एक बार हमने लिखा था कि पुरुष आमतौर पर एक प्रोग्रेसिव पत्नी नही चाहते। पत्नी प्रोग्रेसिव अच्छी तो लगती है ,मगर दूसरे की । किसी व्यक्ति की जिन खूबियों की वजह से हम उससे प्रेम करने लगते हैं ,विवाह के बाद वही हमें अपनी दुश्मन जान पडती हैं ।सो प्रेमिका की प्रोग्रेसिव बातें मनमोहिनी होती हैं, वो लडकी सबसे अलग लगती है जिसे आप पसन्द करने लगते हैं ।वही पत्नी बन जाए तो पुरुष सबसे पहले उसी खूबी को,बोल्डनेस ,स्मार्टनेस, प्रोग्रेसिव थिंकिंग को समाप्त करने की चेष्टाएँ शुरु कर देता है ।विवाह के बाद वह अचानक चाहने लगेगा कि मेरी पत्नी मेरे माता-पिता के पैर छुए,उनकी इज़्ज़त में अपना सर पल्लू से ढँके, मेरे परिवार को अपने कामों पर तर्जीह दे,पलट कर जवाब न दे,शांति बनाए रखने के लिए जो जैसा है उसे वैसा चलने दे । यह स्थिति पत्नियों के साथ भी है ।किसी पेंटर को उसकी कला की वजह से पसन्द किया विवाह किया ,बाद में वही पेंटिंग अपनी सौत लगने लगती है ।
लेकिन यहाँ अंतर इतना आ जाता है कि पत्नी की चाहत और मांगें अपने लिए होती हैं ।अपने परिवार और समाज के लिए नही ।उसे वक्त चाहिये –अपने लिए ।ध्यान चाहिये –अपनी ओर ।कंसर्न चाहिये –खुद के लिए ।परिवार को तो वह छोड ही चुकी होती है ।कई बार विरोध सह कर विवाह करने पर समाज को भी नकार चुकी होती है । इस मायने मे स्त्री पुरुष से ज़्यादा मनोबल और ईमानदार इरादे लिए होती है । परिवार को छोड भी दे कोई पुरुष तो उसका मोह कभी नही छूटता और समाज से उसकी लडाई केवल इच्छा से विवाह करने तक ही रहती है ।विवाह के बाद वह खुद समाज के दबावों मे जीता है और परमपरा सम्मत जीवन चलाना चाह्ता है ।
कोई दो लोग क्यो प्रेम करते है,विवाह करते है ,सम्बन्ध-विच्छेद करते हैं यह उनका नितांत निजी मसला होता है ।माना ।लेकिन सिर्फ तब तक जब तक कि वहाँ भावनत्मक उत्पीडन ,मानसिक शोषण ,असमानता और धोखा नही है ।दो प्रेमियों का रिश्ता जब केवल स्त्री-पुरुष स्तरीकरण के समीकरण में जीने लगता है तो वह पूरी स्त्री जाति और पुरुष जाति की समस्या हो जाती है ।पिटना –पीटा जाना ,भावनात्मक ब्लैकमेलिंग करना,धोखे मे रखना ,किसी भी स्त्री-पुरुष का निजी मसला नही रह जाता ।असीमा भट्ट को अभिव्यक्ति का मंच मिला यह अच्छा ही है। वर्ना अर्चना जैसी कई लडकियाँ इस ‘निजी ‘के दर्द को कभी अभिव्यक्त नही करतीं और रिश्ते की मर्यादा साथ लेकर घर के पंखे से लटक जाती हैं, बिना एक भी सबूत छोडे दोषियों के खिलाफ । शक ,डर , दबाव ,उत्पीडन को मर्यादा के नाम पर क्योंकर दफ्न रखना चाहिये ?क्या हम केवल आत्महत्या का उपाय ही छोडना चाह्ते हैं स्त्री के लिए ?पूजा चौहान भी अभद्र है ।असीमा रिश्ते के निजी पक्षों को समाज के बीच उछाल रही है ।अगर वे आत्महत्या कर लेतीं तो हम कभी नही जान पाते कि ये दो लोगों के निजी रिश्ते कितने कुरूप हो सकते है ।अर्चना का ज़िक्र मसिजीवी ने अपनी एक पोस्ट में किया था ।अगर वह शर्मसार होने से बचने की कोशिश न करती और पति के दुर्व्यवहार को कभी बयान करती तो शायद उसकी मृत्यु के बाद ही सही ,वह पति सलाखों के पीछे होता ।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी । सच अपने सम्पूण रूप मे कुछ नही होता । वह विखंडित है ।सच के कई पहलू होते हैं ।लेकिन इन विखंडित सत्यों के बीच हमें अपने सच का एक चेहरा बनाना होता है । यह सच का हमारा निजी पाठ है ।असीमा का सच अगर सच का एक पहलू है तो भी वह भयानक है । साथ ही वह घुटने –कुढने की बजाय कह देने की राह दिखाता है ।जो किसी हाल में गलत नही है । चुप्पी की परम्परा से कहीं बेहतर है जो आत्महत्या की ओर ले जाती है
एक और बात । सत्य और सौन्दर्य हम सभी देखते हैं । साहित्यकार ही उसे कह पाता है ।क्योंकि वह सम्वेदनशीलता के साथ और भीतरी नज़र से देखता है ।वह कार्यों व्यवहारों को उनके कारण सहित पकडना चाहता है । उसकी सम्वेदनशीलता मानव विशेष के लिए नही सामान्य के लिए होती है । इसलिए उसके लेखन और जीवन में विरोध दिखाई दे तो हमें उसके लेखन ही नही उसकी सम्वेदन शीलता पर भी शक करना होगा ।अभय जी ने लिखा
‘’ यह उम्मीद पाल लेना कि उच्च सौन्दर्य बोध की रचनाएं करने वाला कवि अपने निजी जीवन के हर क्षण में उसी उच्च संवेदना से संचालित होगा और एक अतिमानव की भाँति सारे क्लेश-द्वेष से मुक्त होगा.. ऐसी कल्पना ही कवि की मनुष्यता के साथ अन्याय है.. आखिर कवि मनुष्य ही तो है.. कोई संत तो नहीं..”
बेशक ।वह भी मनुष्य है ।आचार्य रामचन्द्र शुकल ने लिखा था कि कविता का लक्ष्य है ---मनुष्यता की रक्षा करना ।तो हम उस कवि से मानव होने की ही उम्मीद कर रहे है ।वह अति मानव न हो । पर कम से कम अमानवीय तो न हो जाए ।सडक के भिखारी को भीख देना और घर के भीतर नौकर को पीटना ----क्या यह मानवीयता ही है ?
कवि को कम से कम मानव के ओहदे से तो नीचे नही गिरना चाहिये ।
बाकि आगे कहूंगी अभी तो इतना ही ...................
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11 comments:
इस विषय पर आपके लेख की अगली कडी का इन्तजार रहेगा,
"...उसकी सम्वेदनशीलता मानव विशेष के लिए लिए सामन्य के लिए होती है । इसलिए उसके लेखन और जीवन में विरोध दिखाई दे तो हमें उसके लेखन ही नही उसकी सम्वेदन शीलता पर भी शक करना होगा..."
यदि उसके लेखन में फ़िक्शन अथवा काल्पनिकता का डिस्क्लेमर लगा है तो भी क्या आप यही विचार रखेंगी ?
नीरज फ़िक्शन तो है ही साहित्य पर सत्य का आधार ज़रूर होता है ।कल्पना का सहारा अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए लिया जाता है ।अनुभव तो कम से कम सच्चे होन्गे यह उम्मीद कवि से होगी । भिखारी को भीख मान्गते आप भी देखते है और मै भी ।पर कवि के देखने मे ऐसा क्या है कि वह उस की स्थिति को बया करने मे बाज़ी मार ले जाता है ।तभी हम उसे पढना चाहते है ।यह है -अन्य के अनुभव को अपनी अनुभूति बनाना और अभिव्यक्त करना ।सम्वेदना शायद यही है ।हैरी पोटर की कोरी कल्पना मे भी एक बच्चे के मनोभाव है और उसकी अभिव्यक्तियो को समझे बिना राउलिन्ग सफ़ल नही होती ।कल्पनिक पात्र भी इस जग से जीवन लेकर ही जीवन्त होते है ।आप्के प्रश्नो को अगली पोस्ट मे लेना होगा ।
बहुत सही!!
खासतौर से यह लाईन्स पसंद आई
"आचार्य रामचन्द्र शुकल ने लिखा था कि कविता का लक्ष्य है ---मनुष्यता की रक्षा करना ।तो हम उस कवि से मानव होने की ही उम्मीद कर रहे है ।वह अति मानव न हो । पर कम से कम अमानवीय तो न हो जाए ।सडक के भिखारी को भीख देना और घर के भीतर नौकर को पीटना ----क्या यह मानवीयता ही है ?
कवि को कम से कम मानव के ओहदे से तो नीचे नही गिरना चाहिये ।"
शुक्रिया!!
बहुत सही कहा !
मैं आप की राय का सम्मान करता हूँ.. आप ने सही लिखा..
मैं अपनी पोस्ट के बारे में बस इतना कहना चाहूँगा कि उसे इस मामले में किसी की पक्षधरता न समझा जाय.. साथ ही साथ वह पोस्ट असीमा जी के विरोध में भी नहीं है.. उन्हे अपनी बात कहने का पूरा हक़ है..
Satik aur spast chintan ke liye dhanyavad !
गहन चिन्तन-आगे भी आपके विचारों का इन्तजार है.
आप की इस बात से सहमत है।बहुत सही लिखा है-
"एक महत्वपूर्ण बात यह भी । सच अपने सम्पूर्ण रूप मे कुछ नही होता । वह विखंडित है ।सच के कई पहलू होते हैं ।लेकिन इन विखंडित सत्यों के बीच हमें अपने सच का एक चेहरा बनाना होता है । यह सच का हमारा निजी पाठ है"
बढ़िया लिखा है।
संवेदना और विचारों की जो ऊंचाई और गहराई साहित्यकारों के लेखन में दिखती है, यदि उसका कुछ अंश उनके जीवन-व्यवहार में भी हो तो सोने में सुगंध आ जाए। लेकिन हिन्दी के ज्यादातर साहित्यकारों में ऐसा नज़र नहीं आता।
यदि साहित्य, पाठकों की संवेदनाओं के विकास और परिष्कार का कार्य करता है तो खुद साहित्यकारों पर उसका इतना नकारात्मक असर क्यों पड़ता है, यह समझ में नहीं आता!
एक जीवंत, सहज, सच्चा इंसान केवल अपनी मौजूदगी मात्र से किसी व्यक्ति की संवेदनाओं के विकास और परिष्कार में जितना सफल हो सकता है, उतना चारित्रिक रूप से पतित, किन्तु बड़ी-बड़ी और सुन्दर-सुन्दर बातें करने वाला कोई तथाकथित महान साहित्यकार नहीं हो सकता।
इसलिए "पढ़ने योग्य लिखा जाए" से अधिक "लिखे जाने योग्य किया जाए" पर हमारा जोर होना चाहिए।
अच्छा लिखा है। कुछ सरलीकरण ज्यादा है लेकिन अपनी बात कहने में सफ़ल रहीं। मेरी समझ में स्त्री-पुरुष,पति-पत्नी के पहले असीमा और आलोक धन्वा दो प्राणी हैं। कवि के रूप में संभव है कि आलोक धन्वा महान हों लेकिन एक प्राणी और एक जीवनसाथी के रूप में वे अगर अपने साथी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर पाते तो यह निंदनीय है। उनकी कविता की ऊंचाई उनको निम्न कृत्य करने की छूट नहीं देती। अब यह बातें कितनी सच हैं यह उनसे जुड़े लोग ही बता सकते हैं। लेकिन किसी क्रांतिधर्मी कवि को अगर अपनी पत्नी के साथ ही बदसलूकी की बातें उठती हैं तो उसकी कविता के प्रभाव पर भी फ़रक पड़ता है। बधाई इस लेख के लिये, बावजूद इस सच के कि आपने सारे पतियों को एक ही फोलियो में रख दिया। :)
>>"दो प्रेमियों का रिश्ता जब केवल स्त्री-पुरुष................ जाति और पुरुष जाति की समस्या हो जाती है ।"
१. क्या हम यह कह सकते हैं कि य समस्या समाज की हो जाती है न की किसी जाति विशेष की ?
>>"वर्ना अर्चना जैसी कई लडकियाँ....................लेकर घर के पंखे से लटक जाती हैं, "
२. " घर के पंखे से लटक जाती हैं..." या " घर के पंखे से लटका दी जाती हैं" ????
३. लिखती रहिये, हम बिना शोर मचाये पढ़ रहे हैं ( निरंतर )
रणगामी
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