Friday, July 27, 2007

बरसात के बाद

बरसात के बाद भीगे पत्तों की महक के साथ काली धुली, अकेली सडक पर चलते हुए वे दोनो जाने क्या कुछ सोच रहे थे।चुप्पी दीवार न थी पर सहारा तो थी ही ।शायद दोनो में से कोई भी पहल करने का जोखिम नही उठाना चाहता था । कीचड भरी फ़ुटपाथ पर रपटते हुए ,कदमों को धीरे-धीरे नज़ाकत से उठाते हुए हलकी डगमगाहट में कान्धे से कान्धा टकरा जाता है । एक सुखद अनूभूति के साथ लडकी कदमों को फिर से डगमग़ा जाने देती है ।वह चंचल है ।लडका समझ रहा है । वह सम्भाल लेता है हाथों का सहारा देकर और उसका तुरंत ही हाथ छोड देना लडकी को खिझा देता है वह कुछ और देर थामे रह ता तो ?लडका शांत और गम्भीर है ;जैसे बहुत कुछ हो उसके पास कहने के लिए या कुछ भी न हो कहने के लिए लडकी से ।या शायद वह सोच रहा हो कि इस समय मेँ वह और बहुत से काम निपटा सकता था । लडकी को उसपर लाड आता है ।घर से बाहर उसके भीतर की अल्हड प्रेमिका करवटें लेने लगती है ।वह उसका सर गोद मेँ रख कर थके मुख को चूम लेना चाह्ती है ।लडके के भीगे –बिखरे बालों को समेटने के लिए उसका मन मचलता है,पर सडक पर ? कोई बात नही ।वह हाथ बढाती है तो लडका कहता कुछ नही भवें सिकोडता हुआ उसे नादानी न करने को कहता- सा देखता है।फिर पलट कर पीछे और दाएँ -बाएँ देखता है। लडकी उबासी लेने लगती है ।उसका मन बुझने लगता है।उसे समझ नही आता कि वे दोनो साथ क्यों हैं और लगातार चल क्यों रहे हैं !वह पार्क के बेंच पर बैठना चाहती है ,वह लडके के कन्धे पर सर रखना चाह्ती है । वह चाहती है कि लडका उसके नर्म रेशमी बालों में उंगलियाँ फिराए और इस प्रेमिल नीरवता में वह घर लौट कर सैकडों कर्म करने और कई भूमिकाएँ निभाने के लिए वापस समेट ले ऊर्जा ।अचानक उसने पलट कर लडके की ओर देखा –लडका अब लडका सा नही रहा । वह आदमी हो गया है ।या वह आदमी ही था ? क्या मैने इसे आज से पहले कभी नही देखा इस तरह ?अचानक लडकी के तेवर बदलते हैं ।वह कदमों को मोड लेती है बाज़ार की ओर जैसे सहसा याद आ गया हो कोई बहुत ज़रूरी काम । आदमी नही पूछता ।मानो वह तेवर समझ गया हो । वह सब समझ जाता है ।वह इसलिए अनूकूल व्यवहार कर पाता है। कमरे के भीतर चाहे जो हो । वह बाहर एक ज़िम्मेदार पति है ।लडकी याद दिलाती है कि बाज़ार से उसे लेना है सासू माँ के अचार डालने को सौंफ और कलौंजी । और सुबह का टिफिन पैक करने को अल्यूमीनियम फ़ॉएल ।

26 comments:

मसिजीवी said...

ठीक है- पर लड़का तो है धीर गंभीर- उसकी कहानी कौन लिखेगा-

Pryas said...

बिल्कुल सजीव चित्रण किया है, मन में काफी विचार कौंध गये

pryas.wordpress.com

अभय तिवारी said...

बढ़िया है..

Neelima said...

बहुत सही !!

सुजाता said...

मसिजीवी जी प्रश्न वाजिब है पर यह भी मै ही सोचूं कि उसकी कहानी कौन लिखे । आप क्यो नही लिखते?:)

Unknown said...

बहुत अच्छा चित्रण...मसिजीवी जी के लेख का इंतज़ार रहेगा...पता तो चले आदमी ऐसे वक्त सोचता क्या है.. :))

सुनीता शानू said...

एक बार तो लगा कि आप कोई रोमांटिक दृश्य दिखाने वाली है फ़िर समझ आया...चल भैये अपने-अपने रस्ते इहां कोई फ़िलिम-विलिम नई होने वाली...:)

सुजाता जी दर-असल एसा होता ही है वो आदमी ही था जो इतना गम्भीर था लड़का होता तो लड़कपन होता...अच्छा सुन्दर सजीव लेख है आपका...

सुनीता(शानू)

Anonymous said...

वाह ! बात को कहाँ से कहाँ ले गये आप तो। लिखने का तरीका पसंद आया।

रिपुदमन

Udan Tashtari said...

बढ़िया है एक तरफ की तो कहानी पता चली. दूसरी तरफ की तो हमें मालूम है मगर फिर भी मसिजिवी जी का नजरिया सुनना दिलचस्प होगा. गुजारिश है मसीजिवी जी से कि लिखा जाये.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

मसिजीवी भाई! लड़के की कहानी अब आप ही पुरिया दीजिए.

ePandit said...

ये अच्छी बात नहीं हम तो अच्छी खासी रोमांटिक कहानी का आनंद ले रहे थे। आपने झटका दे दिया।

tejas said...

जीवन का सत्य? प्रगति…एक मील के पत्थर से दूसरे तक का सफ़र है। इस लड्के और लड्की का नाम क्या है? :)

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सुजाता जी, बदलते वक्त के साथ साथ इंसान के जीवन में बढ़ती जिम्मेदारियों के बोझ को बारिश के माध्यम से आपने काफी सजीव ढंग से पेश किया है। ये लेख दर्शाता है कि दिल तो बहुत कुछ चाहता है कि ये भी हो, वो भी हो लेकिन वक् और हालात सब वैसा ही नहीं होने देते जैसा हम सोचते हैं। बढ़िया लिखा, इसी तरह लिखती रहें।

अनिल कुमार वर्मा said...

सुजाता जी, बदलते वक्त के साथ साथ इंसान के जीवन में बढ़ती जिम्मेदारियों के बोझ को बारिश के माध्यम से आपने काफी सजीव ढंग से पेश किया है। ये लेख दर्शाता है कि दिल तो बहुत कुछ चाहता है कि ये भी हो, वो भी हो लेकिन वक् और हालात सब वैसा ही नहीं होने देते जैसा हम सोचते हैं। बढ़िया लिखा, इसी तरह लिखती रहें।

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