Monday, December 3, 2007

आप स्त्री और बच्चों के अलावा कुछ और नही लिख सकतीं

किसी ने पिछले दिनों चिढते से स्वर में कहा “ आप स्त्री और बच्चों के अलावा कुछ और नही लिख सकतीं ” एकबारगी मुझे बडी अटपटी और बेहूदा बात लगी । पर तभी समझ आया कि मुख्यधारा हमेशा से हाशिए के विमर्शों का उपहास करती रही है या इस्तेमाल करती रही है या अपने अनुरूप उन बातों का अर्थ बदलती रही है । बात भारी हो जाती है तो यह टिप्पणी भी मिल जाती है – क्या इससे गम्भीर नही लिख सकती थीं ? । खैर ,कुल मिला कर यहाँ कि मै क्या लिखूँ और कैसे लिखूँ का सवाल मेरे तईं है ।यह हक़ किसी और का नही । राय का और असहमति का स्वागत है सदैव ही । पर बात की उपरोक्त शैली निहायत अलोकतांत्रिक है ।लोकतंत्र सबके समान हितों , समान अवसरों , अभिव्यक्ति के समान आज़ादी और समान सम्मान की बात करता है । ऊपर की दो बातों का विश्लेषण करते हुए दो स्थितियाँ और मंतव्य साफ नज़र आते हैं ।
पहला , निहायत अलोकतांत्रिक देश और समाज में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के दुष्परिणाम ।
और दूसरा , हाशिए के विमर्शों के खिलाफ तैयार मुख्यधारा का अवचेतन ।
भरतीय समाज की नींव में ही भेद-भाव ,श्रेणी विभाजन , ऊँच-नीच की पुरातन [पौराणिक कहा जाए तो भी गलत न होगा ] धारणाएँ बसी हैं जो गाहे बगाहे हमारा सब पढे-लिखों के व्यवहार –वार्ता में सामने आती हैं । जिस देश में अभी तक जातीय ,लैंगिक , वर्गीय भेद-भाव और हिंसा के नमूने रोज़-बरोज़ अखबारों में सामने आते हो वहाँ मेरा लोकतांत्रिक होने और लोकतंत्र को जीने की बात करना वायवीय ही हो सकता है और अपेक्षा करना तो और भी गलत होगा ।

स्त्री और बच्चे ,दोनो समाज के हाशिए पर जीते हैं । एक बाल-उद्यान ब्लॉग से और चन्द स्त्रियों के ब्लॉगिंग करने से वे मुख्यधारा नही हो जाते । क्या स्त्री की सीमांतीयता का मुद्दा चुक गया है ?, क्या वह वैध आधार नही रखता ? जब स्त्री स्वयम स्त्री की समस्याओं पर बात करती है तो वह उपहास का विषय हो जाता है या केवल सहमति का और मुख्यधारा जैसे तैसे इसे निपटा देना चाहती है ब्लॉगिंग करती हूँ, समर्थ –शिक्षित हूँ रोना रोती हूँ स्त्रियों का । यह छवि है । उँह ! मुह बनाते आगे चल देना । या फिर चलताऊ फैशन है स्त्री-विमर्श तो पुरुष उस पर बात करके ज़माने के साथ हो लेता है । यूँ हर बार ही बहस को ठंडा कर दिया जाता है ।ब्लॉग-जगत के पुरुषों के लिए भी या तो स्त्री विमर्श चुका हुआ, घिसा हुआ मुद्दा है या लोकतांत्रिक दिखने भारत का ड्रामा । मित्रों के बीच चाय-पानी आने पर यदि तथाकथित स्त्री समानता और स्वतंत्रता के पैरोकार स्त्री मित्र से ही अपेक्षा रखते हैं कि वे सर्व करें क्योंकि वे यहाँ काम बेहतर तरीके से कर सकती हैं, तो उनसे दोगला कोई नही । मैं सिमोन कही जाऊँ या सरफिरी ,हाथ में तलवार लिए लडाकी आधुनिक महिला , या और कुछ लिखना नही आता तो स्त्री पर ही कलम चलाती हूँ टाइप बात क्योंकि स्त्री पर तो कोई भी लिख सकता है ; मै बुरा नही मानती क्योंकि समझती हूँ कि यहाँ मुद्दा निपटाया जा रहा है । जो हाशिये की ज़िन्दगी नही जिया ,जिसने हाशिए पर होने का दर्द नही भोगा ,अपमान नही झेला ,दमित नही हुआ ,शासित नही हुआ , शोषित नही हुआ ----- जब उस वर्ग में आ जाऊंगी तब आपको कहना न पडेगा कि स्त्री के अलावा कुछ और लिखिये ।

10 comments:

काकेश said...

स्त्री विमर्श पर पुरुष को लिखने/न लिखने में बहुत खतरा है. ना लिखो तो सब कहेंगे कि आप तो स्त्री या हाशिये पर जाने वालों के बारे में लिखते ही नहीं लिखो तो कहेंगे आप भी आ गये घिसी पिटी लकीर पर कलम चलाने.:-)

आनंद said...

ईमानदारी से कुछ भी लिखिए। भले ही स्‍ि‍त्रयों या बच्‍चों या अपने रोज़मर्रा की समस्‍याओं के बारे में हो, वह ओढ़ी हुई बौद्धिकता की तुलना में बेहतर होता है। एक बार उदयप्रकाश जी ने कहा था कि आज के समय किसी भी आइडियोलॉजी की बात करना बहुत आसान है। इसके जरिए आप बहुत ऊपर जा सकते हैं। पर हक़ की बात करना बड़ा मुश्किल है। अपनी बात लिखिए, धड़ल्‍ले से लिखिए। आपको किससे कॉम्‍पीटीशन करना है?

anuradha srivastav said...

जो हाशिये की ज़िन्दगी नही जिया ,जिसने हाशिए पर होने का दर्द नही भोगा ,अपमान नही झेला ,दमित नही हुआ ,शासित नही हुआ , शोषित नही हुआ ----- जब उस वर्ग में आ जाऊंगी तब आपको कहना न पडेगा कि स्त्री के अलावा कुछ और लिखिये..........अच्छा लिखा है।

हरिराम said...

स्त्री और बच्चे अर्थात् जननी और सन्तान, इनके बिना तो संसार ही कहाँ रहेगा? सबसे महान् लेखन है माताओं और बच्चों (जो भविष्य के कर्णधार हैं) के लिए कुछ लिखना, कुछ करना!

मीनाक्षी said...

बात का क्या .... बातें तो होती ही रहती हैं.. कभी किसी को काँटे सी चुभती है तो कभी वही बात दिलों में गुलाब सी महकती है .... आप का दिल जिसे सही माने बस वही करते जाइए !

अभय तिवारी said...

आप शीघ्र उस वर्ग में आ जायें मेरी शुभकामना है..
.. वैसे आप जो भी लिखती हैं प्रभावी लिखती हैं

राजीव तनेजा said...

आज पहली या दूसरी बार आपको पढने का मौका मिला...

अच्छा लगा कि कोई स्वर तो है जो तमाम बाधाओं के बावजूद अपना वजूद बनाए रख रहा है

तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए उल्टी धारा में अपनी नाव खेने की कोशिश कर रहा है...

आप जो भी...जैसा भी चाहें...लिखें...

लिखती रहें...

आपकी लेखनी प्रभावी है...

सुजाता said...

काकेश आपकी तस्वीर से विचार मैच कर रहे हैं । पर सही ही कह रहे हो।
आनन्द ,मीनाक्षी आपसे सहमति है।
अभय जी, अनुराधा व राजीव जी धन्यवाद ।
हरिराम जी आप ऐसा सोचते हैं जानकर अच्छा लगा।

रवि रतलामी said...

मेरे भी यही विचार हैं जो हरिराम जी के हैं -
"स्त्री और बच्चे अर्थात् जननी और सन्तान, इनके बिना तो संसार ही कहाँ रहेगा? सबसे महान् लेखन है माताओं और बच्चों (जो भविष्य के कर्णधार हैं) के लिए कुछ लिखना, कुछ करना!"

रवीन्द्र प्रभात said...

स्त्री और बच्चों के बिना किसी सभ्य समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती , फ़िर इनकी उपेक्षा करके भला कैसे चला जा सकता है ? वैसे नि:संदेह आपने अपने प्रश्न के माध्यम से पुरुषों को बौद्धिक व्यायाम करने पर मजबूर कर दिया है .