती है।

मुनीश ( munish ) said...

हें ...हें...हें...इस टाइप की हँसी का एफ्फेक्ट दिया जा सकता है इन बातों पर !

संजय बेंगाणी said...

बात तो सही कही. जो आज प्रिय लगता है, कल कबाड़ हो जाता है. उसे निपटाते है तब तक दुसरी चीजे कबाड़ लगने लगती है. यानी जिन्दगी कबाड़ निपटाने में ही खर्च हो रही है.

सागर नाहर said...

कई कबाड़ ऐसे भी होते हैं जिनके लिये हम जानते हैं कि कबाड़ है पर उन्हें फेंकने का ना तो साहस किया जा सकता है ना ही सोचा भी जा सकता है.. :)
मजेदार पोस्ट!!

Yunus Khan said...

सुजाता आजकल हम दफ्तर वगैरह छोड़कर घर को नये सिरे से सजाने और कबाड़ से निजात पाने में लगे हैं । नयी पुरानी चीज़ें डिस्‍कवर हो रही हैं । चूंकि पति पत्‍नी दोनों रेडियोवाले हैं तो अकसर यूं होता है -ओहो ये पुरानी स्क्रिप्‍ट फेंको यार । तुम बहुत पुरानी चीजें जमा कर लेती हो । जवाब: और ये तुम्‍हारे लिसनर्स के खत कबाड़ नहीं हैं क्‍या । सवाल- अरे ये इतने सारे कपड़े आखिर कहां रखे जाएं । चलो इन्‍हें फेंक देते हैं । जवाब- नहीं नहीं इन्‍हें कभी कभी पहना जायेगा । सवाल जवाब जारी है ।

rakhshanda said...

bahot achha laga...nice

अभय तिवारी said...

बढ़िया लिखा है सुजाता जी.. आनन्द आया..

azdak said...

वेरी टचिंग.. एंड मूविंग.. अलबत्‍ता चीज़ें तो नहीं ही मूव करती हैं.. अगली बार दिल्‍ली आऊंगा तो हाथ बंटवाना न भूलना..

note pad said...

@ Abhay ji ,
kahaan rahe itane din ?sab theek !!
@ Pramod ji ,
shukriyaa ! mera hath bantavane ka vada karne ke liye jab ap delhi ayeinge ;-)

Anonymous said...

Hi Sujata,
Nicely wriiten. I think it boil d down to have your house in order as per your wish but other priorities take over.

But do take out what you don't need and can do without. It will make your life simpler. I did lot of it and still keep doing it to have my sanity.

Priti.

मुनीश ( munish ) said...

आपका ये ब्लॉग आपके प्रोफाइल के साथ क्यूं नही नज़र आ रहा ? कभी कभार हँसा भी करो।

सुजाता said...

मुनीश
दोनो ब्लॉग अलग मेल आई डी से बने हैं , इसलिए यह चोखेर बाली पर पड़े प्रोफाइल के साथ नही दिख रहा ।
और हाँ ऐसा क्यो लगा कि मैं हँसती नही हूँ ।माना कि मेरा स्थायी भाव गम्भीर -रोन्दू-सोन्दू टाइप का है पर हँसी जैसे संचारी भी आते जाते रहते है जी । क्या बात कर दी ।
प्रोफाइल में फोटो बदलना होगा ,लगता है ।

मुनीश ( munish ) said...

नहीं ..नहीं फोटो भी बढ़िया है और ब्लॉग की पञ्च -लाइन से मेल खाते मज़बूत इरादे बयान करता है ...''हम तो लिखेंगे ..........रास्ता लो बाबा''
दरअसल मैं तो यहाँ आता ही इसलिए हूँ कि लोग मुझे बाबा न समझ बैठें ...मैं बाबा नहीं मई -बाप ...मैं बाबा नहीं !

विजय गौड़ said...

पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं. अभी तक की लगभग सभी पोस्टों से गुजरा. अच्छा लगा. एक महत्वपूर्ण बात दिखायी दी जिसका उल्लेख करना जरूरी लगा - लम्बे लम्बे अंतरालों पर पोस्ट लगी है. कम हैं लेकिन महत्वपूर्ण हैं.