ओह तो आपने अनदेखा नही किया ? देख ही लिया । और पढ भी रहे हैं ! अरे रे रे !
वैसे मुझे पता था कि कोई तो ज़रूर देखेगा ही ।मानव की सहज जिज्ञासु प्रवृत्ति में मेरा पूरा विश्वास है ।अनदेखा करने को कहा जाए तो ज़रूर देखेंगे । बहुत दिन से देख रही थी की लोग बाग लिखते हैं “परीक्षण् पोस्ट ; कृपया अनदेखा करें “अभी दो दिन पहले रतलामी जी ने डाली थी । कल नीलिमा जी ने । मुझे रह रह कर मन होता था कि देख ही डालूँ क्या है । और नही तो यह ही पता लगेगा कि क्या परीक्षण किया है ।रतलामी जी की भी पोस्ट नही देखी । मन मसोस कर रह गयी । कुलबुलाहट मची रही ।जैसे पडोस में पडोसी का पडोसी से झगडा हो और मै उपस्थित ना हूँ । या घर में सास -ननद मेरे चुगली कर रही हों और मुझे सुन नही पा रहा हो । या माँ- बाप कमरे में टी- वी बजा रहे हों और बालक को डाँट कर पढने बैठा दिया हो दूसरे कमरे में ।
तो फैसला लिया कि एक हिट ही तो होगी , चल देख ही डाल ,क्या अनदेखा करने को कहा गया है ।
देख लिया । ऐसी राहत मिली जैसी किसी कब्ज़ियाये को हफ्ते भर बाद मिली हो । अब चित्त शांत है मन प्रसन्न् है ,निर्द्वन्द्व है ।
ऐसी हालत हमारी ही नही थी । नीलिमा जी की दो परीक्षण पोस्टो पर अभी तक कुल मिलाकर 30 हिट्स हो चुकी है ।मै समझ सकती हूँ !
तभी विचार आया कि कुछ भाई -बहिनी लोग यौन शिक्षा को न देने के पक्ष में डटे है तो यह तो यह बिल्कुल हमारे जैसी स्थिति हो जाएगी । मत दीजिये ज्ञान ,बालक-बालिकाओं को । सूचना क्रांति का युग है । ज्ञान का विस्फोट हो रहा है । तकनीक का प्रसार हो रहा है । बताइये ,रिलायंस वाले इस बार बुध –बाजार मे रेहडी लगा कर 200 रु. में मोबाइल बेच रहे थे । सो , सूचना किसी की ज़रखरीद लौंडी तो है नही जो ताले में बन्द कर के रख लेगा ।उस पर किसी की मल्कियत नही है । यहाँ छुपाओगे वहाँ मिल जाएगी । न जाने किस रूप में । पोर्न साइट्स है , किताबें , बातें ,सबसे बडा तो टीवी ही है । सो सूचना और तकनीक नही रुक सकती । किस रूप में दिया जाये सिर्फ इस पर आप नियंत्रण रख सकते हैं ।
और यूँ भी लडकियों के प्रति हमारा समाज अधिक क्रूर है ।खास तौर पर निम्नवर्गीय समाज में लडकियों के लिये कुछ तथ्य जानना , कुछ कुंठाओं से मुक्त होना कुछ मिथो से बचना और स्वस्थ जीना सीखना निहायत ज़रूरी है ।उन को यह समझाने की भी ज़रूरत है कि एक गलती पर ज़िन्दगी खत्म नही होती ।अपने घरों में ऐसे अन्धेरे कोने क्यो रचे जाएँ जहाँ पडे हमारे किशोर किशोरियाँ अपनी कुठाओं की ग्रंथियों में गर्क होते रहें ।
कितना बताया जाए ,क्या बताया जाए और कौन बताए यह जानना ज़्यादा ज़रूरी है।
Saturday, June 30, 2007
Friday, June 29, 2007
दर्पण मेरे ये तो बता ......
स्नोव्हाइट कीकहानी तो सुनी होगी ? उसकी सौतेली माँ स्नोव्हाइट के सौन्दर्य से ईर्ष्या करती थी और उसे मरवाने के भरसक प्रयास करती थी । अपने जादुई दर्पण से वह पूछती रहती थी –“दर्पण मेरे ये तो बता , सबसे सुन्दर कौन भला ?” उत्तर में सुनना चाहती थी अपना नाम । पर दर्पण कभी झूठ बोलता है भला ? वह बिन्दास कहता था –‘स्नोव्हाइट “! सो हमने मान लिया कि दर्पण झूठ नही बोलता । तथ्य स्थापित हो गया । वैज्ञानिक इसे नही मानेंगे । मै भी नही मानती । खुद देख रखे हैं ऐसे दर्पण जो बहुत मोटा { समीर जी जैसा :)स्माएली लगा दी है समीर भाई ) बहुत पतला (मसिजीवी जी जैसा, स्माइली नही लगाइ गयी है ) बहुत लम्बा , बहुत ठिगना , बहुत दूर [जीतू जी की तरह ] या बहुत पास [यह नही बतायेंगे ] दिखा कर आपको हँसा सकते है , रुला और चौँका सकते हैं ।
खैर दर्पण एक और भी रहा । पच्छिम । पूरब का दर्पण । दर्पन झूठ नही बोलता । सो पच्छिम ने भी पूरब के बारे में कभी नही बोला ।पच्छिम का दर्पण जिज्ञासु था । पूरब में आया । देखा भाला ,घूमा फिरा । यहाँ का इतिहास लिखा सबसे पहले । साहित्य का इतिहास लिखा सबसे पहले क्या नाम था ...अम्म्म...”... एस्त्वार द ला लित्रेत्युर एन्दुई ....ब्ला ब्ला ह्म्म । यहाँ क्या किसी को एतिहास लिखना आता था कभी ।
तो जी । क्या हुआ कि । वे घूमे फिरे । फिर लिखा । {व्यापार और शासन तो किया ही} और लिखा यह कि ये तो जी जादू –टोना-टोटका करने वाले ,देसी , गँवार ,अन्धविसवासी ,आस्था भक्ति वाले , इर्रेसनल , वगैरा वगैरा वाले लोग है पूरबिया लोग ।
ठोक बजा कर कहा ।तो लो जी एक और कहानी याद आ गयी कि अंग्रेज़ी की किताब में “स्टोरीज़ रीटोल्ड “मेँ हुआ करती थी । एक गाँव था । जहाँ किसी को यह नही पता था कि दर्पण क्या होता है । कभी किसी ने दर्पण नही देखा था । वही किसी बुडबक को मिल गया रहा शीशा । उसने देखा । चकमक पत्थर जैसा । उसमे किसी दाढी वाले आदमी को देख संत समझ लिया और घर ले जाकर छुपा दिया । रोज़ खेत पर जाने से पहले अपना चेहरा ,यानी संत के दर्शन करता और तब जाता । पत्नी का खोपडा घूमा । पीछे से एक दिन ढूंढा कि पति किसे निहार कर जाता है । शीशा देखा । सुन्दर स्त्री दिखी । बस सियापा और क्या ?
तो पूरब ने कभी अपनी व्याख्या अपने मुँह से कर के अपने आप नही बताया था । ना खुद अपना विसलेसन कभी किया था –कि मै क्या हूँ ,कैसा हूँ वगैरा । तो जब इतिहास लिखे गये पूरब के बारे में , उपन्यास लिखे गये ,तबही पच्छिम के आइने ने संसार भर को भी और पूरब को भी उसका प्रतिबिम्ब दिखाया । अनपढ , गवाँर , अन्धविसवासी ,व्रत त्योहार वाले , असभ्य । अब दर्पण तो झूठ नही बोलता ।तो पूरब वाला मानने लगा कि यही सच है । यही इमेज है । अब तो बुडबक खुदही अपना प्रचार करने लगा वैसे ही जैसा पच्छिम ने कहा कि वह है । पूरब ने आत्मसात कर लिया इस छवि को और इसी को बनाए रखने मेँ ऊर्जा लगाने लगा ।
सो ई है दर्पण की कहानी । एडवर्ड सईद का “ओरियंटलिज़्म “ । सरलीकृत अन्दाज में ।यह उद्देश्य नही । ओरियंटलिज़्म माने प्राच्यवाद माने पच्छिम के प्राच्यविदो द्वारा पूरब को दिखाया गया आइना ।प्राच्यविद । ध्यान दीजिये “प्राच्यविद “।
तो जब हमने बात की थी रसोई नष्ट करने की मतलब सिर्फ यह था कि इस मुद्दे पर क्रांति की ज़रूरत है । स्त्री पक्ष की सत्ता है रसोई ,वही नष्ट कर सकती है । हालाँकि मै मानती हूँ कि रसोई को सत्ता मानना भी स्त्री का बुडबकपना है ।
तो रसोई नष्ट करने की बात पर स्त्री के इस रसोई –सत्ता के मालकिन रूप का बडा महिमामंडन किया गया । तब ही सोचा था कि कुछ समझा दें बालकों को , ज्ञान की राह दिखा दें ।पर क्या है कि बिना बडे- बडे नाम लिये लोग बात नही सुनते । सो एडवर्ड सईद का रसोई संसकरण यह बनाया है हमने कि
****स्त्री ने कभी अपनी व्याख्या नही की । वह महान है । वह उद्देश्यो के भटकाव में , पुरुष की तरह समय नष्ट नही करती । वह सृजन करती है । मौलिक सृजन ।कभी यह सृजन रसोई में होता है कभी गर्भ में । वह जीवन में रस और रंग लाती है {किसके ? अजी बैचलरों के !} जीवन को व्यवस्था देती है , सुचारू रूप से चलाती है {आपको समय पर खाना पीना ,कपडा -लता प्रेस किया हुआ ,रति ,संतान,संतान का होमवर्क ,माता पिता की सेवा, बहनों को मेवा सब समय पर कोई देता रहे तो जीवन सुचारू रूप से नही चलेगा भला? } फिर पितृसता कहे कि वह महान है । कुछ नही माँगती , क्षमाशील है , तपस्विनी है , ममतामयी है । ब्ला ब्ला ब्ला .........
जब इतना चढाओगे , चने के झाड पर, तो बेवकूफ तो बनेगी ही निश्चित तौर पर ।
कहोगे” तुम्ही तो हो जो सब सम्हालती हो “ और लम्बी तान कर सो जाओगे तो तारीफ के बोझ की मारी रात देर तक जाग सुबह के व्यंजनो ,ऑफिस –स्कूल के कपडों को सहेजेगी ही ।
“बडी बहू बडी सीधी है जी । आज तक पलट कर जवाब नही दिया । चाहे मै कुछ भी कहती रही । बडी भोली है “” बस यही दर्पण है । तुम सीधी हो । गलत बात का विरोध नही कर सकतीं । बना दिया मूल्य । अब कैसे ना करे तदानुरूप आचरण । भोला होना ,अबोध होना एक गुण हो गया ।
तो दर्पण झूठ ना बुलाए । पितृ सत्ता यही आईना स्त्री को दिखा -दिखा कर अब तक बुद्धू बनाती आयी है । जब दर्पणो की असलियत कोई स्त्री जान जाती है तो खतरे की घंटी बज जाती है स्त्रीविदों के लिए । स्त्रीविद । प्राच्यविद । इस तरह की बात करके आप भविष्य निधि की तरह निवेश कर रहे होते हो । एक बार इमेज बना दो फिर हर साल प्रीमियम भरो---“ मुझे बस तुम्हारे हाथ का खना ही अच्छा लगता है । “ और पाओ ढेर सारा इंश्योरेंस और पॉलिसी मैच्योर होने पर ढेर सारा कैश । बल्ले बल्ले !!
सो इस मनोवैज्ञानिक निवेशीकरण को समझा जा रहा है मी लॉर्ड !!!!!
स्त्री आज खुद को समझ सकने और अभिव्यक्त कर सकने में सक्षम हो रही है । उसे धीरे -धीरे इस आइने को तोडने के लिए तैयार होना है जो आज तक उसे पितृ सत्ता के पुजारी पुरष और स्त्रियाँ दिखाती आयीं है ।
******
सो दर्पण भी षड्यंत्रकारी हो सकता है , वह झूठ बोल सकता है , चाल चल सकता है । वह किसके हाथ में है और किसे दिखाया जा रहा है यह सोचना ज़रूरी है इससे पहले कि उस पर विश्वास करने चलें ।
खैर दर्पण एक और भी रहा । पच्छिम । पूरब का दर्पण । दर्पन झूठ नही बोलता । सो पच्छिम ने भी पूरब के बारे में कभी नही बोला ।पच्छिम का दर्पण जिज्ञासु था । पूरब में आया । देखा भाला ,घूमा फिरा । यहाँ का इतिहास लिखा सबसे पहले । साहित्य का इतिहास लिखा सबसे पहले क्या नाम था ...अम्म्म...”... एस्त्वार द ला लित्रेत्युर एन्दुई ....ब्ला ब्ला ह्म्म । यहाँ क्या किसी को एतिहास लिखना आता था कभी ।
तो जी । क्या हुआ कि । वे घूमे फिरे । फिर लिखा । {व्यापार और शासन तो किया ही} और लिखा यह कि ये तो जी जादू –टोना-टोटका करने वाले ,देसी , गँवार ,अन्धविसवासी ,आस्था भक्ति वाले , इर्रेसनल , वगैरा वगैरा वाले लोग है पूरबिया लोग ।
ठोक बजा कर कहा ।तो लो जी एक और कहानी याद आ गयी कि अंग्रेज़ी की किताब में “स्टोरीज़ रीटोल्ड “मेँ हुआ करती थी । एक गाँव था । जहाँ किसी को यह नही पता था कि दर्पण क्या होता है । कभी किसी ने दर्पण नही देखा था । वही किसी बुडबक को मिल गया रहा शीशा । उसने देखा । चकमक पत्थर जैसा । उसमे किसी दाढी वाले आदमी को देख संत समझ लिया और घर ले जाकर छुपा दिया । रोज़ खेत पर जाने से पहले अपना चेहरा ,यानी संत के दर्शन करता और तब जाता । पत्नी का खोपडा घूमा । पीछे से एक दिन ढूंढा कि पति किसे निहार कर जाता है । शीशा देखा । सुन्दर स्त्री दिखी । बस सियापा और क्या ?
तो पूरब ने कभी अपनी व्याख्या अपने मुँह से कर के अपने आप नही बताया था । ना खुद अपना विसलेसन कभी किया था –कि मै क्या हूँ ,कैसा हूँ वगैरा । तो जब इतिहास लिखे गये पूरब के बारे में , उपन्यास लिखे गये ,तबही पच्छिम के आइने ने संसार भर को भी और पूरब को भी उसका प्रतिबिम्ब दिखाया । अनपढ , गवाँर , अन्धविसवासी ,व्रत त्योहार वाले , असभ्य । अब दर्पण तो झूठ नही बोलता ।तो पूरब वाला मानने लगा कि यही सच है । यही इमेज है । अब तो बुडबक खुदही अपना प्रचार करने लगा वैसे ही जैसा पच्छिम ने कहा कि वह है । पूरब ने आत्मसात कर लिया इस छवि को और इसी को बनाए रखने मेँ ऊर्जा लगाने लगा ।
सो ई है दर्पण की कहानी । एडवर्ड सईद का “ओरियंटलिज़्म “ । सरलीकृत अन्दाज में ।यह उद्देश्य नही । ओरियंटलिज़्म माने प्राच्यवाद माने पच्छिम के प्राच्यविदो द्वारा पूरब को दिखाया गया आइना ।प्राच्यविद । ध्यान दीजिये “प्राच्यविद “।
तो जब हमने बात की थी रसोई नष्ट करने की मतलब सिर्फ यह था कि इस मुद्दे पर क्रांति की ज़रूरत है । स्त्री पक्ष की सत्ता है रसोई ,वही नष्ट कर सकती है । हालाँकि मै मानती हूँ कि रसोई को सत्ता मानना भी स्त्री का बुडबकपना है ।
तो रसोई नष्ट करने की बात पर स्त्री के इस रसोई –सत्ता के मालकिन रूप का बडा महिमामंडन किया गया । तब ही सोचा था कि कुछ समझा दें बालकों को , ज्ञान की राह दिखा दें ।पर क्या है कि बिना बडे- बडे नाम लिये लोग बात नही सुनते । सो एडवर्ड सईद का रसोई संसकरण यह बनाया है हमने कि
****स्त्री ने कभी अपनी व्याख्या नही की । वह महान है । वह उद्देश्यो के भटकाव में , पुरुष की तरह समय नष्ट नही करती । वह सृजन करती है । मौलिक सृजन ।कभी यह सृजन रसोई में होता है कभी गर्भ में । वह जीवन में रस और रंग लाती है {किसके ? अजी बैचलरों के !} जीवन को व्यवस्था देती है , सुचारू रूप से चलाती है {आपको समय पर खाना पीना ,कपडा -लता प्रेस किया हुआ ,रति ,संतान,संतान का होमवर्क ,माता पिता की सेवा, बहनों को मेवा सब समय पर कोई देता रहे तो जीवन सुचारू रूप से नही चलेगा भला? } फिर पितृसता कहे कि वह महान है । कुछ नही माँगती , क्षमाशील है , तपस्विनी है , ममतामयी है । ब्ला ब्ला ब्ला .........
जब इतना चढाओगे , चने के झाड पर, तो बेवकूफ तो बनेगी ही निश्चित तौर पर ।
कहोगे” तुम्ही तो हो जो सब सम्हालती हो “ और लम्बी तान कर सो जाओगे तो तारीफ के बोझ की मारी रात देर तक जाग सुबह के व्यंजनो ,ऑफिस –स्कूल के कपडों को सहेजेगी ही ।
“बडी बहू बडी सीधी है जी । आज तक पलट कर जवाब नही दिया । चाहे मै कुछ भी कहती रही । बडी भोली है “” बस यही दर्पण है । तुम सीधी हो । गलत बात का विरोध नही कर सकतीं । बना दिया मूल्य । अब कैसे ना करे तदानुरूप आचरण । भोला होना ,अबोध होना एक गुण हो गया ।
तो दर्पण झूठ ना बुलाए । पितृ सत्ता यही आईना स्त्री को दिखा -दिखा कर अब तक बुद्धू बनाती आयी है । जब दर्पणो की असलियत कोई स्त्री जान जाती है तो खतरे की घंटी बज जाती है स्त्रीविदों के लिए । स्त्रीविद । प्राच्यविद । इस तरह की बात करके आप भविष्य निधि की तरह निवेश कर रहे होते हो । एक बार इमेज बना दो फिर हर साल प्रीमियम भरो---“ मुझे बस तुम्हारे हाथ का खना ही अच्छा लगता है । “ और पाओ ढेर सारा इंश्योरेंस और पॉलिसी मैच्योर होने पर ढेर सारा कैश । बल्ले बल्ले !!
सो इस मनोवैज्ञानिक निवेशीकरण को समझा जा रहा है मी लॉर्ड !!!!!
स्त्री आज खुद को समझ सकने और अभिव्यक्त कर सकने में सक्षम हो रही है । उसे धीरे -धीरे इस आइने को तोडने के लिए तैयार होना है जो आज तक उसे पितृ सत्ता के पुजारी पुरष और स्त्रियाँ दिखाती आयीं है ।
******
सो दर्पण भी षड्यंत्रकारी हो सकता है , वह झूठ बोल सकता है , चाल चल सकता है । वह किसके हाथ में है और किसे दिखाया जा रहा है यह सोचना ज़रूरी है इससे पहले कि उस पर विश्वास करने चलें ।
मै स्त्री ।मै जननी । महान । मै मौलिक सृजन कर्ता । मै पगली । मै ममतामयी । मै क्षमाशील । मै साध्वी कि सती । व्रती उपासी । सरल । हिसाब किताब में कमजोर ।त्रिया चरित्र । सडक पर कार लेकर नाक में दम करने वाली , पहले सूरजमुखी फिर ज्वालामुखी ।ज़िद्दी । ज़ोर ज़ोर से हँसने वाली । जो भी हूँ । खुद हूँ । खुद रहूँ । खुद जानूँ ।खुद देखूँ । कोई और मेरा आईना [ ।स्त्रीविद !] क्यो हो ?
Wednesday, June 27, 2007
यहाँ हिन्दी बोलने पर जुर्माना है जी !
तो हम सब ब्लौगिये यह सोचते रहे है कि हम नेट पर हिन्दी का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। अंतर्जाल पर हिन्दी युवा हो रही है और इधर हिन्दी के देश में युवा होती पीढी को हिन्दी बोलने पर चुकाना पड रहा है फाइन !! जी हाँ ! हमारे देश के अधिकांश पब्लिक स्कूल यह सज़ा अपने छात्रों को देते हैं ताकि वे अंग्रेज़ी में ही बोलने को विवश हो जाएँ और माता-पिता अपने नन्हों को विदेशी में गिटिर-पिटिर करते देख आह्लादित हों और स्कूल के स्टैंडर्ड को देख कर प्रभावित हों ।तथ्य मेरे लिये नया नही है । देख चुकी हूँ कि छात्रो को हिन्दी के पीरियड के अलावा विद्यालय में कहीं हिन्दी बोलने पर झाडा जाता रहा है ।हो सकता है हम में से अधिकांश के बच्चे ऐसे ही विद्यालयों में पढते हों ।अभी एक परिचित ,जो रोहतक के एक रिप्यूटिड पब्लिक स्कूल में पढाती हैं , से पता लगा कि उनके विद्यालय में हिन्दी का एक शब्द बोलने पर 50 पैसा जुर्माना है । बेचारे बुनियादी शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चे हिन्दी के एक वाक्य को दस अंग्रेज़ी के टूटे -फूटे वाक्यों में बताते हैं और फिर भी हिन्दी बोलते अक्सर पकडे जाते हैं और जुर्माना देते है । वे अबोध नही जानते कि हिन्दी बोलना जुर्म क्यो है , न वे किन्ही औपनिवेशिक इरादों से परिचित हैं।लेकिन धीरे धीरे यह बाल –मन अंग्रेज़ी के “”सुपीरियर ट्रेडीशन’’ से प्रभावित होकर अपनी भाषाई धरोहर पर शर्मसार होना सीख जाएगा । यह निहायत शर्मनाक तो है ही एक देश के लिये जहाँ मातृभाषा बोलना भी जुर्म है पर मेरे लिए यह जानना और भी दिलचस्प है कि ऐसे विद्यालय में प्रतिदिन कितना जुर्माना इकट्ठा होता है ;क्योंकि वह साफ तौर पर बताएगा कि इन नन्हों के लिए मातृभाषा के मायने क्या हैं ,उनके लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी भाषा की आज़ादी है ।हिन्दी उनके लिए उतनी ही सहज है जितनी यह अभिव्यक्ति कि ‘मुझे भूख लगी है ‘या एक दूसरे पर चिल्ला पडना ‘पागल’ कह कर ,तू-तडाक करना,रोना या हँसना । असमय इन्हें एक ऐसी असहजता में बान्ध दिया जाता है जहाँ से मुक्त होकर वे राहत महसूस करते हैं ।
सो अगर हिन्दी बोलने पर उस स्कूल में फाइन दिया जाता रहे और बढता रहे तो मेरे लिये यह संकेत अच्छा ही है पर क्या हिन्दी और हिन्द के लिए यह अच्छा है कि भाषा पर गर्व करना सिखाने कि बजाय हम अपनी संतानों को अपनी भाषाई अस्मिता पर हीनता -बोध दें ।
सो अगर हिन्दी बोलने पर उस स्कूल में फाइन दिया जाता रहे और बढता रहे तो मेरे लिये यह संकेत अच्छा ही है पर क्या हिन्दी और हिन्द के लिए यह अच्छा है कि भाषा पर गर्व करना सिखाने कि बजाय हम अपनी संतानों को अपनी भाषाई अस्मिता पर हीनता -बोध दें ।
Saturday, June 16, 2007
शनैश्चराय नम:..........!
शनिवार का दिन हमें प्रिय है । इसलिये नही कि हम शनि देव के भक्त हैं बल्कि इसलिये कि अगला दिन बिना भूल रविवार ही होता है :)
खैर , जैसा कि हमने पहले भी एक बार घोषित किया था कि शनि देव आज के सबसे पॉपुलर देवता हैं,भक्त आक्रान्त हैं और ज्योतिषाचार्य मज़े में । मीडिया भी उसे पॉपुलर बनाने में पूरा सहयोग दे रहा है । आज दो प्रमाण और मिले । एक खबरिया चैनल शनि और मंगल के सन्युक्त प्रभाव पर न्यूज़ बना रहा था। (शनि और मंगल ....सोचिये ? है ना खबर ? ) तो आज का हिन्दुस्तान टाइम्स शनि को विलेन नही मित्र मानने की सलाह दे रहा है “Why Shani is good for us “और कारण भी बता रहा है
“so instead of blaming Shani, it makes better sense to think of him as a friendand teacher who helps us learn important life lessons from whatever befalls us,lesson that he teaches best because there is no humbug about Shani. He gives it to you straight and says “come on now,deal with it “
शेखर एक जीवनी में कभी पढा था कि जो चीज़ भय उपजाती है उसका बाह्य चाम काट डालो ताकि उसका भीतर का घास फूस बाहर बिखर जाए जैसे बालक शेखर उस फूस भरे बाघ के साथ करता है जिसके भय से वह कई रात सो नही पाया था ।
सो हमारी तरह आप भी शनिवार को अब वह सब कुछ करना आरम्भ कर दीजिये जो जो प्रतिबन्धित है , डर अपने आप खत्म हो जाएगा । कम से कम जीवन में कुछ् चीज़ें तो हम सरल बना ही सकते हैं जो हमारी सामर्थ्य के भीतर हैं और बुद्धि के बस मे हैं !आधुनिकता ने हमें तर्क और सन्देह के हथियार दिये तो कमसे कम आधुनिकता का अर्थ जानने समझने वालो को तो शनि भय नही सताना चाहिये :)
अंत में मेरा मुहाविरा ----a smiley speaks better than words :)
खैर , जैसा कि हमने पहले भी एक बार घोषित किया था कि शनि देव आज के सबसे पॉपुलर देवता हैं,भक्त आक्रान्त हैं और ज्योतिषाचार्य मज़े में । मीडिया भी उसे पॉपुलर बनाने में पूरा सहयोग दे रहा है । आज दो प्रमाण और मिले । एक खबरिया चैनल शनि और मंगल के सन्युक्त प्रभाव पर न्यूज़ बना रहा था। (शनि और मंगल ....सोचिये ? है ना खबर ? ) तो आज का हिन्दुस्तान टाइम्स शनि को विलेन नही मित्र मानने की सलाह दे रहा है “Why Shani is good for us “और कारण भी बता रहा है
“so instead of blaming Shani, it makes better sense to think of him as a friendand teacher who helps us learn important life lessons from whatever befalls us,lesson that he teaches best because there is no humbug about Shani. He gives it to you straight and says “come on now,deal with it “
शेखर एक जीवनी में कभी पढा था कि जो चीज़ भय उपजाती है उसका बाह्य चाम काट डालो ताकि उसका भीतर का घास फूस बाहर बिखर जाए जैसे बालक शेखर उस फूस भरे बाघ के साथ करता है जिसके भय से वह कई रात सो नही पाया था ।
सो हमारी तरह आप भी शनिवार को अब वह सब कुछ करना आरम्भ कर दीजिये जो जो प्रतिबन्धित है , डर अपने आप खत्म हो जाएगा । कम से कम जीवन में कुछ् चीज़ें तो हम सरल बना ही सकते हैं जो हमारी सामर्थ्य के भीतर हैं और बुद्धि के बस मे हैं !आधुनिकता ने हमें तर्क और सन्देह के हथियार दिये तो कमसे कम आधुनिकता का अर्थ जानने समझने वालो को तो शनि भय नही सताना चाहिये :)
अंत में मेरा मुहाविरा ----a smiley speaks better than words :)
Sunday, June 10, 2007
जय सुरकण्डा माता !!
धनोल्टी जाकर ,सुरकण्डा देवी की चढाई चढते हुए मन मे अधिक उत्साह भी नही था और शक्ति भी नही सो थोडी दूर चलकर ही टट्टू ले लिए गये । लर्निग तो हमारी आस्तिक के रूप मे हुई पर धीरे धीरे डी लर्निन्ग भी कर ली और नास्तिक हो गये । सो तपोवन की सुनसान पहाडी चढाई जो टाट्टू पर नही थी और कठिन भी थी ,वह हमे अधिक रोमान्चक और उत्साहवर्धक लगी । खैर कल बैठे बैठे अचानक सुरकण्डा देवी की याद आयी और भी कुछ जो देखा था और उद्वेलित कर रहा था याद आया और यह कविता बन पडी । कविता से त्रस्त लोग माफ़ करे ।
शायद इस सपाट अभिव्यक्ति से भार्तीय स्त्री और समाजीकरण की कुछ सच्चाएयां स्पष्ट हो सकें ।
सितारों वाली साडी,
भरी -भरी चूडियां,
हील वाले सैंडिल,गोद में बच्चा ,कुछ महीने का,
और कंधे पर पर्स लटकाए,जिसमें से
दूध की बोतल,तौलिया, नैपियां ,
झांक रही है ।
और
वह
हांफ़ रही है
चढते हुए सुरकण्डा देवी की चढाई
अत्यन्त कटीली ।
पति ने रास्ते में बुरांश का रस,१० रु। गिलास।
दुलराया शिशु को
और खरीदे नारियल ,बताशे , माता के लिए बिन्दी, मेहन्दी, सिन्दूर वगैरह.............
टट्टू पर सवार लोगो को उपर चढते को हिकारत से देखा
और कहा खुले आम----
"माता खुश होती है
उन भक्तों से जो पैदल चढाई करके आएं"
और देखा पत्नी की ओर
उसे भांपते हुए और समर्थन प्राप्ति के विशवास में ।
शायद इस सपाट अभिव्यक्ति से भार्तीय स्त्री और समाजीकरण की कुछ सच्चाएयां स्पष्ट हो सकें ।
सितारों वाली साडी,
भरी -भरी चूडियां,
हील वाले सैंडिल,गोद में बच्चा ,कुछ महीने का,
और कंधे पर पर्स लटकाए,जिसमें से
दूध की बोतल,तौलिया, नैपियां ,
झांक रही है ।
और
वह
हांफ़ रही है
चढते हुए सुरकण्डा देवी की चढाई
अत्यन्त कटीली ।
पति ने रास्ते में बुरांश का रस,१० रु। गिलास।
दुलराया शिशु को
और खरीदे नारियल ,बताशे , माता के लिए बिन्दी, मेहन्दी, सिन्दूर वगैरह.............
टट्टू पर सवार लोगो को उपर चढते को हिकारत से देखा
और कहा खुले आम----
"माता खुश होती है
उन भक्तों से जो पैदल चढाई करके आएं"
और देखा पत्नी की ओर
उसे भांपते हुए और समर्थन प्राप्ति के विशवास में ।
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