Wednesday, July 4, 2007

आइए सर्फ़ोली बोली सीखे‍

बी.ए. ऑनर्स के प्रथम वर्ष की परीक्षाएँ समाप्त हुईं तो बहुत सा वक्त एकाएक पहाड सा हो गया था। सोचा द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में लगे टेक्स्ट को ही पढा जाए । श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी इसी समय सामने आया । उसकी महिमा सुन तो चुके ही थे  अब होता यूँ था कि वह उपन्यास हमें लत की तरह लग गया । रात मे जब घर के लोग चैन की बंसी बजाते ,हम फूहड हँसी हँस हँस कर उनकी निद्रा मे खलल डालते । डाँट पडी , फटकार लगाई गयी । फिर उन्हे आदत हो गयी । अब मेरे रातों को [जैसे पीपल पर कोई......] ज़ोर से हँसने पर घरवाले कहते ‘रागदरबारी “ पढ रही होगी । खैर,अब बहुत समय हुआ । रागदरबारी का भूत हमें हॉंंट नही करता । पर एक चीज़ है जो यदा –कदा गुदगुदाती है । एक पात्र हुआ करता था रागदरबारी में। जोगनाथ ।पूरा पियक्कड ।एकदम टुन्न रहने वाला ।यदा-कदा नालियों में गिरा पडा मिलने वाला ।उसकी एक विचित्र बोली थी ।गाँव-जवार के लोग उसे सर्फोली बोले कहते थे ।इसका व्याकरण कुछ यों था कि आप एक शब्द के सभी वर्णो के बीच मे र्फ लगाएँगे ।नही समझे न!
एक बार जोगनाथ पीकर नाले में गिरा हुआ था । किसी की मदद की दरकार थी उसे । पडे पडे किसी के आहट सुनाई दी तो जोगनाथ बोला । उधर से किसी ने पूछा ‘कौन है साला ?” जोगनाथ ने उत्तर दिया “ मर्फै हूँ !जर्फोगनाथ ! किर्फ़िस सर्फ़ाले ने यर्फ़हा कर्फ़ाटे गर्फ़ाडे है ?“ मर्फाने यर्फह कि कर्फोन है सर्फाला ?आर्फज भी जर्फब मर्फज़ाक कर्फने का मर्फन हर्फोता है तो हर्फम जर्फोगनाथ को यर्फाद कर्फ लेते है !समझे कि नही !
कोड भाषा के रूप मे सर्फोली बोली बडी फायदेमन्द है । इसमें भद्दी भद्दी बाते आराम से कही जा सकती है ।क्यो ?इसके बोलने मे बडा मज़ा है । उससे ज़्यादा मज़ा जो कुछ लोगो को मा बहन करने मे आता है ।यह भी भाषा की एक अंगडाई है .प्रयोग है ,विभिन्नता है ।सो भाषाई नवीनता और प्रयोगशीलता के लिए एक ही तरफ क्यो बढना चाह्ते है।
साहित्य में भाषा की विभिन्न भंगिमाएँ और शब्दावलियाँ एक वातावरण विशेष को जीवंत और यथार्थ बनाने के लिए आती है । गाली एक भाषिक संरचना है । और सामाजिक संरचना की ही तरह है । यदि समाज स्त्री-विरोधी ,दलित-विरोधी है तो भाषा मे उसके प्रमाण भी है । गालियो के समाजशास्त्र को देखे तो यह और स्पष्ट तौर पर समझ आएगा ।ऐसे मे एक दलित या स्त्री या किसी भी हाशिये की अस्मिता द्वारा जब अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति होगी तो भाषा के सारे मर्दवादी ,ब्राह्मणवादी तवर वहा उपस्थित होंगे जिनका उद्देश्य लेखक द्वारा अपनी भडास निकालना नही होता वरन .उस वातावरण को सजीव करना , उस पात्र विशेष की मानसिकता को उभारना होता है ।यदि मुझे स्त्री निन्दक और शोषक पात्र को किसी कहानी में रचना होगा तो मै उस पात्र के मुख से वही भाषा कहलवाऊंगी जिसका इस्तेमाल मोहल्ला पर हाल ही मे हुआ है ।व्यक्तिगत पत्राचार ,निबन्ध ,लेख सार्वजनिक औपचारिक लेखन मे ऐसी च्युइंगम-वाली भाषा सरासर बदतमीज़ी है , राजनीती है , कुंठा है , कुत्सित है ।

11 comments:

अनूप शुक्ल said...

अर्फ़रे आर्फ़ाप भी इर्फ़न बार्फ़ोंतों के लर्फ़फ़ड़े में कर्फ़हां पर्फ़ड़ गर्फ़यीं। बार्फ़त तो सर्फ़ही कर्फ़ही है आर्फ़पने। :)

सुजाता said...

तो सीख ही लिया आपने शुक्ला जी ! सही है !:)

Sagar Chand Nahar said...

इस तरह की एक भाषा बचपन में हम भी बोला करते थे जिसमें स्म लगाया जाता था जैसे
सुस्मुजाताजी आस्माप तो बस्महुत बस्म्ढ़िया लिस्मिखती हैस्मे।
(सुजाताजी आप तो बहुत बढ़िया लिखती हैं)
फिर्फलहाल आर्फपकी सर्फोली भार्फषा की सीर्फखने की कोर्फशिश कर्फर रर्फहा हूँ।
सचमुच मजेदार है।

मसिजीवी said...

कर्फोन सर्फाली सर्फोली बोर्फाली सिर्फखा रर्फही है

Udan Tashtari said...

अब सबको सिखा दी है तो गरिया भी नहीं सकतीं इस भाषा में.

-बढ़िया भाषा है वैसे तो!! :)

राज भाटिय़ा said...

बाप रे .. आज कया हो गया सब सयानो को.. केसी केसी बोली बोल ओर लिखा रहे हे.

अभय तिवारी said...

हम ने अपनी दीदियों से सीखी थी आप की ये हर्फ़म ज़ुबान.. जब पहली बार उनको बोलते सुना तो अचम्भे में मुँह खुल गया होगा, १९७३-७४ में कभी.. ऐसा कुछ एहसास है स्मृति में..
भाषा वाले सवाल पर हम भ्रमित हैं.. सही गलत की ठोस ज़मीन को तलाश नहीं सके अभी तक.. गिर न पड़ें मुँह के बल.. इसलिए चुप हैं.. खुले मुँह की आक्रान्त स्मृति भी कुछ खास मदद नहीं कर रही..

Anonymous said...

राग दरबारी उपन्यास एम.ए.में लघुशोध प्रबंध के रूप में दिया गया था.इसमें बड़े चमत्कार हैं भाषा तो हमने नहीं सीखी पर क्रियायों पर गौर फ़र्माया आत्म निर्भरता का जो पाठ हमने पढ़ा आज भी आपात्कालीन स्थिति में काम आता है.अपनी चोयस,प्रतिष्ठा को कोई खतरा नहीं.श्रीलाल शुक्लजी ने जो पाठ पढ़ाये.भैंस की प्रेम पुकार, मेले में भीड़ का नखसिख आनंद लूटना हमने सारे हुनर तो नहीं सीखे.
एक बेहद दिलचस्प उपन्यास के माध्यम से अपनी बात को कहने का आपका अंदाज पसंद आया.
डॉ.सुभाष भदौरिया.अहमदाबाद.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अर्फरे अर्फाप मुर्फिसिबत कर्फ्यों लेर्फेते हर्फैं मर्फसिजिर्फिवी भार्फाई? सर्फारी खुर्फुदाई एर्फेक तरफरफ अर्फौर जोर्फोरू कर्फा भार्फाई ही एर्फेक तर्फरफ. अर्फैसे मेर्फें अर्फाप बर्फहन सेर्फे पर्फंगा मोर्फोल लेर्फे रार्फहें हर्फैं. झेर्फेल जर्फाएंगे. सर्फम्झे नर्फं.

Manish Kumar said...

जोगनाथ की इस फरफराती बोली की याद दिलाने का धन्यवाद। जो भी ये उपन्यास पढ़ेगा वो जगह जगह हँसी से दोहरा होगा ही।

व्यक्तिगत पत्राचार ,निबन्ध ,लेख सार्वजनिक औपचारिक लेखन मे ऐसी च्युइंगम-वाली भाषा सरासर बदतमीज़ी है , राजनीति है , कुंठा है , कुत्सित है ।

भाषा के प्रयोग के संबंध में जो आपके इस निष्कर्ष से पूरी तरह सहमत हूँ।

Neelima said...

सर्फही कर्फहा