आज के लिए कोई विचार नही कोई विषय नही और कुछ कहना भी नही बच रहा है । पर जबकि हम सोचते है कि विचार शून्यता हिअ तब भी शायद किसी निर्विकार ,अज्ञेय ,अमूर्त किस्म की विचार प्रक्रिया कही बहुत भीतर चालू होती है । बिलकुल उसी अन्दाज़ में ,गालिब के शब्दो मे ----
"न था कुछ तो खुदा था ...
कुछ ना होता तो खुदा होता ..........."
प्लेटो ने विचार को सर्वोपरी सत्ता माना था । सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।उनकी दृष्टि में यह वस्तुजगत उस विचार तत्व की ही नकल है ।और साहित्य आदि कलाएँ इस नकल यानी वस्तुजगत की नकल हैं । सो इतने नकलीपन के बीच यदि खालीपन का अहसास हो तो अस्वाभाविक क्या है :)
तो वाकई जब हमे लगता है कि मन रीता है और मस्तिष्क की सारी शक्ति चुक गयी है ,एक निर्वात की सी स्थिति है तब भी शायद वह अपने आप में एक विचार-विकलता की सी स्थिति होती है। शायद सारा दार्शनिक चिंतन ऐसी दिमागी खालीपन की स्थिति मे उपजता हो .जब हम दीन-दुनिया से बेज़ार होकर जीवन मे अब तक की इकट्ठी हुई रेज़गारी को देखते है ं और एक दीर्घ निश्वास के साथ उसे वापस अपनी गुल्लक में डाल देते हैं :शायद यह सोच कर कि फिलहाल तो इससे कुछ बनने वाला नही है ।:)
आज ऐसी ही स्थिति में मसिजीवी की पोस्ट पर दिया कमेंट देख कर,और दिन भर की अपनी बातों का विश्लेषण कर ऐसा लगा कि यह निर्विचार होना उतना भी निर्वैचारिक नही है ----
"शर्मसार तो हुए ही है ।चाहे शर्मसार कितने हुए है यह अलग बात है ।प्रतिरोध का यह तरीका भारत जैसे देश के लिए वाकई शॉकिंग था । जहाँ स्त्री को हमेशा से घर की इज़्ज़त का वास्ता दे देकर घर के लोग अपमानित करते रहे उत्पीडन करते रहे उनके खोखलेपन और मानसिक शोषण को धता बताते हुए पूजा का यह प्रतिरोध एक असरकार तमाचा साबित हुआ है । "---
वैसे पूजा का प्रतिरोध एक भदेस किस्म का प्रतिरोध है । जिसमें किसी नारी संगठन को आवाज़ नही दी गयी , प्रेस की शक्ति का सहारा नही लिया गया ,किताबे , कहानिया नही लिखी गयी न पढी गयीं । उसने किसी अनामिका , जर्मेन ग्रियर, सीमोन दे बोवुआर उमा चक्रवर्ती .....को नही पढा । पढा होता तो शायद ऐसा कभी नही कर पाती।
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सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।आप चाहे तो आज़मा कर देख लें । यह पोस्ट भी इसी प्रयोग का एक नतीजा ही है ।
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6 comments:
सबसे पहले मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह विचार प्लेटो का नहीं है वरन सुकरात का है… प्लेटो ने तो सुकरात के मानसिक प्रत्यय को वास्तविक बनाया…सुकरात प्रत्यय(IDEA)को विचारों का मानदंड मानता था किंतु प्लेटो के अनुसार संप्रत्यय केवल मानसिक प्रत्ययमात्र नहीं है,अपितु वास्तविक वस्तुएँ हैं जिनका मन के बाहर स्वतंत्र अस्तित्व है…।
सबसे पहले मैं यह कहना चाहता हूँ कि.....
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उसके बाद भी तो कुछ कहते डेवाइन इन्डिया जी :)
बहुत शुक्रिया ग्यान वर्धन करने के लिए वर्ना हम तो प्लेटो को ही पकड कर कोट करते रहते ।वैसे प्लेटो भी अकारण ही आ गये हमारी पोस्ट मे उनकी कोई आवश्यकता नही थी हमे ।:)
सच है मसीजिवि की पोस्ट मैने भी पढ़ी..कितने विचारों को जन्म देती है.
सुजाता जी, हम प्लेटो या सुकरात के हवाले से आपके ज्ञानवर्धन का प्रयास नहीं करेंगे और बुआ, ग्रियर, अनामिका और उमा चक्रवर्ती और जुडिथ बटलर पर भी फिलहाल चुप ही रहेंगे. लेकिन एक बात थी जो पचा नहीं पाया, इसलिए वमन कर रहा हूँ.. आपने बिल्कुल सही लिखा कि पूजा का प्रतिरोध एक असरकार तमाचा था... हमने प्रेस की शक्ति (??) के हवाले से कही गई आपकी बात का निहितार्थ समझने की कोशिश की.. इस मामले में भी पूजा हमारी उन बहनों से ज़्यादा समझदार निकलीं जो हिंदी ख़बरिया चैनलों पर अपने मोटे-मोटे आँसू बहाकर विक्षिप्त न्यूज़ प्रोड्यूसरों की कुशल बाज़ारी रणनीतियों और तमतमाते चेहरे लिए खोखले एंकरों की कुछ वाहियात सवालों के बीच हम जैसे निष्क्रिय दर्शकों से मुखा़तिब होती हैं..आरोप-प्रत्यारोप और गाली-गलौज़ के बीच अपने परिचित अंदाज़ में कॉमर्शियल ब्रेक पर जाते एंकर और सहानुभूति की गुहार लगाती हमारी लाचार (?) बहनें.. और फिर एपिसोड दर एपिसोड.. बहनें-दर-बहनें... और फिर न जाने.ये कहाँ गायब होती जाती हैं..हममें से शायद ही किसी को इनमें से किसी का नाम याद हो या शायद ही इनमें से किसी को (“हमारी एक्सक्लूसिव ख़बर का असर” का ढिंढ़ोरा पीटने वाले) इन चैनलों पर पंचायत के ज़रिए न्याय मिला हो पूज़ा की वह तस्वीर अगले दिन राष्ट्रीय अख़बारों के फ्रंट पेज पर शाया हुई थी और अगले दिन संपादकीय लिखे गए... संसद का सत्र चलता रहता तो बात वहाँ भी उठती... हम सबों के बीच यह चर्चा का विषय बना.. ज़ाहिर है उस दिन अखबारों के फ़ोटोग्राफ़र और ख़बरों के कारोबारी चैनलों के कैमरामैन भी उसके पीछे-पीछे दौड़ रहे होंगे. विमर्शों की शक्ति संरचना में उसकी यह भदेस (??) शैली दूसरी कई शक्ति संरचनाओं के साथ-साथ पब्लिक स्फीयर का सबसे बड़ा प्रतिनिधी होने का स्वांग रचते टीवी प्रेस को भी धता बताने जैसा था.. भले ही वह बहुत सोचा-समझा निर्णय न रहा हो.
सुजाता जी, हम प्लेटो या सुकरात के हवाले से आपके ज्ञानवर्धन का प्रयास नहीं करेंगे और बुआ, ग्रियर, अनामिका और उमा चक्रवर्ती और जुडिथ बटलर पर भी फिलहाल चुप ही रहेंगे. लेकिन एक बात थी जो पचा नहीं पाया, इसलिए वमन कर रहा हूँ.. आपने बिल्कुल सही लिखा कि पूजा का प्रतिरोध एक असरकार तमाचा था... हमने प्रेस की शक्ति (??) के हवाले से कही गई आपकी बात का निहितार्थ समझने की कोशिश की.. इस मामले में भी पूजा हमारी उन बहनों से ज़्यादा समझदार निकलीं जो हिंदी ख़बरिया चैनलों पर अपने मोटे-मोटे आँसू बहाकर विक्षिप्त न्यूज़ प्रोड्यूसरों की कुशल बाज़ारी रणनीतियों और तमतमाते चेहरे लिए खोखले एंकरों की कुछ वाहियात सवालों के बीच हम जैसे निष्क्रिय दर्शकों से मुखा़तिब होती हैं..आरोप-प्रत्यारोप और गाली-गलौज़ के बीच अपने परिचित अंदाज़ में कॉमर्शियल ब्रेक पर जाते एंकर और सहानुभूति की गुहार लगाती हमारी लाचार (?) बहनें.. और फिर एपिसोड दर एपिसोड.. बहनें-दर-बहनें... और फिर न जाने.ये कहाँ गायब होती जाती हैं..हममें से शायद ही किसी को इनमें से किसी का नाम याद हो या शायद ही इनमें से किसी को (“हमारी एक्सक्लूसिव ख़बर का असर” का ढिंढ़ोरा पीटने वाले) इन चैनलों पर पंचायत के ज़रिए न्याय मिला हो पूज़ा की वह तस्वीर अगले दिन राष्ट्रीय अख़बारों के फ्रंट पेज पर शाया हुई थी और अगले दिन संपादकीय लिखे गए... संसद का सत्र चलता रहता तो बात वहाँ भी उठती... हम सबों के बीच यह चर्चा का विषय बना.. ज़ाहिर है उस दिन अखबारों के फ़ोटोग्राफ़र और ख़बरों के कारोबारी चैनलों के कैमरामैन भी उसके पीछे-पीछे दौड़ रहे होंगे. विमर्शों की शक्ति संरचना में उसकी यह भदेस (??) शैली दूसरी कई शक्ति संरचनाओं के साथ-साथ पब्लिक स्फीयर का सबसे बड़ा प्रतिनिधी होने का स्वांग रचते टीवी प्रेस को भी धता बताने जैसा था.. भले ही वह बहुत सोचा-समझा निर्णय न रहा हो.
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