बहुत दिन से कुछ लिखते नही बना। पर आज तो लिख ही डालने की प्रतिज्ञ है।
एक बात शुरु से परेशान करती रही कि रसोई नामक जगह को अगर घर से हटा दिया
जाए तो क्या हो?और किसी का पता नही पर इससे आधी आबादी यानी स्त्रियो का बडा
उपकार होगा।
वैसे घर के पुरुषो का भी भला ही भला है,देखा जाए तो,क्योंकी घर का सबसे बडा
कुरुक्षेत्र नष्ट हो जाएगा { महाभारत सम्भावित ज़ोन} ।
घर की स्त्रियाँ रसोई से अपनी पहचान को जोडती आई है। इसलिए नवविवाहिता
को यदि अपनी पहचान बनानी होती है तो सबसे पहले इस किचन नामक किले को फतह
करना ज़रूरी हो जाता है उसके लिए। एक बार किचन मे झंडे गाडने के बाद
वह एक कुशल बहू,होनहार पत्नी मान ली जाती है।
प्रशंसा का{ वह भी घर के पुरुषो की} एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
एक से अधिक बहू हो तो, {नही हो तो सास भी} दोनो इस प्रतिस्पर्धा मे शामिल हो जाती है कि किसे क्या पकवान बनाने पर अधिक तारीफ मिलती है। और इस होड मे घर के लोग नित नए पकवान खाते और अघाते है । बेचारी स्त्रिया किचन को ही अपनी रंगभूमि मान कर आलू छीलते, पूडियाँ छानते, बासन मांजते, चटनी पीसते खुद पिसती चली जाती है।“राजमा तो सीमा से अच्छे कोई नही बना सकता!!” ऐसे वाक्य
सुनने के लिए बहू बेटिया अपना सर्वस्व किचन के चूल्हे मे होम कर देती है।
न उन्हे कभी अहसास होता है, न पतियो,जेठो,देवरो, ससुरो{माफ कीजिए
यह गाली नही है} को इसका अहसास दिलाना अपने हित मे लगता है ।
इस सब के चलते उस बहू की शामत आती है जो किचन के महत्व को ठीक
ठीक नही आँक पाती है। उनके अस्तित्व का नकार वही शुरु हो जाता है।
कुल मिलाकर आधी ज़िन्दगी के बराबर समय जो हम किचन मे व्यतीत करते है
वही अगर पढने लिखने और बाकी रचनात्मक कामो मे लगाए तो परिवार की परम्परागत संरचना मे ही बदलाव नही आएगा वरन स्त्रियो के जीवन स्तर मे भी सुधार आएगा, उनकी सेहत मे भी और मानसिक स्वास्थ्य भी बरकरार रहेगा।
पर सोचने की बात यह है कि रसोई से बचे समय को कैसे बेहतर इस्तेमाल करना है क्या यह भी स्त्रियाँ तय कर पाएगी? निश्चित रूप से । अगर सच मे स्त्रियाँ इस बदलाव के लिए तैयार होगी तो यह भी सोच पाएगी। एक मित्र अपने विवाह को लेकर आजकल चिंतित है। कहने लगे मै हर तरह से एडजस्ट कर सकता हू। लेकिन ईगोइस्ट हू। हमने कह ईगो तो सही है कि ईगो से ही आईडेंटिटी बनती है ऐसा मनोवैग्यानिक कहते है।लेकिन भावी पत्नी के भी ईगो का सम्मान करो तो । वे बोले “मै तैयार हू बशर्ते उसे पता हो कि ईगो क्या है, आईडेंटिटी क्या है ।
फिलहाल यह कि आत्मनिरीक्षण आवश्यक है।
एक रसोई रिश्तो की असमानता की आधारभूमि है।
इसे नष्ट नही किया जा सकता तो इसमे नष्ट होने वाली ज़िन्दगियो को तो बचा ही सकते है।
एक बात शुरु से परेशान करती रही कि रसोई नामक जगह को अगर घर से हटा दिया
जाए तो क्या हो?और किसी का पता नही पर इससे आधी आबादी यानी स्त्रियो का बडा
उपकार होगा।
वैसे घर के पुरुषो का भी भला ही भला है,देखा जाए तो,क्योंकी घर का सबसे बडा
कुरुक्षेत्र नष्ट हो जाएगा { महाभारत सम्भावित ज़ोन} ।
घर की स्त्रियाँ रसोई से अपनी पहचान को जोडती आई है। इसलिए नवविवाहिता
को यदि अपनी पहचान बनानी होती है तो सबसे पहले इस किचन नामक किले को फतह
करना ज़रूरी हो जाता है उसके लिए। एक बार किचन मे झंडे गाडने के बाद
वह एक कुशल बहू,होनहार पत्नी मान ली जाती है।
प्रशंसा का{ वह भी घर के पुरुषो की} एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
एक से अधिक बहू हो तो, {नही हो तो सास भी} दोनो इस प्रतिस्पर्धा मे शामिल हो जाती है कि किसे क्या पकवान बनाने पर अधिक तारीफ मिलती है। और इस होड मे घर के लोग नित नए पकवान खाते और अघाते है । बेचारी स्त्रिया किचन को ही अपनी रंगभूमि मान कर आलू छीलते, पूडियाँ छानते, बासन मांजते, चटनी पीसते खुद पिसती चली जाती है।“राजमा तो सीमा से अच्छे कोई नही बना सकता!!” ऐसे वाक्य
सुनने के लिए बहू बेटिया अपना सर्वस्व किचन के चूल्हे मे होम कर देती है।
न उन्हे कभी अहसास होता है, न पतियो,जेठो,देवरो, ससुरो{माफ कीजिए
यह गाली नही है} को इसका अहसास दिलाना अपने हित मे लगता है ।
इस सब के चलते उस बहू की शामत आती है जो किचन के महत्व को ठीक
ठीक नही आँक पाती है। उनके अस्तित्व का नकार वही शुरु हो जाता है।
कुल मिलाकर आधी ज़िन्दगी के बराबर समय जो हम किचन मे व्यतीत करते है
वही अगर पढने लिखने और बाकी रचनात्मक कामो मे लगाए तो परिवार की परम्परागत संरचना मे ही बदलाव नही आएगा वरन स्त्रियो के जीवन स्तर मे भी सुधार आएगा, उनकी सेहत मे भी और मानसिक स्वास्थ्य भी बरकरार रहेगा।
पर सोचने की बात यह है कि रसोई से बचे समय को कैसे बेहतर इस्तेमाल करना है क्या यह भी स्त्रियाँ तय कर पाएगी? निश्चित रूप से । अगर सच मे स्त्रियाँ इस बदलाव के लिए तैयार होगी तो यह भी सोच पाएगी। एक मित्र अपने विवाह को लेकर आजकल चिंतित है। कहने लगे मै हर तरह से एडजस्ट कर सकता हू। लेकिन ईगोइस्ट हू। हमने कह ईगो तो सही है कि ईगो से ही आईडेंटिटी बनती है ऐसा मनोवैग्यानिक कहते है।लेकिन भावी पत्नी के भी ईगो का सम्मान करो तो । वे बोले “मै तैयार हू बशर्ते उसे पता हो कि ईगो क्या है, आईडेंटिटी क्या है ।
फिलहाल यह कि आत्मनिरीक्षण आवश्यक है।
एक रसोई रिश्तो की असमानता की आधारभूमि है।
इसे नष्ट नही किया जा सकता तो इसमे नष्ट होने वाली ज़िन्दगियो को तो बचा ही सकते है।