Monday, December 31, 2007
ब्लॉग में क्या रखा है ?
साल खत्म होने को है और सब बधाइयाँ भेज रहे हैं । ब्लॉगिंग का यह साल कैसा रहा इस पर निश्चित ही किसी हम जैसे ठाले बैठे ने ज़रूर विचार किया होगा हम सुबह से आज की तिथि में दर्ज हो जाने भर के लिए एक पोस्ट डालने के इंतज़ार में थे।सुअवसर अब जाकर मिला है । सुबह से कडक धूप में खेलते बच्चों और मटर छीलती,स्वेटर बुनती खुश मम्मियाँ देख देख कर यह सोच रहे हैं मरी पोस्ट आज न डली तो क्या गज़ब हो जाएगा ?कई दिन से नही लिखा गया कुछ । मनीषा जी ने कुछ सवाल भेजे थे जिनमें पहला था कि -आपने ब्लॉगिंग कब और कैसे शुरु की ? फिलहाल उन्ही का उत्तर दे रही थी और सोच रही थी कि एक सवाल अपने तरफ से भी लिख दूँ कि- आपने ब्लॉगिंग कब और क्यों छोडी ?कभी-कभी बहुत दिन बीत जाते हैं कुछ लिखते नही बनता और उस र्रिदम के टूटते ही उत्साह क्षीण होने लगता है । लगता है -बेकार का काम है , टाइम खोटी होता है , इतने हम मटर् छील लेंगे ,बथुआ तोड लेंगे ,साग छाँट लेंगे ,राजमा तडक लेंगे ,इसी बहाने धूप सेक लेंगे ।कुछ नही होता । पर एक हुडक बनी ही रहती है कि ब्लॉग झाँक आयें ? कोई टिप्पणी नयी तो नही आयी ? किसी ने कुछ धाँसू लिखा? कोई विवाद तो नही हुआ ? हमारी विशेषज्ञ टिप्पणियों के बिना कोई सफल मुद्दा निबटा तो नही दिया गया ?नीचे ,बाहर ,हर जगह गाना-बजाना हो रहा है और हम परेशान आत्माओं की तरह ब्लॉग लिख रहे हैं ।सुबह से सोच रहे है -क्या बकवास काम है !पर यहाँ आज की तारीख मे दर्ज होना ज़रूरी है कि हमने साल भर लिखा और सक्रिय लेखक हैं ।दिल्ली का आज हाल बुरा है \कल राम सेतु वाली रैली ने अव्यवस्था फैलाई और आज नये साल के शौकीनों ने ट्रैफिक जाम किया हुआ हैऔर हम हारकर पोस्ट डाल रहे हैं । पतिदेव ने जवानी के दिनों की पहली पहली मूँछें उडाकर अभी अभी आयें हैं, नये साल में कुछ नया तो होना चाहिये ।यहाँ क्या नया होने वाला है?आज अज़दक की तरह इसे पतनशील पोस्ट कहने का मन हो रहा है ?
Wednesday, December 26, 2007
जलते हुए बगदाद की कहानी, एक समानांतर इतिहास |
हम अक्सर ब्लॉग के माध्यम को लेकर बडी बडी बातें करते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अस्मिता ,पहचान , मुखौटे ,नेक्सस और पता नही क्या क्या ? लेकिन ब्लॉगिंग को कितने लोग गम्भीर माध्यम के रूप में ले रहे हैं ? क्या वाकई हमने इस माध्यम की शक्ति की पहचान कर ली है ? अभी हिन्दी ब्लॉगर्स में परिपक्वता बहुत दूर की स्थिति लग रही है ,जहाँ हम अपने छोटे हितों और दोस्तियों से ऊपर उठकर वाकई गम्भीर लेखन और अभिव्यक्ति कर पाएंगे । हमारे पास अपना क्या है जो हम अपने ब्लॉग पर दे रहे हैं जो विशिष्ट है और जैसा किसी और के पास नही ? ब्लॉगर्स के सामने अभी हिट होने और टिप्पणी पाने की समस्या ही ज़्यादा गम्भीर है ।
लेकिन बगदाद की एक 27 वर्षीया चिट्ठाकार के पास युद्धभूमि के बीच बनते हुए ताज़े अनुभवों की ऐसी थाती है जो एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन चुकी है । रिवर बेन्ड के छ्द्मनाम से लिखने वाली यह चिट्ठाकार अपने ब्लॉग बगदाद बर्निंग में बहुत से सवाल उठाती है । वह दर्ज करती है कि कैसा था युद्ध से पहले का बगदाद और सरकार की नीतियों को प्रश्न चिह्नित करती है । अपने बगदाद छोडने के प्रकरण पर वह तफसील से लिखती है ।हैरानी होती है तो केवल यह कि युद्ध की आग में जलते हुए अपने देश की यह लडकी कैसे बिन्दास कहानी अपनी तरह से कहती है । स्त्री की अभिव्यक्ति , ब्लोग के माध्यम की ताकत और प्रामाणिक अनुभवों ने ही निर्देशक कीर्ति जैन को आकर्षित किया कि वे इस ब्लॉग का नाट्य रूपांतर कर एन.एस.डी में प्रदर्शित करें ।
रिवरबेंड ने बेस्ट मिडल ईस्ट और अफ्रीका का ब्लॉगी अवार्ड भी पाया है ।
इतिहास के समापन की घोषणा जब हो चुकी ऐसे में यह ब्लॉग और ऐसे अन्य ब्ळोग एक समानांतर इतिहास रच रहे हैं । यह वैकल्पिक इतिहास है उनका जिन्हे इतिहास की प्रक्रिया में अनदेखा किया गया है क्योंकि इतिहास वस्तुत: लिखने की प्रक्रिया में ही बनता है ।
लेकिन बगदाद की एक 27 वर्षीया चिट्ठाकार के पास युद्धभूमि के बीच बनते हुए ताज़े अनुभवों की ऐसी थाती है जो एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन चुकी है । रिवर बेन्ड के छ्द्मनाम से लिखने वाली यह चिट्ठाकार अपने ब्लॉग बगदाद बर्निंग में बहुत से सवाल उठाती है । वह दर्ज करती है कि कैसा था युद्ध से पहले का बगदाद और सरकार की नीतियों को प्रश्न चिह्नित करती है । अपने बगदाद छोडने के प्रकरण पर वह तफसील से लिखती है ।हैरानी होती है तो केवल यह कि युद्ध की आग में जलते हुए अपने देश की यह लडकी कैसे बिन्दास कहानी अपनी तरह से कहती है । स्त्री की अभिव्यक्ति , ब्लोग के माध्यम की ताकत और प्रामाणिक अनुभवों ने ही निर्देशक कीर्ति जैन को आकर्षित किया कि वे इस ब्लॉग का नाट्य रूपांतर कर एन.एस.डी में प्रदर्शित करें ।
रिवरबेंड ने बेस्ट मिडल ईस्ट और अफ्रीका का ब्लॉगी अवार्ड भी पाया है ।
इतिहास के समापन की घोषणा जब हो चुकी ऐसे में यह ब्लॉग और ऐसे अन्य ब्ळोग एक समानांतर इतिहास रच रहे हैं । यह वैकल्पिक इतिहास है उनका जिन्हे इतिहास की प्रक्रिया में अनदेखा किया गया है क्योंकि इतिहास वस्तुत: लिखने की प्रक्रिया में ही बनता है ।
Thursday, December 20, 2007
अध्यापक हमारे देश में मज़दूर है ....
जब कहानी की बात होती है अंतोन चेखव की कहानियों की सहजता, क्षिप्रता ,और गहराई याद हो आती है । यह वो कहानी है जहाँ कहानी अपने विकास के चरम पर पहुँच जाती है ।बहुत विचित्र लगता है कि हिन्दी उपन्यास ने जो मकाम 30 साल में हासिल किया उसे हिन्दी कहानी ने एक दशक में पा लिया । खैर , अंतोन चेखव की याद आज यूँ आयी कि शिक्षक की स्थिति पर विचार करते हुए उन्होने कुछ महत्वपूर्ण बातें कह दीं थीं जो इस चाण्क्य भूमि में बडी प्रासंगिक लगीं ।
"अध्यापक को तो कलाकार होना चाहिए,अपने काम से उसे गहरा अनुराग होना चाहिए ,और हमारे देश में तो वह मज़दूर ही है.... वह भूखा है, दबा हुआ है,दो जून की रोटी खाने के डर से भयभीत है,अल्पशिक्षित व्यक्ति है।.....जबकि उसे गाँव में सबसे प्रमुख व्यक्ति होना चाहिए,ताकि वह सब सवालो का जवाब दे सके, ताकि किसान उसे आदर्णीय व्यक्ति समझें, कोई भी उस पर चीखने -चिल्लाने की जुर्रत न करे ...उसका अपमान न कर सके, जैसा कि हमारे यहाँ आएदिन सभी करते हैं- थाने दार ,दरोगा,दुकानदार,पादरी,स्कूल का प्रिंसिपल और वह बाबू जो स्कूलों का इंस्पेक्टर कहलाता हैपर जिसे शिक्षा में सुधार की नही बल्कि इस बात की हीचिंता होती है कि आदेशों के पालन में कोई कमी न रह जाए । आखिर यह बात बेतुकी है कि जिसे जनता को शिक्षित करने का,सभ्य बनाने का काम सौंपा गया हो उसे दो कौडियाँ मिलें !"
बहुत कुछ यही हालात हमारे देश में शिक्षा और अध्यापक के भी हैं । पब्लिक स्कूलों और बडी संख्या में महिला अध्यापकों को छोड दिया जाए तो सरकारी स्कूलों और नुक्कड के छुटभैय्ये स्कूलों की बहुत सी अध्यापिकाएँ इसी तरह की ज़िल्लत और शर्मिन्दगी उठाती हैं । खुद स्कूलों में काम करके देख चुकी हूँ । बहुतों के अनुभव सुन चुकी हूँ । प्रिंसिपलों और स्कूल के बाबू और यहाँ तक कि चपरासी भी उससे कई गुना हैसियत रखते हैं । सम्पन्न परिवारों की स्त्रियों के लिए यह काम पॉकेट मनी और बच्चॉं को उसी प्रतिष्ठत स्कूल में मुफ्त पढा लेने का सवाल है ।वहीं पुरुषों के लिए यह घर चलाने का सवाल होता है ।एक स्कूल मैनेजमेंट के एक सदस्य को कहते सुना था - 'कितने टीचर चाहियें? अभी ट्रक भर कर मंगवा सकता हूँ । और वह भी 1500 रु. में । यह मेरे लिए कोई समस्या नही । ' हैरानी न हों लेकिन यह सच है । समस्या बहुत जटिल है । कई मुह वाली ।जिसके कई पहलू हैं । एक पोस्ट में समे पाना सम्भव नही ।
"अध्यापक को तो कलाकार होना चाहिए,अपने काम से उसे गहरा अनुराग होना चाहिए ,और हमारे देश में तो वह मज़दूर ही है.... वह भूखा है, दबा हुआ है,दो जून की रोटी खाने के डर से भयभीत है,अल्पशिक्षित व्यक्ति है।.....जबकि उसे गाँव में सबसे प्रमुख व्यक्ति होना चाहिए,ताकि वह सब सवालो का जवाब दे सके, ताकि किसान उसे आदर्णीय व्यक्ति समझें, कोई भी उस पर चीखने -चिल्लाने की जुर्रत न करे ...उसका अपमान न कर सके, जैसा कि हमारे यहाँ आएदिन सभी करते हैं- थाने दार ,दरोगा,दुकानदार,पादरी,स्कूल का प्रिंसिपल और वह बाबू जो स्कूलों का इंस्पेक्टर कहलाता हैपर जिसे शिक्षा में सुधार की नही बल्कि इस बात की हीचिंता होती है कि आदेशों के पालन में कोई कमी न रह जाए । आखिर यह बात बेतुकी है कि जिसे जनता को शिक्षित करने का,सभ्य बनाने का काम सौंपा गया हो उसे दो कौडियाँ मिलें !"
बहुत कुछ यही हालात हमारे देश में शिक्षा और अध्यापक के भी हैं । पब्लिक स्कूलों और बडी संख्या में महिला अध्यापकों को छोड दिया जाए तो सरकारी स्कूलों और नुक्कड के छुटभैय्ये स्कूलों की बहुत सी अध्यापिकाएँ इसी तरह की ज़िल्लत और शर्मिन्दगी उठाती हैं । खुद स्कूलों में काम करके देख चुकी हूँ । बहुतों के अनुभव सुन चुकी हूँ । प्रिंसिपलों और स्कूल के बाबू और यहाँ तक कि चपरासी भी उससे कई गुना हैसियत रखते हैं । सम्पन्न परिवारों की स्त्रियों के लिए यह काम पॉकेट मनी और बच्चॉं को उसी प्रतिष्ठत स्कूल में मुफ्त पढा लेने का सवाल है ।वहीं पुरुषों के लिए यह घर चलाने का सवाल होता है ।एक स्कूल मैनेजमेंट के एक सदस्य को कहते सुना था - 'कितने टीचर चाहियें? अभी ट्रक भर कर मंगवा सकता हूँ । और वह भी 1500 रु. में । यह मेरे लिए कोई समस्या नही । ' हैरानी न हों लेकिन यह सच है । समस्या बहुत जटिल है । कई मुह वाली ।जिसके कई पहलू हैं । एक पोस्ट में समे पाना सम्भव नही ।
Wednesday, December 19, 2007
सेल.सेल सेल ..लूटो लूटो लूटो....उर्फ एक बकवास पोस्ट
अपटू 50% पढ्ते ही क्या आपका दिल मचला है कभी ? हमारा तो डोलता है जी । बडे बडे ब्रांड्स पर जब 2000 का कपडा 1000 में और 800 की जुत्ती 400 में मिलती है तो सबका मन डोलता है । ये ब्रांडस का चक्कर क्या है समझ नही आता ।जब कुर्ते के साइद कट से डब्ल्यू का लाल तमगा झाँकता है या कमीज़ की जेब के कोने में एरो या स्वेटर के सीने पर मॉंटे कार्लो धडकता है तो क्या कुछ अलग लगता है ? अगर लगता है तो क्यों ? कीमत की वजह से ?माने ब्रांड का मतलब है ऊंची कीमत ।खास । विशिष्ट । जो सब जैसा नही । कुछ सुघड लोग वैसा ही माल गैर ब्रांड दूकानों से आधी कीमत पर लाते हैं और हमें उनसे सबक लेने को दिल होता है ।पर सच कहें तो मोंटे कार्लों से कहीं बेहतर रेहडी पर से 150-200 रुपए का स्वेटर खरीदना जेब को भी माफिक पडता है ।ब्रांड के एक स्वेटर की कीमत में चार-पाँच आ जाते हैं । आप इसे चीपनेस भी कह सकते हो, चीप चीज़ें खरीदना ।पर मॉल के भीतर चकाचक दूकान में 1000 का पत्ता देते जी काँप उठता है ।एक बार लाल बत्ती पर अगर्बत्ती को बेचने वाला बहुत रिरियाया तो हमने 20 रु देकर खरीद ली । औटो वाला बोला -मत दो जी ये ऐसे ही मूर्ख बानाते हैं । तब सोचा कि मॉल के भीतर बडे ब्रान्ड के शोरूम में खडे हो कर अगर हम यह नही सोचते कि यह बेवकूफ बन रहा है तो अगर्बत्ती बेचने के लिए ट्रैफिक सिग्नलों पर दौड- धूप करते आदमी से बेवकूफ बनने से क्यो डरते हैं जो अकेला किसी की रोटी नही छीन रहा ,न किसी का हक मार रहा है,न चकाचौन्ध दिखा रहा है , जो ज़मीनों के बडे -बडे सौदे करते हुए झोपडियों को नही तुडवा रहा ।जो निरीह शायद उस 5-10 रुपए के फायदे में उस दिन अच्छा खाना खा -खिला सकेगा अपने परिवार को ।
खैर यह अवांतर कथा है , मुख्य प्रसंग है लूटो की मानसिकता में बेवकूफ बनना । ऐसा कई बार हुआ कि जो पसन्द आया वह सेल में नही था ,फ्रेश अर्राइवल था ।या जो पसन्द आया उस पर 15% ही छूट थी बाकि पर 50 या 70।
जो भी हो पर सेल हर आम को खास बनने का ,विशिष्ट होने का मौका देती है । सेल का चरित्र जनहितवादी होता है।जो यूँ न खरीदे सेल पढकर ज़रूर मुँह की खाता है सेल में दरबारे खास दरबारे आम के लिए खुल जाते हैं ।यह अवसरों की समानता का अच्छा उदाहरण् है । सेल में भी जो खरीदारी न कर सके ,ब्रान्ड न ले सके वह इस जगत में निश्चय ही झख मार रहा है ।दर असल सवाल मूर्ख बनने न बनने का नही है । बल्कि किससे मूर्ख बनें का है । यह चॉयस क सवाल है । क्योंकि मूर्ख बने बिना अब गुज़ारा नही । आप किससे मूर्ख बनकर आनन्दित होना चाहते हैं ?फटीचर से या करोडपति से ?
खैर यह अवांतर कथा है , मुख्य प्रसंग है लूटो की मानसिकता में बेवकूफ बनना । ऐसा कई बार हुआ कि जो पसन्द आया वह सेल में नही था ,फ्रेश अर्राइवल था ।या जो पसन्द आया उस पर 15% ही छूट थी बाकि पर 50 या 70।
जो भी हो पर सेल हर आम को खास बनने का ,विशिष्ट होने का मौका देती है । सेल का चरित्र जनहितवादी होता है।जो यूँ न खरीदे सेल पढकर ज़रूर मुँह की खाता है सेल में दरबारे खास दरबारे आम के लिए खुल जाते हैं ।यह अवसरों की समानता का अच्छा उदाहरण् है । सेल में भी जो खरीदारी न कर सके ,ब्रान्ड न ले सके वह इस जगत में निश्चय ही झख मार रहा है ।दर असल सवाल मूर्ख बनने न बनने का नही है । बल्कि किससे मूर्ख बनें का है । यह चॉयस क सवाल है । क्योंकि मूर्ख बने बिना अब गुज़ारा नही । आप किससे मूर्ख बनकर आनन्दित होना चाहते हैं ?फटीचर से या करोडपति से ?
Monday, December 17, 2007
आप कितने खाली, बेकार,आवारा, बेचैन और दीवाने हैं..?
आप कितने खाली, बेकार,आवारा, बेचैन और दीवाने हैं..? वक्ट काटना आपके लिए एक बडा प्रश्न है ?
तारे गिन गिन कर रात गुज़ारने वाला मुहावरा सुना ही होगा ? क्या ऐसी नौबत आई है आपकी ज़िन्दगी में कि कुछ करणीय न बचा हो और आपको सही सलामत पायजामा फाड कर फिर से सिलना पडा हो या घर आंगन में ज़ूँ-ज़ूँ करती मक्खियाँ मारनी ,उडानी पडी हों ?या फिर क्राइम रिपोर्ट देती क्रिमिनल looks वाली या वाले प्रेज़ेंटर को देखना पडा हो ? या वक्त का गला घोंटने के लिए कुचक्री सीरियल देखने पडे हों?
अगर आप वाकई इतने खाली, वेले टाएप इनसान हो तो आपके लिए टाइम किल्लिंग का एक नया आइडिया इन दिनों टीवी पर आ रहा है जो केवल टाइम ही नही धन की भी हत्या करेगा और यह भी साबित कर देगा कि इस दुनिया में सबसे ज़्यादा खाली,बेकार,आवारा,पागल,दीवाना ....कौन है ? सबसे पहले 50 रुपए का कोलगेट मैक्स फ्रेश लें और फिर उसके ट्रांसपेरेंट ट्यूब में से यह गिनें कि कितने कूलिंग क्रिस्टल्स हैं .... इनाम क्या है नही सुन सके क्योंकि यह धाँसू च फाँसू [आलोक जी की भाषा में] आइडिया सुनने के बाद इन कानों मे कुछ और सुनने की शक्ति न बची । ज़ाहिर है कि ट्यूब के अन्दर से ही क्रिस्टल्स नही गिने जा सकते भले ही वह पारदर्शी ट्यूब हो [एक भी गिनती गलत तो इनाम नही] तो गिनने वाला पहले बडी सावधानी से ट्यूब खाली करेगा और फिर ...... वैसे मेरी चिंता यह है कि पेस्ट को वापिस तो ट्यूब मॆं डाला नही जा सकता [वैसे एक ट्रिक मै ऐसा जानती हूँ] तो क्या निकाला गया पेस्ट किसी कटोरी, डब्बे इत्यादि में रखा जाएगा ? जो भी हो,, टी वी और बाज़ार ने समझ लिया है कि उसके सामने बैठा व्यक्ति निठल्लों की प्रजाति का है जिससे कुछ भी अगडम बगडम अपेक्षा की जा सकती है ।
तारे गिन गिन कर रात गुज़ारने वाला मुहावरा सुना ही होगा ? क्या ऐसी नौबत आई है आपकी ज़िन्दगी में कि कुछ करणीय न बचा हो और आपको सही सलामत पायजामा फाड कर फिर से सिलना पडा हो या घर आंगन में ज़ूँ-ज़ूँ करती मक्खियाँ मारनी ,उडानी पडी हों ?या फिर क्राइम रिपोर्ट देती क्रिमिनल looks वाली या वाले प्रेज़ेंटर को देखना पडा हो ? या वक्त का गला घोंटने के लिए कुचक्री सीरियल देखने पडे हों?
अगर आप वाकई इतने खाली, वेले टाएप इनसान हो तो आपके लिए टाइम किल्लिंग का एक नया आइडिया इन दिनों टीवी पर आ रहा है जो केवल टाइम ही नही धन की भी हत्या करेगा और यह भी साबित कर देगा कि इस दुनिया में सबसे ज़्यादा खाली,बेकार,आवारा,पागल,दीवाना ....कौन है ? सबसे पहले 50 रुपए का कोलगेट मैक्स फ्रेश लें और फिर उसके ट्रांसपेरेंट ट्यूब में से यह गिनें कि कितने कूलिंग क्रिस्टल्स हैं .... इनाम क्या है नही सुन सके क्योंकि यह धाँसू च फाँसू [आलोक जी की भाषा में] आइडिया सुनने के बाद इन कानों मे कुछ और सुनने की शक्ति न बची । ज़ाहिर है कि ट्यूब के अन्दर से ही क्रिस्टल्स नही गिने जा सकते भले ही वह पारदर्शी ट्यूब हो [एक भी गिनती गलत तो इनाम नही] तो गिनने वाला पहले बडी सावधानी से ट्यूब खाली करेगा और फिर ...... वैसे मेरी चिंता यह है कि पेस्ट को वापिस तो ट्यूब मॆं डाला नही जा सकता [वैसे एक ट्रिक मै ऐसा जानती हूँ] तो क्या निकाला गया पेस्ट किसी कटोरी, डब्बे इत्यादि में रखा जाएगा ? जो भी हो,, टी वी और बाज़ार ने समझ लिया है कि उसके सामने बैठा व्यक्ति निठल्लों की प्रजाति का है जिससे कुछ भी अगडम बगडम अपेक्षा की जा सकती है ।
Friday, December 14, 2007
वे दिन,चाँद का टेढा मुँह और मस्ती बचपन की....
कभी दिन थे ... गर्मियों के मौसम में ,जब मकान एक मंज़िल से ऊपर नही थे ,छतों पर सोया करते थे चारपाइयाँ बिछा कर और नीन्द आने तक चाँद को घूरते रहते थे कल्पना करते हुए कि उसका टेढा मुँह कैसा लगता होगा वहाँ पहुँचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों को ।
हवा की लहर चलती थी तो चेहरों पर गर्मी से खिंचा तनाव पुँछ जाता था ।बच्चे थे । नीन्द से फासला रखते थे ।जब तक कि वह पस्त न कर दे । ऊपर आँख उठाओ तो काला रहस्यमय अनंत संसार पलकें झपकाने नही देता था – क्या पता अन्धेरे में हमारे जगते-जगते तैयार हो रहा हो कोई कृष्ण छिद्र ।ब्लैक होल । भौतिकी की कक्षा में पढा हुआ सब दिमाग में कौतूहल पैदा करता था । कहीं कोई तारा गिन रहा होगा अपनी अंतिम साँसें । नक्षत्र दिशाएँ बदल रहे होंगे । खत्म होता विशाल तारा ,सूर्य से भी कई गुना बडा , जब खाली करेगा अपनी जगह अंतरिक्ष में तो उस कालिमा में अनायास ही खिंच जाएँगे आस पास के सभी पिण्ड और धीरे धीरे बहुत कुछ जब तक कि समाने को कुछ न बचे । सप्तर्षि ढूंढते थे कभी और खुश होते थे । कभी कोई हवाई जहाज़ लाल बत्तियाँ टिमकाता गुज़रता था कछुए सा । हम सोचते थे कहाँ जाता होगा ? किन्हे ले जाता होगा ? क्या उन्हें हम दिखते होंगे ?क्या हम जहाज़ में बैठ कर अपना घर पहचान पाँएंगे ?
दिन भर के रोटी-पानी की दौड-धूप से हारे माता-पिता ज्यूँ ही बिस्तर पर लेटते ,निन्दाई बेहोशी उन्हे घेर लेती थी ।टेबल फैन के आगे लेटने के लिए बच्चों में दबी अवाज़ में हुई लडाई या घमासान वे नही देख पाते थे । सुन पाते थे तो एक झिडकी ज़ोर से आ गिरती थी और ताकतवाला ,रुबाब वाला बच्चा बाज़ी मार लेता था । लातें चलती रहती थीं इस चारपाई से उस चारपाई । हम छुटकों को एक ही चारपाई पर साथ में सुलाए जाने का बडा कष्ट था ।चारपाइयाँ कम थीं । रात भर हममें धींगा-मुश्ती होती ।कभी अचानक नन्हीं बूंदे पडने लगतीं तो सोते हुए लोग हडबडा कर ,चारपाइयाँ,गद्दे ,चादरें उठा कर भागते । सूरज बडी जल्दी में रहता था उन दिनों। इधर अभी नीन्द आना शुरु होती और उधर वे खुले आकाश के नीचे सोते बेसुधे बच्चों पर किरणों के कोडे बरसाना शुरु कर देते ।रात भर लडे हम छुटकों को कोडों की यह मार भी बेअसर थी । माता कब नीचे जाकर रसोई में जुटी पिता कब बाज़ार से दूध ,भाजी-तरकारी ले आए कभी पता नही लगा । हमें अभी बहुत काम था । दिन भर खेलना था ,लडना था, कूद-फान्द करनी थी ,पेन-पेंसिल ,कॉपी,बिस्तर और फ्रॉक-रूमाल के झगडे सुलटाने थे । होमवर्क भी करना था । सो देर तक सो कर इन कामों के लिए ऊर्जा का संचय करते थे ।
सोचती हूँ तीस साल बाद हमारी संतानें “वे दिन ”किस तरह याद करेंगी ! खैर फिलहाल तो न छत नसीब है[जिन्हे नसीब है वे मच्छरों से आतंकित हैं] न आंगन नसीब है न ही वह निश्चिंतता । पर आज भी मन हो आता है खुले काले चमकते तारों भरे रहस्यमय आकाश के नीचे लेटे रहें ।पहाडों पर पहुँच कर यह सम्मोहन और भी बढ जाता है ,जब आकाश में तारे ज़मीन पर किसी बच्चे के हाथ से बिखर गये सितारों की तरह लगते है जिन्हे वह स्कूल में दिया या राखी सजाने को लाया था और जिन्हे बुहारती हुई माँ उन्हे कूडा कह दे।ऊँचाई से आसमान तारों से बेतरतीबी से अटा पडा दिखाई देता है । दिमाग में अजीब सी खुजली मचती है उन्हे देखते ,आँखें और भी गडी जाती हैं ।शायद यह सम्मोहन है ही इसलिए कि रहस्य है ।
हवा की लहर चलती थी तो चेहरों पर गर्मी से खिंचा तनाव पुँछ जाता था ।बच्चे थे । नीन्द से फासला रखते थे ।जब तक कि वह पस्त न कर दे । ऊपर आँख उठाओ तो काला रहस्यमय अनंत संसार पलकें झपकाने नही देता था – क्या पता अन्धेरे में हमारे जगते-जगते तैयार हो रहा हो कोई कृष्ण छिद्र ।ब्लैक होल । भौतिकी की कक्षा में पढा हुआ सब दिमाग में कौतूहल पैदा करता था । कहीं कोई तारा गिन रहा होगा अपनी अंतिम साँसें । नक्षत्र दिशाएँ बदल रहे होंगे । खत्म होता विशाल तारा ,सूर्य से भी कई गुना बडा , जब खाली करेगा अपनी जगह अंतरिक्ष में तो उस कालिमा में अनायास ही खिंच जाएँगे आस पास के सभी पिण्ड और धीरे धीरे बहुत कुछ जब तक कि समाने को कुछ न बचे । सप्तर्षि ढूंढते थे कभी और खुश होते थे । कभी कोई हवाई जहाज़ लाल बत्तियाँ टिमकाता गुज़रता था कछुए सा । हम सोचते थे कहाँ जाता होगा ? किन्हे ले जाता होगा ? क्या उन्हें हम दिखते होंगे ?क्या हम जहाज़ में बैठ कर अपना घर पहचान पाँएंगे ?
दिन भर के रोटी-पानी की दौड-धूप से हारे माता-पिता ज्यूँ ही बिस्तर पर लेटते ,निन्दाई बेहोशी उन्हे घेर लेती थी ।टेबल फैन के आगे लेटने के लिए बच्चों में दबी अवाज़ में हुई लडाई या घमासान वे नही देख पाते थे । सुन पाते थे तो एक झिडकी ज़ोर से आ गिरती थी और ताकतवाला ,रुबाब वाला बच्चा बाज़ी मार लेता था । लातें चलती रहती थीं इस चारपाई से उस चारपाई । हम छुटकों को एक ही चारपाई पर साथ में सुलाए जाने का बडा कष्ट था ।चारपाइयाँ कम थीं । रात भर हममें धींगा-मुश्ती होती ।कभी अचानक नन्हीं बूंदे पडने लगतीं तो सोते हुए लोग हडबडा कर ,चारपाइयाँ,गद्दे ,चादरें उठा कर भागते । सूरज बडी जल्दी में रहता था उन दिनों। इधर अभी नीन्द आना शुरु होती और उधर वे खुले आकाश के नीचे सोते बेसुधे बच्चों पर किरणों के कोडे बरसाना शुरु कर देते ।रात भर लडे हम छुटकों को कोडों की यह मार भी बेअसर थी । माता कब नीचे जाकर रसोई में जुटी पिता कब बाज़ार से दूध ,भाजी-तरकारी ले आए कभी पता नही लगा । हमें अभी बहुत काम था । दिन भर खेलना था ,लडना था, कूद-फान्द करनी थी ,पेन-पेंसिल ,कॉपी,बिस्तर और फ्रॉक-रूमाल के झगडे सुलटाने थे । होमवर्क भी करना था । सो देर तक सो कर इन कामों के लिए ऊर्जा का संचय करते थे ।
सोचती हूँ तीस साल बाद हमारी संतानें “वे दिन ”किस तरह याद करेंगी ! खैर फिलहाल तो न छत नसीब है[जिन्हे नसीब है वे मच्छरों से आतंकित हैं] न आंगन नसीब है न ही वह निश्चिंतता । पर आज भी मन हो आता है खुले काले चमकते तारों भरे रहस्यमय आकाश के नीचे लेटे रहें ।पहाडों पर पहुँच कर यह सम्मोहन और भी बढ जाता है ,जब आकाश में तारे ज़मीन पर किसी बच्चे के हाथ से बिखर गये सितारों की तरह लगते है जिन्हे वह स्कूल में दिया या राखी सजाने को लाया था और जिन्हे बुहारती हुई माँ उन्हे कूडा कह दे।ऊँचाई से आसमान तारों से बेतरतीबी से अटा पडा दिखाई देता है । दिमाग में अजीब सी खुजली मचती है उन्हे देखते ,आँखें और भी गडी जाती हैं ।शायद यह सम्मोहन है ही इसलिए कि रहस्य है ।
Thursday, December 13, 2007
मरने के अलग-अलग स्टैंडर्डस्
“हम न मरै मरिहै संसारा हमको मिला जियावन हारा” ये कबीर का कॉंन्फिडेंस है अपनी भक्ति और ईश्वर के प्यार में ।पर अपन पिछले कई दिनों से ,जब से मृत्यु के शाश्वत प्रश्न पर विचार कर रहे हैं , बडे परेशान हैं ।परेशानी का कारण वाकई बडा है । खुद मृत्यु से भी बडा ।न भक्ति की है न ईश्वर से प्यार । परलोक के लिए कुछ योजना नही बनाई । सच कहें त इहलोक की भी अभी तक कोई योजना बनाई नही जा सकी । इसलिए जब आस-पास वालों को बीमा एजेंटों से बात करते मृत्यु के बाद के जीवन पर चिंतित देखा तो होश फाख्ता हो गए ,यह सोच कर कि अपन तो अभी तक खाक ही छान रहे थे मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया .... वाले अन्दाज़ में और दुनिया बीमा करा करा कर कबीर का वही दोहा गुनगुना रही है –हम न मरैं....... पर हम तो अवश्येअ ही मरिहैं और फोकटी का मरिहैं और तिस पर भी सब स्टैंडर्ड मौत मरिहैं ,हमार का होई ?? बाज़ार देवता ने जियावन हारा का रूप धर लीन्हा है । उनके पास नई नई स्कीम है । बीमा एजेंट ने चिढते हुए कहा –“लोग कडवा सच नही सुनना चाहते ,हम मरने की बात करते हैं तो बुरा मानते हैं , मरना तो सच्चाई है ,कब मौत आ जाए क्या पता । इसलिए मौत के बाद की प्लानिंग करनी चाहिए ” मैक्स या फैक्स जाने वे कहाँ से जियावन हारा की फरिश्ता बन कर आयी थीं ।उदाहरण देने लगीं – एक व्यक्ति ने एक ही प्रीमियम भरा था और कलटी हो लिए दुनिया से ,हमने सारा पैसा दिया । हम ज़्यादातर को सारा पैसा देते हैं ।बस सामान्य ,प्राकृतिक मृत्यु नही होनी चाहिये ।एक्सीडेंट में फायदा है । वह भी विमान से हो तो और अच्छा !! –वे मुस्कराईं। ट्रेन, बसों में सफर करने वाले चिरकुट चिर्कुटई मौत मरते हैं और उसी हिसाब से उनका क्लेम बनता है ।देखा जाए तो ट्रेन बस से मरना ज़्यादा कष्टकर है ।और आएदिन ये दुर्घटनाएँ होती ही रहती हैं ।हो सकता है इसीलिए बीमा वालों की नज़र में यह घाटे का सौदा हो । हवा में मृत्यु के आसार भी कम होते हैं और यह शानदार भी है !! ऊपर से ऊपर ही हो लिए !! कोई कष्ट नही । न आत्मा को न परमात्मा को न यमदूत को। न मरने वाले के परिवार को ।खबर बन जाते हैं यह फायदा अलग से ।
अब हमारी चिंता का एही कारन है । निचले दर्जे का मौत नही न चाहिए और हवा में उडने के अभी तक कोई आसार नहीं । अभी तक की जिनगानी में एअरपोर्ट का दर्शन केवल् टी वी में ही किया है । अपनी-अपनी मौत –अपनी अपनी किस्मत । ज़िन्दगी के स्टैंडर्ड से ही मौत का स्टैंडर्ड तय होता है । हम समझ गये हैं ज़मीन पर मरने में कोई फायदा नही । जिनगी की खींचतान मौत के बाद भी बनी रहती है । सो पोलिसी अब तभी लेंगे जब हवाई सफर का कुछ जुगाड हो जाए । वर्ना तो क्या फर्क पडता है कैसे जिए और क्यूँ मरे ।जियावनहारा न हमारी भक्ति से प्रसन्न होगा न योग से न ज्ञान से । उसे धन चाहिये ।
अब हमारी चिंता का एही कारन है । निचले दर्जे का मौत नही न चाहिए और हवा में उडने के अभी तक कोई आसार नहीं । अभी तक की जिनगानी में एअरपोर्ट का दर्शन केवल् टी वी में ही किया है । अपनी-अपनी मौत –अपनी अपनी किस्मत । ज़िन्दगी के स्टैंडर्ड से ही मौत का स्टैंडर्ड तय होता है । हम समझ गये हैं ज़मीन पर मरने में कोई फायदा नही । जिनगी की खींचतान मौत के बाद भी बनी रहती है । सो पोलिसी अब तभी लेंगे जब हवाई सफर का कुछ जुगाड हो जाए । वर्ना तो क्या फर्क पडता है कैसे जिए और क्यूँ मरे ।जियावनहारा न हमारी भक्ति से प्रसन्न होगा न योग से न ज्ञान से । उसे धन चाहिये ।
Monday, December 3, 2007
आप स्त्री और बच्चों के अलावा कुछ और नही लिख सकतीं
किसी ने पिछले दिनों चिढते से स्वर में कहा “ आप स्त्री और बच्चों के अलावा कुछ और नही लिख सकतीं ” एकबारगी मुझे बडी अटपटी और बेहूदा बात लगी । पर तभी समझ आया कि मुख्यधारा हमेशा से हाशिए के विमर्शों का उपहास करती रही है या इस्तेमाल करती रही है या अपने अनुरूप उन बातों का अर्थ बदलती रही है । बात भारी हो जाती है तो यह टिप्पणी भी मिल जाती है – क्या इससे गम्भीर नही लिख सकती थीं ? । खैर ,कुल मिला कर यहाँ कि मै क्या लिखूँ और कैसे लिखूँ का सवाल मेरे तईं है ।यह हक़ किसी और का नही । राय का और असहमति का स्वागत है सदैव ही । पर बात की उपरोक्त शैली निहायत अलोकतांत्रिक है ।लोकतंत्र सबके समान हितों , समान अवसरों , अभिव्यक्ति के समान आज़ादी और समान सम्मान की बात करता है । ऊपर की दो बातों का विश्लेषण करते हुए दो स्थितियाँ और मंतव्य साफ नज़र आते हैं ।
पहला , निहायत अलोकतांत्रिक देश और समाज में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के दुष्परिणाम ।
और दूसरा , हाशिए के विमर्शों के खिलाफ तैयार मुख्यधारा का अवचेतन ।
भरतीय समाज की नींव में ही भेद-भाव ,श्रेणी विभाजन , ऊँच-नीच की पुरातन [पौराणिक कहा जाए तो भी गलत न होगा ] धारणाएँ बसी हैं जो गाहे बगाहे हमारा सब पढे-लिखों के व्यवहार –वार्ता में सामने आती हैं । जिस देश में अभी तक जातीय ,लैंगिक , वर्गीय भेद-भाव और हिंसा के नमूने रोज़-बरोज़ अखबारों में सामने आते हो वहाँ मेरा लोकतांत्रिक होने और लोकतंत्र को जीने की बात करना वायवीय ही हो सकता है और अपेक्षा करना तो और भी गलत होगा ।
स्त्री और बच्चे ,दोनो समाज के हाशिए पर जीते हैं । एक बाल-उद्यान ब्लॉग से और चन्द स्त्रियों के ब्लॉगिंग करने से वे मुख्यधारा नही हो जाते । क्या स्त्री की सीमांतीयता का मुद्दा चुक गया है ?, क्या वह वैध आधार नही रखता ? जब स्त्री स्वयम स्त्री की समस्याओं पर बात करती है तो वह उपहास का विषय हो जाता है या केवल सहमति का और मुख्यधारा जैसे तैसे इसे निपटा देना चाहती है ब्लॉगिंग करती हूँ, समर्थ –शिक्षित हूँ रोना रोती हूँ स्त्रियों का । यह छवि है । उँह ! मुह बनाते आगे चल देना । या फिर चलताऊ फैशन है स्त्री-विमर्श तो पुरुष उस पर बात करके ज़माने के साथ हो लेता है । यूँ हर बार ही बहस को ठंडा कर दिया जाता है ।ब्लॉग-जगत के पुरुषों के लिए भी या तो स्त्री विमर्श चुका हुआ, घिसा हुआ मुद्दा है या लोकतांत्रिक दिखने भारत का ड्रामा । मित्रों के बीच चाय-पानी आने पर यदि तथाकथित स्त्री समानता और स्वतंत्रता के पैरोकार स्त्री मित्र से ही अपेक्षा रखते हैं कि वे सर्व करें क्योंकि वे यहाँ काम बेहतर तरीके से कर सकती हैं, तो उनसे दोगला कोई नही । मैं सिमोन कही जाऊँ या सरफिरी ,हाथ में तलवार लिए लडाकी आधुनिक महिला , या और कुछ लिखना नही आता तो स्त्री पर ही कलम चलाती हूँ टाइप बात क्योंकि स्त्री पर तो कोई भी लिख सकता है ; मै बुरा नही मानती क्योंकि समझती हूँ कि यहाँ मुद्दा निपटाया जा रहा है । जो हाशिये की ज़िन्दगी नही जिया ,जिसने हाशिए पर होने का दर्द नही भोगा ,अपमान नही झेला ,दमित नही हुआ ,शासित नही हुआ , शोषित नही हुआ ----- जब उस वर्ग में आ जाऊंगी तब आपको कहना न पडेगा कि स्त्री के अलावा कुछ और लिखिये ।
पहला , निहायत अलोकतांत्रिक देश और समाज में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के दुष्परिणाम ।
और दूसरा , हाशिए के विमर्शों के खिलाफ तैयार मुख्यधारा का अवचेतन ।
भरतीय समाज की नींव में ही भेद-भाव ,श्रेणी विभाजन , ऊँच-नीच की पुरातन [पौराणिक कहा जाए तो भी गलत न होगा ] धारणाएँ बसी हैं जो गाहे बगाहे हमारा सब पढे-लिखों के व्यवहार –वार्ता में सामने आती हैं । जिस देश में अभी तक जातीय ,लैंगिक , वर्गीय भेद-भाव और हिंसा के नमूने रोज़-बरोज़ अखबारों में सामने आते हो वहाँ मेरा लोकतांत्रिक होने और लोकतंत्र को जीने की बात करना वायवीय ही हो सकता है और अपेक्षा करना तो और भी गलत होगा ।
स्त्री और बच्चे ,दोनो समाज के हाशिए पर जीते हैं । एक बाल-उद्यान ब्लॉग से और चन्द स्त्रियों के ब्लॉगिंग करने से वे मुख्यधारा नही हो जाते । क्या स्त्री की सीमांतीयता का मुद्दा चुक गया है ?, क्या वह वैध आधार नही रखता ? जब स्त्री स्वयम स्त्री की समस्याओं पर बात करती है तो वह उपहास का विषय हो जाता है या केवल सहमति का और मुख्यधारा जैसे तैसे इसे निपटा देना चाहती है ब्लॉगिंग करती हूँ, समर्थ –शिक्षित हूँ रोना रोती हूँ स्त्रियों का । यह छवि है । उँह ! मुह बनाते आगे चल देना । या फिर चलताऊ फैशन है स्त्री-विमर्श तो पुरुष उस पर बात करके ज़माने के साथ हो लेता है । यूँ हर बार ही बहस को ठंडा कर दिया जाता है ।ब्लॉग-जगत के पुरुषों के लिए भी या तो स्त्री विमर्श चुका हुआ, घिसा हुआ मुद्दा है या लोकतांत्रिक दिखने भारत का ड्रामा । मित्रों के बीच चाय-पानी आने पर यदि तथाकथित स्त्री समानता और स्वतंत्रता के पैरोकार स्त्री मित्र से ही अपेक्षा रखते हैं कि वे सर्व करें क्योंकि वे यहाँ काम बेहतर तरीके से कर सकती हैं, तो उनसे दोगला कोई नही । मैं सिमोन कही जाऊँ या सरफिरी ,हाथ में तलवार लिए लडाकी आधुनिक महिला , या और कुछ लिखना नही आता तो स्त्री पर ही कलम चलाती हूँ टाइप बात क्योंकि स्त्री पर तो कोई भी लिख सकता है ; मै बुरा नही मानती क्योंकि समझती हूँ कि यहाँ मुद्दा निपटाया जा रहा है । जो हाशिये की ज़िन्दगी नही जिया ,जिसने हाशिए पर होने का दर्द नही भोगा ,अपमान नही झेला ,दमित नही हुआ ,शासित नही हुआ , शोषित नही हुआ ----- जब उस वर्ग में आ जाऊंगी तब आपको कहना न पडेगा कि स्त्री के अलावा कुछ और लिखिये ।
Tuesday, November 27, 2007
पधारो म्हारे देस ......तस्लीमा !!
अचानक यह देश लेखकों ,बुद्धिजीवियों ,कलाकारों के प्रति सम्वेदनशील् हो गया है ।बंगाल में सी पी एम की करतूतों के चलते मार्क्सवाद को गालियाँ पडने लगी हैं [ मार्क्स होते तो बडे शर्मसार होते ] ।नन्दीग्राम में वामपंथियों का बावरापन समझ नही आ रहा । पर ऐसे में भाजपा और संघ को बडा अच्छा अवसर मिला है सेकुलर और पाक दामन साबित होंने का । एम एफ हुसैन पता नही कहा हैं पर तस्लीमा ज़रूर यहाँ दिल्ली में राजस्थानी आवभगत पा रही हैं । मनमोहन और बुद्धदेव के बीच क्या चल रहा है ? शायद समझ आ रहा है । पर जब मोदी भी तस्लीमा को गुजरात मे न्योता दे रहे हों तो लगता है कि तीनों विचारधाराएँ मिलकर लोकतंत्र का बैंड बजा रही हैं । सारे राजनीतिक मुहावरे पिट चुके और परिभाषाएँ झूठी साबित हो चुकी हैं ।
लोकतंत्र एक शासन पद्धति होने से पहले एक जीवन शैली है । लोकतंत्र को जिये बिना चलाया नही जा सकता ।अधकचरी मानसिकता और उपचेतन समाज में दो-चार बुद्धिजीवी नन्दीग्राम को सेज़ बनने या युद्धभूमि बनने और तस्लीमा को निशाना बनाने से रोक पाएँगे ?वह जन जिसके हित मे यह शासन व्यवस्था तथाकथित रूप से काम करती है क्या जनमत -निर्माण के बेहतरीन माध्यमों के उपलब्ध होने के बावजूद जनमत सुनना चाहती है ? क्या यहाँ जन इतना सचेत और प्रबुद्ध है कि वह राजनीतिक क्रीडाओं को समझ सके और निरपेक्ष फैसला दे ?
लोकतंत्र एक शासन पद्धति होने से पहले एक जीवन शैली है । लोकतंत्र को जिये बिना चलाया नही जा सकता ।अधकचरी मानसिकता और उपचेतन समाज में दो-चार बुद्धिजीवी नन्दीग्राम को सेज़ बनने या युद्धभूमि बनने और तस्लीमा को निशाना बनाने से रोक पाएँगे ?वह जन जिसके हित मे यह शासन व्यवस्था तथाकथित रूप से काम करती है क्या जनमत -निर्माण के बेहतरीन माध्यमों के उपलब्ध होने के बावजूद जनमत सुनना चाहती है ? क्या यहाँ जन इतना सचेत और प्रबुद्ध है कि वह राजनीतिक क्रीडाओं को समझ सके और निरपेक्ष फैसला दे ?
Thursday, October 25, 2007
अब तक उनसठ .....| मैं क्या समझूँ !!
“मैं बेकसूर हूँ जज साहब , मैने कुछ नही किया, मेरा यकीन कीजिये, मुझे फँसाया गया है .......” इस तरह की रिरियाहटें और “मैं जो कहूंगा सच कहूंगा ,सच के अलावा कुछ नही कहूंगा ” जैसे पिटे हुए वाक्य अक्सर हिन्दी फिल्मों के अदालती दृश्यों में सुन-दिख जाते हैं ।और नीर-क्षीर-विवेक सा न्याय का न्याय और अन्याय का अन्याय [दूध का दूध और पानी का पानी भी कह सकते है ] हो जाता है । खलनायक और उसके साथी सलाखों के पीछे जाते हैं ।अगर यह फिल्म का अंत हो तो दयनीय भाव के साथ अगर फिल्म का मध्य हो तो गर्दन झटकते हुए ‘तुझे तो मै देख लूंगा’ वाले अन्दाज़ में ।शुरु में भी और मध्य में भी हम जानते हैं अपराधी-दोषी कौन है;यह भी जानते हैं कि उसे सज़ा मिलेगी अवश्य । लेकिन वस्तुजगत में क्या न्याय की प्रक्रिया इतनी ही त्वरित और सजग है ? क्या हम न्यायालय में इंसाफ के अलावा कुछ नही मिलेगा पर यकीन कर सकते हैं ?शायद उत्तर नकारात्मक है । वकालत एक बदनाम पेशा है और असली गुंडों के साथ साथ वर्दीधारी ,कुर्सीधारी,उद्योगपति गुंडे भी हैं ।ऐसे में न्यायालय की सक्रियता और सज़ाओं का दौर चौकाने वाला है ।जनसत्ता का आज का मुखपृष्ठ अलग अलग चार खबरों में 59 लोगों को[गिनती गलत हो तो माफ़ करे हमारा गणित बहुत कमज़ोर और गरीब है] विभिन्न केसों में उम्रकैद के फरमान की तफ़सील दे रहा है ।दस साल पहले दिल्ली के कनॉट प्लेस में फर्जी मुठ्भेड कर के दो व्यापारियों की हत्या करने वाले दस पुलिसवालों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गयी है ।फरवरी 1998 यानी 9 साल पहले कोयम्बटूर में लालकृष्ण आडवाणी की हत्या की साज़िश रचने और सिलसिलेवार बम विस्फोटों के लिए 31 दोषियों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गयी है ।वहीं नेता भी इस से नही बचे। 2003 में चर्चित् मधुमिता हत्याकांड में अमरमणि को सपत्नीक व दो अन्य को उम्रकैद का फरमान सुना दिया गया है। दिसम्बर 1992 यानी 15 साल पहले बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के गुस्से में कानपुर में 11 लोगों को जलाने के मामले में 15 लोगों को अदालत ने उम्रकैद की सज़ा सुनाई है ।इनमें कोयम्बटूर वाले केस में कई अपराधियों को दोहरी-तिहरी-और चार बार उम्रकैद की सज़ा सुनाई गयी है ।अब्दुल ओज़िर को 125 साल कैद की सज़ा सुनाई गयी है । वही फर्जी एंकाउंटर केस में सी बी आई ने दोषियों के लिए मृत्युदंड की मांग की थी ।
यह खबरें क्या संकेत करती हैं ? अदालती प्रक्रियाओं पर यकीन लौटाने में इनसे मदद मिलेगी ? या सर्वोच्च न्यायालय तक जाकर स्थितियाँ पलटने वाली हैं ? मै अब भी निष्कर्ष निकालने में असमर्थ हूँ । क्या न्याय-प्रक्रिया अपनी निरंतर होने वाली आलोचनाओं से झटका खाकर हरकत में आ गयी है ?सच का कितना और कौन सा अंश हम तक पहुँच रहा है ? क्या हमें आनन्दित होना चाहिये ? मै हतप्रभ हूँ ।
यह खबरें क्या संकेत करती हैं ? अदालती प्रक्रियाओं पर यकीन लौटाने में इनसे मदद मिलेगी ? या सर्वोच्च न्यायालय तक जाकर स्थितियाँ पलटने वाली हैं ? मै अब भी निष्कर्ष निकालने में असमर्थ हूँ । क्या न्याय-प्रक्रिया अपनी निरंतर होने वाली आलोचनाओं से झटका खाकर हरकत में आ गयी है ?सच का कितना और कौन सा अंश हम तक पहुँच रहा है ? क्या हमें आनन्दित होना चाहिये ? मै हतप्रभ हूँ ।
Monday, October 22, 2007
बाज़ार में खडा रावण
इधर बहुत दिन से कुछ लिखने का वक़्त और् समां नही बन्ध पा रहा । बीच बीच में झांक ज़रूर जाती हूँ कि किसने क्या लिखा । खैर , अब जबकि त्योहारों का आलम है और हम अभी अभी रावण को फूँक कर हटे हैं तो एक आंखिन-देखी की एक पोस्ट भी चिपका ही देते है । हुआ यूँ कि रावण –जलन [ दहन कह लीजिये ] की पूर्व सन्ध्या पर हम दिल्ली के तिलक नगर की ओर एक कार्यक्रम अटेंड करने चल रहे थे । टैगोर गार्डन आते आते सडक के दोनो ओर का नज़ारा देख मुँह खुले खुले रह गये ।लाल-बत्ती, चौराहा तिराहा. फुटपाथ, पार्क जहाँ जहाँ जगह हो सकती थी वही वही बडी बडी मूँछों और दांत वाले, अट्टहास करते रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के विशालकाय पुतले जलने को तैयार पडे थे । कुछ दशानन ,धड और बाकी अंग ट्रकों में सवार होकर सडकों पर दौडने लगे थे न जाने किन गंतव्यों तक पहुँचने के लिए । यह रावण का बाज़ार था । बोर्ड लगे थे- मोहन रावण वाला, सोनू रावण वाला [कोई राम या रामू रावण वाला भी रहा हो तो आश्चर्य नही ] । यह बाज़ार है । राम रावण में बन्धुता है । रावण के भरोसे कई रामों के घर के चूल्हे जल रहे हैं । अखबारें बता रही हैं पुतलों की मांग बढ रही है । पुतले जलाने का चलन बढा है । जयपुर से बडी डिमांड आ रही है । क्या लोग दशहरा को वाकई धर्म की विजय का पर्व मानकर मनाने लगे है ? क्या रावण दहन से वे अपने बच्चों को अच्छाई का पाठ पढाने लगे हैं ।
चलिए चाहे जितना चाहे बाज़ार को गरियाएँ पर इतना ज़रूर हुआ है कि बाज़ार ने सबको अवसर प्रदान किये हैं । वह हर तरह का वे-आउट सुझाता है । सैकडों तरीके और उपाय हरएक के लिए हैं उसके पास ।बाज़ार –दर्शन बडा प्रबल दर्शन है जो हर धर्म ,हर सभ्यता, हर संस्कृति के अनुरूप खुद को ढाल लेता है । त्योहार प्रधान इस देश में वह और भी सफल हुआ है । बाज़ार बिना त्योहार की कल्पना असम्भव है । इसलिए भई हम तो अक्तूबर माह के आने से पहले भय से काँपने लगते हैं। जेबें ढीली होते होते नया साल मनाने की नौबत आ जाती है । श्राद्धों में , नवरात्रों में व्रत के खाने में, आलू चिप्स में, डांडिया के डी जे में ,दुर्गा पूजा के पंडालों में,गीतों में, मेहन्दी में ,शादी में , करवाचौथ में, दीवाली मेलों में,पटाखों में,लडियों में ,मिठाइयों में, उपहारों में, दूज में, गोवर्धन में ...........सब में, सबके बीच बाज़ार उपस्थित रहता है । और इसी के बीच खडा है रावण जो बार बार जल रहा है पर रक्तबीज सा पल रहा है । जितना ही जलता है उतना ही बढता है ।
Friday, September 28, 2007
महापुरुष उदास है
प्रमोद जी का महापुरुष उदास हैऔर अकेला है बेवकूफ बुद्धिजीवियोँ के बीच । मुझे भी हमेशा से लगा किताबें खरीदना [जो पडी रहेंगी शो केस में अपना सारा वज़न लिए], फिक्की के सेमिनार और पुस्तक विमोचन , मण्डी हाउस के बेवजह चक्कर , श्रीराम सेंटर के नाटक , आई आई सी और आई एच सी की गोष्ठियाँ और प्रदर्शनियाँ बेवकूफ बुद्धिजीवियों की बौद्धिक अय्याशी के अड्डे हैं । सोचना और उस सोच पर दुनिया को कायल् कर देना शगल है । ज्ञानदत्त ने सही पहचाना । कभी कभी एक ही के भीतर महापुरुष और बेवकूफ बुद्धिजीवी एक साथ होता है ।विखंडित स्व । स्प्लिट पर्सनैलिटी ।पर अलग भी होता है ।बेजी जी ने कहा –
महापुरुष ज्ञानियों के बीच हो या अज्ञानियों के बीच अकेला ही होता है।
हाँ पर खुश होने और रहने का ताल्लुक ज्ञान से है मैं नहीं मानती। (यकीन नहीं हो तो मुझे ही देख लें :)))
दोनो बातों से सहमत हूँ ।पर व्याख्या अपेक्षित है ।मेरा आशय भिन्न है ।कुछ कबीर की तरह है ---
सुखिया सब संसार है खावै और सोवै दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै
जिसने ज्ञान पा लिया वह कभी खुश रह ही नही सकता ।खुशी का ताल्लुक बेखबर रहने से है ।अज्ञानी होने से है ।बच्चा जब तक दुनिया के दर्द-रंज जान नही लेता वह खुश है । अबोध है मासूम है तो सब आनन्द है ।आनन्द पर वज्रपात होता है जब जान जाता है संसार को । सुख का भोंथरापन समझ लेने के बाद चैन नही मिलता ।कबीर ने जाना कि सुख और खुशी भ्रम है क्षणिक हैं ।जिनके पीछे पगलाई भीड भाग रही है वह वस्तुएँ कितनी सारहीन हैं । इसलिए कबीर दुनिया के इस चलन को देखता है और दुखी रहता है । कैसे इनसान खुद को मूर्ख बनाता है और जिए जाता है । इसलिए प्रमोद जी का महापुरुष दुखी है । वह जानता है ।बौद्धिक होना , बने रहना और दिखना क्या है । ए.सी. की हवा खाते नाटक का मंचन होते देखना और हाशिये के लोगो पर बात करना और मुद्दों को चाय-समोसे के साथ उडा देना।महापुरुष दुखी ही रहेगा और अकेला भी ।बेवकूफ बौद्धिक जब तक अज्ञानी है वह अय्याश है और उसकी हर चिंता फैशन है ।
महापुरुष ज्ञानियों के बीच हो या अज्ञानियों के बीच अकेला ही होता है।
हाँ पर खुश होने और रहने का ताल्लुक ज्ञान से है मैं नहीं मानती। (यकीन नहीं हो तो मुझे ही देख लें :)))
दोनो बातों से सहमत हूँ ।पर व्याख्या अपेक्षित है ।मेरा आशय भिन्न है ।कुछ कबीर की तरह है ---
सुखिया सब संसार है खावै और सोवै दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै
जिसने ज्ञान पा लिया वह कभी खुश रह ही नही सकता ।खुशी का ताल्लुक बेखबर रहने से है ।अज्ञानी होने से है ।बच्चा जब तक दुनिया के दर्द-रंज जान नही लेता वह खुश है । अबोध है मासूम है तो सब आनन्द है ।आनन्द पर वज्रपात होता है जब जान जाता है संसार को । सुख का भोंथरापन समझ लेने के बाद चैन नही मिलता ।कबीर ने जाना कि सुख और खुशी भ्रम है क्षणिक हैं ।जिनके पीछे पगलाई भीड भाग रही है वह वस्तुएँ कितनी सारहीन हैं । इसलिए कबीर दुनिया के इस चलन को देखता है और दुखी रहता है । कैसे इनसान खुद को मूर्ख बनाता है और जिए जाता है । इसलिए प्रमोद जी का महापुरुष दुखी है । वह जानता है ।बौद्धिक होना , बने रहना और दिखना क्या है । ए.सी. की हवा खाते नाटक का मंचन होते देखना और हाशिये के लोगो पर बात करना और मुद्दों को चाय-समोसे के साथ उडा देना।महापुरुष दुखी ही रहेगा और अकेला भी ।बेवकूफ बौद्धिक जब तक अज्ञानी है वह अय्याश है और उसकी हर चिंता फैशन है ।
Saturday, September 8, 2007
सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है ....
उदय प्रकाश की एक कहानी है “वारेन हेस्टिन्ग्स का सान्ड ”जिसमे एक स्थान पर उन्होने लिखा है” सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है।” बात मे दम है ।सत्ता जिसके पास भी होगी उसे ही भ्रष्ट करेगी चाहे वह स्त्री हो दलित या मज़दूर ।न न... । मेरा मन्तव्य हाशियाई-विमर्शो अर सन्घर्षो पर धूल डालना नही है । एक हाशिये का तो मै खुद भी प्रतिनिधित्व करती हूँ। यह और बात है कि एक तरह से विमर्श अपने आप में मुख्यधारा की प्रक्रिया है ।माने यह कि विमर्शकार बन कर मैँ भी मुख्यधारा हो जाती हूँ। कैसे ? जैसे आदिवासी या दलित् समाज का व्यक्ति मुख्यमंत्री बनते ही अपने समाज को भूल राजनीति की मुख्यधारा के अनुकूल आचरण करने लगता है । ये दलितों के “अभिजन” हो जाते हैं । तो सत्ता और शक्ति , विमर्श की परिधि में भी कुछ कुछ मिलती है । ये बडी अप्रत्यक्ष सी प्रक्रियाएँ हैं ।
खैर , मुद्दा वही पुराना है जिस पर पिछली पोस्ट में बात की थी । स्त्री पर बात करते हुए अक्सर हम जिन पूर्वधारणाओं से ग्रस्त रहते हैं ,और जिनके कारण हमेशा से स्त्री-विमर्श का तेल हुआ है ।ये धारणाएँ हैं--- पहला, स्त्री की लडाई या प्रतिद्वन्द्विता पुरुष से है । स्त्री को मुक्ति पुरुष से चाहिये । दूसरा, स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है । तीसरा,सभी क्षेत्रों में स्त्री के आगे बढने से स्त्री की सशक्तीकरण हो रहा है । चौथा, लडकियाँ बोर्ड के नतीजों में हमेशा आगे रहती है इसलिए वे ज़्यादा होशियार और प्रतिभावान हैं और इसलिए कहना चाहिए कि वे शिक्षित हो रही हैं ।
पहले मिथ का निराकरण का प्रयास मै पिछली पोस्ट में कर चुकी हूँ ।
अब दूसरी बात - स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है ।
इसी के जवाब की भूमिका मैने आरम्भ में बान्धी है ।यह ठीक है कि स्त्री विमर्श की झण्डाबरदार हो जाते ही मुझे मुख्यधारा वाले थोडे-बहुत लाभ तो मिलने लग जाते है लेकिन यह मानने से इनकार नही किया जा सकता कि हाशियाई-विमर्शों से एक दमित-दलित वर्ग में अस्मिता का बोध भी आया है और चेतना भी । बहुत से आन्दोलनों को खडा करने और दबी अस्मिताओं को उभारने में ये विमर्श कामयाब हुए हैं । यही इसकी शक्ति है । लेकिन वे जो हाशिये की अस्मिता नही है ,जिन्होने हाशिये पर होने के अपमान और दंशों को नही झेला ;जब वे विमर्शकार होते है तो उनका विमर्श फैशन से कम नही लगता ।साथ ही यह विमर्श के मनत्व्यों को हानि पहुँचाता है हाशिये के प्रति लोगो को असम्वेदनशील बनाता और भ्रमित करता है। तभी तो पुरुषों द्वारा अक्सर यह कह दिया जाता है कि” औरतों की लडाई सत्ता और शक्ति पाने के लिए है ”।शायद इसीलिए मनीष ने यह कहा कि मीडिया में औरतें अपनी प्रतिभा नही किसी और शक्ति के बलबूते बढ रही हैं ।यह आंशिक सत्य हो सकता है । बहस तो यह भी हो सकती है कि- सत्य क्या है यह कौन बताएगा ?अंतिम सत्य , पूर्ण सत्य कुछ नही है । सो डंके की चोट पर यह कहना कि स्त्री प्रतिभा नही प्रतिमा है – गलत होगा ।यह भी बौखलाहट भरा पूर्वाग्रह ही है ।इसका अन्य पक्ष यह भी है कि कई बार स्त्री-सशक्तिकरण के भ्रामक अर्थ ग्रहण करते हुए झंडाबरदारी करने वाली कुछ स्त्रियाँ केवल कुछ पुरुषों द्वारा मूर्ख ही बनाई जा रही होते हैं । यह किसी विमर्श का सबसे घातक पहलू है । प्रतिभा जी का राष्ट्रपति बनना भी मुझे इसी श्रेणी में लगता है ।यह स्त्री का सशक्तीकरण नही स्त्री-विमर्श की हार है जब स्त्री को मोहरा बना कर मकसद हल किया जा रहा है और लगातार स्त्री-शक्ति के गीत गाये जा रहे हैं ।
सत्ता और शक्ति स्त्री अपनी काबिलियत और हौंसलों से हासिल करती है और उसका उपयोग अपनी समझ से बेहतरीन करती है तो वह पुरुष से ज़्यादा सम्माननीय है क्योंकि जो पुरुष ने आसान रास्तों से गुज़र कर किया उसके लिए एक स्त्री ने शोलों पर चलकर रास्ता तय किया होता है ।ऐसे में अगर किरण बेदी दिल्ली की पुलिस अधीक्षक बनती तो यह वास्तविक अर्थ में स्त्री सशक्तीकरण होता ।
कहने का तात्पर्य यह कि स्त्री की लडाई सत्ता,शक्ति,नियंत्रण की शक्ति को हस्तांतरण करने की नही है ।उसकी लडाई भागीदारिता की लडाई है ।समान अवसरों और समान हकों की लडाई है । उसकी लडाई उसे हीन मानने और समझने की मानसिकता से है ।उसकी लडाई में सबसे बडा दावा मानाधिकार का दावा है ।जीवन की वैसी ही अकुंठ और बेहतर स्थितियों की लडाई जो पुरुष को उपलब्ध है ।
इस लडाई में सत्ता और शक्ति केवल उपकरण हैं ,ज़रिया है मात्र । यदि इन्हे लक्ष्य समझा गया तो लडाई का मूल बिन्दु ही नष्ट हो जाएगा। मूल लडाई व्यवस्था की संरचना के पीछे छिपी मानसिकता है । स्त्री के लिए वास्तविक गतिरोध भौतिक् जगत में नही ,मनों के भीतर ,दिमागों में, अवचेतन में हैं । सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है । इसलिए यह दावा बेकार है कि शीला दीक्षित या मायावती का मुख्यमंत्री होना इसलिए सही है कि वे किसी मर्द से बेहतर प्रशासन चलाएगी और मानवीय मूल्यों या बेहतर समाज की स्थापना कर पाएगी ।सत्ता की कज्जल-कोठरी में जो जाएगा ,कालिख तो लगेगी ही ।
अत: स्त्री होने के कारण किसी अधिकार को पाने का दावा गलत है तो उतना ही गलत दावा प्रतिपक्ष का होगा कि स्त्री होने के कारण अधिकार या सत्ता को स्त्री हासिल नही कर सकती।
खैर , मुद्दा वही पुराना है जिस पर पिछली पोस्ट में बात की थी । स्त्री पर बात करते हुए अक्सर हम जिन पूर्वधारणाओं से ग्रस्त रहते हैं ,और जिनके कारण हमेशा से स्त्री-विमर्श का तेल हुआ है ।ये धारणाएँ हैं--- पहला, स्त्री की लडाई या प्रतिद्वन्द्विता पुरुष से है । स्त्री को मुक्ति पुरुष से चाहिये । दूसरा, स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है । तीसरा,सभी क्षेत्रों में स्त्री के आगे बढने से स्त्री की सशक्तीकरण हो रहा है । चौथा, लडकियाँ बोर्ड के नतीजों में हमेशा आगे रहती है इसलिए वे ज़्यादा होशियार और प्रतिभावान हैं और इसलिए कहना चाहिए कि वे शिक्षित हो रही हैं ।
पहले मिथ का निराकरण का प्रयास मै पिछली पोस्ट में कर चुकी हूँ ।
अब दूसरी बात - स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है ।
इसी के जवाब की भूमिका मैने आरम्भ में बान्धी है ।यह ठीक है कि स्त्री विमर्श की झण्डाबरदार हो जाते ही मुझे मुख्यधारा वाले थोडे-बहुत लाभ तो मिलने लग जाते है लेकिन यह मानने से इनकार नही किया जा सकता कि हाशियाई-विमर्शों से एक दमित-दलित वर्ग में अस्मिता का बोध भी आया है और चेतना भी । बहुत से आन्दोलनों को खडा करने और दबी अस्मिताओं को उभारने में ये विमर्श कामयाब हुए हैं । यही इसकी शक्ति है । लेकिन वे जो हाशिये की अस्मिता नही है ,जिन्होने हाशिये पर होने के अपमान और दंशों को नही झेला ;जब वे विमर्शकार होते है तो उनका विमर्श फैशन से कम नही लगता ।साथ ही यह विमर्श के मनत्व्यों को हानि पहुँचाता है हाशिये के प्रति लोगो को असम्वेदनशील बनाता और भ्रमित करता है। तभी तो पुरुषों द्वारा अक्सर यह कह दिया जाता है कि” औरतों की लडाई सत्ता और शक्ति पाने के लिए है ”।शायद इसीलिए मनीष ने यह कहा कि मीडिया में औरतें अपनी प्रतिभा नही किसी और शक्ति के बलबूते बढ रही हैं ।यह आंशिक सत्य हो सकता है । बहस तो यह भी हो सकती है कि- सत्य क्या है यह कौन बताएगा ?अंतिम सत्य , पूर्ण सत्य कुछ नही है । सो डंके की चोट पर यह कहना कि स्त्री प्रतिभा नही प्रतिमा है – गलत होगा ।यह भी बौखलाहट भरा पूर्वाग्रह ही है ।इसका अन्य पक्ष यह भी है कि कई बार स्त्री-सशक्तिकरण के भ्रामक अर्थ ग्रहण करते हुए झंडाबरदारी करने वाली कुछ स्त्रियाँ केवल कुछ पुरुषों द्वारा मूर्ख ही बनाई जा रही होते हैं । यह किसी विमर्श का सबसे घातक पहलू है । प्रतिभा जी का राष्ट्रपति बनना भी मुझे इसी श्रेणी में लगता है ।यह स्त्री का सशक्तीकरण नही स्त्री-विमर्श की हार है जब स्त्री को मोहरा बना कर मकसद हल किया जा रहा है और लगातार स्त्री-शक्ति के गीत गाये जा रहे हैं ।
सत्ता और शक्ति स्त्री अपनी काबिलियत और हौंसलों से हासिल करती है और उसका उपयोग अपनी समझ से बेहतरीन करती है तो वह पुरुष से ज़्यादा सम्माननीय है क्योंकि जो पुरुष ने आसान रास्तों से गुज़र कर किया उसके लिए एक स्त्री ने शोलों पर चलकर रास्ता तय किया होता है ।ऐसे में अगर किरण बेदी दिल्ली की पुलिस अधीक्षक बनती तो यह वास्तविक अर्थ में स्त्री सशक्तीकरण होता ।
कहने का तात्पर्य यह कि स्त्री की लडाई सत्ता,शक्ति,नियंत्रण की शक्ति को हस्तांतरण करने की नही है ।उसकी लडाई भागीदारिता की लडाई है ।समान अवसरों और समान हकों की लडाई है । उसकी लडाई उसे हीन मानने और समझने की मानसिकता से है ।उसकी लडाई में सबसे बडा दावा मानाधिकार का दावा है ।जीवन की वैसी ही अकुंठ और बेहतर स्थितियों की लडाई जो पुरुष को उपलब्ध है ।
इस लडाई में सत्ता और शक्ति केवल उपकरण हैं ,ज़रिया है मात्र । यदि इन्हे लक्ष्य समझा गया तो लडाई का मूल बिन्दु ही नष्ट हो जाएगा। मूल लडाई व्यवस्था की संरचना के पीछे छिपी मानसिकता है । स्त्री के लिए वास्तविक गतिरोध भौतिक् जगत में नही ,मनों के भीतर ,दिमागों में, अवचेतन में हैं । सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है । इसलिए यह दावा बेकार है कि शीला दीक्षित या मायावती का मुख्यमंत्री होना इसलिए सही है कि वे किसी मर्द से बेहतर प्रशासन चलाएगी और मानवीय मूल्यों या बेहतर समाज की स्थापना कर पाएगी ।सत्ता की कज्जल-कोठरी में जो जाएगा ,कालिख तो लगेगी ही ।
अत: स्त्री होने के कारण किसी अधिकार को पाने का दावा गलत है तो उतना ही गलत दावा प्रतिपक्ष का होगा कि स्त्री होने के कारण अधिकार या सत्ता को स्त्री हासिल नही कर सकती।
Friday, September 7, 2007
मोहल्ले का स्त्री-विमर्श और कुछ छूटे हुए मुद्दे
मोहल्ले पर आजकल स्त्री-विमर्श चल रहा है ।अच्छा है । पर पीडा इस बात की है कि विमर्श एकांगी दृष्टिकोण को लिए चल रहा है । सारी बात चीत के बाद लगता है कि मुद्दा मात्र यह रह गया है कि ‘स्त्रियाँ हर क्षेत्र में प्रगति कर रही है और भारत की किस्मत लिख रही हैं ‘जैसा कि पूजा के लेख से ध्वनित होता है या फिर ठीक उलट कि ‘स्त्रियाँ आगे तो बढ रही हैं लेकिन प्रतिभा के बलबूते नही किन्ही और ही मानदनडों पर ‘।माने लडाई बहस एक सरफेस के ऊपर काई सी जम रही है जिसके नीचे की गहराई अभेद्य और अगम्य हो जाएगी अगर यह विमर्श कुछ पल और यूँही चलता रहा। इसलिए सोचा कि कुछ वास्तविक मुद्दे उठ जाने चाहिये इससे पहले कि बात में बात सा कुछ न बचे और शब्द रीत जाएँ और अर्थ चुक जाएँ ।
मेरी समझ से स्त्री के आगे बढने या न बढने से कहीं ज़रूरी बातें और हैं । इसलिए पहले तो उन मिथों से निबटना ज़रूरी है जो हर इस बहस में शामिल व्यक्ति की पूर्वधारणा के रूप में काम कर रहा है । ये मिथ है -
पहला, स्त्री की लडाई या प्रतिद्वन्द्विता पुरुष से है । स्त्री को मुक्ति पुरुष से चाहिये । दूसरा, स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है । तीसरा,सभी क्षेत्रों में स्त्री के आगे बढने से स्त्री की सशक्तीकरण हो रहा है । चौथा, लडकियाँ बोर्ड के नतीजों में हमेशा आगे रहती है इसलिए वे ज़्यादा होशियार और प्रतिभावान हैं और इसलिए कहना चाहिए कि वे शिक्षित हो रही हैं ।
अब इन मिथों का निराकरण -
स्त्री की लडाई ,दर असल , पुरुष से नही पितृसत्ता से है जिसका समान रूप से शिकार पुरुष भी है ;इसलिए स्त्री की मुक्ति या लडाई पुरुष की भी मुक्ति और लडाई है ।लेकिन अफसोस यह है कि इस् मुद्दे पर स्त्री व पुरुष एक दूसरे को प्रतिद्वन्द्वी मानते हैं और सारी ऊर्जा अवास्तविक शत्रु से जूझने में निबट जाती है ।मायने यूँ समझिए कि, जब एक स्त्री अपनी पारम्परिक भूमिकाओं से निकल कर मनचीता करना चाहती है तो उसका रास्ता रोकने वालों में पितृसत्ता के चौकीदार पुरुष ही बाधा नही बनते बल्कि इसी व्यवस्था में रची-पगी स्त्रियाँ भी उतनी ही बाधक बनती हैं ।पुरुषो को समझना होगा कि वे एक कितने ही शिक्षित हो जाएँ वे एक बन्धी बन्धाई परिपाटी के अनुरूप ही व्यवहार कर रहे हैं । यह भी समझना होगा कि पुरुष का साथ ही गंतव्य है और मंतव्य है न कि पुरुष से मुक्ति । पुरुषों को धरती से मिटाकर स्त्रियाँ कहाँ जाएँगी ?
इसलिए कामना साथ की ही है चाहे वह इच्छित साथ लड कर लेना पडे ।
“चक दे इंडिया” इस मायने में एक अच्छा उदाहरण सामने लाती है ।लडकियों की टीम वर्ल्ड कप में जाने लायक है यह सिद्ध करने के लिए उसे लडकों की टीम के साथ खेलना पडता है । वास्तव में भी जब जब स्त्री की क्षमताओं पर विचार हुआ है तो उसका पैमाना पुरुष ही रहा है ।स्त्री अपने आप में कुछ नही अगर उसकी प्रतिभा पुरुष की प्रतिभा से टक्कर लेने लाबिल नही है ।यहाँ ये कायनात के दो अलग ,पूरक प्राणी ,साथी न होकर दो लडाके हो जाते हैं। जिसमें एक अपनी भिन्न शारीरिक और मानसिक शक्तियों व क्षमताओं के कारण हीन साबित होता है।इसलिए शारीरिक क्षमता को सिद्ध करने के लिए प्रजनन और पोषण से ही बात नही बनती स्त्री को पहलवानी भी करनी पडती है ;और वह करती है;खुद को साबित करने के लिए ये वे अग्नि-परीक्षाएँ हैं जिनसे वह आज भी गुज़रती है ,और सफल भी होती है । शारीरिक क्षमताएँ और काबिलियत सिद्ध करने के लिए अभी तक पुरुष से नही कहा गया है कि-“चलो जी, तुम्हे तब मानेंगे जब बच्चा पैदा करके दिखाओ “
तो लडाई दो विपरीत लिंगियों की नही है । उनके सामाजी करण की प्रक्रिया और उसके पीछे के संसकारों या मानसिकता से है ।
समानता के मायने क्या है ? इस पर भी सोचने की ज़रूरत है । बाकी मिथों का जवाब अगली पोस्ट में ।यूँ भी पिछली पोस्ट विचारों के प्रवाह में बहुत दीर्घ हो गयी थी ।इसलिए अभी इतना ही । बहस आमंत्रित है .........
मेरी समझ से स्त्री के आगे बढने या न बढने से कहीं ज़रूरी बातें और हैं । इसलिए पहले तो उन मिथों से निबटना ज़रूरी है जो हर इस बहस में शामिल व्यक्ति की पूर्वधारणा के रूप में काम कर रहा है । ये मिथ है -
पहला, स्त्री की लडाई या प्रतिद्वन्द्विता पुरुष से है । स्त्री को मुक्ति पुरुष से चाहिये । दूसरा, स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है । तीसरा,सभी क्षेत्रों में स्त्री के आगे बढने से स्त्री की सशक्तीकरण हो रहा है । चौथा, लडकियाँ बोर्ड के नतीजों में हमेशा आगे रहती है इसलिए वे ज़्यादा होशियार और प्रतिभावान हैं और इसलिए कहना चाहिए कि वे शिक्षित हो रही हैं ।
अब इन मिथों का निराकरण -
स्त्री की लडाई ,दर असल , पुरुष से नही पितृसत्ता से है जिसका समान रूप से शिकार पुरुष भी है ;इसलिए स्त्री की मुक्ति या लडाई पुरुष की भी मुक्ति और लडाई है ।लेकिन अफसोस यह है कि इस् मुद्दे पर स्त्री व पुरुष एक दूसरे को प्रतिद्वन्द्वी मानते हैं और सारी ऊर्जा अवास्तविक शत्रु से जूझने में निबट जाती है ।मायने यूँ समझिए कि, जब एक स्त्री अपनी पारम्परिक भूमिकाओं से निकल कर मनचीता करना चाहती है तो उसका रास्ता रोकने वालों में पितृसत्ता के चौकीदार पुरुष ही बाधा नही बनते बल्कि इसी व्यवस्था में रची-पगी स्त्रियाँ भी उतनी ही बाधक बनती हैं ।पुरुषो को समझना होगा कि वे एक कितने ही शिक्षित हो जाएँ वे एक बन्धी बन्धाई परिपाटी के अनुरूप ही व्यवहार कर रहे हैं । यह भी समझना होगा कि पुरुष का साथ ही गंतव्य है और मंतव्य है न कि पुरुष से मुक्ति । पुरुषों को धरती से मिटाकर स्त्रियाँ कहाँ जाएँगी ?
इसलिए कामना साथ की ही है चाहे वह इच्छित साथ लड कर लेना पडे ।
“चक दे इंडिया” इस मायने में एक अच्छा उदाहरण सामने लाती है ।लडकियों की टीम वर्ल्ड कप में जाने लायक है यह सिद्ध करने के लिए उसे लडकों की टीम के साथ खेलना पडता है । वास्तव में भी जब जब स्त्री की क्षमताओं पर विचार हुआ है तो उसका पैमाना पुरुष ही रहा है ।स्त्री अपने आप में कुछ नही अगर उसकी प्रतिभा पुरुष की प्रतिभा से टक्कर लेने लाबिल नही है ।यहाँ ये कायनात के दो अलग ,पूरक प्राणी ,साथी न होकर दो लडाके हो जाते हैं। जिसमें एक अपनी भिन्न शारीरिक और मानसिक शक्तियों व क्षमताओं के कारण हीन साबित होता है।इसलिए शारीरिक क्षमता को सिद्ध करने के लिए प्रजनन और पोषण से ही बात नही बनती स्त्री को पहलवानी भी करनी पडती है ;और वह करती है;खुद को साबित करने के लिए ये वे अग्नि-परीक्षाएँ हैं जिनसे वह आज भी गुज़रती है ,और सफल भी होती है । शारीरिक क्षमताएँ और काबिलियत सिद्ध करने के लिए अभी तक पुरुष से नही कहा गया है कि-“चलो जी, तुम्हे तब मानेंगे जब बच्चा पैदा करके दिखाओ “
तो लडाई दो विपरीत लिंगियों की नही है । उनके सामाजी करण की प्रक्रिया और उसके पीछे के संसकारों या मानसिकता से है ।
समानता के मायने क्या है ? इस पर भी सोचने की ज़रूरत है । बाकी मिथों का जवाब अगली पोस्ट में ।यूँ भी पिछली पोस्ट विचारों के प्रवाह में बहुत दीर्घ हो गयी थी ।इसलिए अभी इतना ही । बहस आमंत्रित है .........
Thursday, September 6, 2007
एक पगलाए वक्त में रस-चर्चा
जब काव्य में रस की बात होती है तो सबसे पहले रसराज श्रृंगार [आम भाषा में प्रेम –और उसके भी दोनो पक्ष संयोग और वियोग ] का नाम आता है ।“पृथ्वीराज रासो” की परम्परा के रासो काव्य युद्ध और श्रृंगार के वर्णनों से अटे पडे हैं। यानि वीर और श्रृंगार रस इनमें प्रमुख हैं। श्रृंगार का बखान क्या करूँ, वह हमेशा प्रासंगिक रहेगा और सबका स्वानुभूत भी । युद्ध के वर्णनों में मिलने वाले वीर रस और अन्य दो रस- रौद्र व जुगुप्सा मुझे बात करने को अधिक प्रासंगिक जान पड रहे हैं ।चलिए वीर रस की बात करें।वीर रस की प्रेरक स्थितियाँ होती हैं जब अधर्म , अत्याचार और अन्याय का सर्वत्र बोलबाला हो ।खलनायक के दुराचरण और निर्बलों पर उसका अन्याय वीर रस के नायक को भडकाने और रस की पूर्ण निष्पत्ति में सहयोग देते हैं। ऐसे में जननायक के रूप में खडा नायक वीर रस से स्फूर्त और सद्दुदेश्य से संचरित होता है और उसका वीरतापूर्वक शस्त्र उठा कर शत्रु पर वार करना वीर रस का निष्पादन करता है । ऐसे में रौद्र रस वीर का सहयोगी बन कर प्रकट होता है । रौद्र शब्द अधिकांश लोगों ने शिव के रौद्रावतार या रौद्र रूप के विषय में सुना होगा । रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है [स्थायी भाव माने वे मूल भाव जो आदिम काल से मनुष्य के मन में रहते आये है और रहेंगे ,और अनुकूल अवसर आते ही प्रकट हो जाते हैं] ।यह क्रोध दुराचारी के चिढाने और हरकतों से बाज़ न आने पर वीर नायक में उतपन्न होता है।ऐसे में नायक की क्रोध से आंखे लाल होना, बाँह ,होंठ फडकना ,हुंकार करना, चुनौती देना रौद्र रस का सृजन करते हैं। ये दोनो रस मिलकर युद्ध के वातावरण को सजीव बनाते हैं तो वहीं युद्ध के बाद लाशों और् खून् से लिथडे कटे शरीर ,मरघट सी नीरवता और गिद्धों चीलों का लाशों में से आँख जिह्वा नोच नोच कर खाना ऐसा घृणित वातावरण बनाते हैं जिनसे जुगुप्सा रस की निष्पत्ति होती है माने कै करवा सकने की क्षमता वाला उबकाई भरा वातावरण्।
यह वीरता प्रदर्शन और क्रोध कभी भी निर्बल और शोषित के प्रति नही होता ।उद्देश्य की पवित्रता और धर्म संस्थापना की मंशा से ही होता है। लेकिन अगर क्रोध और बल-प्रदर्शन कमज़ोर के प्रति होने लगे,मानो कंस का मथुरावासियों पर अत्याचार , तो वहाँ क्या रस होगा ;न,न...रसाभास....रसाभाव.....या शायद रसभंग ! रसभंग की ये स्थितियाँ हमें आज हर ओर दीख पड रही हैं ।डारविन के विकासवाद [survival of the fittest] ने यूँ भी प्रतिस्पर्द्धा में निर्बलों के पिछड जाने और सबलों के और और सबल होते जाने को वैज्ञानिक वैधता दे ही दी तो कार् मालिक और चालक के रिक्शेवाले के प्रति असम्वेदनशील होकर जैसे तैसे आगे बढ जाने में अचरज क्या है ? मनों का बोझ लादे असहाय रिकशावाला लाख चाह कर भी जो कुछ नही कर सकता,और उसे भी उसी सडक पर ही चल कर आगे तक जाना है उस पर भी बेसब्र गाडियाँ लगातार “पीं-पीं” चींखती रहती हैं और थूक में चबाई सभ्य गालियाँ उस पर फेंकते हुए सबसे आगे बढ जाती हैं।यहाँ कार मालिक का रौद्र रूप रौद्र रस की खिल्ली सी उडाता लगता है । क्या यह आँखें लाल होना क्रोध से बाँहें फडकना अधर्मी,दुराचारी के कुकृत्यों के कारण है ? यह रौद्र है ? या पागलपन ? शायद पागलपन ही है । ये अतिवादी प्रतिक्रियाएँ और अकारण का गुस्सा जिसमें पगलाया आदमी एक उमा खुराना पर गुस्सा होकर कई निरपराधों के वाहन जला डालता है या सीलिंग के विरोध में सडकों पर उतर आकर पत्थरबाज़ी करता,ट्रकें जलाता है। या कमज़ोर को सामने देखते ही जिसे अचानक अपनी शक्ति का भान हो जाता है जिसके दम्भ में वह सडक पर ही पीट पीट कर किसी की हत्या कर डालता है । या वर्दी का गुंडा “मारो साले को !” कहते हुए प्रशासन की दी हुई बंदूक से, समर्पण को तैयार निहत्थे गुण्डे को भून डालता है । ऐसे लोगो को कौन सा वीर कहा जाए ? युद्धवीर ...दानवीर ... कर्मवीर....दयावीर....। न । न यह वीरता है न यह कोई रस है ।महज़ बल-प्रदर्शन वीरता नही और महज़ क्रोध रौद्र नही ।यह दिमागी बुखार है जिसका कोई वैक्सीन नही ।वर्ना पडोसी के कुत्ते को जान से सिर्फ इसलिए मार डालना कि उसका भौंकना पसन्द नही,या अपनी ही संतान को मार डालना सिर्फ इसलिए कि वह पिता के हिस्से के चिप्स खा गया दुरुस्त दिमागी हालत के लक्षण तो कतई नही हैं ।गरीब परिवारों के बच्चों की बोटियाँ चबाने वाले मोनिन्दर सिंह ही वहशी नही हैं सिर्फ ।यह इस पगलाए वक्त के हर उस आदमी का वहशी जुनून है जिसे अपने हाथ् का डंडा और असहाय की चमडी दीखती है बस ।
तो वीर और रौद्र रस की स्थितियाँ आज सम्भव नहीं । ये दोनो रस रस चर्चा में बहिष्कृत होने चाहिए । ये निहायत अप्रासंगिक हैं । बचा –जुगुप्सा रस । वह निहायत प्रासंगिक है ।निठारी की कोठी के भीतरी नज़ारे को यदि कोई कवि छन्दोबद्ध करे तो जुगुप्सा रस का अब तक का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण बन पडेगा ।भीड के विरोध-प्रदर्शन और पुलिस के शांति-प्रयासों के बाद का सडकों का नज़ारा भी जुगुप्सा रस के लिए मॉडीफाएड स्थिति होगी ।इसे रस भंग कहने वाले मूर्ख होंगे । अब बाकि बचे रसों की बात । हास्य रस् भी श्रृंगार का साथी है और कभी अप्रासंगिक नही होने वाला । करुण रस तो शायद अब रसराज हो जाए क्योंकि सर्वत्र स्थितियाँ इसकी प्रेरक ही हैं । सरकारी-प्रशासनिक अफसरों-गुंडो और आतंकवाद के दौर में भय रस भी अति प्रासंगिक है और वैज्ञानिक –प्रौद्योगिक तरक्की के चलते अद्भुत रस भी यदा-कदा दीख जाएगा । अभी बहुत कुछ अद्भुत होना बाकी है ।भक्ति रस विवादास्प्द रस की श्रेणी में है क्योंकि भक्ति वाले शांत रस और उसके स्थायी भाव निर्वेद में कोई रुचि न रखकर धर्म और राजनीति में अधिक दिलचस्पी दिखा रहे है ।बम-बम भोला में रमते हुए लाठी बल्लम लिए कुश्ती के दाव पेंच भी खेलते रहते हैं । वात्सल्य रस या कहे माता पिता का संतान के प्रति प्रेम –यह भी प्रश्न चिह्नित है ।इसकी प्रतिकूल परिस्थितियाँ वात्सल्य भाव के पुष्टिकरण में बाधा बन रहा है ।केवल कृष्ण की बाल-लीलाओं में आनन्द लेने को जेंडर-बायस कहा जा रहा है ।बालिका-शिशु की अठखेलियों को अभी तक नज़रान्दाज़ किया गया है।
सो नतीजा यह कि सब रसों में वीर और रौद्र रस को छोडकर बाकि सभी रस काव्य में और समाज में अपनी अपनी प्रासंगिकता के लिए अडे है ।रौद्र और वीर को या तो अपना स्वरूप बदलना होगा या मिटना होगा या अप्रासंगिक होना होगा माने सिर्फ किताब तक सीमित रहना ।ऐसी कोई स्थिति समाज में नही होगी जिससे प्रेरित हो कर हम वीर या रौद्र का उदाहरण दे सकें या जिनके आधार पर कवि काव्य लिख सके ।
यह वीरता प्रदर्शन और क्रोध कभी भी निर्बल और शोषित के प्रति नही होता ।उद्देश्य की पवित्रता और धर्म संस्थापना की मंशा से ही होता है। लेकिन अगर क्रोध और बल-प्रदर्शन कमज़ोर के प्रति होने लगे,मानो कंस का मथुरावासियों पर अत्याचार , तो वहाँ क्या रस होगा ;न,न...रसाभास....रसाभाव.....या शायद रसभंग ! रसभंग की ये स्थितियाँ हमें आज हर ओर दीख पड रही हैं ।डारविन के विकासवाद [survival of the fittest] ने यूँ भी प्रतिस्पर्द्धा में निर्बलों के पिछड जाने और सबलों के और और सबल होते जाने को वैज्ञानिक वैधता दे ही दी तो कार् मालिक और चालक के रिक्शेवाले के प्रति असम्वेदनशील होकर जैसे तैसे आगे बढ जाने में अचरज क्या है ? मनों का बोझ लादे असहाय रिकशावाला लाख चाह कर भी जो कुछ नही कर सकता,और उसे भी उसी सडक पर ही चल कर आगे तक जाना है उस पर भी बेसब्र गाडियाँ लगातार “पीं-पीं” चींखती रहती हैं और थूक में चबाई सभ्य गालियाँ उस पर फेंकते हुए सबसे आगे बढ जाती हैं।यहाँ कार मालिक का रौद्र रूप रौद्र रस की खिल्ली सी उडाता लगता है । क्या यह आँखें लाल होना क्रोध से बाँहें फडकना अधर्मी,दुराचारी के कुकृत्यों के कारण है ? यह रौद्र है ? या पागलपन ? शायद पागलपन ही है । ये अतिवादी प्रतिक्रियाएँ और अकारण का गुस्सा जिसमें पगलाया आदमी एक उमा खुराना पर गुस्सा होकर कई निरपराधों के वाहन जला डालता है या सीलिंग के विरोध में सडकों पर उतर आकर पत्थरबाज़ी करता,ट्रकें जलाता है। या कमज़ोर को सामने देखते ही जिसे अचानक अपनी शक्ति का भान हो जाता है जिसके दम्भ में वह सडक पर ही पीट पीट कर किसी की हत्या कर डालता है । या वर्दी का गुंडा “मारो साले को !” कहते हुए प्रशासन की दी हुई बंदूक से, समर्पण को तैयार निहत्थे गुण्डे को भून डालता है । ऐसे लोगो को कौन सा वीर कहा जाए ? युद्धवीर ...दानवीर ... कर्मवीर....दयावीर....। न । न यह वीरता है न यह कोई रस है ।महज़ बल-प्रदर्शन वीरता नही और महज़ क्रोध रौद्र नही ।यह दिमागी बुखार है जिसका कोई वैक्सीन नही ।वर्ना पडोसी के कुत्ते को जान से सिर्फ इसलिए मार डालना कि उसका भौंकना पसन्द नही,या अपनी ही संतान को मार डालना सिर्फ इसलिए कि वह पिता के हिस्से के चिप्स खा गया दुरुस्त दिमागी हालत के लक्षण तो कतई नही हैं ।गरीब परिवारों के बच्चों की बोटियाँ चबाने वाले मोनिन्दर सिंह ही वहशी नही हैं सिर्फ ।यह इस पगलाए वक्त के हर उस आदमी का वहशी जुनून है जिसे अपने हाथ् का डंडा और असहाय की चमडी दीखती है बस ।
तो वीर और रौद्र रस की स्थितियाँ आज सम्भव नहीं । ये दोनो रस रस चर्चा में बहिष्कृत होने चाहिए । ये निहायत अप्रासंगिक हैं । बचा –जुगुप्सा रस । वह निहायत प्रासंगिक है ।निठारी की कोठी के भीतरी नज़ारे को यदि कोई कवि छन्दोबद्ध करे तो जुगुप्सा रस का अब तक का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण बन पडेगा ।भीड के विरोध-प्रदर्शन और पुलिस के शांति-प्रयासों के बाद का सडकों का नज़ारा भी जुगुप्सा रस के लिए मॉडीफाएड स्थिति होगी ।इसे रस भंग कहने वाले मूर्ख होंगे । अब बाकि बचे रसों की बात । हास्य रस् भी श्रृंगार का साथी है और कभी अप्रासंगिक नही होने वाला । करुण रस तो शायद अब रसराज हो जाए क्योंकि सर्वत्र स्थितियाँ इसकी प्रेरक ही हैं । सरकारी-प्रशासनिक अफसरों-गुंडो और आतंकवाद के दौर में भय रस भी अति प्रासंगिक है और वैज्ञानिक –प्रौद्योगिक तरक्की के चलते अद्भुत रस भी यदा-कदा दीख जाएगा । अभी बहुत कुछ अद्भुत होना बाकी है ।भक्ति रस विवादास्प्द रस की श्रेणी में है क्योंकि भक्ति वाले शांत रस और उसके स्थायी भाव निर्वेद में कोई रुचि न रखकर धर्म और राजनीति में अधिक दिलचस्पी दिखा रहे है ।बम-बम भोला में रमते हुए लाठी बल्लम लिए कुश्ती के दाव पेंच भी खेलते रहते हैं । वात्सल्य रस या कहे माता पिता का संतान के प्रति प्रेम –यह भी प्रश्न चिह्नित है ।इसकी प्रतिकूल परिस्थितियाँ वात्सल्य भाव के पुष्टिकरण में बाधा बन रहा है ।केवल कृष्ण की बाल-लीलाओं में आनन्द लेने को जेंडर-बायस कहा जा रहा है ।बालिका-शिशु की अठखेलियों को अभी तक नज़रान्दाज़ किया गया है।
सो नतीजा यह कि सब रसों में वीर और रौद्र रस को छोडकर बाकि सभी रस काव्य में और समाज में अपनी अपनी प्रासंगिकता के लिए अडे है ।रौद्र और वीर को या तो अपना स्वरूप बदलना होगा या मिटना होगा या अप्रासंगिक होना होगा माने सिर्फ किताब तक सीमित रहना ।ऐसी कोई स्थिति समाज में नही होगी जिससे प्रेरित हो कर हम वीर या रौद्र का उदाहरण दे सकें या जिनके आधार पर कवि काव्य लिख सके ।
Monday, August 20, 2007
विज्ञापन ---चाहिये एक फुल-टाइम ,घरेलू,गधेलू, जड ,जवान,स्वस्थ नौकर
विज्ञापन हिन्दी-लेखन की अद्यतन विधा है [यह मेरा मानना है]।पॉपुलर भी [नही है तो हो जाएगी]।हाशियाई विमर्श में हम दोनो ओर हैं। कुछ प्रसंगों में मुख्यधारा और कुछ म्रं सीमांत या हाशिये पर हैं।जहाँ हम मुख्यधारा हैं वहाँ हाशिये के प्रति सम्वेदनशीलता लाख प्रतिबद्धता के बाद भी नही आ पाती ।इसलिए जब नौकर पर एक कहानी लिखने का सोचा तो नही लिख पाए। आराम और फुरसत से ब्लाग लिखते हुए अपने नायक के सन्दर्भ में फुरसत की बात जम नही रही थी ।नौकर का फुर्सत और आराम मे होना या कहें अस्मितावान होना मालिक होने के भाव को चुनौती देता है ।इसलिए कहानी का केन्द्रीय भाव पकड नही आता था । कहानी का फॉर्म नही जम रहा था ।तभी यह अद्यतन विधा याद आयी । यूँ भी कहा जाता है [पता नही कहाँ कहा जाता है ] कि लेखक विधा नही चुनता उसका कथ्य अपने लिए उपयुक्त विधा का चुनाव अपने आप कर लेता है । सो हमारे कथ्य और मंतव्य ने अपने लिए विज्ञापन विधा का चुनाव स्वयँमेव कर लिया ।
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चाहिये एक फुल-टाइम ,घरेलू,गधेलू, जड ,जवान,स्वस्थ नौकर [बच्चोँ को प्रेफरेंस दी जाएगी ]जिसे थकान न होती हो ;होती भी हो तो बताए न, जो कम रोटी और कम नीन्द पर ज़्यादा काम कर सके,जिसे आराम हराम हो ,जिसे अखबार पढना,चिट्ठी लिखना न आता हो ,जिसकी किसी समसामयिक विषय पर अपनी कोई राय न हो, जिसके चहरे पर आशा और आँखों में सपने न हों ,नौकर होने के कारण जिसके हाड-गोड आसानी से तोडे जा सकें,जिसका परिवार न हो, हो तो गाँव में हो जहाँ उसे जाने की छुट्टी नही दी जाएगी क्योंकि गाम जाकर ये नौकर जात वापस नही आते, विवाह की आज़ादी नही होगी ,विवाहित होने पर पत्नी-बच्चे गाँव मेँ ही रहे तो अच्छा ,दोस्ती-मित्रता की आज़ादी नही होगी ,जो सबके सोने के बाद सोए और सबके जागने से पहले जाग जाए,जिसके रीढ की हड्डी और गर्दन की हड्डी न हो या तोडी जा चुकी हो और वह गर्दन सीधी करके खडा न हो सकता हो लेकिन काम करने का उसमें ज़बर्दस्त जोश हो , ,जो परेशान होकर भागने का प्रयास न करे अन्यथा चोरी का केस लिखवा कर पकडवा लिया जाएगा [पिटाई होगी सो अलग] ,जो डाँट खाने पर मुँह न खोले ,वफादारी में कुत्ते के समान, स्वभाव में गऊ , बोलने में बकरी समान , बोझ ढोने में गधे के समान, फुर्ती में घोडे के समान उपयोगिता में बैल के समान और मालिक के सामने मेमने के समान् हो। और अंतत: वह सिर्फ और सिर्फ नौकर हो ।
बीमारी व दुर्घटना की स्थिति मे इलाज की गारन्टी नही ।योग्य उम्मीदवार सम्पर्क करे-बाक्स नम्बर -१०००
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चाहिये एक फुल-टाइम ,घरेलू,गधेलू, जड ,जवान,स्वस्थ नौकर [बच्चोँ को प्रेफरेंस दी जाएगी ]जिसे थकान न होती हो ;होती भी हो तो बताए न, जो कम रोटी और कम नीन्द पर ज़्यादा काम कर सके,जिसे आराम हराम हो ,जिसे अखबार पढना,चिट्ठी लिखना न आता हो ,जिसकी किसी समसामयिक विषय पर अपनी कोई राय न हो, जिसके चहरे पर आशा और आँखों में सपने न हों ,नौकर होने के कारण जिसके हाड-गोड आसानी से तोडे जा सकें,जिसका परिवार न हो, हो तो गाँव में हो जहाँ उसे जाने की छुट्टी नही दी जाएगी क्योंकि गाम जाकर ये नौकर जात वापस नही आते, विवाह की आज़ादी नही होगी ,विवाहित होने पर पत्नी-बच्चे गाँव मेँ ही रहे तो अच्छा ,दोस्ती-मित्रता की आज़ादी नही होगी ,जो सबके सोने के बाद सोए और सबके जागने से पहले जाग जाए,जिसके रीढ की हड्डी और गर्दन की हड्डी न हो या तोडी जा चुकी हो और वह गर्दन सीधी करके खडा न हो सकता हो लेकिन काम करने का उसमें ज़बर्दस्त जोश हो , ,जो परेशान होकर भागने का प्रयास न करे अन्यथा चोरी का केस लिखवा कर पकडवा लिया जाएगा [पिटाई होगी सो अलग] ,जो डाँट खाने पर मुँह न खोले ,वफादारी में कुत्ते के समान, स्वभाव में गऊ , बोलने में बकरी समान , बोझ ढोने में गधे के समान, फुर्ती में घोडे के समान उपयोगिता में बैल के समान और मालिक के सामने मेमने के समान् हो। और अंतत: वह सिर्फ और सिर्फ नौकर हो ।
बीमारी व दुर्घटना की स्थिति मे इलाज की गारन्टी नही ।योग्य उम्मीदवार सम्पर्क करे-बाक्स नम्बर -१०००
Friday, August 3, 2007
भागी हुई लडकियाँ –भाग-2
पिछले दिनोँ आलोक जी की कविता ‘भागी हुई लडकियाँ ’ बहुत चर्चा में रही । कारण था असीमा की आप-बीती का प्रकाशन जिसमें अलोक जी के कवि हृदय और व्यक्तित्व में अंतर्विरोध देख कर दुख हुआ ।किसी निर्णय पर पहुँचना नही है मुझे न इतनी औकात है मेरी ।इस विषय पर पहले ही लिख चुकी हूँ ।लेकिन बहुत उत्सुकता थी आलोक धन्वा की कविता “भागी हुई लडकियाँ ”पढने की ।अभय तिवारी जी ने वह इच्छा पूर्ण कर दी ।उन्हे धन्यवाद!
कविता पढने के बाद वह अधूरी सी लगी । एकतरफ़ा ।शायद एक स्त्री-स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर कवि को लडकियोँ के भागने में क्रांतिधर्मिता का दर्शन होता हो जो समाज की संरचना मेँ आमूल-चूल परिवर्तन के बहुत प्रारम्भिक संकेत होँ ।महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के ‘कविता क्या है’ सम्बन्धी लेख से असंतुष्ट होकर आचार्य शुक्ल को फिर से लिखना पडा था “कविता क्या है”।न मै आचार्य शुक्ल हूँ न आलोक जी द्विवेदी हैं ;उनके आस पास भी कही नही ठहरते हम शायद इसलिए आलोक जी से असंतुष्ट होने का जोखिम लिया जा सकता है । ऐसे में “भागी हुई लडकियाँ ”का दूसरा भाग बहुत कम चेष्टा से ,रच दिया है। अ-कवि [अप्रतिष्ठित औत स्त्री :) ]की कविता शायद ऐसी ही हो सकती होगी |
और एक तरफ़ा शायद यह भी है । इसलिए दूसरा भाग कहा है ।यह सचमुच की भागी लडकियां है रतजगो में भागी नही।
तो एक पक्ष यह भी -----
आलोक धन्वा को समर्पित , क्योन्कि उन्ही की कविता से प्रेरित है यह कविता ।
*****
भागी हुई लडकियाँ
कडे जीवट वाली होती हैं
जीती हैं
मौत को शर्मसार करतीं ।
यूँ भी जब तक
गर्भ् में ही मार न दी जाएँ
मरती नही लडकियाँ
आसानी से।
कडी जान होती हैं।
भागी हुई लडकियों के सामने
नही होते विकल्प ।
उनके रास्ते वेश्यालयों तक जाकर
बन्द होते हैं हमेशा के लिए
और भागने के बाद
झरोखे से झाँकने की भी नही रहती हकदार !
उजाले के सफेद पुरुषों को
रात के ग्लानिमय अन्धेरे में
अपनी चूहों,झींगुरों से अटी पडी मैली कोठरी में ,एक के बाद एक
देती हैं राहत ।
भागी हुई लडकियों को
बेच जाते हैं उनके प्रेमी
दलालों द्वारा बलत्कृत होने और्
तब्दील होने
एक रंडी में ।
एक निर्विकल्प दुनिया
खिंच जाती है
चारो ओर ।
खरीदारों के हाथ किसी मवेशी की तरह
टटोलते हैं उनकी देह
और लगाते हैं कीमत ।
*** बज़ारू, बेआबरू
मानते है जिन्हे;
आश्चर्य ! !
वे भी पालती हैं भ्रम इज़्ज़त के
और मुँह सिए पडी रहती हैं
सीले कोनों में रोगों से अटी देह लिए ।
वे नही कहना चाहतीं अपनी पीडा
शर्मिन्दगी के घृणित,कुत्सित पल
नही बांटना चाहतीं।
तीस के बाद
बुढाने लगती हैं तेज़ी से
इसलिए
उनकी लडकियाँ
[जिन्हे भागने की नही पडी
ज़रूरत] ज्ल्दी-जल्दी होने लगती हैं बडी
सीखने लगती हैं हुनर ।
****
घर के भीतर्
शौचालय-सा शहर में वेश्यालय है।
रसोई-सा पवित्र नही पर उससे अहम
जहाँ से निवृत्त्त होकर
पाक-मना
परिवार-संरचनाओं के मुखिया
लौटते है।
फर्क यह है
इन्हे कोई अपना नही कहता सार्वजनिक शौचालय की भाँति ।
जिन्हे गन्दगी छोडने के बाद
अपनी,साफ करने
कोई नही आता ।
****
सीधे-सादे-भोले लोग
सोचते हैँ
भागी हुई लडकियाँ
आत्महत्या क्यों नही कर लेतीं?
मौत से बदतर ज़िन्दगी से
खुद मौत ही बेहतर नही ?
ये सीधे, भोले लोग
समझते क्यों नही
भागी हुई लडकियों के
लौटने के दरवाज़े
ये खुद ही
बन्द कर चुके हैं।
इन्होने बदल दिया है
कोठो को
वॉल्व में ,
भागी हुई लडकियों को रंडियों में,
हत्या को
आत्महत्या में।
।
कविता पढने के बाद वह अधूरी सी लगी । एकतरफ़ा ।शायद एक स्त्री-स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर कवि को लडकियोँ के भागने में क्रांतिधर्मिता का दर्शन होता हो जो समाज की संरचना मेँ आमूल-चूल परिवर्तन के बहुत प्रारम्भिक संकेत होँ ।महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के ‘कविता क्या है’ सम्बन्धी लेख से असंतुष्ट होकर आचार्य शुक्ल को फिर से लिखना पडा था “कविता क्या है”।न मै आचार्य शुक्ल हूँ न आलोक जी द्विवेदी हैं ;उनके आस पास भी कही नही ठहरते हम शायद इसलिए आलोक जी से असंतुष्ट होने का जोखिम लिया जा सकता है । ऐसे में “भागी हुई लडकियाँ ”का दूसरा भाग बहुत कम चेष्टा से ,रच दिया है। अ-कवि [अप्रतिष्ठित औत स्त्री :) ]की कविता शायद ऐसी ही हो सकती होगी |
और एक तरफ़ा शायद यह भी है । इसलिए दूसरा भाग कहा है ।यह सचमुच की भागी लडकियां है रतजगो में भागी नही।
तो एक पक्ष यह भी -----
आलोक धन्वा को समर्पित , क्योन्कि उन्ही की कविता से प्रेरित है यह कविता ।
*****
भागी हुई लडकियाँ
कडे जीवट वाली होती हैं
जीती हैं
मौत को शर्मसार करतीं ।
यूँ भी जब तक
गर्भ् में ही मार न दी जाएँ
मरती नही लडकियाँ
आसानी से।
कडी जान होती हैं।
भागी हुई लडकियों के सामने
नही होते विकल्प ।
उनके रास्ते वेश्यालयों तक जाकर
बन्द होते हैं हमेशा के लिए
और भागने के बाद
झरोखे से झाँकने की भी नही रहती हकदार !
उजाले के सफेद पुरुषों को
रात के ग्लानिमय अन्धेरे में
अपनी चूहों,झींगुरों से अटी पडी मैली कोठरी में ,एक के बाद एक
देती हैं राहत ।
भागी हुई लडकियों को
बेच जाते हैं उनके प्रेमी
दलालों द्वारा बलत्कृत होने और्
तब्दील होने
एक रंडी में ।
एक निर्विकल्प दुनिया
खिंच जाती है
चारो ओर ।
खरीदारों के हाथ किसी मवेशी की तरह
टटोलते हैं उनकी देह
और लगाते हैं कीमत ।
*** बज़ारू, बेआबरू
मानते है जिन्हे;
आश्चर्य ! !
वे भी पालती हैं भ्रम इज़्ज़त के
और मुँह सिए पडी रहती हैं
सीले कोनों में रोगों से अटी देह लिए ।
वे नही कहना चाहतीं अपनी पीडा
शर्मिन्दगी के घृणित,कुत्सित पल
नही बांटना चाहतीं।
तीस के बाद
बुढाने लगती हैं तेज़ी से
इसलिए
उनकी लडकियाँ
[जिन्हे भागने की नही पडी
ज़रूरत] ज्ल्दी-जल्दी होने लगती हैं बडी
सीखने लगती हैं हुनर ।
****
घर के भीतर्
शौचालय-सा शहर में वेश्यालय है।
रसोई-सा पवित्र नही पर उससे अहम
जहाँ से निवृत्त्त होकर
पाक-मना
परिवार-संरचनाओं के मुखिया
लौटते है।
फर्क यह है
इन्हे कोई अपना नही कहता सार्वजनिक शौचालय की भाँति ।
जिन्हे गन्दगी छोडने के बाद
अपनी,साफ करने
कोई नही आता ।
****
सीधे-सादे-भोले लोग
सोचते हैँ
भागी हुई लडकियाँ
आत्महत्या क्यों नही कर लेतीं?
मौत से बदतर ज़िन्दगी से
खुद मौत ही बेहतर नही ?
ये सीधे, भोले लोग
समझते क्यों नही
भागी हुई लडकियों के
लौटने के दरवाज़े
ये खुद ही
बन्द कर चुके हैं।
इन्होने बदल दिया है
कोठो को
वॉल्व में ,
भागी हुई लडकियों को रंडियों में,
हत्या को
आत्महत्या में।
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Friday, July 27, 2007
बरसात के बाद
बरसात के बाद भीगे पत्तों की महक के साथ काली धुली, अकेली सडक पर चलते हुए वे दोनो जाने क्या कुछ सोच रहे थे।चुप्पी दीवार न थी पर सहारा तो थी ही ।शायद दोनो में से कोई भी पहल करने का जोखिम नही उठाना चाहता था । कीचड भरी फ़ुटपाथ पर रपटते हुए ,कदमों को धीरे-धीरे नज़ाकत से उठाते हुए हलकी डगमगाहट में कान्धे से कान्धा टकरा जाता है । एक सुखद अनूभूति के साथ लडकी कदमों को फिर से डगमग़ा जाने देती है ।वह चंचल है ।लडका समझ रहा है । वह सम्भाल लेता है हाथों का सहारा देकर और उसका तुरंत ही हाथ छोड देना लडकी को खिझा देता है वह कुछ और देर थामे रह ता तो ?लडका शांत और गम्भीर है ;जैसे बहुत कुछ हो उसके पास कहने के लिए या कुछ भी न हो कहने के लिए लडकी से ।या शायद वह सोच रहा हो कि इस समय मेँ वह और बहुत से काम निपटा सकता था । लडकी को उसपर लाड आता है ।घर से बाहर उसके भीतर की अल्हड प्रेमिका करवटें लेने लगती है ।वह उसका सर गोद मेँ रख कर थके मुख को चूम लेना चाह्ती है ।लडके के भीगे –बिखरे बालों को समेटने के लिए उसका मन मचलता है,पर सडक पर ? कोई बात नही ।वह हाथ बढाती है तो लडका कहता कुछ नही भवें सिकोडता हुआ उसे नादानी न करने को कहता- सा देखता है।फिर पलट कर पीछे और दाएँ -बाएँ देखता है। लडकी उबासी लेने लगती है ।उसका मन बुझने लगता है।उसे समझ नही आता कि वे दोनो साथ क्यों हैं और लगातार चल क्यों रहे हैं !वह पार्क के बेंच पर बैठना चाहती है ,वह लडके के कन्धे पर सर रखना चाह्ती है । वह चाहती है कि लडका उसके नर्म रेशमी बालों में उंगलियाँ फिराए और इस प्रेमिल नीरवता में वह घर लौट कर सैकडों कर्म करने और कई भूमिकाएँ निभाने के लिए वापस समेट ले ऊर्जा ।अचानक उसने पलट कर लडके की ओर देखा –लडका अब लडका सा नही रहा । वह आदमी हो गया है ।या वह आदमी ही था ? क्या मैने इसे आज से पहले कभी नही देखा इस तरह ?अचानक लडकी के तेवर बदलते हैं ।वह कदमों को मोड लेती है बाज़ार की ओर जैसे सहसा याद आ गया हो कोई बहुत ज़रूरी काम । आदमी नही पूछता ।मानो वह तेवर समझ गया हो । वह सब समझ जाता है ।वह इसलिए अनूकूल व्यवहार कर पाता है। कमरे के भीतर चाहे जो हो । वह बाहर एक ज़िम्मेदार पति है ।लडकी याद दिलाती है कि बाज़ार से उसे लेना है सासू माँ के अचार डालने को सौंफ और कलौंजी । और सुबह का टिफिन पैक करने को अल्यूमीनियम फ़ॉएल ।
Thursday, July 26, 2007
ढेला और पत्ती
बाल उद्यान पर पढिये ढेले और पत्ती की कहानी ।साथ ही यह अनुरोध भी कि आप अपने बच्चों के बनाए चित्र या उनकी लिखी कविता या कोई भी चटपटी बात जो उनके नन्हे मुख से निकल कर हमें गुदगुदा जाती है --मुझे या बाल उद्यान के किसी अन्य सदस्य को ई-मेल के ज़रिये भेजिये । हमे उसे प्रकाशित कर प्रसन्नता होगी ।
मर्दवादी समाज और व्यवस्था का एक और उदाहरण
अभी असीमा पर बात करते करते मुद्दे पूरी तरह उठे भी नही हैं ,पूजा चौहान के प्रतिरोध के प्रतीकों को समझा भी नही गया है कि एक और उदाहरण पेश है मर्दवादी समाज और व्यवस्था का हमारे सामने ‘किरण बेदी’ के रूप मे जो दिल्ली की कमिश्नर बनने की दौड में पीछे धकेल दी गयीं हैं ।‘अ वूमेन हू डेयर्स ‘।डॆयरिंग वूमेन के लिए हमारे समाज के पास गालियाँ और ताने हैं तो व्यवस्था के पास भी अपने हथियार है ।क्योंकि निर्णय लेने की स्थिति जब पुरुष की होगी तो निश्चित रूप से वह व्यवस्था के और अपने हित में एक पुरुष को ही चुनेगा ।आज राष्ट्र की पहली महिला राष्ट्रपति जब कमान सम्भाल रही हैं तो किरण बेदी –देश की पहली महिला आई.पी.एस को देश ने निराश किया है ।असीमा जब मुँह खोलती है तो अकेली पड जाती है ।गालियों और धमकियों की शिकार होती है । क्या मायने यह है कि जब भी पुरुषवादी व्यवस्था मे महिला हिम्मत करेगी तो उसे मुँह की खानी होगी ?मेरी सोच गलत है तो यह भी बताया जाए कि किरण बेदी के साथ हुए अन्याय को हम किस दृष्टि से देखें? क्या यह सर उठाती स्त्री से मर्दवादी व्यवस्था की ईर्ष्या ?? राष्ट्रपति चुनाव में प्रतिभा पाटिल को भी तो मोहरा बनाया गया है राजनीति का ।इसे महिला-सम्मान और सशक्तिकरण की नज़र से दिखाया जा रहा है ताकि पीछे की राजनीति को ढँका जा सके ।अत्यंत खेद की बात है कि आज तक भी हम स्त्रियों को मोहरा बना रहे हैं या रास्ते से बडी चालाकी से हटा रहे हैं ।डर है अपनी सालो की सत्ता के खोने का ?
याद करना होगा कि यह वही दिल्ली पुलिस है जो लडकियों से छेडछाड को रोकने के लिए अपने विज्ञापनो में समाज के मर्दों का आहवान करती है ।जिस विभाग की मानसिकता समाज की स्त्रियों के लिए ऐसी है वह विभाग की स्त्रियों के लिए क्या सोचता होगा यह अनुमान लगाया जा सकता है ।
किरण बेदी से दो साल जूनियर युद्ध वीर सिह को दिल्ली का कमिश्नर बनाया गया है ।वे २००९ मे रिटायर होन्गे और किरण बेदी तब तक रिटायर हो चुकी होन्गी । मेरिट और सीनियॊरिटी ---किसआधार पर यह फ़ैसला लिया गया है क्या यह जानने का कष्ट महिला सशक्तिकरण की दुहाई देने वाली सरकार करेगी ? क्या आम जनता को नही लगता कि यहां कुछ गलत हुआ है ?
जब भी यह सोचने की कोशिश करो कि ’सब ठीक ही है शायद ’तभी एक प्रमाण मिल जाता है सब गलत होने का ।अपनी बेटियो को किरण बेदी बनाने के ख्वाब देखने वाले माता-पिता शायद अब कभी ऐसा ख्वाब देखने की बेवकूफ़ी नही करेन्गे । शायद इससे बेहतर वे अपनी बेटी को ऐसे अफ़सर से ब्याहना ज़्यादा पसन्द करेन्गे !!सवाल उठ रहे है लगातार तब तक जब तक कि सवालो का अन्तहीन सिलसिला सत्ता के एकाधिपतियो को आतन्कित न कर दे ।
याद करना होगा कि यह वही दिल्ली पुलिस है जो लडकियों से छेडछाड को रोकने के लिए अपने विज्ञापनो में समाज के मर्दों का आहवान करती है ।जिस विभाग की मानसिकता समाज की स्त्रियों के लिए ऐसी है वह विभाग की स्त्रियों के लिए क्या सोचता होगा यह अनुमान लगाया जा सकता है ।
किरण बेदी से दो साल जूनियर युद्ध वीर सिह को दिल्ली का कमिश्नर बनाया गया है ।वे २००९ मे रिटायर होन्गे और किरण बेदी तब तक रिटायर हो चुकी होन्गी । मेरिट और सीनियॊरिटी ---किसआधार पर यह फ़ैसला लिया गया है क्या यह जानने का कष्ट महिला सशक्तिकरण की दुहाई देने वाली सरकार करेगी ? क्या आम जनता को नही लगता कि यहां कुछ गलत हुआ है ?
जब भी यह सोचने की कोशिश करो कि ’सब ठीक ही है शायद ’तभी एक प्रमाण मिल जाता है सब गलत होने का ।अपनी बेटियो को किरण बेदी बनाने के ख्वाब देखने वाले माता-पिता शायद अब कभी ऐसा ख्वाब देखने की बेवकूफ़ी नही करेन्गे । शायद इससे बेहतर वे अपनी बेटी को ऐसे अफ़सर से ब्याहना ज़्यादा पसन्द करेन्गे !!सवाल उठ रहे है लगातार तब तक जब तक कि सवालो का अन्तहीन सिलसिला सत्ता के एकाधिपतियो को आतन्कित न कर दे ।
Monday, July 23, 2007
निजी कितना निजी है और कब तक ?कवि कितना मानव है ?
एक बार हमने लिखा था कि पुरुष आमतौर पर एक प्रोग्रेसिव पत्नी नही चाहते। पत्नी प्रोग्रेसिव अच्छी तो लगती है ,मगर दूसरे की । किसी व्यक्ति की जिन खूबियों की वजह से हम उससे प्रेम करने लगते हैं ,विवाह के बाद वही हमें अपनी दुश्मन जान पडती हैं ।सो प्रेमिका की प्रोग्रेसिव बातें मनमोहिनी होती हैं, वो लडकी सबसे अलग लगती है जिसे आप पसन्द करने लगते हैं ।वही पत्नी बन जाए तो पुरुष सबसे पहले उसी खूबी को,बोल्डनेस ,स्मार्टनेस, प्रोग्रेसिव थिंकिंग को समाप्त करने की चेष्टाएँ शुरु कर देता है ।विवाह के बाद वह अचानक चाहने लगेगा कि मेरी पत्नी मेरे माता-पिता के पैर छुए,उनकी इज़्ज़त में अपना सर पल्लू से ढँके, मेरे परिवार को अपने कामों पर तर्जीह दे,पलट कर जवाब न दे,शांति बनाए रखने के लिए जो जैसा है उसे वैसा चलने दे । यह स्थिति पत्नियों के साथ भी है ।किसी पेंटर को उसकी कला की वजह से पसन्द किया विवाह किया ,बाद में वही पेंटिंग अपनी सौत लगने लगती है ।
लेकिन यहाँ अंतर इतना आ जाता है कि पत्नी की चाहत और मांगें अपने लिए होती हैं ।अपने परिवार और समाज के लिए नही ।उसे वक्त चाहिये –अपने लिए ।ध्यान चाहिये –अपनी ओर ।कंसर्न चाहिये –खुद के लिए ।परिवार को तो वह छोड ही चुकी होती है ।कई बार विरोध सह कर विवाह करने पर समाज को भी नकार चुकी होती है । इस मायने मे स्त्री पुरुष से ज़्यादा मनोबल और ईमानदार इरादे लिए होती है । परिवार को छोड भी दे कोई पुरुष तो उसका मोह कभी नही छूटता और समाज से उसकी लडाई केवल इच्छा से विवाह करने तक ही रहती है ।विवाह के बाद वह खुद समाज के दबावों मे जीता है और परमपरा सम्मत जीवन चलाना चाह्ता है ।
कोई दो लोग क्यो प्रेम करते है,विवाह करते है ,सम्बन्ध-विच्छेद करते हैं यह उनका नितांत निजी मसला होता है ।माना ।लेकिन सिर्फ तब तक जब तक कि वहाँ भावनत्मक उत्पीडन ,मानसिक शोषण ,असमानता और धोखा नही है ।दो प्रेमियों का रिश्ता जब केवल स्त्री-पुरुष स्तरीकरण के समीकरण में जीने लगता है तो वह पूरी स्त्री जाति और पुरुष जाति की समस्या हो जाती है ।पिटना –पीटा जाना ,भावनात्मक ब्लैकमेलिंग करना,धोखे मे रखना ,किसी भी स्त्री-पुरुष का निजी मसला नही रह जाता ।असीमा भट्ट को अभिव्यक्ति का मंच मिला यह अच्छा ही है। वर्ना अर्चना जैसी कई लडकियाँ इस ‘निजी ‘के दर्द को कभी अभिव्यक्त नही करतीं और रिश्ते की मर्यादा साथ लेकर घर के पंखे से लटक जाती हैं, बिना एक भी सबूत छोडे दोषियों के खिलाफ । शक ,डर , दबाव ,उत्पीडन को मर्यादा के नाम पर क्योंकर दफ्न रखना चाहिये ?क्या हम केवल आत्महत्या का उपाय ही छोडना चाह्ते हैं स्त्री के लिए ?पूजा चौहान भी अभद्र है ।असीमा रिश्ते के निजी पक्षों को समाज के बीच उछाल रही है ।अगर वे आत्महत्या कर लेतीं तो हम कभी नही जान पाते कि ये दो लोगों के निजी रिश्ते कितने कुरूप हो सकते है ।अर्चना का ज़िक्र मसिजीवी ने अपनी एक पोस्ट में किया था ।अगर वह शर्मसार होने से बचने की कोशिश न करती और पति के दुर्व्यवहार को कभी बयान करती तो शायद उसकी मृत्यु के बाद ही सही ,वह पति सलाखों के पीछे होता ।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी । सच अपने सम्पूण रूप मे कुछ नही होता । वह विखंडित है ।सच के कई पहलू होते हैं ।लेकिन इन विखंडित सत्यों के बीच हमें अपने सच का एक चेहरा बनाना होता है । यह सच का हमारा निजी पाठ है ।असीमा का सच अगर सच का एक पहलू है तो भी वह भयानक है । साथ ही वह घुटने –कुढने की बजाय कह देने की राह दिखाता है ।जो किसी हाल में गलत नही है । चुप्पी की परम्परा से कहीं बेहतर है जो आत्महत्या की ओर ले जाती है
एक और बात । सत्य और सौन्दर्य हम सभी देखते हैं । साहित्यकार ही उसे कह पाता है ।क्योंकि वह सम्वेदनशीलता के साथ और भीतरी नज़र से देखता है ।वह कार्यों व्यवहारों को उनके कारण सहित पकडना चाहता है । उसकी सम्वेदनशीलता मानव विशेष के लिए नही सामान्य के लिए होती है । इसलिए उसके लेखन और जीवन में विरोध दिखाई दे तो हमें उसके लेखन ही नही उसकी सम्वेदन शीलता पर भी शक करना होगा ।अभय जी ने लिखा
‘’ यह उम्मीद पाल लेना कि उच्च सौन्दर्य बोध की रचनाएं करने वाला कवि अपने निजी जीवन के हर क्षण में उसी उच्च संवेदना से संचालित होगा और एक अतिमानव की भाँति सारे क्लेश-द्वेष से मुक्त होगा.. ऐसी कल्पना ही कवि की मनुष्यता के साथ अन्याय है.. आखिर कवि मनुष्य ही तो है.. कोई संत तो नहीं..”
बेशक ।वह भी मनुष्य है ।आचार्य रामचन्द्र शुकल ने लिखा था कि कविता का लक्ष्य है ---मनुष्यता की रक्षा करना ।तो हम उस कवि से मानव होने की ही उम्मीद कर रहे है ।वह अति मानव न हो । पर कम से कम अमानवीय तो न हो जाए ।सडक के भिखारी को भीख देना और घर के भीतर नौकर को पीटना ----क्या यह मानवीयता ही है ?
कवि को कम से कम मानव के ओहदे से तो नीचे नही गिरना चाहिये ।
बाकि आगे कहूंगी अभी तो इतना ही ...................
लेकिन यहाँ अंतर इतना आ जाता है कि पत्नी की चाहत और मांगें अपने लिए होती हैं ।अपने परिवार और समाज के लिए नही ।उसे वक्त चाहिये –अपने लिए ।ध्यान चाहिये –अपनी ओर ।कंसर्न चाहिये –खुद के लिए ।परिवार को तो वह छोड ही चुकी होती है ।कई बार विरोध सह कर विवाह करने पर समाज को भी नकार चुकी होती है । इस मायने मे स्त्री पुरुष से ज़्यादा मनोबल और ईमानदार इरादे लिए होती है । परिवार को छोड भी दे कोई पुरुष तो उसका मोह कभी नही छूटता और समाज से उसकी लडाई केवल इच्छा से विवाह करने तक ही रहती है ।विवाह के बाद वह खुद समाज के दबावों मे जीता है और परमपरा सम्मत जीवन चलाना चाह्ता है ।
कोई दो लोग क्यो प्रेम करते है,विवाह करते है ,सम्बन्ध-विच्छेद करते हैं यह उनका नितांत निजी मसला होता है ।माना ।लेकिन सिर्फ तब तक जब तक कि वहाँ भावनत्मक उत्पीडन ,मानसिक शोषण ,असमानता और धोखा नही है ।दो प्रेमियों का रिश्ता जब केवल स्त्री-पुरुष स्तरीकरण के समीकरण में जीने लगता है तो वह पूरी स्त्री जाति और पुरुष जाति की समस्या हो जाती है ।पिटना –पीटा जाना ,भावनात्मक ब्लैकमेलिंग करना,धोखे मे रखना ,किसी भी स्त्री-पुरुष का निजी मसला नही रह जाता ।असीमा भट्ट को अभिव्यक्ति का मंच मिला यह अच्छा ही है। वर्ना अर्चना जैसी कई लडकियाँ इस ‘निजी ‘के दर्द को कभी अभिव्यक्त नही करतीं और रिश्ते की मर्यादा साथ लेकर घर के पंखे से लटक जाती हैं, बिना एक भी सबूत छोडे दोषियों के खिलाफ । शक ,डर , दबाव ,उत्पीडन को मर्यादा के नाम पर क्योंकर दफ्न रखना चाहिये ?क्या हम केवल आत्महत्या का उपाय ही छोडना चाह्ते हैं स्त्री के लिए ?पूजा चौहान भी अभद्र है ।असीमा रिश्ते के निजी पक्षों को समाज के बीच उछाल रही है ।अगर वे आत्महत्या कर लेतीं तो हम कभी नही जान पाते कि ये दो लोगों के निजी रिश्ते कितने कुरूप हो सकते है ।अर्चना का ज़िक्र मसिजीवी ने अपनी एक पोस्ट में किया था ।अगर वह शर्मसार होने से बचने की कोशिश न करती और पति के दुर्व्यवहार को कभी बयान करती तो शायद उसकी मृत्यु के बाद ही सही ,वह पति सलाखों के पीछे होता ।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी । सच अपने सम्पूण रूप मे कुछ नही होता । वह विखंडित है ।सच के कई पहलू होते हैं ।लेकिन इन विखंडित सत्यों के बीच हमें अपने सच का एक चेहरा बनाना होता है । यह सच का हमारा निजी पाठ है ।असीमा का सच अगर सच का एक पहलू है तो भी वह भयानक है । साथ ही वह घुटने –कुढने की बजाय कह देने की राह दिखाता है ।जो किसी हाल में गलत नही है । चुप्पी की परम्परा से कहीं बेहतर है जो आत्महत्या की ओर ले जाती है
एक और बात । सत्य और सौन्दर्य हम सभी देखते हैं । साहित्यकार ही उसे कह पाता है ।क्योंकि वह सम्वेदनशीलता के साथ और भीतरी नज़र से देखता है ।वह कार्यों व्यवहारों को उनके कारण सहित पकडना चाहता है । उसकी सम्वेदनशीलता मानव विशेष के लिए नही सामान्य के लिए होती है । इसलिए उसके लेखन और जीवन में विरोध दिखाई दे तो हमें उसके लेखन ही नही उसकी सम्वेदन शीलता पर भी शक करना होगा ।अभय जी ने लिखा
‘’ यह उम्मीद पाल लेना कि उच्च सौन्दर्य बोध की रचनाएं करने वाला कवि अपने निजी जीवन के हर क्षण में उसी उच्च संवेदना से संचालित होगा और एक अतिमानव की भाँति सारे क्लेश-द्वेष से मुक्त होगा.. ऐसी कल्पना ही कवि की मनुष्यता के साथ अन्याय है.. आखिर कवि मनुष्य ही तो है.. कोई संत तो नहीं..”
बेशक ।वह भी मनुष्य है ।आचार्य रामचन्द्र शुकल ने लिखा था कि कविता का लक्ष्य है ---मनुष्यता की रक्षा करना ।तो हम उस कवि से मानव होने की ही उम्मीद कर रहे है ।वह अति मानव न हो । पर कम से कम अमानवीय तो न हो जाए ।सडक के भिखारी को भीख देना और घर के भीतर नौकर को पीटना ----क्या यह मानवीयता ही है ?
कवि को कम से कम मानव के ओहदे से तो नीचे नही गिरना चाहिये ।
बाकि आगे कहूंगी अभी तो इतना ही ...................
Saturday, July 21, 2007
पुल के नीचे
अगर मै गलत नही हूँ तो सुदर्शन की कहानी ही है “हार की जीत” ,बचपन मे पढा करते थे ।बाबा भारती का घोडा सुल्तान जिसकी चाह्त मे था डाकू खडक सिँह ।वह कहानी एक कारण से हमेशा याद रह जाती है ।कोढी,भिखारी के भेस मे खडक सिँह जब बाबा भारती को चकमा देकर सुल्तान को ले भागता है तो बाबा कहते है –“मेरी एक विनति सुनते जाओ ! जो तुमने मेरे साथ किया उसका ज़िक्र किसी से न करना । वर्ना लोग किसी असहाय की मदद करने से कतराएँगे ।“ लेकिन खडग सिँह ने किसी से कहा या नही यह तो नही बता सकती लेकिन यह सबको मालूम हो गया जाने कैसे ।आज हम किसी की मदद करने से पहले सौ बार सोचते है ,कोई पतली गली ढूँढने लग जाते हैं।एक किस्म के लोग इस द्वन्द्व में पडते ही नही ।उनकी बहुत स्पष्ट सोच होती है ।एक तीसरी किस्म के लोग ऐसे दृश्य सिर्फ फिल्मो मे ही देखते हैं ।उनकी गाडी कभी उन मोडों से नही गुज़रती जहाँ भिखारियों के झुण्ड हैं ।एक किस्म और है उन लोगों की जो भीख देकर अपने कद को थोडा और बढा महसूस करते हैं ।
दिल्ली के अधिकतर ट्रैफिक सिग्नल भिखारियों के किसी न किसी गिरोह के इलाकें हैं जिनकी हदें और लक्ष्य साफ तौर पर निर्धारित हैं ।मै भयभीत रहती हूँ जब मूलचन्द की रेड लाइट पर रुकते ही दो औरतें गोद में नवजात शिशु और एक हाथ में दूध की मैली –गन्दी-खाली बोतल लिए ,भावशून्य चेहरे के साथ बुदबुदाती हुई तब तक खडी रहती है जब तक आप उसे वहाँ से हट जाने को कह न दें ।इनमें एक को उसकी गर्भावस्था से ही देख रही हूँ ।वह सडक से एक हफ्ता गायब रही ।वापस लौटी एक नन्ही जान के साथ।हैरानी तब होती है जब हरी बत्ती होते ही आप इन्हे लडते-खिलखिलाते अपने अड्डों की ओर लौटते हुए देखें।मै मूलचन्द के इस चौराहे पर रुकने से घबराती हूँ ।मेरे सामने वे नवजात शिशु जो पैदा हो रहे है और सहज ही भिखारियों की नई पीढी मे शामिल हो रहे है :कुपोषित ,सम्वेदना से रहित ,इज़्ज़त और नैतिकता की अवधारणाओं से नितांत अनजान्,विकास की किसी मुख्यधारा मे समाहित हो सकने के किसी भी सम्भावना से परे ,अपराध की ओर प्रेरित ,भूख के दायरे मे सोचने वाले और समाज को गाली भरी नज़रों से घूरते हुए ।शहर के भूगोल मे पुलों के नीचे बसी यह “गन्दगी" दिल्ली के सिटी ऑफ फ्लाईओवर्स बनने के साथ साथ एक और समानांतर सिटी की रचना कर रही है जिससे हम बचना चाह्ते है ,जिसे देखते ही हम चेहरे सिकोड लेते हैं । कुछ समय पहले चित्रा मुदगल की कहानी “भूख” पढी थी :मार्मिक ।रोंगटे खडी करने वाली ।एक असहाय स्त्री जिसके पास एक नवजात शिशु के अलावा दो और बच्चे, अस्पताल मे पडा घायल पति है और रोज़गार का कोई ज़रिया नही क्योंकि गोद के बच्चे वाली स्त्री को कोई काम कैसे दे ।वह एक ऐसी स्त्री को अपना बच्चा दिन भर के लिए उधार देती है जो भिखारिन है ।भिखारिन माँ को आश्वासन देती है कि बच्चे को वह दूध देगी ।लेकिन पेट भरेगा तो बच्चा रोएगा कैसे ।वह रोएगा नही तो साहबों के दिल कैसे पिघलेंगे ।सो दिन भर् वह भिखारिन बच्चे को भूखा रख कर रुलाती और पैसे मांगती ।बच्चे की माँ मजदूरी करके घर मे बाकी बच्चॉ के लिए भोजन जुटाती ।शाम को भिखारिन जब बच्चा लौटाती तब तक वह रो रोकर थक चुका होता और अक्सर सो जाता । एक दिन वह बच्चा लौटा कर जाती है रोती हालत मे ।माँ नही जानती कि वह भूखा है। वह भात की पतीली की ओर बढता है तो वह उसे चंटा देती है ।कई दिन के भूखे शिशु का शरीर सह नही पाता । वह उसे अस्पताल लेकर दौडती है ।लेकिन व्यर्थ!डाक्टरनी कहती है –“बच्चे को भूखा रखती थी क्या ? उसकी आंते चिपक गयीं ,सूख गयीं ।मार दिया भूखा रख -रख कर ।“
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“भिक्षावृत्ति “यानी भीख मांगना एक पेशा है ।अधिकतर् भिखारी पेशेवर भिखारी हैं और उनके इस पेशे में एक टूल की तरह इस्तेमाल होने वाली मानवीय सम्वेदनाएँ हैं । सवाल बहुत बडे बडे हैं जिन्हे हम उठने ही नही देते। भीख देकर हम वहीं कर्तव्य समाप्त समझते हैं :फिर चाहे वह भीख देने वाले हम हों या खुद सरकार ।राज्य की ज़िम्मेदारी यहाँ समाज की ज़िम्मेदारी से ज़्यादा बडी है ।
“कफन “के घीसू-माधव जैसों के बारे में सोचने की प्रक्रिया शुरू करने का जो बीडा प्रेमचन्द ने लिया वह चित्रा मुदगल तक आते आते एक बडी सच्चाई हो जाता है ।लेकिन व्यवस्था वहीं की वहीं है ।समाज और राज्य की संरचना में ये हाशिये पहले से भी ज़्यादा उभर कर दिखाई दे रहे हैं । मानवीय सम्वेदनाएँ खो रही हैं दोनो ओर – भीख मांगने वालों मे और देने वालों में ।‘कफन’ में प्रसव पीडा में माधव की पत्नी का कोठरी मे उपेक्षित रह कर दम तोडना और बाहर बैठ कर बाप-बेटे का आलू भून -भून कर खाना ,इस डर से उठ कर अन्दर बहू के पास न जाना कि कही दूसरा ज़्यादा आलू न खा जाए -----एक ऐसा घृणित चित्र उभारता है कि पाठक हतप्रभ और अवाक रह जाने के अलावा कुछ सोच नही पाता ।यहाँ मानवीयता शर्मसार होती है ;राज्य –समाज और व्यवस्था प्रश्नचिह्नित होती हैं।प्रेमचन्द लिखते हैं---“जिस समाज में रात –दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी [घीसू-माधव] हालत् से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे ,कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे ,वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी “
जिस समाज और व्यवस्था मे “मजूरी कोई करे और मज़ा कोई और लूटे “वाली स्थिति होगी वहाँ पेशेवर भिखारी और घीसू-माधव कैसे न होंगे ।
दिल्ली के अधिकतर ट्रैफिक सिग्नल भिखारियों के किसी न किसी गिरोह के इलाकें हैं जिनकी हदें और लक्ष्य साफ तौर पर निर्धारित हैं ।मै भयभीत रहती हूँ जब मूलचन्द की रेड लाइट पर रुकते ही दो औरतें गोद में नवजात शिशु और एक हाथ में दूध की मैली –गन्दी-खाली बोतल लिए ,भावशून्य चेहरे के साथ बुदबुदाती हुई तब तक खडी रहती है जब तक आप उसे वहाँ से हट जाने को कह न दें ।इनमें एक को उसकी गर्भावस्था से ही देख रही हूँ ।वह सडक से एक हफ्ता गायब रही ।वापस लौटी एक नन्ही जान के साथ।हैरानी तब होती है जब हरी बत्ती होते ही आप इन्हे लडते-खिलखिलाते अपने अड्डों की ओर लौटते हुए देखें।मै मूलचन्द के इस चौराहे पर रुकने से घबराती हूँ ।मेरे सामने वे नवजात शिशु जो पैदा हो रहे है और सहज ही भिखारियों की नई पीढी मे शामिल हो रहे है :कुपोषित ,सम्वेदना से रहित ,इज़्ज़त और नैतिकता की अवधारणाओं से नितांत अनजान्,विकास की किसी मुख्यधारा मे समाहित हो सकने के किसी भी सम्भावना से परे ,अपराध की ओर प्रेरित ,भूख के दायरे मे सोचने वाले और समाज को गाली भरी नज़रों से घूरते हुए ।शहर के भूगोल मे पुलों के नीचे बसी यह “गन्दगी" दिल्ली के सिटी ऑफ फ्लाईओवर्स बनने के साथ साथ एक और समानांतर सिटी की रचना कर रही है जिससे हम बचना चाह्ते है ,जिसे देखते ही हम चेहरे सिकोड लेते हैं । कुछ समय पहले चित्रा मुदगल की कहानी “भूख” पढी थी :मार्मिक ।रोंगटे खडी करने वाली ।एक असहाय स्त्री जिसके पास एक नवजात शिशु के अलावा दो और बच्चे, अस्पताल मे पडा घायल पति है और रोज़गार का कोई ज़रिया नही क्योंकि गोद के बच्चे वाली स्त्री को कोई काम कैसे दे ।वह एक ऐसी स्त्री को अपना बच्चा दिन भर के लिए उधार देती है जो भिखारिन है ।भिखारिन माँ को आश्वासन देती है कि बच्चे को वह दूध देगी ।लेकिन पेट भरेगा तो बच्चा रोएगा कैसे ।वह रोएगा नही तो साहबों के दिल कैसे पिघलेंगे ।सो दिन भर् वह भिखारिन बच्चे को भूखा रख कर रुलाती और पैसे मांगती ।बच्चे की माँ मजदूरी करके घर मे बाकी बच्चॉ के लिए भोजन जुटाती ।शाम को भिखारिन जब बच्चा लौटाती तब तक वह रो रोकर थक चुका होता और अक्सर सो जाता । एक दिन वह बच्चा लौटा कर जाती है रोती हालत मे ।माँ नही जानती कि वह भूखा है। वह भात की पतीली की ओर बढता है तो वह उसे चंटा देती है ।कई दिन के भूखे शिशु का शरीर सह नही पाता । वह उसे अस्पताल लेकर दौडती है ।लेकिन व्यर्थ!डाक्टरनी कहती है –“बच्चे को भूखा रखती थी क्या ? उसकी आंते चिपक गयीं ,सूख गयीं ।मार दिया भूखा रख -रख कर ।“
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“भिक्षावृत्ति “यानी भीख मांगना एक पेशा है ।अधिकतर् भिखारी पेशेवर भिखारी हैं और उनके इस पेशे में एक टूल की तरह इस्तेमाल होने वाली मानवीय सम्वेदनाएँ हैं । सवाल बहुत बडे बडे हैं जिन्हे हम उठने ही नही देते। भीख देकर हम वहीं कर्तव्य समाप्त समझते हैं :फिर चाहे वह भीख देने वाले हम हों या खुद सरकार ।राज्य की ज़िम्मेदारी यहाँ समाज की ज़िम्मेदारी से ज़्यादा बडी है ।
“कफन “के घीसू-माधव जैसों के बारे में सोचने की प्रक्रिया शुरू करने का जो बीडा प्रेमचन्द ने लिया वह चित्रा मुदगल तक आते आते एक बडी सच्चाई हो जाता है ।लेकिन व्यवस्था वहीं की वहीं है ।समाज और राज्य की संरचना में ये हाशिये पहले से भी ज़्यादा उभर कर दिखाई दे रहे हैं । मानवीय सम्वेदनाएँ खो रही हैं दोनो ओर – भीख मांगने वालों मे और देने वालों में ।‘कफन’ में प्रसव पीडा में माधव की पत्नी का कोठरी मे उपेक्षित रह कर दम तोडना और बाहर बैठ कर बाप-बेटे का आलू भून -भून कर खाना ,इस डर से उठ कर अन्दर बहू के पास न जाना कि कही दूसरा ज़्यादा आलू न खा जाए -----एक ऐसा घृणित चित्र उभारता है कि पाठक हतप्रभ और अवाक रह जाने के अलावा कुछ सोच नही पाता ।यहाँ मानवीयता शर्मसार होती है ;राज्य –समाज और व्यवस्था प्रश्नचिह्नित होती हैं।प्रेमचन्द लिखते हैं---“जिस समाज में रात –दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी [घीसू-माधव] हालत् से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे ,कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे ,वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी “
जिस समाज और व्यवस्था मे “मजूरी कोई करे और मज़ा कोई और लूटे “वाली स्थिति होगी वहाँ पेशेवर भिखारी और घीसू-माधव कैसे न होंगे ।
Friday, July 13, 2007
हैरी पोटर का बाज़ार और फीनिक्स का ऑर्डर !!
हरी पुत्तर का बाज़ार फिर से गर्म है और जे के राउलिंग ने इस महान सीरीज़ के आखरी सातवें उपन्यास को 21 जुलाई को बाज़ार मे उतारने का फैसला कर लिया है ।किताब से फिल्म की ओर बढी हरी पुत्तर की क्रेज़ ने मास हिस्टीरिया की स्थिति अख्तियार कर ली है ।जादू और अय्यारी का एक युग शुरु हुआ था चन्द्रकांता के साथ ।उसे बीते एक शताब्दी हो गयी है ।चन्द्रकांता ने आरम्भिक अवस्था के हिन्दी गद्य का बडा उपकार किया था।पर उस तिलिस्म से निकलने मे हिन्दी की रीतिकालीन प्रवृत्तियों को काफी समय लगा कि यहा फिर लौट कर आयी है जादू और फंतासी लेकर हैरी पोटर !पर चूंकि यह पस्चिम का तिलिस्म है सो इसे बकवास नही माना जाए प्लीज़ ! ।ढेर् सारा थ्रिल्ल और एडवेंचर के साथ साथ इस बार हैरी पोटर मे रोमांस को भी एड कर दिया गया है ।यानी 18 वर्षीय हीरो का पहला किस्स ऑर्डर ऑफ फेनिक्स मे मिलेगा ।आखिर हैरी अब बडा हो गया है ।और वैसे भी वह सिर्फ बच्चो की पसन्द नही है बलकि25-26 वर्षीय युवा भी उसके दीवाने है।शायद उन्ही के लिए यह किस खास तौर से रखी गयी है ।यूँ भी हैरी पिछले 8-10 वर्षो मे युवा हो गया है।तो यह स्वाभाविक ही था ।इसलिए जहा तक यह कहा जा रहा है कि यह किताब की फिल्म जगत पर विजय है तो मुझे कहना होगा कि फिल्म और किताब दोनो का गठबन्धन करने वाले बाज़ार और इसका प्रसार करने वाले संचार-तंत्र की विजय है यह । यह दीवानापन ,कहना पडेगा कि साफतौर पर मार्किट जेनेरेटिड है ।जिस देश के लोग सुनीता विलियम्स को ज़बर्दस्ती भारतीय मान कर माथे पर उसका नाम गुदवा सकते है वे बाज़ार या मीडिया जेनेरेटिड किसी भी क्रेज़ मे गर्व से शामिल होते हैं ।हैरी का विज्ञापन करने मे कोई पीछे नही है ।एच ,टी ने अपना एक पूरा पृष्ठ समर्पित् किया है हैरी को । हैरी पोटर क्विज़ ,हैरी पोटर टी शर्ट ,हैरी पोटर की जादुई छडी ,पोस्टर ...और न जाने क्या क्या 1पूरा बाज़ार हैरी मय है ।हैरी को पढना उसकी शब्दावली से परिचित होना और उसकी लेटेस्ट फिल्म देखना बच्चो के बीच स्टैंडर्ड का मुद्दा है ।यह अमरीका की मुख्यधारा मे सीधा शामिल हो जाने का सिम्बल है ।आप हैरी पोटर नही पढते तो आप पिछडे हुए ,गंवार आउटडेटिड् हैं ।हम तो अब तक भी मिट्टी के ढेले और आमकी पत्ती की कहानी सुना रहे है । हाफ ब्लड प्रिंस ,वोल्देमोर्ट डम्बल्डोर हर्माइनी कैसे कैसे नाम !पुनर्निवास कालोनी मे बने किसी सरकारी स्कूल् के बालक से पूछ लीजिए कौन है हैरी पोटर ?
इतने बडे स्तर पर जे के राउलिंग का बाज़ार मुझे हमेशा से हैरान करता रहा है । क्या वाकई हैरी पोटर एक महान धारावाहिक उपन्यास है ?
Thursday, July 12, 2007
अपना ब्लॉग हिट करें !
आज तक न जाने कितने लोगों ने हमें अपना ब्लॉग हिट करने के तरीके बताए ।पंगेबाज जी ने तो किसी के जूते उधार लेकर और उन्हे दिखा दिखा कर हिट होने के 5 तरीके बताए ।उनके एक तरीके को आलोक जी पूरी निष्ठा से फॉलो कर रहे हैं। कैसे ?अजी जा कर देखिये आजकल उनकी हर पोस्ट ब्रह्म मुहूर्त में 4 से 6 बजे के बीच प्रकाशित होती है और उनका खिलता चेहरा सारा दिन नारद पर दिखलाई देता रहता है ।और समीर जी ने ‘मान गये कवि “ को हिट करने का राज़ भी बताया ही था । ऐरी गैरी नही विशेषज्ञों की टिप्पणीयाँ पाने के तरीके भी टिप्पेषणा-पीडितों के लिए रवि जी ने बतलाए है ।इतना ही नही-उनकी इस निस्वार्थ हिन्दी सेवा मे--------
"दूसरों के चिट्ठों पर डलवाने हेतु असभ्य, गाली-गलौज वाली टिप्पणियों हेतु प्रीमियम सेवा भी उपलब्ध है."
पर ध्यान रहे------
" इसके लिए ऊपर दिए रेट में ढाई सौ प्रतिशत प्रीमियम लिया जावेगा."
तो ई तो ठहरा महन्गा सौदा ।अब हम भी कुछेक किफ़ायती ,घरेलू नुस्खे बता देते हैं । वैसे बताने नही वाले थे । पर ये नुस्खे भी ब्लॉग हिट करवा सकते है ।क्यों ? तो कद्रदान !मेहरबान !
* हिट दोप्रकार के उपलब्ध हैं –काला हिट और लाल हिट । काला वाला है मच्छरों के लिए और लाल वाला कॉक्रोचिज़ के लिए ।यू नो ?तो पहले यह डिसाएड कीजिए कि आप किस श्रेणी में हैं ।
@इसका इस्तेमाल बडा आसान है ।अपना ब्लॉग खोलिए ।हिट का कैप हटाइए । स्प्रे कीजिए । ज़्यादा असर के लिए यही क्रिया दोहराइए । *दूसरा हिट करने का तरीका – जितना ज़ोर से हिट करना हो उतना ही दमदार जूता [गोला शू ,भीगा चमडे का जूता , खटारा पनहिया ,या कोमल मन वाले हो तो जनानी जुत्ती भी ले सकते हो ] अब अपना ब्लॉग खोलिए और ‘’’पटैक .............##@@ ज़ोर से हिट करिए ।जितना चाहे उतना हिट करिए ,करते रहिए जब तक कि सबसे ज़्यादा हिट वाले ब्लॉगर न बन जाएँ ।
****इन नुस्खों की खासियत यह है कि ये स्वावलम्बन की प्रेरणा उत्पन्न करते हैं । आपको अपना ब्लॉग हिट करने के लिए किसी की टिप्पणियो की ,किसी लोकप्रियता सूची की ,सक्रियता क्रम की या किसी भी धडाधड स्वामी की ज़रूरत नही पडेगी ।यानी हिटिंग में टोटल आत्मनिर्भरता ! **** आप निश्चिंत होकर”””” ब्लॉगिंग फॉर ब्लॉगिंग सेक”” कर सकते है । किसी से रिश्तेदारी बढाए बिना ,फालतू मे औपचारिअकता दिखाए बिना । केवल वह कह सकते है जो कहना चाहते हैं ।इससे भाई-चारा निभाने की आवश्यकता खत्म होती है ।
**ब्ळागुनिया -----सारी! ----चिकन्गुनिया से अपने ब्लाग की हिफ़ाज़त करें।
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तो ई तो ठहरा महन्गा सौदा ।अब हम भी कुछेक किफ़ायती ,घरेलू नुस्खे बता देते हैं । वैसे बताने नही वाले थे । पर ये नुस्खे भी ब्लॉग हिट करवा सकते है ।क्यों ? तो कद्रदान !मेहरबान !
* हिट दोप्रकार के उपलब्ध हैं –काला हिट और लाल हिट । काला वाला है मच्छरों के लिए और लाल वाला कॉक्रोचिज़ के लिए ।यू नो ?तो पहले यह डिसाएड कीजिए कि आप किस श्रेणी में हैं ।
@इसका इस्तेमाल बडा आसान है ।अपना ब्लॉग खोलिए ।हिट का कैप हटाइए । स्प्रे कीजिए । ज़्यादा असर के लिए यही क्रिया दोहराइए । *दूसरा हिट करने का तरीका – जितना ज़ोर से हिट करना हो उतना ही दमदार जूता [गोला शू ,भीगा चमडे का जूता , खटारा पनहिया ,या कोमल मन वाले हो तो जनानी जुत्ती भी ले सकते हो ] अब अपना ब्लॉग खोलिए और ‘’’पटैक .............##@@ ज़ोर से हिट करिए ।जितना चाहे उतना हिट करिए ,करते रहिए जब तक कि सबसे ज़्यादा हिट वाले ब्लॉगर न बन जाएँ ।
****इन नुस्खों की खासियत यह है कि ये स्वावलम्बन की प्रेरणा उत्पन्न करते हैं । आपको अपना ब्लॉग हिट करने के लिए किसी की टिप्पणियो की ,किसी लोकप्रियता सूची की ,सक्रियता क्रम की या किसी भी धडाधड स्वामी की ज़रूरत नही पडेगी ।यानी हिटिंग में टोटल आत्मनिर्भरता ! **** आप निश्चिंत होकर”””” ब्लॉगिंग फॉर ब्लॉगिंग सेक”” कर सकते है । किसी से रिश्तेदारी बढाए बिना ,फालतू मे औपचारिअकता दिखाए बिना । केवल वह कह सकते है जो कहना चाहते हैं ।इससे भाई-चारा निभाने की आवश्यकता खत्म होती है ।
**ब्ळागुनिया -----सारी! ----चिकन्गुनिया से अपने ब्लाग की हिफ़ाज़त करें।
****अब हे हे हे कर के पीठ खुजाने और खुजलाने का निमंत्रण देने की भी आवश्यकता नही । *****चाहें तो पहले छोटा हिट आज़मा कर देखें 75 रु.इंट्रोडक्टरी ऑफर !
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Sunday, July 8, 2007
एक निर्विचार पोस्ट की रेज़गारी...
आज के लिए कोई विचार नही कोई विषय नही और कुछ कहना भी नही बच रहा है । पर जबकि हम सोचते है कि विचार शून्यता हिअ तब भी शायद किसी निर्विकार ,अज्ञेय ,अमूर्त किस्म की विचार प्रक्रिया कही बहुत भीतर चालू होती है । बिलकुल उसी अन्दाज़ में ,गालिब के शब्दो मे ----
"न था कुछ तो खुदा था ...
कुछ ना होता तो खुदा होता ..........."
प्लेटो ने विचार को सर्वोपरी सत्ता माना था । सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।उनकी दृष्टि में यह वस्तुजगत उस विचार तत्व की ही नकल है ।और साहित्य आदि कलाएँ इस नकल यानी वस्तुजगत की नकल हैं । सो इतने नकलीपन के बीच यदि खालीपन का अहसास हो तो अस्वाभाविक क्या है :)
तो वाकई जब हमे लगता है कि मन रीता है और मस्तिष्क की सारी शक्ति चुक गयी है ,एक निर्वात की सी स्थिति है तब भी शायद वह अपने आप में एक विचार-विकलता की सी स्थिति होती है। शायद सारा दार्शनिक चिंतन ऐसी दिमागी खालीपन की स्थिति मे उपजता हो .जब हम दीन-दुनिया से बेज़ार होकर जीवन मे अब तक की इकट्ठी हुई रेज़गारी को देखते है ं और एक दीर्घ निश्वास के साथ उसे वापस अपनी गुल्लक में डाल देते हैं :शायद यह सोच कर कि फिलहाल तो इससे कुछ बनने वाला नही है ।:)
आज ऐसी ही स्थिति में मसिजीवी की पोस्ट पर दिया कमेंट देख कर,और दिन भर की अपनी बातों का विश्लेषण कर ऐसा लगा कि यह निर्विचार होना उतना भी निर्वैचारिक नही है ----
"शर्मसार तो हुए ही है ।चाहे शर्मसार कितने हुए है यह अलग बात है ।प्रतिरोध का यह तरीका भारत जैसे देश के लिए वाकई शॉकिंग था । जहाँ स्त्री को हमेशा से घर की इज़्ज़त का वास्ता दे देकर घर के लोग अपमानित करते रहे उत्पीडन करते रहे उनके खोखलेपन और मानसिक शोषण को धता बताते हुए पूजा का यह प्रतिरोध एक असरकार तमाचा साबित हुआ है । "---
वैसे पूजा का प्रतिरोध एक भदेस किस्म का प्रतिरोध है । जिसमें किसी नारी संगठन को आवाज़ नही दी गयी , प्रेस की शक्ति का सहारा नही लिया गया ,किताबे , कहानिया नही लिखी गयी न पढी गयीं । उसने किसी अनामिका , जर्मेन ग्रियर, सीमोन दे बोवुआर उमा चक्रवर्ती .....को नही पढा । पढा होता तो शायद ऐसा कभी नही कर पाती।
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सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।आप चाहे तो आज़मा कर देख लें । यह पोस्ट भी इसी प्रयोग का एक नतीजा ही है ।
"न था कुछ तो खुदा था ...
कुछ ना होता तो खुदा होता ..........."
प्लेटो ने विचार को सर्वोपरी सत्ता माना था । सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।उनकी दृष्टि में यह वस्तुजगत उस विचार तत्व की ही नकल है ।और साहित्य आदि कलाएँ इस नकल यानी वस्तुजगत की नकल हैं । सो इतने नकलीपन के बीच यदि खालीपन का अहसास हो तो अस्वाभाविक क्या है :)
तो वाकई जब हमे लगता है कि मन रीता है और मस्तिष्क की सारी शक्ति चुक गयी है ,एक निर्वात की सी स्थिति है तब भी शायद वह अपने आप में एक विचार-विकलता की सी स्थिति होती है। शायद सारा दार्शनिक चिंतन ऐसी दिमागी खालीपन की स्थिति मे उपजता हो .जब हम दीन-दुनिया से बेज़ार होकर जीवन मे अब तक की इकट्ठी हुई रेज़गारी को देखते है ं और एक दीर्घ निश्वास के साथ उसे वापस अपनी गुल्लक में डाल देते हैं :शायद यह सोच कर कि फिलहाल तो इससे कुछ बनने वाला नही है ।:)
आज ऐसी ही स्थिति में मसिजीवी की पोस्ट पर दिया कमेंट देख कर,और दिन भर की अपनी बातों का विश्लेषण कर ऐसा लगा कि यह निर्विचार होना उतना भी निर्वैचारिक नही है ----
"शर्मसार तो हुए ही है ।चाहे शर्मसार कितने हुए है यह अलग बात है ।प्रतिरोध का यह तरीका भारत जैसे देश के लिए वाकई शॉकिंग था । जहाँ स्त्री को हमेशा से घर की इज़्ज़त का वास्ता दे देकर घर के लोग अपमानित करते रहे उत्पीडन करते रहे उनके खोखलेपन और मानसिक शोषण को धता बताते हुए पूजा का यह प्रतिरोध एक असरकार तमाचा साबित हुआ है । "---
वैसे पूजा का प्रतिरोध एक भदेस किस्म का प्रतिरोध है । जिसमें किसी नारी संगठन को आवाज़ नही दी गयी , प्रेस की शक्ति का सहारा नही लिया गया ,किताबे , कहानिया नही लिखी गयी न पढी गयीं । उसने किसी अनामिका , जर्मेन ग्रियर, सीमोन दे बोवुआर उमा चक्रवर्ती .....को नही पढा । पढा होता तो शायद ऐसा कभी नही कर पाती।
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सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।आप चाहे तो आज़मा कर देख लें । यह पोस्ट भी इसी प्रयोग का एक नतीजा ही है ।
Wednesday, July 4, 2007
आइए सर्फ़ोली बोली सीखे
बी.ए. ऑनर्स के प्रथम वर्ष की परीक्षाएँ समाप्त हुईं तो बहुत सा वक्त एकाएक पहाड सा हो गया था। सोचा द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में लगे टेक्स्ट को ही पढा जाए । श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी इसी समय सामने आया । उसकी महिमा सुन तो चुके ही थे अब होता यूँ था कि वह उपन्यास हमें लत की तरह लग गया । रात मे जब घर के लोग चैन की बंसी बजाते ,हम फूहड हँसी हँस हँस कर उनकी निद्रा मे खलल डालते । डाँट पडी , फटकार लगाई गयी । फिर उन्हे आदत हो गयी । अब मेरे रातों को [जैसे पीपल पर कोई......] ज़ोर से हँसने पर घरवाले कहते ‘रागदरबारी “ पढ रही होगी । खैर,अब बहुत समय हुआ । रागदरबारी का भूत हमें हॉंंट नही करता । पर एक चीज़ है जो यदा –कदा गुदगुदाती है । एक पात्र हुआ करता था रागदरबारी में। जोगनाथ ।पूरा पियक्कड ।एकदम टुन्न रहने वाला ।यदा-कदा नालियों में गिरा पडा मिलने वाला ।उसकी एक विचित्र बोली थी ।गाँव-जवार के लोग उसे सर्फोली बोले कहते थे ।इसका व्याकरण कुछ यों था कि आप एक शब्द के सभी वर्णो के बीच मे र्फ लगाएँगे ।नही समझे न!
एक बार जोगनाथ पीकर नाले में गिरा हुआ था । किसी की मदद की दरकार थी उसे । पडे पडे किसी के आहट सुनाई दी तो जोगनाथ बोला । उधर से किसी ने पूछा ‘कौन है साला ?” जोगनाथ ने उत्तर दिया “ मर्फै हूँ !जर्फोगनाथ ! किर्फ़िस सर्फ़ाले ने यर्फ़हा कर्फ़ाटे गर्फ़ाडे है ?“ मर्फाने यर्फह कि कर्फोन है सर्फाला ?आर्फज भी जर्फब मर्फज़ाक कर्फने का मर्फन हर्फोता है तो हर्फम जर्फोगनाथ को यर्फाद कर्फ लेते है !समझे कि नही !
कोड भाषा के रूप मे सर्फोली बोली बडी फायदेमन्द है । इसमें भद्दी भद्दी बाते आराम से कही जा सकती है ।क्यो ?इसके बोलने मे बडा मज़ा है । उससे ज़्यादा मज़ा जो कुछ लोगो को मा बहन करने मे आता है ।यह भी भाषा की एक अंगडाई है .प्रयोग है ,विभिन्नता है ।सो भाषाई नवीनता और प्रयोगशीलता के लिए एक ही तरफ क्यो बढना चाह्ते है।
साहित्य में भाषा की विभिन्न भंगिमाएँ और शब्दावलियाँ एक वातावरण विशेष को जीवंत और यथार्थ बनाने के लिए आती है । गाली एक भाषिक संरचना है । और सामाजिक संरचना की ही तरह है । यदि समाज स्त्री-विरोधी ,दलित-विरोधी है तो भाषा मे उसके प्रमाण भी है । गालियो के समाजशास्त्र को देखे तो यह और स्पष्ट तौर पर समझ आएगा ।ऐसे मे एक दलित या स्त्री या किसी भी हाशिये की अस्मिता द्वारा जब अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति होगी तो भाषा के सारे मर्दवादी ,ब्राह्मणवादी तवर वहा उपस्थित होंगे जिनका उद्देश्य लेखक द्वारा अपनी भडास निकालना नही होता वरन .उस वातावरण को सजीव करना , उस पात्र विशेष की मानसिकता को उभारना होता है ।यदि मुझे स्त्री निन्दक और शोषक पात्र को किसी कहानी में रचना होगा तो मै उस पात्र के मुख से वही भाषा कहलवाऊंगी जिसका इस्तेमाल मोहल्ला पर हाल ही मे हुआ है ।व्यक्तिगत पत्राचार ,निबन्ध ,लेख सार्वजनिक औपचारिक लेखन मे ऐसी च्युइंगम-वाली भाषा सरासर बदतमीज़ी है , राजनीती है , कुंठा है , कुत्सित है ।
एक बार जोगनाथ पीकर नाले में गिरा हुआ था । किसी की मदद की दरकार थी उसे । पडे पडे किसी के आहट सुनाई दी तो जोगनाथ बोला । उधर से किसी ने पूछा ‘कौन है साला ?” जोगनाथ ने उत्तर दिया “ मर्फै हूँ !जर्फोगनाथ ! किर्फ़िस सर्फ़ाले ने यर्फ़हा कर्फ़ाटे गर्फ़ाडे है ?“ मर्फाने यर्फह कि कर्फोन है सर्फाला ?आर्फज भी जर्फब मर्फज़ाक कर्फने का मर्फन हर्फोता है तो हर्फम जर्फोगनाथ को यर्फाद कर्फ लेते है !समझे कि नही !
कोड भाषा के रूप मे सर्फोली बोली बडी फायदेमन्द है । इसमें भद्दी भद्दी बाते आराम से कही जा सकती है ।क्यो ?इसके बोलने मे बडा मज़ा है । उससे ज़्यादा मज़ा जो कुछ लोगो को मा बहन करने मे आता है ।यह भी भाषा की एक अंगडाई है .प्रयोग है ,विभिन्नता है ।सो भाषाई नवीनता और प्रयोगशीलता के लिए एक ही तरफ क्यो बढना चाह्ते है।
साहित्य में भाषा की विभिन्न भंगिमाएँ और शब्दावलियाँ एक वातावरण विशेष को जीवंत और यथार्थ बनाने के लिए आती है । गाली एक भाषिक संरचना है । और सामाजिक संरचना की ही तरह है । यदि समाज स्त्री-विरोधी ,दलित-विरोधी है तो भाषा मे उसके प्रमाण भी है । गालियो के समाजशास्त्र को देखे तो यह और स्पष्ट तौर पर समझ आएगा ।ऐसे मे एक दलित या स्त्री या किसी भी हाशिये की अस्मिता द्वारा जब अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति होगी तो भाषा के सारे मर्दवादी ,ब्राह्मणवादी तवर वहा उपस्थित होंगे जिनका उद्देश्य लेखक द्वारा अपनी भडास निकालना नही होता वरन .उस वातावरण को सजीव करना , उस पात्र विशेष की मानसिकता को उभारना होता है ।यदि मुझे स्त्री निन्दक और शोषक पात्र को किसी कहानी में रचना होगा तो मै उस पात्र के मुख से वही भाषा कहलवाऊंगी जिसका इस्तेमाल मोहल्ला पर हाल ही मे हुआ है ।व्यक्तिगत पत्राचार ,निबन्ध ,लेख सार्वजनिक औपचारिक लेखन मे ऐसी च्युइंगम-वाली भाषा सरासर बदतमीज़ी है , राजनीती है , कुंठा है , कुत्सित है ।
टुईयाँ गुईया ढेम्पूला की चुईयाँ
बच्चा शब्दों से खेलता है ,अपने अनुभवों को प्रस्तुत करता है ,पडताल और तर्क करता है।
पैदाहोने के साथ ही भाषा से उसका परिचय होता है ।शुरु शुरु मे बोली जाने वाली जितनी भी ध्वनियाँ और शब्द होते है ;उनका अर्थ भले ही वह न जाने पर धीरे धीरे उसके लिए वे महत्वपूर्ण हो जाते है ।और अनुभावों के साथ साथ उसका भाषा का दायरा भी बढता है और लचीलापन भी आता है ।वह भाषा के मामले में प्रयोगशील होता है । आप उसे कविता सिखाएँगे ---
Papa darling ,mamma darling ,
I love u
See your baby dancing
Just for you…
-वह अगली बार उसमे खुद से जोड देगा
papa darling, mamma darling,maasi darling , anupam darling ,nani darling
I love you…..
तो जितने भी सम्बन्ध उसे प्रिय हैं वह उन सब को लाएगा कविता के बीच ।यह जुडाव है ,अभिव्यक्ति है ,भावनात्मकता है । पापा का चश्मा गोल गोल की जगह जब मैने एक बच्चे को पापा का चश्मा रेक्टैंगल [पिता का चश्मा वाकई आयताकर लेंस वाला था ] कहते सुना तो समझ आया कि भाषा उसके लिए तर्क भी है । वह रेक्टैंगल शब्द से परिचित न होता तो यह तर्क नही कर सकता था ।
तुतलाने वाले बच्चे के लिए भी भाषा और ध्वनियाँ तक भी खेलने खुश होने का साधन है ।वे अपने मन से कुछ भी अटपटा गाते कहते हैं ।ऐसे ही बच्चे जो अभी भाषा और अर्थ नही जानते ,बस ध्वनि से हुलसते है ,के लिए एक कबीलाई लोकगीत प्रस्तुत है जिसका अर्थ उनके लिए महत्वपूर्ण नही । यह उनके खेलने और खिलखिलाने का गीत है जैसे – अक्क्ड बक्कड बम्बे बो ,.......सौ मे लगा ताला चोर निकल के भागा।
लोकगीत और विस्तार से पोस्ट पढने के लिए बाल उद्यान पर जाइए जिसका अभी नारद पर पन्जीकरण नही हुआ है ।कल ही गिरिराज जोशी जी ने हमसे यहा लिखने को कहा तो हमने सोचा कि आप सब इसे पढ पाए और प्रतिक्रिया दे सके ।
पैदाहोने के साथ ही भाषा से उसका परिचय होता है ।शुरु शुरु मे बोली जाने वाली जितनी भी ध्वनियाँ और शब्द होते है ;उनका अर्थ भले ही वह न जाने पर धीरे धीरे उसके लिए वे महत्वपूर्ण हो जाते है ।और अनुभावों के साथ साथ उसका भाषा का दायरा भी बढता है और लचीलापन भी आता है ।वह भाषा के मामले में प्रयोगशील होता है । आप उसे कविता सिखाएँगे ---
Papa darling ,mamma darling ,
I love u
See your baby dancing
Just for you…
-वह अगली बार उसमे खुद से जोड देगा
papa darling, mamma darling,maasi darling , anupam darling ,nani darling
I love you…..
तो जितने भी सम्बन्ध उसे प्रिय हैं वह उन सब को लाएगा कविता के बीच ।यह जुडाव है ,अभिव्यक्ति है ,भावनात्मकता है । पापा का चश्मा गोल गोल की जगह जब मैने एक बच्चे को पापा का चश्मा रेक्टैंगल [पिता का चश्मा वाकई आयताकर लेंस वाला था ] कहते सुना तो समझ आया कि भाषा उसके लिए तर्क भी है । वह रेक्टैंगल शब्द से परिचित न होता तो यह तर्क नही कर सकता था ।
तुतलाने वाले बच्चे के लिए भी भाषा और ध्वनियाँ तक भी खेलने खुश होने का साधन है ।वे अपने मन से कुछ भी अटपटा गाते कहते हैं ।ऐसे ही बच्चे जो अभी भाषा और अर्थ नही जानते ,बस ध्वनि से हुलसते है ,के लिए एक कबीलाई लोकगीत प्रस्तुत है जिसका अर्थ उनके लिए महत्वपूर्ण नही । यह उनके खेलने और खिलखिलाने का गीत है जैसे – अक्क्ड बक्कड बम्बे बो ,.......सौ मे लगा ताला चोर निकल के भागा।
लोकगीत और विस्तार से पोस्ट पढने के लिए बाल उद्यान पर जाइए जिसका अभी नारद पर पन्जीकरण नही हुआ है ।कल ही गिरिराज जोशी जी ने हमसे यहा लिखने को कहा तो हमने सोचा कि आप सब इसे पढ पाए और प्रतिक्रिया दे सके ।
Monday, July 2, 2007
कॉफी सुन्दर और सजीली ...और हमारी फूहडता
दो चीज़े है जिनमे हम फूहड ही रह गये । एक है पीना और दूसरा तकनीक ।
काकटेल के बारे मे जब समीर जी की पोस्ट पढी तब भी बडी ग्लानि हुई ।हमे तो सीधी –साधी शराब ही समझ नही आती काकटेल जैसा गडबड झाला क्या खाक समझ आता ? जिन्हे पीने की तमीज़ न हो उनसे पीने के विषय मे बात करना अइसा ही है जैसा कि फुरसतिया जी को अपनी व्यस्तताओ के बारे मे बताना :)
पीने की अनपढता हमे काफी पीने मे भी है यह पिछली ब्लागर मीट मे अमित से मिलकर लगा । । आज तक बस दो ही कॉफी जानी है –अच्छी कॉफी / बुरी कॉफी ।{ वैसे कैफे कॉफी डॆ का बिना पानी वाला वाश रूम भी हमे भूला नही है । अगली मीट पास आ रही है इस लिए नॉस्ताल्जिया हमारे जिया मे हिलोर ले रहा है }
पहले सोचते थे कि काफी की बारीकियों को जाने बगैर भी मै खुशहाल जीवन जी पा रही हूँ तो।सैकडो लोग जी रहे हैं ।ज़िन्दगी पहले ही उलझी पहेली है ;मुई कॉफी भी इस घाल मेल मे शामिल हो गयी तो जीना दुश्वार हो जाएगा । अमूमन हम ऐसे तर्क अपनी अज्ञानता या आलस्य को छुपाने के लिए गढ लेते है । सो प्रमादवश हमने कभी शराब और कॉफी की किस्मों और उन्हे पीने की तहज़ीब पर कभी गौर नही फरमाया था । इसी का नतीजा एक दिन भुगत लिया । ठंडी के मौसम में कॉफी पीने की हुडक उठी । कैफ़े कॉफी डॆ पहुचे । कॉफी मांगने पर पूछा गया “कौन सी कॉफी ?” सवाल जटिल था ।एस्प्रेस्सो कुछ सुना सुना नाम था सो मांग ली हमने ।हमारी भोली सूरत पर कॉफी डे वाले को तरस आया और उसने पूछ डाला “आर यू श्योर मैम ?”
हमने भी अकड कर कहा “येस” और उसकी तरफ तुनक कर देखा । हँह ! जैसे हमे इतना भी नही पता कि एस्प्रेसो किस चिडिया ...कॉफी ..का नाम है । वह खीसे निपोरते गया और वापस आया । हाथ मे छोटी सी प्याली ,आधी भरी हुई एक काले ,गाढे , कडुवे द्रव्य से । बस क्या ? काटो तो खून नही । या खुदा ! आज 50 रु. मे ऐसी कॉफी लिखी थी नसीब में क्या यही है तेरी भक्ति का फल ?! अबोध ,मासूमो के लिए यही है तेरा न्याय ? तो ठीक है । हम उपहास स्वरूप दी हुई तेरी चीनी भी ठुकराते हैं । हा !! हमने चीनी का पाउच डाले बिना ही वो ज़हर का प्याला दो बडे घूंटो मे खाली किया और 50 का पत्ता साफ करवा कर फूट लिए वहा से ।अब उतने अबोध तो नही रहे पर फिर भी अपने हाथ की बनी, कम चीनी वाली नेसकाफे ही हमे भाती है।
आज फिर से हमे हमारी कॉफी अज्ञानता बडी शिद्दत महसूस हुई जब सजीली और सुन्दर कॉफी प्रतिबिम्ब पर रखी देखी । न जाने किन सामग्रियो और विधियो का वर्णन किया है अमित जी ने । वे कौन से नट्स है ? हा हेज़लनट्स आप कहोगे आप खुद ही नट्स हो जी । तो नट्स तो हम है ही । कॉफी वाले न सही ।हमारा तो जीना ही व्यर्थ जा रहा है ।हमे तो बस यही साधु वाणी याद आ रही है ---- जनम तेरा ब्लॉगिंग ही बीत गयो , रे तूने कबही ना कॉकटेल पीयो ,रे तूने कबही ना कैपेचिनो पियो .....रे साधो !!!!
काकटेल के बारे मे जब समीर जी की पोस्ट पढी तब भी बडी ग्लानि हुई ।हमे तो सीधी –साधी शराब ही समझ नही आती काकटेल जैसा गडबड झाला क्या खाक समझ आता ? जिन्हे पीने की तमीज़ न हो उनसे पीने के विषय मे बात करना अइसा ही है जैसा कि फुरसतिया जी को अपनी व्यस्तताओ के बारे मे बताना :)
पीने की अनपढता हमे काफी पीने मे भी है यह पिछली ब्लागर मीट मे अमित से मिलकर लगा । । आज तक बस दो ही कॉफी जानी है –अच्छी कॉफी / बुरी कॉफी ।{ वैसे कैफे कॉफी डॆ का बिना पानी वाला वाश रूम भी हमे भूला नही है । अगली मीट पास आ रही है इस लिए नॉस्ताल्जिया हमारे जिया मे हिलोर ले रहा है }
पहले सोचते थे कि काफी की बारीकियों को जाने बगैर भी मै खुशहाल जीवन जी पा रही हूँ तो।सैकडो लोग जी रहे हैं ।ज़िन्दगी पहले ही उलझी पहेली है ;मुई कॉफी भी इस घाल मेल मे शामिल हो गयी तो जीना दुश्वार हो जाएगा । अमूमन हम ऐसे तर्क अपनी अज्ञानता या आलस्य को छुपाने के लिए गढ लेते है । सो प्रमादवश हमने कभी शराब और कॉफी की किस्मों और उन्हे पीने की तहज़ीब पर कभी गौर नही फरमाया था । इसी का नतीजा एक दिन भुगत लिया । ठंडी के मौसम में कॉफी पीने की हुडक उठी । कैफ़े कॉफी डॆ पहुचे । कॉफी मांगने पर पूछा गया “कौन सी कॉफी ?” सवाल जटिल था ।एस्प्रेस्सो कुछ सुना सुना नाम था सो मांग ली हमने ।हमारी भोली सूरत पर कॉफी डे वाले को तरस आया और उसने पूछ डाला “आर यू श्योर मैम ?”
हमने भी अकड कर कहा “येस” और उसकी तरफ तुनक कर देखा । हँह ! जैसे हमे इतना भी नही पता कि एस्प्रेसो किस चिडिया ...कॉफी ..का नाम है । वह खीसे निपोरते गया और वापस आया । हाथ मे छोटी सी प्याली ,आधी भरी हुई एक काले ,गाढे , कडुवे द्रव्य से । बस क्या ? काटो तो खून नही । या खुदा ! आज 50 रु. मे ऐसी कॉफी लिखी थी नसीब में क्या यही है तेरी भक्ति का फल ?! अबोध ,मासूमो के लिए यही है तेरा न्याय ? तो ठीक है । हम उपहास स्वरूप दी हुई तेरी चीनी भी ठुकराते हैं । हा !! हमने चीनी का पाउच डाले बिना ही वो ज़हर का प्याला दो बडे घूंटो मे खाली किया और 50 का पत्ता साफ करवा कर फूट लिए वहा से ।अब उतने अबोध तो नही रहे पर फिर भी अपने हाथ की बनी, कम चीनी वाली नेसकाफे ही हमे भाती है।
आज फिर से हमे हमारी कॉफी अज्ञानता बडी शिद्दत महसूस हुई जब सजीली और सुन्दर कॉफी प्रतिबिम्ब पर रखी देखी । न जाने किन सामग्रियो और विधियो का वर्णन किया है अमित जी ने । वे कौन से नट्स है ? हा हेज़लनट्स आप कहोगे आप खुद ही नट्स हो जी । तो नट्स तो हम है ही । कॉफी वाले न सही ।हमारा तो जीना ही व्यर्थ जा रहा है ।हमे तो बस यही साधु वाणी याद आ रही है ---- जनम तेरा ब्लॉगिंग ही बीत गयो , रे तूने कबही ना कॉकटेल पीयो ,रे तूने कबही ना कैपेचिनो पियो .....रे साधो !!!!
कॉफी का प्याला प्रतिबिम्ब से साभार !
तकनीकी फूहडता पर नही लिख रहे है वामे हमारी फूहडता का परमान हमरा बिलाग है ही न!
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Saturday, June 30, 2007
कृपया अनदेखा करें ...........
ओह तो आपने अनदेखा नही किया ? देख ही लिया । और पढ भी रहे हैं ! अरे रे रे !
वैसे मुझे पता था कि कोई तो ज़रूर देखेगा ही ।मानव की सहज जिज्ञासु प्रवृत्ति में मेरा पूरा विश्वास है ।अनदेखा करने को कहा जाए तो ज़रूर देखेंगे । बहुत दिन से देख रही थी की लोग बाग लिखते हैं “परीक्षण् पोस्ट ; कृपया अनदेखा करें “अभी दो दिन पहले रतलामी जी ने डाली थी । कल नीलिमा जी ने । मुझे रह रह कर मन होता था कि देख ही डालूँ क्या है । और नही तो यह ही पता लगेगा कि क्या परीक्षण किया है ।रतलामी जी की भी पोस्ट नही देखी । मन मसोस कर रह गयी । कुलबुलाहट मची रही ।जैसे पडोस में पडोसी का पडोसी से झगडा हो और मै उपस्थित ना हूँ । या घर में सास -ननद मेरे चुगली कर रही हों और मुझे सुन नही पा रहा हो । या माँ- बाप कमरे में टी- वी बजा रहे हों और बालक को डाँट कर पढने बैठा दिया हो दूसरे कमरे में ।
तो फैसला लिया कि एक हिट ही तो होगी , चल देख ही डाल ,क्या अनदेखा करने को कहा गया है ।
देख लिया । ऐसी राहत मिली जैसी किसी कब्ज़ियाये को हफ्ते भर बाद मिली हो । अब चित्त शांत है मन प्रसन्न् है ,निर्द्वन्द्व है ।
ऐसी हालत हमारी ही नही थी । नीलिमा जी की दो परीक्षण पोस्टो पर अभी तक कुल मिलाकर 30 हिट्स हो चुकी है ।मै समझ सकती हूँ !
तभी विचार आया कि कुछ भाई -बहिनी लोग यौन शिक्षा को न देने के पक्ष में डटे है तो यह तो यह बिल्कुल हमारे जैसी स्थिति हो जाएगी । मत दीजिये ज्ञान ,बालक-बालिकाओं को । सूचना क्रांति का युग है । ज्ञान का विस्फोट हो रहा है । तकनीक का प्रसार हो रहा है । बताइये ,रिलायंस वाले इस बार बुध –बाजार मे रेहडी लगा कर 200 रु. में मोबाइल बेच रहे थे । सो , सूचना किसी की ज़रखरीद लौंडी तो है नही जो ताले में बन्द कर के रख लेगा ।उस पर किसी की मल्कियत नही है । यहाँ छुपाओगे वहाँ मिल जाएगी । न जाने किस रूप में । पोर्न साइट्स है , किताबें , बातें ,सबसे बडा तो टीवी ही है । सो सूचना और तकनीक नही रुक सकती । किस रूप में दिया जाये सिर्फ इस पर आप नियंत्रण रख सकते हैं ।
और यूँ भी लडकियों के प्रति हमारा समाज अधिक क्रूर है ।खास तौर पर निम्नवर्गीय समाज में लडकियों के लिये कुछ तथ्य जानना , कुछ कुंठाओं से मुक्त होना कुछ मिथो से बचना और स्वस्थ जीना सीखना निहायत ज़रूरी है ।उन को यह समझाने की भी ज़रूरत है कि एक गलती पर ज़िन्दगी खत्म नही होती ।अपने घरों में ऐसे अन्धेरे कोने क्यो रचे जाएँ जहाँ पडे हमारे किशोर किशोरियाँ अपनी कुठाओं की ग्रंथियों में गर्क होते रहें ।
कितना बताया जाए ,क्या बताया जाए और कौन बताए यह जानना ज़्यादा ज़रूरी है।
वैसे मुझे पता था कि कोई तो ज़रूर देखेगा ही ।मानव की सहज जिज्ञासु प्रवृत्ति में मेरा पूरा विश्वास है ।अनदेखा करने को कहा जाए तो ज़रूर देखेंगे । बहुत दिन से देख रही थी की लोग बाग लिखते हैं “परीक्षण् पोस्ट ; कृपया अनदेखा करें “अभी दो दिन पहले रतलामी जी ने डाली थी । कल नीलिमा जी ने । मुझे रह रह कर मन होता था कि देख ही डालूँ क्या है । और नही तो यह ही पता लगेगा कि क्या परीक्षण किया है ।रतलामी जी की भी पोस्ट नही देखी । मन मसोस कर रह गयी । कुलबुलाहट मची रही ।जैसे पडोस में पडोसी का पडोसी से झगडा हो और मै उपस्थित ना हूँ । या घर में सास -ननद मेरे चुगली कर रही हों और मुझे सुन नही पा रहा हो । या माँ- बाप कमरे में टी- वी बजा रहे हों और बालक को डाँट कर पढने बैठा दिया हो दूसरे कमरे में ।
तो फैसला लिया कि एक हिट ही तो होगी , चल देख ही डाल ,क्या अनदेखा करने को कहा गया है ।
देख लिया । ऐसी राहत मिली जैसी किसी कब्ज़ियाये को हफ्ते भर बाद मिली हो । अब चित्त शांत है मन प्रसन्न् है ,निर्द्वन्द्व है ।
ऐसी हालत हमारी ही नही थी । नीलिमा जी की दो परीक्षण पोस्टो पर अभी तक कुल मिलाकर 30 हिट्स हो चुकी है ।मै समझ सकती हूँ !
तभी विचार आया कि कुछ भाई -बहिनी लोग यौन शिक्षा को न देने के पक्ष में डटे है तो यह तो यह बिल्कुल हमारे जैसी स्थिति हो जाएगी । मत दीजिये ज्ञान ,बालक-बालिकाओं को । सूचना क्रांति का युग है । ज्ञान का विस्फोट हो रहा है । तकनीक का प्रसार हो रहा है । बताइये ,रिलायंस वाले इस बार बुध –बाजार मे रेहडी लगा कर 200 रु. में मोबाइल बेच रहे थे । सो , सूचना किसी की ज़रखरीद लौंडी तो है नही जो ताले में बन्द कर के रख लेगा ।उस पर किसी की मल्कियत नही है । यहाँ छुपाओगे वहाँ मिल जाएगी । न जाने किस रूप में । पोर्न साइट्स है , किताबें , बातें ,सबसे बडा तो टीवी ही है । सो सूचना और तकनीक नही रुक सकती । किस रूप में दिया जाये सिर्फ इस पर आप नियंत्रण रख सकते हैं ।
और यूँ भी लडकियों के प्रति हमारा समाज अधिक क्रूर है ।खास तौर पर निम्नवर्गीय समाज में लडकियों के लिये कुछ तथ्य जानना , कुछ कुंठाओं से मुक्त होना कुछ मिथो से बचना और स्वस्थ जीना सीखना निहायत ज़रूरी है ।उन को यह समझाने की भी ज़रूरत है कि एक गलती पर ज़िन्दगी खत्म नही होती ।अपने घरों में ऐसे अन्धेरे कोने क्यो रचे जाएँ जहाँ पडे हमारे किशोर किशोरियाँ अपनी कुठाओं की ग्रंथियों में गर्क होते रहें ।
कितना बताया जाए ,क्या बताया जाए और कौन बताए यह जानना ज़्यादा ज़रूरी है।
Friday, June 29, 2007
दर्पण मेरे ये तो बता ......
स्नोव्हाइट कीकहानी तो सुनी होगी ? उसकी सौतेली माँ स्नोव्हाइट के सौन्दर्य से ईर्ष्या करती थी और उसे मरवाने के भरसक प्रयास करती थी । अपने जादुई दर्पण से वह पूछती रहती थी –“दर्पण मेरे ये तो बता , सबसे सुन्दर कौन भला ?” उत्तर में सुनना चाहती थी अपना नाम । पर दर्पण कभी झूठ बोलता है भला ? वह बिन्दास कहता था –‘स्नोव्हाइट “! सो हमने मान लिया कि दर्पण झूठ नही बोलता । तथ्य स्थापित हो गया । वैज्ञानिक इसे नही मानेंगे । मै भी नही मानती । खुद देख रखे हैं ऐसे दर्पण जो बहुत मोटा { समीर जी जैसा :)स्माएली लगा दी है समीर भाई ) बहुत पतला (मसिजीवी जी जैसा, स्माइली नही लगाइ गयी है ) बहुत लम्बा , बहुत ठिगना , बहुत दूर [जीतू जी की तरह ] या बहुत पास [यह नही बतायेंगे ] दिखा कर आपको हँसा सकते है , रुला और चौँका सकते हैं ।
खैर दर्पण एक और भी रहा । पच्छिम । पूरब का दर्पण । दर्पन झूठ नही बोलता । सो पच्छिम ने भी पूरब के बारे में कभी नही बोला ।पच्छिम का दर्पण जिज्ञासु था । पूरब में आया । देखा भाला ,घूमा फिरा । यहाँ का इतिहास लिखा सबसे पहले । साहित्य का इतिहास लिखा सबसे पहले क्या नाम था ...अम्म्म...”... एस्त्वार द ला लित्रेत्युर एन्दुई ....ब्ला ब्ला ह्म्म । यहाँ क्या किसी को एतिहास लिखना आता था कभी ।
तो जी । क्या हुआ कि । वे घूमे फिरे । फिर लिखा । {व्यापार और शासन तो किया ही} और लिखा यह कि ये तो जी जादू –टोना-टोटका करने वाले ,देसी , गँवार ,अन्धविसवासी ,आस्था भक्ति वाले , इर्रेसनल , वगैरा वगैरा वाले लोग है पूरबिया लोग ।
ठोक बजा कर कहा ।तो लो जी एक और कहानी याद आ गयी कि अंग्रेज़ी की किताब में “स्टोरीज़ रीटोल्ड “मेँ हुआ करती थी । एक गाँव था । जहाँ किसी को यह नही पता था कि दर्पण क्या होता है । कभी किसी ने दर्पण नही देखा था । वही किसी बुडबक को मिल गया रहा शीशा । उसने देखा । चकमक पत्थर जैसा । उसमे किसी दाढी वाले आदमी को देख संत समझ लिया और घर ले जाकर छुपा दिया । रोज़ खेत पर जाने से पहले अपना चेहरा ,यानी संत के दर्शन करता और तब जाता । पत्नी का खोपडा घूमा । पीछे से एक दिन ढूंढा कि पति किसे निहार कर जाता है । शीशा देखा । सुन्दर स्त्री दिखी । बस सियापा और क्या ?
तो पूरब ने कभी अपनी व्याख्या अपने मुँह से कर के अपने आप नही बताया था । ना खुद अपना विसलेसन कभी किया था –कि मै क्या हूँ ,कैसा हूँ वगैरा । तो जब इतिहास लिखे गये पूरब के बारे में , उपन्यास लिखे गये ,तबही पच्छिम के आइने ने संसार भर को भी और पूरब को भी उसका प्रतिबिम्ब दिखाया । अनपढ , गवाँर , अन्धविसवासी ,व्रत त्योहार वाले , असभ्य । अब दर्पण तो झूठ नही बोलता ।तो पूरब वाला मानने लगा कि यही सच है । यही इमेज है । अब तो बुडबक खुदही अपना प्रचार करने लगा वैसे ही जैसा पच्छिम ने कहा कि वह है । पूरब ने आत्मसात कर लिया इस छवि को और इसी को बनाए रखने मेँ ऊर्जा लगाने लगा ।
सो ई है दर्पण की कहानी । एडवर्ड सईद का “ओरियंटलिज़्म “ । सरलीकृत अन्दाज में ।यह उद्देश्य नही । ओरियंटलिज़्म माने प्राच्यवाद माने पच्छिम के प्राच्यविदो द्वारा पूरब को दिखाया गया आइना ।प्राच्यविद । ध्यान दीजिये “प्राच्यविद “।
तो जब हमने बात की थी रसोई नष्ट करने की मतलब सिर्फ यह था कि इस मुद्दे पर क्रांति की ज़रूरत है । स्त्री पक्ष की सत्ता है रसोई ,वही नष्ट कर सकती है । हालाँकि मै मानती हूँ कि रसोई को सत्ता मानना भी स्त्री का बुडबकपना है ।
तो रसोई नष्ट करने की बात पर स्त्री के इस रसोई –सत्ता के मालकिन रूप का बडा महिमामंडन किया गया । तब ही सोचा था कि कुछ समझा दें बालकों को , ज्ञान की राह दिखा दें ।पर क्या है कि बिना बडे- बडे नाम लिये लोग बात नही सुनते । सो एडवर्ड सईद का रसोई संसकरण यह बनाया है हमने कि
****स्त्री ने कभी अपनी व्याख्या नही की । वह महान है । वह उद्देश्यो के भटकाव में , पुरुष की तरह समय नष्ट नही करती । वह सृजन करती है । मौलिक सृजन ।कभी यह सृजन रसोई में होता है कभी गर्भ में । वह जीवन में रस और रंग लाती है {किसके ? अजी बैचलरों के !} जीवन को व्यवस्था देती है , सुचारू रूप से चलाती है {आपको समय पर खाना पीना ,कपडा -लता प्रेस किया हुआ ,रति ,संतान,संतान का होमवर्क ,माता पिता की सेवा, बहनों को मेवा सब समय पर कोई देता रहे तो जीवन सुचारू रूप से नही चलेगा भला? } फिर पितृसता कहे कि वह महान है । कुछ नही माँगती , क्षमाशील है , तपस्विनी है , ममतामयी है । ब्ला ब्ला ब्ला .........
जब इतना चढाओगे , चने के झाड पर, तो बेवकूफ तो बनेगी ही निश्चित तौर पर ।
कहोगे” तुम्ही तो हो जो सब सम्हालती हो “ और लम्बी तान कर सो जाओगे तो तारीफ के बोझ की मारी रात देर तक जाग सुबह के व्यंजनो ,ऑफिस –स्कूल के कपडों को सहेजेगी ही ।
“बडी बहू बडी सीधी है जी । आज तक पलट कर जवाब नही दिया । चाहे मै कुछ भी कहती रही । बडी भोली है “” बस यही दर्पण है । तुम सीधी हो । गलत बात का विरोध नही कर सकतीं । बना दिया मूल्य । अब कैसे ना करे तदानुरूप आचरण । भोला होना ,अबोध होना एक गुण हो गया ।
तो दर्पण झूठ ना बुलाए । पितृ सत्ता यही आईना स्त्री को दिखा -दिखा कर अब तक बुद्धू बनाती आयी है । जब दर्पणो की असलियत कोई स्त्री जान जाती है तो खतरे की घंटी बज जाती है स्त्रीविदों के लिए । स्त्रीविद । प्राच्यविद । इस तरह की बात करके आप भविष्य निधि की तरह निवेश कर रहे होते हो । एक बार इमेज बना दो फिर हर साल प्रीमियम भरो---“ मुझे बस तुम्हारे हाथ का खना ही अच्छा लगता है । “ और पाओ ढेर सारा इंश्योरेंस और पॉलिसी मैच्योर होने पर ढेर सारा कैश । बल्ले बल्ले !!
सो इस मनोवैज्ञानिक निवेशीकरण को समझा जा रहा है मी लॉर्ड !!!!!
स्त्री आज खुद को समझ सकने और अभिव्यक्त कर सकने में सक्षम हो रही है । उसे धीरे -धीरे इस आइने को तोडने के लिए तैयार होना है जो आज तक उसे पितृ सत्ता के पुजारी पुरष और स्त्रियाँ दिखाती आयीं है ।
******
सो दर्पण भी षड्यंत्रकारी हो सकता है , वह झूठ बोल सकता है , चाल चल सकता है । वह किसके हाथ में है और किसे दिखाया जा रहा है यह सोचना ज़रूरी है इससे पहले कि उस पर विश्वास करने चलें ।
खैर दर्पण एक और भी रहा । पच्छिम । पूरब का दर्पण । दर्पन झूठ नही बोलता । सो पच्छिम ने भी पूरब के बारे में कभी नही बोला ।पच्छिम का दर्पण जिज्ञासु था । पूरब में आया । देखा भाला ,घूमा फिरा । यहाँ का इतिहास लिखा सबसे पहले । साहित्य का इतिहास लिखा सबसे पहले क्या नाम था ...अम्म्म...”... एस्त्वार द ला लित्रेत्युर एन्दुई ....ब्ला ब्ला ह्म्म । यहाँ क्या किसी को एतिहास लिखना आता था कभी ।
तो जी । क्या हुआ कि । वे घूमे फिरे । फिर लिखा । {व्यापार और शासन तो किया ही} और लिखा यह कि ये तो जी जादू –टोना-टोटका करने वाले ,देसी , गँवार ,अन्धविसवासी ,आस्था भक्ति वाले , इर्रेसनल , वगैरा वगैरा वाले लोग है पूरबिया लोग ।
ठोक बजा कर कहा ।तो लो जी एक और कहानी याद आ गयी कि अंग्रेज़ी की किताब में “स्टोरीज़ रीटोल्ड “मेँ हुआ करती थी । एक गाँव था । जहाँ किसी को यह नही पता था कि दर्पण क्या होता है । कभी किसी ने दर्पण नही देखा था । वही किसी बुडबक को मिल गया रहा शीशा । उसने देखा । चकमक पत्थर जैसा । उसमे किसी दाढी वाले आदमी को देख संत समझ लिया और घर ले जाकर छुपा दिया । रोज़ खेत पर जाने से पहले अपना चेहरा ,यानी संत के दर्शन करता और तब जाता । पत्नी का खोपडा घूमा । पीछे से एक दिन ढूंढा कि पति किसे निहार कर जाता है । शीशा देखा । सुन्दर स्त्री दिखी । बस सियापा और क्या ?
तो पूरब ने कभी अपनी व्याख्या अपने मुँह से कर के अपने आप नही बताया था । ना खुद अपना विसलेसन कभी किया था –कि मै क्या हूँ ,कैसा हूँ वगैरा । तो जब इतिहास लिखे गये पूरब के बारे में , उपन्यास लिखे गये ,तबही पच्छिम के आइने ने संसार भर को भी और पूरब को भी उसका प्रतिबिम्ब दिखाया । अनपढ , गवाँर , अन्धविसवासी ,व्रत त्योहार वाले , असभ्य । अब दर्पण तो झूठ नही बोलता ।तो पूरब वाला मानने लगा कि यही सच है । यही इमेज है । अब तो बुडबक खुदही अपना प्रचार करने लगा वैसे ही जैसा पच्छिम ने कहा कि वह है । पूरब ने आत्मसात कर लिया इस छवि को और इसी को बनाए रखने मेँ ऊर्जा लगाने लगा ।
सो ई है दर्पण की कहानी । एडवर्ड सईद का “ओरियंटलिज़्म “ । सरलीकृत अन्दाज में ।यह उद्देश्य नही । ओरियंटलिज़्म माने प्राच्यवाद माने पच्छिम के प्राच्यविदो द्वारा पूरब को दिखाया गया आइना ।प्राच्यविद । ध्यान दीजिये “प्राच्यविद “।
तो जब हमने बात की थी रसोई नष्ट करने की मतलब सिर्फ यह था कि इस मुद्दे पर क्रांति की ज़रूरत है । स्त्री पक्ष की सत्ता है रसोई ,वही नष्ट कर सकती है । हालाँकि मै मानती हूँ कि रसोई को सत्ता मानना भी स्त्री का बुडबकपना है ।
तो रसोई नष्ट करने की बात पर स्त्री के इस रसोई –सत्ता के मालकिन रूप का बडा महिमामंडन किया गया । तब ही सोचा था कि कुछ समझा दें बालकों को , ज्ञान की राह दिखा दें ।पर क्या है कि बिना बडे- बडे नाम लिये लोग बात नही सुनते । सो एडवर्ड सईद का रसोई संसकरण यह बनाया है हमने कि
****स्त्री ने कभी अपनी व्याख्या नही की । वह महान है । वह उद्देश्यो के भटकाव में , पुरुष की तरह समय नष्ट नही करती । वह सृजन करती है । मौलिक सृजन ।कभी यह सृजन रसोई में होता है कभी गर्भ में । वह जीवन में रस और रंग लाती है {किसके ? अजी बैचलरों के !} जीवन को व्यवस्था देती है , सुचारू रूप से चलाती है {आपको समय पर खाना पीना ,कपडा -लता प्रेस किया हुआ ,रति ,संतान,संतान का होमवर्क ,माता पिता की सेवा, बहनों को मेवा सब समय पर कोई देता रहे तो जीवन सुचारू रूप से नही चलेगा भला? } फिर पितृसता कहे कि वह महान है । कुछ नही माँगती , क्षमाशील है , तपस्विनी है , ममतामयी है । ब्ला ब्ला ब्ला .........
जब इतना चढाओगे , चने के झाड पर, तो बेवकूफ तो बनेगी ही निश्चित तौर पर ।
कहोगे” तुम्ही तो हो जो सब सम्हालती हो “ और लम्बी तान कर सो जाओगे तो तारीफ के बोझ की मारी रात देर तक जाग सुबह के व्यंजनो ,ऑफिस –स्कूल के कपडों को सहेजेगी ही ।
“बडी बहू बडी सीधी है जी । आज तक पलट कर जवाब नही दिया । चाहे मै कुछ भी कहती रही । बडी भोली है “” बस यही दर्पण है । तुम सीधी हो । गलत बात का विरोध नही कर सकतीं । बना दिया मूल्य । अब कैसे ना करे तदानुरूप आचरण । भोला होना ,अबोध होना एक गुण हो गया ।
तो दर्पण झूठ ना बुलाए । पितृ सत्ता यही आईना स्त्री को दिखा -दिखा कर अब तक बुद्धू बनाती आयी है । जब दर्पणो की असलियत कोई स्त्री जान जाती है तो खतरे की घंटी बज जाती है स्त्रीविदों के लिए । स्त्रीविद । प्राच्यविद । इस तरह की बात करके आप भविष्य निधि की तरह निवेश कर रहे होते हो । एक बार इमेज बना दो फिर हर साल प्रीमियम भरो---“ मुझे बस तुम्हारे हाथ का खना ही अच्छा लगता है । “ और पाओ ढेर सारा इंश्योरेंस और पॉलिसी मैच्योर होने पर ढेर सारा कैश । बल्ले बल्ले !!
सो इस मनोवैज्ञानिक निवेशीकरण को समझा जा रहा है मी लॉर्ड !!!!!
स्त्री आज खुद को समझ सकने और अभिव्यक्त कर सकने में सक्षम हो रही है । उसे धीरे -धीरे इस आइने को तोडने के लिए तैयार होना है जो आज तक उसे पितृ सत्ता के पुजारी पुरष और स्त्रियाँ दिखाती आयीं है ।
******
सो दर्पण भी षड्यंत्रकारी हो सकता है , वह झूठ बोल सकता है , चाल चल सकता है । वह किसके हाथ में है और किसे दिखाया जा रहा है यह सोचना ज़रूरी है इससे पहले कि उस पर विश्वास करने चलें ।
मै स्त्री ।मै जननी । महान । मै मौलिक सृजन कर्ता । मै पगली । मै ममतामयी । मै क्षमाशील । मै साध्वी कि सती । व्रती उपासी । सरल । हिसाब किताब में कमजोर ।त्रिया चरित्र । सडक पर कार लेकर नाक में दम करने वाली , पहले सूरजमुखी फिर ज्वालामुखी ।ज़िद्दी । ज़ोर ज़ोर से हँसने वाली । जो भी हूँ । खुद हूँ । खुद रहूँ । खुद जानूँ ।खुद देखूँ । कोई और मेरा आईना [ ।स्त्रीविद !] क्यो हो ?
Wednesday, June 27, 2007
यहाँ हिन्दी बोलने पर जुर्माना है जी !
तो हम सब ब्लौगिये यह सोचते रहे है कि हम नेट पर हिन्दी का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। अंतर्जाल पर हिन्दी युवा हो रही है और इधर हिन्दी के देश में युवा होती पीढी को हिन्दी बोलने पर चुकाना पड रहा है फाइन !! जी हाँ ! हमारे देश के अधिकांश पब्लिक स्कूल यह सज़ा अपने छात्रों को देते हैं ताकि वे अंग्रेज़ी में ही बोलने को विवश हो जाएँ और माता-पिता अपने नन्हों को विदेशी में गिटिर-पिटिर करते देख आह्लादित हों और स्कूल के स्टैंडर्ड को देख कर प्रभावित हों ।तथ्य मेरे लिये नया नही है । देख चुकी हूँ कि छात्रो को हिन्दी के पीरियड के अलावा विद्यालय में कहीं हिन्दी बोलने पर झाडा जाता रहा है ।हो सकता है हम में से अधिकांश के बच्चे ऐसे ही विद्यालयों में पढते हों ।अभी एक परिचित ,जो रोहतक के एक रिप्यूटिड पब्लिक स्कूल में पढाती हैं , से पता लगा कि उनके विद्यालय में हिन्दी का एक शब्द बोलने पर 50 पैसा जुर्माना है । बेचारे बुनियादी शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चे हिन्दी के एक वाक्य को दस अंग्रेज़ी के टूटे -फूटे वाक्यों में बताते हैं और फिर भी हिन्दी बोलते अक्सर पकडे जाते हैं और जुर्माना देते है । वे अबोध नही जानते कि हिन्दी बोलना जुर्म क्यो है , न वे किन्ही औपनिवेशिक इरादों से परिचित हैं।लेकिन धीरे धीरे यह बाल –मन अंग्रेज़ी के “”सुपीरियर ट्रेडीशन’’ से प्रभावित होकर अपनी भाषाई धरोहर पर शर्मसार होना सीख जाएगा । यह निहायत शर्मनाक तो है ही एक देश के लिये जहाँ मातृभाषा बोलना भी जुर्म है पर मेरे लिए यह जानना और भी दिलचस्प है कि ऐसे विद्यालय में प्रतिदिन कितना जुर्माना इकट्ठा होता है ;क्योंकि वह साफ तौर पर बताएगा कि इन नन्हों के लिए मातृभाषा के मायने क्या हैं ,उनके लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी भाषा की आज़ादी है ।हिन्दी उनके लिए उतनी ही सहज है जितनी यह अभिव्यक्ति कि ‘मुझे भूख लगी है ‘या एक दूसरे पर चिल्ला पडना ‘पागल’ कह कर ,तू-तडाक करना,रोना या हँसना । असमय इन्हें एक ऐसी असहजता में बान्ध दिया जाता है जहाँ से मुक्त होकर वे राहत महसूस करते हैं ।
सो अगर हिन्दी बोलने पर उस स्कूल में फाइन दिया जाता रहे और बढता रहे तो मेरे लिये यह संकेत अच्छा ही है पर क्या हिन्दी और हिन्द के लिए यह अच्छा है कि भाषा पर गर्व करना सिखाने कि बजाय हम अपनी संतानों को अपनी भाषाई अस्मिता पर हीनता -बोध दें ।
सो अगर हिन्दी बोलने पर उस स्कूल में फाइन दिया जाता रहे और बढता रहे तो मेरे लिये यह संकेत अच्छा ही है पर क्या हिन्दी और हिन्द के लिए यह अच्छा है कि भाषा पर गर्व करना सिखाने कि बजाय हम अपनी संतानों को अपनी भाषाई अस्मिता पर हीनता -बोध दें ।
Saturday, June 16, 2007
शनैश्चराय नम:..........!
शनिवार का दिन हमें प्रिय है । इसलिये नही कि हम शनि देव के भक्त हैं बल्कि इसलिये कि अगला दिन बिना भूल रविवार ही होता है :)
खैर , जैसा कि हमने पहले भी एक बार घोषित किया था कि शनि देव आज के सबसे पॉपुलर देवता हैं,भक्त आक्रान्त हैं और ज्योतिषाचार्य मज़े में । मीडिया भी उसे पॉपुलर बनाने में पूरा सहयोग दे रहा है । आज दो प्रमाण और मिले । एक खबरिया चैनल शनि और मंगल के सन्युक्त प्रभाव पर न्यूज़ बना रहा था। (शनि और मंगल ....सोचिये ? है ना खबर ? ) तो आज का हिन्दुस्तान टाइम्स शनि को विलेन नही मित्र मानने की सलाह दे रहा है “Why Shani is good for us “और कारण भी बता रहा है
“so instead of blaming Shani, it makes better sense to think of him as a friendand teacher who helps us learn important life lessons from whatever befalls us,lesson that he teaches best because there is no humbug about Shani. He gives it to you straight and says “come on now,deal with it “
शेखर एक जीवनी में कभी पढा था कि जो चीज़ भय उपजाती है उसका बाह्य चाम काट डालो ताकि उसका भीतर का घास फूस बाहर बिखर जाए जैसे बालक शेखर उस फूस भरे बाघ के साथ करता है जिसके भय से वह कई रात सो नही पाया था ।
सो हमारी तरह आप भी शनिवार को अब वह सब कुछ करना आरम्भ कर दीजिये जो जो प्रतिबन्धित है , डर अपने आप खत्म हो जाएगा । कम से कम जीवन में कुछ् चीज़ें तो हम सरल बना ही सकते हैं जो हमारी सामर्थ्य के भीतर हैं और बुद्धि के बस मे हैं !आधुनिकता ने हमें तर्क और सन्देह के हथियार दिये तो कमसे कम आधुनिकता का अर्थ जानने समझने वालो को तो शनि भय नही सताना चाहिये :)
अंत में मेरा मुहाविरा ----a smiley speaks better than words :)
खैर , जैसा कि हमने पहले भी एक बार घोषित किया था कि शनि देव आज के सबसे पॉपुलर देवता हैं,भक्त आक्रान्त हैं और ज्योतिषाचार्य मज़े में । मीडिया भी उसे पॉपुलर बनाने में पूरा सहयोग दे रहा है । आज दो प्रमाण और मिले । एक खबरिया चैनल शनि और मंगल के सन्युक्त प्रभाव पर न्यूज़ बना रहा था। (शनि और मंगल ....सोचिये ? है ना खबर ? ) तो आज का हिन्दुस्तान टाइम्स शनि को विलेन नही मित्र मानने की सलाह दे रहा है “Why Shani is good for us “और कारण भी बता रहा है
“so instead of blaming Shani, it makes better sense to think of him as a friendand teacher who helps us learn important life lessons from whatever befalls us,lesson that he teaches best because there is no humbug about Shani. He gives it to you straight and says “come on now,deal with it “
शेखर एक जीवनी में कभी पढा था कि जो चीज़ भय उपजाती है उसका बाह्य चाम काट डालो ताकि उसका भीतर का घास फूस बाहर बिखर जाए जैसे बालक शेखर उस फूस भरे बाघ के साथ करता है जिसके भय से वह कई रात सो नही पाया था ।
सो हमारी तरह आप भी शनिवार को अब वह सब कुछ करना आरम्भ कर दीजिये जो जो प्रतिबन्धित है , डर अपने आप खत्म हो जाएगा । कम से कम जीवन में कुछ् चीज़ें तो हम सरल बना ही सकते हैं जो हमारी सामर्थ्य के भीतर हैं और बुद्धि के बस मे हैं !आधुनिकता ने हमें तर्क और सन्देह के हथियार दिये तो कमसे कम आधुनिकता का अर्थ जानने समझने वालो को तो शनि भय नही सताना चाहिये :)
अंत में मेरा मुहाविरा ----a smiley speaks better than words :)
Sunday, June 10, 2007
जय सुरकण्डा माता !!
धनोल्टी जाकर ,सुरकण्डा देवी की चढाई चढते हुए मन मे अधिक उत्साह भी नही था और शक्ति भी नही सो थोडी दूर चलकर ही टट्टू ले लिए गये । लर्निग तो हमारी आस्तिक के रूप मे हुई पर धीरे धीरे डी लर्निन्ग भी कर ली और नास्तिक हो गये । सो तपोवन की सुनसान पहाडी चढाई जो टाट्टू पर नही थी और कठिन भी थी ,वह हमे अधिक रोमान्चक और उत्साहवर्धक लगी । खैर कल बैठे बैठे अचानक सुरकण्डा देवी की याद आयी और भी कुछ जो देखा था और उद्वेलित कर रहा था याद आया और यह कविता बन पडी । कविता से त्रस्त लोग माफ़ करे ।
शायद इस सपाट अभिव्यक्ति से भार्तीय स्त्री और समाजीकरण की कुछ सच्चाएयां स्पष्ट हो सकें ।
सितारों वाली साडी,
भरी -भरी चूडियां,
हील वाले सैंडिल,गोद में बच्चा ,कुछ महीने का,
और कंधे पर पर्स लटकाए,जिसमें से
दूध की बोतल,तौलिया, नैपियां ,
झांक रही है ।
और
वह
हांफ़ रही है
चढते हुए सुरकण्डा देवी की चढाई
अत्यन्त कटीली ।
पति ने रास्ते में बुरांश का रस,१० रु। गिलास।
दुलराया शिशु को
और खरीदे नारियल ,बताशे , माता के लिए बिन्दी, मेहन्दी, सिन्दूर वगैरह.............
टट्टू पर सवार लोगो को उपर चढते को हिकारत से देखा
और कहा खुले आम----
"माता खुश होती है
उन भक्तों से जो पैदल चढाई करके आएं"
और देखा पत्नी की ओर
उसे भांपते हुए और समर्थन प्राप्ति के विशवास में ।
शायद इस सपाट अभिव्यक्ति से भार्तीय स्त्री और समाजीकरण की कुछ सच्चाएयां स्पष्ट हो सकें ।
सितारों वाली साडी,
भरी -भरी चूडियां,
हील वाले सैंडिल,गोद में बच्चा ,कुछ महीने का,
और कंधे पर पर्स लटकाए,जिसमें से
दूध की बोतल,तौलिया, नैपियां ,
झांक रही है ।
और
वह
हांफ़ रही है
चढते हुए सुरकण्डा देवी की चढाई
अत्यन्त कटीली ।
पति ने रास्ते में बुरांश का रस,१० रु। गिलास।
दुलराया शिशु को
और खरीदे नारियल ,बताशे , माता के लिए बिन्दी, मेहन्दी, सिन्दूर वगैरह.............
टट्टू पर सवार लोगो को उपर चढते को हिकारत से देखा
और कहा खुले आम----
"माता खुश होती है
उन भक्तों से जो पैदल चढाई करके आएं"
और देखा पत्नी की ओर
उसे भांपते हुए और समर्थन प्राप्ति के विशवास में ।
Saturday, May 26, 2007
शनीचरी चर्चा का घोटाला और लोकप्रियता का घपला
वैसे आज सुबह सुबह जब याद आया कि आज मेरी चिट्ठाचर्चा करने की बारी है तब इस बात का आभास भी नही था कि आज क्या घपला होने जा रहा है । हम दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर बैठे चर्चा करने ,अभी 6 पंक्तियाँ ही लिखी थी कि हमारा लाडला नीन्द से जागा और मुझे कम्प्यूटर पर देख तुनक उठा - सारा दिन यही करती रहती हो । अब मुझे गेम खेलने दो ।
उसके तेवर देख मुझे अनिष्ट की कुछ आशंका तो हो गयी थी । पर मैने काम जारी रखा ।इससे वह चिढ गया । वह टेबल पर चढा और दूसरी तरफ खिडकी तक पहुँचने का यह मुश्किल रास्ता जान बूझ कर अपनाया । इससे दो काम हुए । पहला उसने की बोर्ड का कंट्रोल +एस दबाया और तुरंत मॉनिटर को भ्री हिला दिया जिससे स्क्रीन पर से सब गायाब हो गया। [मेरा पी सी बडा नाज़ुक है ,कमसिन तो नही , पर ज़रा हाथ इधर-उधर लगते ही कुछ ना कुछ खराब हो जाता है और नाज़ - नखरे वालाभी । तैयार होने में बहुत वक्त लेता है ]।:)] खैर अब चिढने की बारी मेरी थी। मैने उसे ज़ोर से डाँटा ,हालाँकि अभी बडा सदमा लगना बाकी था वह अब तक मेन स्विच ऑफ कर चुका था । अब महासंग्राम जो छिडा वह क्या बयाँ करूँ ..........
खैर थोडी देर में सब दोबारा चालू किया तो पाया कि वह 6 लाइना चर्चा पब्लिश हो चुकी । उसे डेलीट किया ।
और शाम 3 बजे जब तक सपूत सोया हमारा संग्राम चला । हम फिर लिखने बैठे चर्चा । भागते भागते ।अबकी पब्लिश करके नारद देखा तो दंग रह गये । वह 6 लाइना चर्चा वहाँ उपस्थित थी ।पर एरर 404 के कारण नही खुल रही थी । पर बात सिर्फ यह ही नही थी । हम और भी ज़ियादा हैरान हुये जब देखा कि आज के लोकप्रिय लेखो में वह 44हिट लेकर दूसरे नम्बर पर थी , शायद अब तक पहले पर आ गयी हो । यह क्या माया थी ? अभी वास्तविक चर्चा को 3 हिट मिले है और उस गलती को लोकप्रिय चिट्ठो में जगह मिली है ।
खैर आज के पूरे प्रकरण से दो नतीजे निकले ----- चिट्ठाचर्चा नितान्त अकेलेपन और शांति में करो और दूसरी , ज़्यादा ज़रूरी , बच्चों की छुट्टियों का मतलब आपकी "छुट्टी " :(
पहली चर्चा के लिये खेद :(
उसके तेवर देख मुझे अनिष्ट की कुछ आशंका तो हो गयी थी । पर मैने काम जारी रखा ।इससे वह चिढ गया । वह टेबल पर चढा और दूसरी तरफ खिडकी तक पहुँचने का यह मुश्किल रास्ता जान बूझ कर अपनाया । इससे दो काम हुए । पहला उसने की बोर्ड का कंट्रोल +एस दबाया और तुरंत मॉनिटर को भ्री हिला दिया जिससे स्क्रीन पर से सब गायाब हो गया। [मेरा पी सी बडा नाज़ुक है ,कमसिन तो नही , पर ज़रा हाथ इधर-उधर लगते ही कुछ ना कुछ खराब हो जाता है और नाज़ - नखरे वालाभी । तैयार होने में बहुत वक्त लेता है ]।:)] खैर अब चिढने की बारी मेरी थी। मैने उसे ज़ोर से डाँटा ,हालाँकि अभी बडा सदमा लगना बाकी था वह अब तक मेन स्विच ऑफ कर चुका था । अब महासंग्राम जो छिडा वह क्या बयाँ करूँ ..........
खैर थोडी देर में सब दोबारा चालू किया तो पाया कि वह 6 लाइना चर्चा पब्लिश हो चुकी । उसे डेलीट किया ।
और शाम 3 बजे जब तक सपूत सोया हमारा संग्राम चला । हम फिर लिखने बैठे चर्चा । भागते भागते ।अबकी पब्लिश करके नारद देखा तो दंग रह गये । वह 6 लाइना चर्चा वहाँ उपस्थित थी ।पर एरर 404 के कारण नही खुल रही थी । पर बात सिर्फ यह ही नही थी । हम और भी ज़ियादा हैरान हुये जब देखा कि आज के लोकप्रिय लेखो में वह 44हिट लेकर दूसरे नम्बर पर थी , शायद अब तक पहले पर आ गयी हो । यह क्या माया थी ? अभी वास्तविक चर्चा को 3 हिट मिले है और उस गलती को लोकप्रिय चिट्ठो में जगह मिली है ।
खैर आज के पूरे प्रकरण से दो नतीजे निकले ----- चिट्ठाचर्चा नितान्त अकेलेपन और शांति में करो और दूसरी , ज़्यादा ज़रूरी , बच्चों की छुट्टियों का मतलब आपकी "छुट्टी " :(
पहली चर्चा के लिये खेद :(
Thursday, May 24, 2007
तुम्हे करनी होगी प्रतीक्षा....
आज कई दिनो बाद एक पोस्ट डाल रही हूँ वह भी कविता ... डरते डरते .... ।कई ब्लॉगर भयभीत रहते है और टेमा भी रहने लगे होंगे }॥ मुझे खुद भी कविता और कवि से बडी घबराहट होती है । कुछेक फिर भी पसन्द है जो नही पसन्द वे कूडा हैं:)वैसे कवि और उसकी कविताई मे बडी शक्ति होती है मॉस्किटो रिपेलेंट की तरह । यही कारणे हम आजकल कविता नही करते । पर मन तो बहुत होता है समीर जी ,घुघुती जी को देखकर। इसी से एक पुरानी कविता ,जिसे फेकने ज रहे थे ,फेंक नही पाए [क्योंकि कवि हमेशा इसी मुगालते में रहता है कि उसकी रचना में कुछ तो खास बात है ] ब्लॉग पर डाल रहे है । अब इसे फेंक भी दें तो साइबर पिता हमेशा अपनी गोद मे सम्हाले रखेंगे ।
तो प्रस्तुत है
*******
जब रोशनी खत्म् हो जाती है
पूरी तरहबन्द हो जाता हैकुछ भी दिखना
औरफटी आँखों सेअन्धेरा छानते
यह एहसास हो आता है
कि
दृष्टिहीन हो गये है हम ही
तो सहसा एक क्षुद्र जुगनू
तमस् में टिमटिमा कर
जतला देता हैआँखों को
कि असमर्थ नही है वे और
यह दोष नही है उनका
बात है इतनी
कि वक्त रात का है
और बह रही है कालिमा
आच्छादित है अमा
आज निकलेंगे नही तारे न कोई चन्द्रमा
इसलिये पौ फटने तक
तुम्हे करनी होगी प्रतीक्षा ।
******
तो प्रस्तुत है
*******
जब रोशनी खत्म् हो जाती है
पूरी तरहबन्द हो जाता हैकुछ भी दिखना
औरफटी आँखों सेअन्धेरा छानते
यह एहसास हो आता है
कि
दृष्टिहीन हो गये है हम ही
तो सहसा एक क्षुद्र जुगनू
तमस् में टिमटिमा कर
जतला देता हैआँखों को
कि असमर्थ नही है वे और
यह दोष नही है उनका
बात है इतनी
कि वक्त रात का है
और बह रही है कालिमा
आच्छादित है अमा
आज निकलेंगे नही तारे न कोई चन्द्रमा
इसलिये पौ फटने तक
तुम्हे करनी होगी प्रतीक्षा ।
******
Friday, May 11, 2007
पत्रकारिता की गैर ज़िम्मेदारी ....?
पिछले दिनो पत्रकारिता पर कई सवाल खडॆ हुए और चुम्बन -प्रकरण , सेलेब्रिटी -विवाह ,आदि के सन्दर्भ मे कई विचार प्रकट किए गए ।
बाज़ार और बाज़ार के कैशल पर हम पहले दो बार लिख चुके है यहाँ और यहाँ ।
अब भी यही मानना है कि बाज़ार "सबहिं नचावत राम गुँसाई" के तरह हमारी डोर अपने हाथ मे लेने की पुरज़ोर् कोशिशें कर रहा है।वह हमारा भाग्य नियंता हुआ चाहता है । और मल्टीमीडिया उसका शोहदा बनने पर उतारू है। इसलिए शायद चुम्बन समाज की चिंता बनने से पहले बाज़ार का उत्पाद हो जाता है और उसका बाज़ार भाव देख कर हमारे चैनल उसे भुनाने दौड पडते हैं। माने बाज़ार का विवेक अब तय करता है कि उपयोगी- अनुपयोगी क्या है । योग को बाज़ार का उत्पाद बनाते ही उसकी उपयोगिता सिद्ध हो गयी । पहले भी कह चुके- आप गोबर को बाज़ार के योग्य बनाइए और देखिये उसकी भी ऊंची कीमअत लगेगी ।
खैर !
पत्रकारिता को लेकर राज किशोर जी का एक लेख ,जो हंस फरवरी1992 में छपा था , हमारे सामने आ पडा जो लगभग ऐसा ही कुछ कहता है --
"अखबार एक विचित्र चीज़ है. वह निकाला जाता है समाज के लिए, किंतु जिस पूंजी के बल पर वह काम करता है, उस पर न समाज का प्रत्यक्ष नियंत्रण है न समाज के प्रति उसकी कोई निर्दिष्ट ज़िम्मेदारी होती है ।वस्तुत: आज के सन्दर्भ में तो समाज की शब्दावली ही निरर्थक हो गयी है। लोग समाज की नही बाज़ार की बात कर्ते हैं।"
[अखबार,मालिक और संपादक -- राजकिशोर
पृ. 21]
पुन: वे चेताते हैं कि विशुद्ध बाज़ार पर भी मनिर्भर नही है पत्रकारिता ।
"लेकिन अखबार का बाज़ार चूंकि अखबार का ही बाज़ार होता है -शैम्पू या सिगरेट का नही, इसलिए शब्दावली मे परिवर्तन के बावजूद यह वस्तुत: समाज ही है ,जो बाज़ार के रूप में आचरण करता है । अखबार बिकता है और खरीदा जाता है- क्योंकि वह मुफ्त नही बाँटा जा सकता । लेकिन अखबार पढने वाले और अखबार निकालने वाले के असम्बन्ध उपभोक्ता और उत्पाद के नही होते । वे समाज के व्यापक फ्रेम मे ही परिभाषित हो सकते हैं।"
[वही ]
यह द्वद्वात्मक स्थिति अखबार के साथ शायद ज़्यादा है, चैनलो के साथ कम। अखबार सामाजिकता को उद्देश्य बनाकर चलता है और चैनल व्यावसायिकता को । इसलिए अखबारी पत्रकारिता बाज़र में पनप कर भी समाज मे है । लेकिन यह समाज भी कौन सा है यह जानना महत्वपूर्ण है क्योंकि उतने ही समाज के प्रति उसके ज़िम्मेदारी है ।
खैर इतना स्पष्ट है कि पूंजी की भूमिका जहँ भी है वहाँ उद्देश्य विशुद्ध नही रह जाते और पूंजी का नियंत्रक हमारी सामाजिक संस्थाओ, मूल्यो, आस्थओ मे हस्तक्षेप कर्ने का हकदार हो जाता है । लेकिन अखबार और विद्यालय जैसी सेंस्थओं मे यह द्वन्द्वात्मक ही रहता है । माने पूंजी की नियंत्रक शक्ति और संस्था तथा समाज के बीच के सम्बन्ध दोनो ओर से बराबर तने रहते है ।
पूंजी बढना चाहती है पर किसी भी कीमत पर नही कर सकती । विद्यालय का प्रशासन पैसा कमाने के लिए स्कूल खोलता है ,पर यहाँ वह मनमानी शर्तो पर पूंजी नही बढा सकता । वह जवाबदेह है ,समाज के प्रति । माता-पिता के प्रति।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह द्वन्द्वात्मक्ता उतनी नही बची है क्या ? यह सबसे सशक्त माध्यम है तो भी ? अपने विचारो से अवगत कराएँ -----
बाज़ार और बाज़ार के कैशल पर हम पहले दो बार लिख चुके है यहाँ और यहाँ ।
अब भी यही मानना है कि बाज़ार "सबहिं नचावत राम गुँसाई" के तरह हमारी डोर अपने हाथ मे लेने की पुरज़ोर् कोशिशें कर रहा है।वह हमारा भाग्य नियंता हुआ चाहता है । और मल्टीमीडिया उसका शोहदा बनने पर उतारू है। इसलिए शायद चुम्बन समाज की चिंता बनने से पहले बाज़ार का उत्पाद हो जाता है और उसका बाज़ार भाव देख कर हमारे चैनल उसे भुनाने दौड पडते हैं। माने बाज़ार का विवेक अब तय करता है कि उपयोगी- अनुपयोगी क्या है । योग को बाज़ार का उत्पाद बनाते ही उसकी उपयोगिता सिद्ध हो गयी । पहले भी कह चुके- आप गोबर को बाज़ार के योग्य बनाइए और देखिये उसकी भी ऊंची कीमअत लगेगी ।
खैर !
पत्रकारिता को लेकर राज किशोर जी का एक लेख ,जो हंस फरवरी1992 में छपा था , हमारे सामने आ पडा जो लगभग ऐसा ही कुछ कहता है --
"अखबार एक विचित्र चीज़ है. वह निकाला जाता है समाज के लिए, किंतु जिस पूंजी के बल पर वह काम करता है, उस पर न समाज का प्रत्यक्ष नियंत्रण है न समाज के प्रति उसकी कोई निर्दिष्ट ज़िम्मेदारी होती है ।वस्तुत: आज के सन्दर्भ में तो समाज की शब्दावली ही निरर्थक हो गयी है। लोग समाज की नही बाज़ार की बात कर्ते हैं।"
[अखबार,मालिक और संपादक -- राजकिशोर
पृ. 21]
पुन: वे चेताते हैं कि विशुद्ध बाज़ार पर भी मनिर्भर नही है पत्रकारिता ।
"लेकिन अखबार का बाज़ार चूंकि अखबार का ही बाज़ार होता है -शैम्पू या सिगरेट का नही, इसलिए शब्दावली मे परिवर्तन के बावजूद यह वस्तुत: समाज ही है ,जो बाज़ार के रूप में आचरण करता है । अखबार बिकता है और खरीदा जाता है- क्योंकि वह मुफ्त नही बाँटा जा सकता । लेकिन अखबार पढने वाले और अखबार निकालने वाले के असम्बन्ध उपभोक्ता और उत्पाद के नही होते । वे समाज के व्यापक फ्रेम मे ही परिभाषित हो सकते हैं।"
[वही ]
यह द्वद्वात्मक स्थिति अखबार के साथ शायद ज़्यादा है, चैनलो के साथ कम। अखबार सामाजिकता को उद्देश्य बनाकर चलता है और चैनल व्यावसायिकता को । इसलिए अखबारी पत्रकारिता बाज़र में पनप कर भी समाज मे है । लेकिन यह समाज भी कौन सा है यह जानना महत्वपूर्ण है क्योंकि उतने ही समाज के प्रति उसके ज़िम्मेदारी है ।
खैर इतना स्पष्ट है कि पूंजी की भूमिका जहँ भी है वहाँ उद्देश्य विशुद्ध नही रह जाते और पूंजी का नियंत्रक हमारी सामाजिक संस्थाओ, मूल्यो, आस्थओ मे हस्तक्षेप कर्ने का हकदार हो जाता है । लेकिन अखबार और विद्यालय जैसी सेंस्थओं मे यह द्वन्द्वात्मक ही रहता है । माने पूंजी की नियंत्रक शक्ति और संस्था तथा समाज के बीच के सम्बन्ध दोनो ओर से बराबर तने रहते है ।
पूंजी बढना चाहती है पर किसी भी कीमत पर नही कर सकती । विद्यालय का प्रशासन पैसा कमाने के लिए स्कूल खोलता है ,पर यहाँ वह मनमानी शर्तो पर पूंजी नही बढा सकता । वह जवाबदेह है ,समाज के प्रति । माता-पिता के प्रति।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह द्वन्द्वात्मक्ता उतनी नही बची है क्या ? यह सबसे सशक्त माध्यम है तो भी ? अपने विचारो से अवगत कराएँ -----
Saturday, April 28, 2007
आज के सबसे पॉपुलर देवता
सर्व प्रथम --- इस पोस्ट का हिन्दुत्व और मोहल्ला प्रकरण से कोई लेना देना नही है ।
आज शनिवार है और मेरा मानना है कि आज के सबसे पॉपुलर देवता "शनि देव महाराज जी हैं " {हनुमान जी मुझे यह पोस्ट लिखने के लिए उनके कोपदृषटि से बचाना। कहा जाता है कि शनि के क्रोध का तोड सिर्फ हनुमान कर सकते है ,इसलिए शने पीडितो को हनुमान चालीसा के नियमित पठन की सलाह दी जाती है । } जब मै छोटी थी शनि देव से बहुत डरती थी । मेरीमाँ बहुत गॉड-फियरिंग हैं । उन्होने ही भगवानो से डरना सिखाया {अच्छी बातें भी बहुत सारी सिखाई,उन्हे सादर प्रणाम }। उनसे ही जाना कि शनि रुष्ट हो तो सत्यानास ।{मेरी माँ अच्छी पढी लिखी हैं पर शनि की दृष्टि का भय आजकल सभी को हो चला है }
तो डर के मारे शनिवार को ना हम नया कपडा पहन सकते थे ,ना नाखून काट सकते थे, न बाल धो सकते थे { मै तो डर से हँसती भी नही थी ,कहीं पेपरो मे नम्बर खराब हो गए तो...} ।यहाँ तक कि उनके लिए कुछ सोच भी नही सकते थे ,कही काली दाल् दान करने को कभी कह कर भूल गए तो जीवन नर्क समझो। सो हमारे मन मे उनकी छवि देवों मे विलेन जैसी हो गयी {कोई आहत ना हो ,ये मेरे बचपन के विचार हैं } जिसका असर आज तक चला आ रहा है कि लोटे मे सरसों का तेल लिए घूमते बच्चो,स्त्रियो बाबाओ को एक सिक्का तो दे ही देते है ,हफ्ता वसूली :)
शनि की साढेसाती, यानी साढेसात साल चलने वाली दशा और 18 बरस चलने वाली शनि की महादशा व्यापार ,व्यव्साय, स्वास्थ्य,संतान करियर स्टैंडर्ड प्रतिष्टा सब कुछ ध्वंस कर सकती है ।इसी से ज्योतिषी हर दूसरे व्यक्ति का शनि भारी बताते है या और कुछ नही ति आधी साढेसाती कह कर उपाय बताते हैं ।क्योंकि इनके उपाय भी तो उतने ही मँहगे है । नीलम पतथर 20,000 से लेकर 1 लाख की कीमत तक जाता है ।और नेताओ व्यापारोयो को तो इन देव का विशेष भय रहता है और सर्वोत्तम उपाय के लिए उन्हे पत्थर बेचने वाले दूकानदार वाया ज्योतिषाचार्य लाखो का नीलम इम्पोर्ट कर के देते हैं।
शनि के भार से घबराया व्यक्ति कुछ् भी उपाय कर सकता है । इसलिए हमे शनिवार को किसी का प्रसाद लेना भी मना था ।
अब हम खुद हे किसी का प्रसाद नही देते लेते ।
शनि देव पर सीरियल भी है और टी सीरीज़ वालों के गाने भी । "ये है शनि दशा रे मेरे भाई...ओ मेरे बन्धु ... करो शनि देव की मन से पूजा......."शायद फिल्म भी बना डाली है ।खौफनाक फिल्म! देखी तो नही ।पर ऐसी होगी कुछ कि कोई व्यक्ति शनि देव की मन्नत मानकर,, कि बात पूरी हो तो ऐसा ऐसा करूँगा ...--- बात पूरी करवा कर भूल गया होगा । तो शनि देव बोले होंगे -"ले बेट्टा, मन्नत पूरी हुई तो भूल गया...दुख मे सिमरन सब करें...सुख मे ...। तो ले अब भुगतियो बैठ कर " डःइश! डःइश !ढिश! " और फिर सब सत्यानास ! महल झोंपडी हो गया होगा , वह व्यापारी से भिखरी ,बीवी रानी से नौकरानी , बच्चे भींख माँगते होंगे -----"ए माईए! कुछ्ह खाने को दे ना !"और फिर शनि देव {चूँकि उनके पत्नी की मुझे कोई जानकारी नही है } तो कोई और या नारद जी उनसे सिफारिश करते होंगे "हे प्रभु इस अबोध के दुख हरो" वे नही मानते होगे । फिर नारद हनुमान के पास जाते होगे क्योकि नारद सबकीए खबर रखते थे ,कि हे! हनुमान , शनि के कोप से आप ही उन्हे बचा सकते हो ।" ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला । जिन महाशय ने फिल्म देखी हो मुझे करक्ट कर दे ।
हर वार कुछ न कुछ निषेधात्मक सलाह देता है --
मंगलवार -नाई की दूकान बन्द , मीट बन्द । हम बाल नही धोये । पुरुष दाढी ना बनाऎ।
बुधवार - विवाहिता मायके से ससुराल विदा ना हो । बुधवार व्रत कथा इसी प्रसंग पर बनी है।
गुरुवार -कपडे ना धोएँ , साबुन ना लगाएँ , बाल ना धोएँ { मेडीकर बेचने की ज़रूरत पडेगी कि नही !}
शुक्रवार -खट्टा ना खाएँ । संतोषी माता और लक्ष्मी जी का व्रत ।
और शनिवार - लोहा ना खरीदें । नए काम की शुरुआत ना करे, नया कपडा ना पहने { जैसे हमारी हर नई चीज़ पर शनि देव को आपत्ति हो ।}
हमेशा कहा जाता है --शनि की "कुदृष्टि"।
क्या इसी लिए कहते हैं-----"बुरी नज़र वाले ,तेरा मुँह काला"
काला शनि देव का रंग है । काला बुराइयों का सिंबल है । क्यो ? कृष्ण भी काले थे ।उनको तो पूजते हैं । कृष्ण शब्द का तो अर्थ ही है "काला"
।
काले को बदनाम करने की साज़िश तो नही है यह । हम भी इंग्लैड मे काले के नाम से बदनाम थे
black indians , black dogs !
खैर यह अवांतर प्रसंग है ।
मुद्दा यह था कि शनि देवों मे और प्राचीन विद्याओं मे आजकल ज्योतिष बहुत पॉपुलर हो रहा है । मीडिया ने यह काम बखूबी अंजाम दिया है । एस 1 और कई चैनल रोज़ का भविष्य बताते हैं ।खबरिया चैनलों को भविष्य बताने की ज़रूरत क्यो पडती है । क्या ज्योतिष इन-थिंग है । क्या हमारे भाग्यवाद को बढावा दिया जा रहा है या मार्केट मे उसे भुनाया जा रहा है ।
सोचें,विचारें
आज शनिवार है और मेरा मानना है कि आज के सबसे पॉपुलर देवता "शनि देव महाराज जी हैं " {हनुमान जी मुझे यह पोस्ट लिखने के लिए उनके कोपदृषटि से बचाना। कहा जाता है कि शनि के क्रोध का तोड सिर्फ हनुमान कर सकते है ,इसलिए शने पीडितो को हनुमान चालीसा के नियमित पठन की सलाह दी जाती है । } जब मै छोटी थी शनि देव से बहुत डरती थी । मेरीमाँ बहुत गॉड-फियरिंग हैं । उन्होने ही भगवानो से डरना सिखाया {अच्छी बातें भी बहुत सारी सिखाई,उन्हे सादर प्रणाम }। उनसे ही जाना कि शनि रुष्ट हो तो सत्यानास ।{मेरी माँ अच्छी पढी लिखी हैं पर शनि की दृष्टि का भय आजकल सभी को हो चला है }
तो डर के मारे शनिवार को ना हम नया कपडा पहन सकते थे ,ना नाखून काट सकते थे, न बाल धो सकते थे { मै तो डर से हँसती भी नही थी ,कहीं पेपरो मे नम्बर खराब हो गए तो...} ।यहाँ तक कि उनके लिए कुछ सोच भी नही सकते थे ,कही काली दाल् दान करने को कभी कह कर भूल गए तो जीवन नर्क समझो। सो हमारे मन मे उनकी छवि देवों मे विलेन जैसी हो गयी {कोई आहत ना हो ,ये मेरे बचपन के विचार हैं } जिसका असर आज तक चला आ रहा है कि लोटे मे सरसों का तेल लिए घूमते बच्चो,स्त्रियो बाबाओ को एक सिक्का तो दे ही देते है ,हफ्ता वसूली :)
शनि की साढेसाती, यानी साढेसात साल चलने वाली दशा और 18 बरस चलने वाली शनि की महादशा व्यापार ,व्यव्साय, स्वास्थ्य,संतान करियर स्टैंडर्ड प्रतिष्टा सब कुछ ध्वंस कर सकती है ।इसी से ज्योतिषी हर दूसरे व्यक्ति का शनि भारी बताते है या और कुछ नही ति आधी साढेसाती कह कर उपाय बताते हैं ।क्योंकि इनके उपाय भी तो उतने ही मँहगे है । नीलम पतथर 20,000 से लेकर 1 लाख की कीमत तक जाता है ।और नेताओ व्यापारोयो को तो इन देव का विशेष भय रहता है और सर्वोत्तम उपाय के लिए उन्हे पत्थर बेचने वाले दूकानदार वाया ज्योतिषाचार्य लाखो का नीलम इम्पोर्ट कर के देते हैं।
शनि के भार से घबराया व्यक्ति कुछ् भी उपाय कर सकता है । इसलिए हमे शनिवार को किसी का प्रसाद लेना भी मना था ।
अब हम खुद हे किसी का प्रसाद नही देते लेते ।
शनि देव पर सीरियल भी है और टी सीरीज़ वालों के गाने भी । "ये है शनि दशा रे मेरे भाई...ओ मेरे बन्धु ... करो शनि देव की मन से पूजा......."शायद फिल्म भी बना डाली है ।खौफनाक फिल्म! देखी तो नही ।पर ऐसी होगी कुछ कि कोई व्यक्ति शनि देव की मन्नत मानकर,, कि बात पूरी हो तो ऐसा ऐसा करूँगा ...--- बात पूरी करवा कर भूल गया होगा । तो शनि देव बोले होंगे -"ले बेट्टा, मन्नत पूरी हुई तो भूल गया...दुख मे सिमरन सब करें...सुख मे ...। तो ले अब भुगतियो बैठ कर " डःइश! डःइश !ढिश! " और फिर सब सत्यानास ! महल झोंपडी हो गया होगा , वह व्यापारी से भिखरी ,बीवी रानी से नौकरानी , बच्चे भींख माँगते होंगे -----"ए माईए! कुछ्ह खाने को दे ना !"और फिर शनि देव {चूँकि उनके पत्नी की मुझे कोई जानकारी नही है } तो कोई और या नारद जी उनसे सिफारिश करते होंगे "हे प्रभु इस अबोध के दुख हरो" वे नही मानते होगे । फिर नारद हनुमान के पास जाते होगे क्योकि नारद सबकीए खबर रखते थे ,कि हे! हनुमान , शनि के कोप से आप ही उन्हे बचा सकते हो ।" ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला । जिन महाशय ने फिल्म देखी हो मुझे करक्ट कर दे ।
हर वार कुछ न कुछ निषेधात्मक सलाह देता है --
मंगलवार -नाई की दूकान बन्द , मीट बन्द । हम बाल नही धोये । पुरुष दाढी ना बनाऎ।
बुधवार - विवाहिता मायके से ससुराल विदा ना हो । बुधवार व्रत कथा इसी प्रसंग पर बनी है।
गुरुवार -कपडे ना धोएँ , साबुन ना लगाएँ , बाल ना धोएँ { मेडीकर बेचने की ज़रूरत पडेगी कि नही !}
शुक्रवार -खट्टा ना खाएँ । संतोषी माता और लक्ष्मी जी का व्रत ।
और शनिवार - लोहा ना खरीदें । नए काम की शुरुआत ना करे, नया कपडा ना पहने { जैसे हमारी हर नई चीज़ पर शनि देव को आपत्ति हो ।}
हमेशा कहा जाता है --शनि की "कुदृष्टि"।
क्या इसी लिए कहते हैं-----"बुरी नज़र वाले ,तेरा मुँह काला"
काला शनि देव का रंग है । काला बुराइयों का सिंबल है । क्यो ? कृष्ण भी काले थे ।उनको तो पूजते हैं । कृष्ण शब्द का तो अर्थ ही है "काला"
।
काले को बदनाम करने की साज़िश तो नही है यह । हम भी इंग्लैड मे काले के नाम से बदनाम थे
black indians , black dogs !
खैर यह अवांतर प्रसंग है ।
मुद्दा यह था कि शनि देवों मे और प्राचीन विद्याओं मे आजकल ज्योतिष बहुत पॉपुलर हो रहा है । मीडिया ने यह काम बखूबी अंजाम दिया है । एस 1 और कई चैनल रोज़ का भविष्य बताते हैं ।खबरिया चैनलों को भविष्य बताने की ज़रूरत क्यो पडती है । क्या ज्योतिष इन-थिंग है । क्या हमारे भाग्यवाद को बढावा दिया जा रहा है या मार्केट मे उसे भुनाया जा रहा है ।
सोचें,विचारें
Thursday, April 26, 2007
वर्ना हम भी आदमी थे काम के.....
फरवरी मे किन्ही वैरियों ने { मसिजीवि और नीलिमा और कौन हमारे बहुत सारे दुश्मन हैं :) } हमें ब्लॉग जगत का रास्ता दिखाया और कहा एक और दुनिया भी है बच्चा ,वहाँ जाकर छपास भी शांत होती है और पीठ की खुजली भी मिटती है । आओ तुम्हारे ज्ञान की चिट्ठाजगत को नितांत आवश्यकता है " सो हम इधर की गली पकड लिए । पीएच डी मुई पूरी हुई गई थीं सो कुछ काम भी नही था । लगे पोस्टियाने ।
पर आज हम ऐसी हड्डी गले माँ फँसा लिए कि ना उगलते बने ना निगलते । रोज़ सुबह पति बच्चे को रवाना कर कीबोर्ड कूटने बैठ जाते हैं ।क्या कहें ऐसी ऐसी पोस्टों की उबकाई आती है रात भारत कि घरवालों का डर ना हो तो रात मे भी कंप्यूटर के कान उमेठते रहें । एक दिन पोस्ट ना डालें तो दाद खाज सब लग जाती है ।
फोन के बिल नही भरे जाते , बेल बजने पर गालियाँ देकर उठ्जते है ,सेल्समैन को धमकाते है , भूख से आँते कुल्बुलाती हैं तो भी कीबोर्ड नही छोडते , बच्चे पर झल्लाते हैं, सास के बुलाने पर कहते हैं-"इस घर में तो चैन से ब्लॉगिंग करना भी हराम है " ,टी वी देखे अर्सा बीत गया । बुद्धू बक्सा छोड आवारा बक्से की शरण गही और सर्फिंग कर्ते करते कबहूँ ना चैन से सोया ।
ब्लॉगिंग मेरी किचन है
ब्लॉगिंग मेरा भोजन
ब्लोगिंग मेरा मात्र कर्म ब्लॉगिंग ही प्रयोजन ।
देखा कविता भी कितनी उबकाई भरी करने लगी हूँ । जिस कुर्सी पर बैठती हूँ, ब्लॉगिंग करने, उसे छाले पड गये हैं , कीबोर्ड का बदन दुखता है उसके अक्षर मिट गये हैं ,मिट कर मेरी उंगलियो मे छप गये हैं ।भाषा बर्बाद हो गयी ।कोई शब्द बोलती हूँ तो दिमाग मे कीबोर्ड चलता है- चलता ?? दिमाग में CHALATAA है ।अब मेरे हाथ अंग्रेज़ी नही लिख सकते मेरे तो गिर्धर गोपाल दूसरो ना कोय की तरह। ।
मैं कहती हूँ "और कोई गम नही ज़माने मे ब्लॉगिंग के सिवा......."
टांसलिटरेशन ने खोपडे के खोपचे का बल्ब फोड डाला ।रोमन मे हिन्दी लिख कर किसी से चैटिंग करें तो लिखते हैं -kyaa haal hai aapakaa
किताबें कीडे खा रहे हैं हम ब्लॉग पर टिप्पिया रहे हैं चिप्पिया रहे है , और पता नही क्या क्या ।
ब्लॉगर्स ढिग बैठ बैठ लोक लाज खोई
मेरे तो गिर.....
हमारा भेजा कूडा करकट हो गय है ।दिमाग को डायरिया हो गय है । मॉनिटर गन्दा हो रह है । हम यहाँ बैठे बैठे ताने सुनते रहते है , पर बेशर्मो की तरह डटे रहते हैं।
भूखा क्या चाहे - दो घण्टॆ की ब्लॉगिंग !
जात पे ना पात पे मोहर लगेगी ब्लॉग पे !
ब्लॉग के अन्धे को टिप्पणी हीटिप्पणी दीखे !
ना होगा ब्लॉग और ना राधा टिप्पियाएगी !
ब्लॉगिंग ने हमें निकम्मा कर दिया वर्ना ...........
नोट ---- इसे पढ कर आपका दिमाग खराब हुअ हो तो ....
तो मै क्या करूँ ?
पर आज हम ऐसी हड्डी गले माँ फँसा लिए कि ना उगलते बने ना निगलते । रोज़ सुबह पति बच्चे को रवाना कर कीबोर्ड कूटने बैठ जाते हैं ।क्या कहें ऐसी ऐसी पोस्टों की उबकाई आती है रात भारत कि घरवालों का डर ना हो तो रात मे भी कंप्यूटर के कान उमेठते रहें । एक दिन पोस्ट ना डालें तो दाद खाज सब लग जाती है ।
फोन के बिल नही भरे जाते , बेल बजने पर गालियाँ देकर उठ्जते है ,सेल्समैन को धमकाते है , भूख से आँते कुल्बुलाती हैं तो भी कीबोर्ड नही छोडते , बच्चे पर झल्लाते हैं, सास के बुलाने पर कहते हैं-"इस घर में तो चैन से ब्लॉगिंग करना भी हराम है " ,टी वी देखे अर्सा बीत गया । बुद्धू बक्सा छोड आवारा बक्से की शरण गही और सर्फिंग कर्ते करते कबहूँ ना चैन से सोया ।
ब्लॉगिंग मेरी किचन है
ब्लॉगिंग मेरा भोजन
ब्लोगिंग मेरा मात्र कर्म ब्लॉगिंग ही प्रयोजन ।
देखा कविता भी कितनी उबकाई भरी करने लगी हूँ । जिस कुर्सी पर बैठती हूँ, ब्लॉगिंग करने, उसे छाले पड गये हैं , कीबोर्ड का बदन दुखता है उसके अक्षर मिट गये हैं ,मिट कर मेरी उंगलियो मे छप गये हैं ।भाषा बर्बाद हो गयी ।कोई शब्द बोलती हूँ तो दिमाग मे कीबोर्ड चलता है- चलता ?? दिमाग में CHALATAA है ।अब मेरे हाथ अंग्रेज़ी नही लिख सकते मेरे तो गिर्धर गोपाल दूसरो ना कोय की तरह। ।
मैं कहती हूँ "और कोई गम नही ज़माने मे ब्लॉगिंग के सिवा......."
टांसलिटरेशन ने खोपडे के खोपचे का बल्ब फोड डाला ।रोमन मे हिन्दी लिख कर किसी से चैटिंग करें तो लिखते हैं -kyaa haal hai aapakaa
किताबें कीडे खा रहे हैं हम ब्लॉग पर टिप्पिया रहे हैं चिप्पिया रहे है , और पता नही क्या क्या ।
ब्लॉगर्स ढिग बैठ बैठ लोक लाज खोई
मेरे तो गिर.....
हमारा भेजा कूडा करकट हो गय है ।दिमाग को डायरिया हो गय है । मॉनिटर गन्दा हो रह है । हम यहाँ बैठे बैठे ताने सुनते रहते है , पर बेशर्मो की तरह डटे रहते हैं।
भूखा क्या चाहे - दो घण्टॆ की ब्लॉगिंग !
जात पे ना पात पे मोहर लगेगी ब्लॉग पे !
ब्लॉग के अन्धे को टिप्पणी हीटिप्पणी दीखे !
ना होगा ब्लॉग और ना राधा टिप्पियाएगी !
ब्लॉगिंग ने हमें निकम्मा कर दिया वर्ना ...........
नोट ---- इसे पढ कर आपका दिमाग खराब हुअ हो तो ....
तो मै क्या करूँ ?
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