Wednesday, April 1, 2009

एलिस इन वंडरलैंड

अच्छी लड़की ।सीधा कॉलेज ।कॉलेज से सीधा घर ।आँखे हमेशा नीची । लम्बी बाह के कुर्ते और करीने से ढँकता दुपट्टा ।पढने मे होशियार ।शाम को कभी घर से बाहर नही निकली । छत पर अकेली नही गयी । यहाँ कैम्पस में सारी शिक्षा ,सारी संरचनाएँ ढह गयीं छत और आँगन और सड़कें एकाकार हो गयीं ।आज़ादी का पहला अहसास ।हॉस्टल के कमरे में पहली बार वोदका को लिम्का मे मिलाकर पिया और घंटों मदहोश रही ।खों-खों करते सिगरेट का पहला कश खींचा ।कैम्पस में ढलती शाम को सडक के दोनो किनारे फूटपाथ के किनारे बनी मुँडेरी पर दो दो छायाएँ दिखाई पड़ जातीं । मुख पर एक स्मित रेखा खिंच आती ।हॉस्टल की ज़िन्दगी । परम्परावादी घरों से निकली हुई लडकी के लिए एक एडवेंचर "एलिस इन वंडर्लैंड "जैसा ।कोई देख नही रहा ।देखता भी हो तो मेरी बला से,कौन फूफा- मामा- ताया -ताई लगता है ।
बहुत चाहा था कि हमें भी हॉस्टल भेज दिया जाए लेकिन माँ-पिताजी ने साफ इनकार कर दिया -'हॉस्टल में लड़कियाँ बिगड़
जाती हैं , और ज़रूरत भी क्या है हॉस्टल मे रहने की घर से कॉलेज एक घण्टा ही तो दूर है '।तो हमारा बस नही चला ,और कैसे कह देते कि बिगड़ना ही तो चाहते हैं हम भी , या हिम्मत नही हुई पूछ लें कि 'बिगड़ना क्या होता है '। तीखी प्रतिक्रिया के बाद खुद पर से ही विश्वास डगमगा गया और माता पिता का तो ज़रूर डगमगाया ही होगा यह सोच कर कि जाने क्यो अच्छी भली लड़की ऐसा कह रही है ,किसने सिखा -पढा दिया , गलत सोहबत मे तो नही पड गयी ।
बहुत सालों तक युनिवर्सिटी आते जाते देखती रही इठलाती लड़कियों को जो पी जी विमेंस मे आकर ठहरती थीं । वे अपने कपड़े खुद खरीदने जातीं , भूख लगने पर और मेस का खाना पसन्द न आने पर अन्य इलाज क्या हो सकते थे वे जानती थीं ,तमाम प्रलोभन सामने होने पर भी वे परीक्षाओं के दिनों मे जम कर पढाई करती थीं ,शहर के किसी कोने मे अकेले आना जाना जानती थीं ।
इधर हम फूहड़ता ही हद थे ।माँ के साथ ही हमेशा कपड़े जूते खरीदे । उन्हीं के साथ हमेशा घूमे । उन्हीं के साथ फिल्में देखीं ।कॉलेज हमेशा एल-स्पेशल से गये । कॉलेज भी एल-स्पेशल ही था । दिल्ली के पॉश इलाके का कॉंनवेंट कॉलेज । सामने भी एल -स्पेशल कॉलेज। नॉन एल-स्पेशल कॉलेज हमारे इलाके से बहुत दूर हटके थे । कोने मे पड़ा हुआ एक ऊंची ठुड्डी वाला कॉलेज जिसमें पढ कर हमने टॉप तो किया पर दुनियादारी में सबसे नीचे रह गये ।

उस वक़त मे हम यह भी सुना करते थे कि हॉस्टल मे पढी लड़की की शादी मे भी अड़चन आती है।भावी ससुराल वाले समझते हैं कि ज़रूर तेज़ तर्रार होगी वर्ना इतनी दूर आकर हॉस्टल मे कैसे रह पाती?शादी के बाद सबको नाच नचा देगी।
वह यही चाहते है कि लड़कियाँ दबें,वे झुकें,वे मिट जाएँ ॥ मै सोचती हूँ कि बिगड़ना लड़की के लिए कितना ज़रूरी है और तेज़ तर्रार होना भी।आत्मनिर्भरता की जो शिक्षा हॉस्टल मे रहते मिल जाती है वह झुकने और मिटने दबने नही देती।।माहौल थोड़ा बदला है शायद घर की घुटन और हॉस्टल की आज़ादी में अंतर कम हो गया है । पर अब भी बाहर से आयी लड़कियाँ यहाँ ज़िन्दगी के कड़े पाठ सीख रही हैं । उन सी आत्मनिर्भरता हममें अब जाकर आयी है , यह देख ईर्ष्या होती है । घर से दूर अकेले ,अनजान शहर में रहना और आना-जाना जो विवेक पैदा करता है वह सीधे कॉलेज और कॉलेज से सीधे घर वाली लड़्कियाँ शायद ही वक़्त रहते सीख पाती हैं ।

आज से दस साल पहले के मुकाबले आज दिल्ली जैसे शहर का वातावरण कहीं अधिक उन्मुक्त है।लेकिन इस उन्मुक्ति के आकाश में क्या वह आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान सच में दमक पाया है जिसकी मुझे हरदम उम्मीद है? जो उन्मुक्त हैं वे बेहद हैं केवल वर्गीय अंतर के कारण।साथ ही इस स्वतंत्रता मे समझ और सोच भी शामिल है इसका मुझे कुछ सन्देह है।
जो बन्धी थीं वे अब भी बन्धी हैं।रोज़ के समाचार उन्हें और डराते हैं।जो सचेत हुई हैं वे अब भी बहुत कम हैं!लड़की न जाने इस वंडरलैंड में कब तक भटकती रहेगी और अपनी पहचान खोज पाएगी !