Friday, May 11, 2007

पत्रकारिता की गैर ज़िम्मेदारी ....?

पिछले दिनो पत्रकारिता पर कई सवाल खडॆ हुए और चुम्बन -प्रकरण , सेलेब्रिटी -विवाह ,आदि के सन्दर्भ मे कई विचार प्रकट किए गए ।
बाज़ार और बाज़ार के कैशल पर हम पहले दो बार लिख चुके है यहाँ और यहाँ
अब भी यही मानना है कि बाज़ार "सबहिं नचावत राम गुँसाई" के तरह हमारी डोर अपने हाथ मे लेने की पुरज़ोर् कोशिशें कर रहा है।वह हमारा भाग्य नियंता हुआ चाहता है । और मल्टीमीडिया उसका शोहदा बनने पर उतारू है। इसलिए शायद चुम्बन समाज की चिंता बनने से पहले बाज़ार का उत्पाद हो जाता है और उसका बाज़ार भाव देख कर हमारे चैनल उसे भुनाने दौड पडते हैं। माने बाज़ार का विवेक अब तय करता है कि उपयोगी- अनुपयोगी क्या है । योग को बाज़ार का उत्पाद बनाते ही उसकी उपयोगिता सिद्ध हो गयी । पहले भी कह चुके- आप गोबर को बाज़ार के योग्य बनाइए और देखिये उसकी भी ऊंची कीमअत लगेगी ।
खैर !
पत्रकारिता को लेकर राज किशोर जी का एक लेख ,जो हंस फरवरी1992 में छपा था , हमारे सामने आ पडा जो लगभग ऐसा ही कुछ कहता है --


"अखबार एक विचित्र चीज़ है. वह निकाला जाता है समाज के लिए, किंतु जिस पूंजी के बल पर वह काम करता है, उस पर न समाज का प्रत्यक्ष नियंत्रण है न समाज के प्रति उसकी कोई निर्दिष्ट ज़िम्मेदारी होती है ।वस्तुत: आज के सन्दर्भ में तो समाज की शब्दावली ही निरर्थक हो गयी है। लोग समाज की नही बाज़ार की बात कर्ते हैं।"
[अखबार,मालिक और संपादक -- राजकिशोर
पृ. 21]
पुन: वे चेताते हैं कि विशुद्ध बाज़ार पर भी मनिर्भर नही है पत्रकारिता ।
"लेकिन अखबार का बाज़ार चूंकि अखबार का ही बाज़ार होता है -शैम्पू या सिगरेट का नही, इसलिए शब्दावली मे परिवर्तन के बावजूद यह वस्तुत: समाज ही है ,जो बाज़ार के रूप में आचरण करता है । अखबार बिकता है और खरीदा जाता है- क्योंकि वह मुफ्त नही बाँटा जा सकता । लेकिन अखबार पढने वाले और अखबार निकालने वाले के असम्बन्ध उपभोक्ता और उत्पाद के नही होते । वे समाज के व्यापक फ्रेम मे ही परिभाषित हो सकते हैं।"
[वही ]
यह द्वद्वात्मक स्थिति अखबार के साथ शायद ज़्यादा है, चैनलो के साथ कम। अखबार सामाजिकता को उद्देश्य बनाकर चलता है और चैनल व्यावसायिकता को । इसलिए अखबारी पत्रकारिता बाज़र में पनप कर भी समाज मे है । लेकिन यह समाज भी कौन सा है यह जानना महत्वपूर्ण है क्योंकि उतने ही समाज के प्रति उसके ज़िम्मेदारी है ।
खैर इतना स्पष्ट है कि पूंजी की भूमिका जहँ भी है वहाँ उद्देश्य विशुद्ध नही रह जाते और पूंजी का नियंत्रक हमारी सामाजिक संस्थाओ, मूल्यो, आस्थओ मे हस्तक्षेप कर्ने का हकदार हो जाता है । लेकिन अखबार और विद्यालय जैसी सेंस्थओं मे यह द्वन्द्वात्मक ही रहता है । माने पूंजी की नियंत्रक शक्ति और संस्था तथा समाज के बीच के सम्बन्ध दोनो ओर से बराबर तने रहते है ।
पूंजी बढना चाहती है पर किसी भी कीमत पर नही कर सकती । विद्यालय का प्रशासन पैसा कमाने के लिए स्कूल खोलता है ,पर यहाँ वह मनमानी शर्तो पर पूंजी नही बढा सकता । वह जवाबदेह है ,समाज के प्रति । माता-पिता के प्रति।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह द्वन्द्वात्मक्ता उतनी नही बची है क्या ? यह सबसे सशक्त माध्यम है तो भी ? अपने विचारो से अवगत कराएँ -----

11 comments:

Anonymous said...

सुजाता जी;
लिखा अच्छा है, पर आपसे आज वर्तनी की भूलें क्यों?

Anonymous said...

गरियाना बड़ा आसान होता है. आप यह क्‍यों भूल गए कि बाजार महाबली है. उसका दबाव हर जगह है. राजनीति में भी, क्रिकेट में भी, फिल्‍मों में भी. इसी तरह अच्‍छे बुरे लोग भी हर जगह होते हैं, मीडिया में भी.

आपका दृष्टिकोण टीवी पर क्रिकेट देखकर खिलाड़ी को बेकार घोषित कर देने जैसा है. जो मैदान में होता है, उससे पूछिए वस्‍तुस्थिति क्‍या है. शायद आपको मालूम नहीं कि भारत में टेलीविजन पत्रकारिता अभी शैशव काल में है. प्रयोग का दौर है. इसमें अच्‍छा बुरा सब होगा.

एक बात और...
भूखे भजन न होई गोपाला
यानी, भारतीय मीडिया की आमदनी का स्रोत सिर्फ विज्ञापन हैं. 18 से 20 पन्‍ने के अखबार को आज भी कोई ढाई-तीन रुपये में खरीदने को तैयार नहीं होता. चैनलों को फ्री टू एयर रखे जाने की मांग होती है.
बाजार अन्‍नदाता है तो अपनी बातें मनवाने की कोशिश करेगा ही.

सुजाता said...

विशेष जी
गरियाना मेरा कतई मकसद नही है ।
दर असल मै भी यही तो कहना चाह रही हूँ कि बाज़ार आज हावी हो रहा है ।
अगर गरियाना ही मान रहे है तो मै बाज़ार को गरिया रही हू।
बाकी ,मैने तो आप सब के विचार जानना ही चाहे हैं ।
धुरविरोधी जी आज तनि जलदी में सबै गडबडा गया । माफी देद्यौ । आगे ध्यान रखिबे हम ।:)

संजय बेंगाणी said...

अपन का मानना है, व्यवसायिकता कोई गलत नहीं. गुणवत्ता के लिए यह जरूरी है. बजार सब कुछ गलत ही करवाता है यह गलत है. दूरदर्शन व निजी चैनलो की गुणवत्ता देख लें.
बाकि आपने हमेशा की तरह अच्छा लिखा है.

Arun Arora said...

जे का हम तो कछु औरई समझे हते,काहे की चुनाव को मौसम है ना,सबै माया की माया है

Rajesh Roshan said...

Sahi kaha. arathshatra ka dawab hi aisa hai.

Pratik Pandey said...

बाज़ार के प्रभाव से मुक्त माध्यम केवल पूर्ण वामपंथी व्यवस्था में ही हो सकता है। लेकिन ऐसे में वह शासक के दबाव से युक्त होगा। दोनों से मुक्त हो सके, अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था देखने में नहीं आई है।

Anonymous said...

Media me bajarbad aana bura nahi hai. Balki channelon aur akhbaron ke bahane Blackmaling karna galat hai.
-Ramkishor Agrawal

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छा लिखा है. बाजार प्रभाव मुक्त व्यवस्था के क्या परिणाम होंगे, उन पर भी जरा विचार किया जाये तो शायद यही स्थिती बेहतर नजर आयेगी.

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया!

mr kaushik said...

sach ye hai ki media ke tathakatit samaj sudharak ya samaj ke prahari hone ki hamari apekshaye mein ab badlaw ho jana chahiye...media ki apni majbooriyan hai...jo bikta hai wo dikhta hai...aur khud ko bazar mein banaye rakhne ke liye...ya kahein ki apni naukri bachaye rakhne ke liye koi bhi risk nahi le sakta...apki chinta jayaz hai...aur media ko swayam chintan ki jaroorat hai...waise its all about business...