Thursday, March 29, 2007

हम तो रसोई मे मिलेंगे!

बहुत दिन से कुछ लिखते नही बना। पर आज तो लिख ही डालने की प्रतिज्ञ है।
एक बात शुरु से परेशान करती रही कि रसोई नामक जगह को अगर घर से हटा दिया
जाए तो क्या हो?और किसी का पता नही पर इससे आधी आबादी यानी स्त्रियो का बडा
उपकार होगा।
वैसे घर के पुरुषो का भी भला ही भला है,देखा जाए तो,क्योंकी घर का सबसे बडा
कुरुक्षेत्र नष्ट हो जाएगा { महाभारत सम्भावित ज़ोन} ।
घर की स्त्रियाँ रसोई से अपनी पहचान को जोडती आई है। इसलिए नवविवाहिता
को यदि अपनी पहचान बनानी होती है तो सबसे पहले इस किचन नामक किले को फतह
करना ज़रूरी हो जाता है उसके लिए। एक बार किचन मे झंडे गाडने के बाद
वह एक कुशल बहू,होनहार पत्नी मान ली जाती है।
प्रशंसा का{ वह भी घर के पुरुषो की} एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
एक से अधिक बहू हो तो, {नही हो तो सास भी} दोनो इस प्रतिस्पर्धा मे शामिल हो जाती है कि किसे क्या पकवान बनाने पर अधिक तारीफ मिलती है। और इस होड मे घर के लोग नित नए पकवान खाते और अघाते है । बेचारी स्त्रिया किचन को ही अपनी रंगभूमि मान कर आलू छीलते, पूडियाँ छानते, बासन मांजते, चटनी पीसते खुद पिसती चली जाती है।“राजमा तो सीमा से अच्छे कोई नही बना सकता!!” ऐसे वाक्य
सुनने के लिए बहू बेटिया अपना सर्वस्व किचन के चूल्हे मे होम कर देती है।
न उन्हे कभी अहसास होता है, न पतियो,जेठो,देवरो, ससुरो{माफ कीजिए
यह गाली नही है} को इसका अहसास दिलाना अपने हित मे लगता है ।
इस सब के चलते उस बहू की शामत आती है जो किचन के महत्व को ठीक
ठीक नही आँक पाती है। उनके अस्तित्व का नकार वही शुरु हो जाता है।
कुल मिलाकर आधी ज़िन्दगी के बराबर समय जो हम किचन मे व्यतीत करते है
वही अगर पढने लिखने और बाकी रचनात्मक कामो मे लगाए तो परिवार की परम्परागत संरचना मे ही बदलाव नही आएगा वरन स्त्रियो के जीवन स्तर मे भी सुधार आएगा, उनकी सेहत मे भी और मानसिक स्वास्थ्य भी बरकरार रहेगा।
पर सोचने की बात यह है कि रसोई से बचे समय को कैसे बेहतर इस्तेमाल करना है क्या यह भी स्त्रियाँ तय कर पाएगी? निश्चित रूप से । अगर सच मे स्त्रियाँ इस बदलाव के लिए तैयार होगी तो यह भी सोच पाएगी। एक मित्र अपने विवाह को लेकर आजकल चिंतित है। कहने लगे मै हर तरह से एडजस्ट कर सकता हू। लेकिन ईगोइस्ट हू। हमने कह ईगो तो सही है कि ईगो से ही आईडेंटिटी बनती है ऐसा मनोवैग्यानिक कहते है।लेकिन भावी पत्नी के भी ईगो का सम्मान करो तो । वे बोले “मै तैयार हू बशर्ते उसे पता हो कि ईगो क्या है, आईडेंटिटी क्या है ।
फिलहाल यह कि आत्मनिरीक्षण आवश्यक है।
एक रसोई रिश्तो की असमानता की आधारभूमि है।
इसे नष्ट नही किया जा सकता तो इसमे नष्ट होने वाली ज़िन्दगियो को तो बचा ही सकते है।

Monday, March 19, 2007

मेरा कुछ सामान....!

गुलज़ार की ये शायरी अपने जीवन से बहुत करीब करीब सी लगती है--मेरा कुछ सामान,तुम्हारे पास पडा है..। ऐसा कितना ही सामान न जाने कहा कहा .किस किस के पास छूट जाता है -०-सावन के कुछ भीगे भीगे दिन,गीला मन, कुछ अधूरी चिट्ठिया.......!
ऐसे ही कुछ ,गुलाब की सूखी पन्खुरियो की तरह, कुछ अधूरी कुछ पूरी कविताए, कल घर साफ़ करते हुए मिल गई। मेरा ही सामान ,मेरे ही पास बेगाना सा रखा था. छपने के लिए कभी नही था, पर नए नए आकर्षण के दौर मे, तरुणाई की ये अभिव्यक्तिया हसा देती है, कभी कभी हैरान कर देती है।
उन्ही मे से कुछ प्रस्तुत है---

"हर बार तुमसे मिल कर
पुन: मिलने का विश्वास
मैने कभी नही बान्धा,
अवकाश न तुमने दिया न
नियति ने।
विचित्र सूत्र
तुम्हारे शब्दो मे पल्लवित
मेरे श्वासो मे आश्वस्त हुआ और पल्लवन
के साथ जड हो गया
मै आकन्ठ डूबी उसे सीचती रही।
ह्रदय से लगाए म्रत शावक को\
सद्य जन्मे प्रेम-शिशु का उल्लास
मैने कभी नही बान्धा।
अवकाश न तुमने दिया न नियति ने।

तुम मुझे और मै निर्निमेष देखती रही खाई -सा अन्तराल।
अपने सत्य से तुम्हारे मिथ
तक इस खाई को पाटने का सेतु,

मैने कभी नही बान्धा।
अवकाश न तुमने दिया न नियति ने.

--------------------

प्यार तो शब्द था
उड गया
हवा के साथ
हवा होकर।
हमारे ताकने को
बचा था
नालायक! आसमा।
किसी किताब ने
प्यार के
वो अर्थ
कभी बताए ही न थे
जितने
हमने जाने है
रुसवा होकर।
यू तो हर रोज़
बढती है उम्र
फ़ीकी होती है याद
अफ़सोस ज़ियादा मगर
आवारगी खोकर!

Friday, March 16, 2007

ANONYMOUS कौन है?? मोना डार्लिन्ग ...!!

मसिजीवी जी ने मुखौटो की दुनिया की खूब कहानी सुनाई कि एक बहस ही चल पडी. सन्जय जी बोले
""यह एक ऐसी दुनिया थी जहाँ कोई मुखोटा नहीं पहनता था, किसी को इसकी आवश्यकता भी नहीं थी.फिर कुछ नए लोग आए. उनके पास न हिम्मत थी न तर्क मगर प्रलाप करना था. तब उन्होने मुखोटे पहन कर अपना काम शुरू किया.आगे की कहानी आप घड़ लें."
धुरविरोधी जी ने कहा
"संजयजी, मेरे प्रलाप में तर्क भी हैं और हिम्मत भी. क्या हम असहमति एवं सहमति दोनों के बीच में नहीं जी सकते?मुझे तो अब नकली और पाखंड दूर यह दुनियां ही पसंद है."
नही ?मै सोचती हू कही धुरविरोधी ही तो मसिजीवि न्ही है?खैर छोडिये अपन को क्या? पर इस बीच किसी ने भोलेपन मे नीलिमा जी के comment को कोट करके यह लिख डाला"Anonymous said...
मुखौटों के पीछे के कुछ चिट्ठाकारों को मैं जानती हूं उनके बाहर की दुनिया के लिखे को भी जानती हूं --"""मोना डाललिंग, चिट्टो की दुनिया मे तुम अभि बच्ची हो, अकल की कच्ची हो। तोल मोल कर बोलो, अकल के दरवाजे खोलो। इतना याराना है सब से तो कहाँ पड़ी हुई थी अब तक? शोध करने के पैसे न मिलते तो ये ठिकाना याद आता?"""
अब बताईए यह जनाब कौन है जो कायरो के सरदार लगते है। क्या यह मानने मे हमे अब शक है कि दर असल अभद्रता तो यह है ,प्रलाप तो यह है,कायरपन तो यह है। यह भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है। और शायद यह मुखौटा मसिजीवी और आलोचक के मुखौटे से ज़्यादा खतरनाक है. आलोचक और मसिजीवि तो फिर भी सामने है यह अविवेकी तो कही दिख ही नही रहा .
इसके लिए आचार.सहिता कैसे बनाएगे?? इस अबोध[? या शाणे ?] की सहमति किसी बात पर नही बनेगी .यह ब्लाग जगत का गुलशन ग्रोवर,शक्ती कपूर न जाने क्या क्या है ,यह सारी की सारी आचार सहिता का "अचार" डाल रहा है और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के हमारे विमर्श की ऐसी तैसी कर रहा है।
वैसे अब उसने हमारे लिए भी यह आसान बना दिया है कि हम उसे जी भर कर गाली दे .मुखौटा हो या न हो, अनोनीमस रह कर वो मानहानि का दावा तो कर नही सकता.तो आप सब आमन्त्रित है एक साझा मन्च बना कर उसे जी भर गाली दीजिए ,अपनी कुठाओ से मुक्त होइए. क्योकि आलोचक का सहमति के खिलाफ़ बोलना "गाली" देना लग सकता है तो यह तो ........।

मोना डार्लिन्ग वाले anonymous.......! तू है कौन????

Thursday, March 15, 2007

अक्शरधाम: ब्रह्म के घर मे ह्न्गामा..

१३ तारीख को भावनगर के नए पुराने मन्दिरो के साधुओ के बीच हुई पत्थरबाज़ी और मारपीट ने ज़्यादा हैरान नही किया. वजह दो-तीन थी जिनकी चर्चा करने से पहले स्वामिनारायण सम्प्रदाय के विषय मे कुछ बता दू।घनश्याम[स्वामिनारायण] का जन्म अयोध्या के निकट छ्प्पैया नामक स्थान पर हुआ था और माता पिता देहान्त के बाद ११ वर्ष की अवस्था मे वे सत्य की खोज मे घर से निकल पडे थे।सहजानन्द स्वामि ने उधव सम्प्रदाय का नाम बदलकर उनके नाम पर स्वामिनारायण सम्प्रदाय कर दिया था. स्वामिनारायण ने ६ मुख्य अक्शर्धाम मन्दिरो की विभिन्न स्थानो पर स्थापना करवाई.

अक्शारधाम का अर्थ है सर्वग्य,सर्वव्यापी,निराकार ब्रह्म{अक्शर} का निवास स्थान जहा चिर भक्ति, शान्ति और पवित्रता मिलती है।

अक्शरधाम मन्दिरो की स्थापना के साथ साथ स्वामिनरायण ने ५०० ऐसे साधुओ [परमहस] को ज़िम्मेदारी दी कि वे नित्य कम से कम ५ व्यक्तियो को सम्प्रदाय के ५ नियमो का, शान्ती और अहिम्सा का उपदेश करेन्गे. इसके बाद ही वे भोजन के अधिकारी होगे.

लेकिन हाल की ही घटना सोचने पर मज्बूर करती है कि सम्प्रदाय का वर्तमान स्वरूप क्या है. अ[पने शान्त ,निर्मल,स्वभाव के लिए साधु कहे जाने वाले ये व्यक्ति क्यो उग्र और हिम्सक हो बैठे.

पहला,दिल्ली का अक्शरधाम जिस prime location और जितनी बडी ज़मीन पर, जितना विराट और भव्य बना है वह मुझे हमेशा से सोचने पर मजबूर करता रहा है कि आखिर इस सन्गठन के पास इतनी बेशुमार दौलत कैसे है.और न केवल दौलत है वरन वह और दौलत खीच रहा है और फल रहा है ,फैल रहा है. मन्दिर के विस्तअर का अन्दाज़ा मुझे लोगो [श्रद्धालुओ} कीब ातो से हुआ जो ५ घन्टे तक वहा घूम घूम कर थक चुके थे और उसकी भव्यता की प्रशन्सा करते नही अघा रहे थे.

व्यापार के इस रूप की समझ और भी पुष्ट हो ग जब पता चला कि मन्दिर के ही अन्दर ,मन्दिर द्वारा ही सन्चालित एक दूकान है जिस पर शैम्पू, साबुन ,घडिया , कपडे और न जाने क्या दुनिया भर का समान बिकता है।


म्यूज़िकल फ़ाउन्टेन और तरह तरह केचित्र मूर्तिया लोगो का मनोरन्जन करती है। "आम के आम गुठलियो के दाम" . लोग ब्रह्मानन्द के पात्र भी होते है, पर्यटन का विकास होता है, सम्प्रदाय का प्रचार ही नही मुनाफ़ा भी होता है।
सोने की मूर्तिया देखने के लिये लोग पैसे देकर जाते है और स्वर्ण मन्डित स्वामिनारायण को देखकर खुद को धन्य समझते है.

इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओ को आहत करना नही है, केवल एक आलोचनात्मक सोच पैदा करना है जो मन्दिर के अन्दर ""साबुन"" बेचने वाले व्यापारीको पहचान सके.

व्यापार मे सम्प्रदाय का परिवर्तन ,मन्दिर मे बाज़ार की पैठ वही खतरा है जो अभी अभी सधुओ की लडाई मे अप्रत्यक्श दिखा है। इसलिये मुझे अक्शरधाम के सधुओ के हिम्सक होने पर ज़्यादा अचरज नही हुआ।

{जानकारी मित्र व भक्त, अनुभव व विचार लेखिका के}

सभी चित्र सौजन्य से- varenya.blogspot.com}

Sunday, March 11, 2007

दिल्ली के ब्लागर्स कैफ़े काफ़ी डे मे..

देल्ली के कैफ़े काफ़ी डे मे सबसे पहले पहुचे हम,कुछो को हुआ कनफ़्यूज़न कि कौन सा वाला काफ़ी डे है.कनाट प्लेस मे तीन cafe coffee day है.

आखिर मिल ही गए ब्लागेर भटके हुए. शायद कुछ को आप पहचान पा रहे हो. नही भी पा रहे हो तो क्या फ़र्क पड्ता है भाई! काफ़ी के साथ उठे कुछ मुद्दे। मसलन, हिन्दी ब्लागिन्ग का भविष्य क्या है, ब्लागिन्ग और धनार्जन का सम्बन्ध, ब्लागिन्ग और उससे सधने वाले प्रयोजन,ब्लागिन्ग की आचार सहिता का सवाल, ब्लागिन्ग का मीडिया व अन्य जन माध्यमो के विकल्प के रूप मे पहचान.

"
" मै और खाली चा की प्याली...."


कनाट प्लेस के central park मे अनौपचारिक वार्ता.





Friday, March 9, 2007

आखिन देखी- दिल्ली हाट से ......



Action India { n g o}members[above}

ऊपर की तस्वीर मे प्रीति ज़िन्टा। बहुत दूर से खीची गई है इसलिए दिख नही पा रही. क्या करे आगे की सारी जगह पुरुषो ने घेर ली थी प्रीती को देखने के लिए।

रेणुका जी, बहुत प्रफुल्लित थी।
सिगरेट वाली कम्पनी , बहादुरी का अवार्ड और उसपर प्रीति द्वारा विग्यापन , वाह!!
पहचान नही पाए ना! मै ही हू। साम्ने शीशा है जिस पर स्त्रिया देखे तो खुद पर लिखा देखेन्गी-- I AM THE VOICE OFCOURAGE POWER AND TRUTH". मैने खुद का नही शीशे का ही फोटो लिया थ. सोचिये सामने पुरुष खडा होके नही देख सकता क्य या आयोजको ने सोचा था की केवल महिलाए ही आएगी।

Thursday, March 8, 2007

कौन चाहता है प्रोग्रेसिव पत्नी........?

भई वुमेन्स डे पर पुरुष महिला सबही कलम चला रहे है.अच्छा है . महिलाए आज अपने महत्व और सन्सार को चलाने मे अपनी निर्विकल्पीय भूमिका के गान खुदेई गा रही है. पुरुष भी तरह तरह की ताकीद कर रहे है स्त्री के विकास और उत्थान को लेकर . पर इतना तो कोइ बतावे कि स्त्री की प्रोग्रेस चाह्ते भी है?. भुपेन जी की दर्शाई पत्निया ही तो चाह्ते है दर असल सब. प्रोग्रेसिव बीवी कौन चाहता है भई? बाहर देखती हू तो आलम यह है कि पत्नी प्रोग्रेसिव अच्छी तो लगती है पर "दूसरे" की अपनी नही।मर्द होना एक पोज़ीशन होना है{किसि ने कहा है, मैने नही} सो अपनी पोज़ीशन ,अथारिटी,आराम छोड्ने को जो तैयार होवे वही वास्तव मे यह कहने और चाहने का सच्चा अधिकारी है की स्त्री को विकास उत्थान कल्याण सशक्तीकरण की ज़रूरत है. और किरपिया करके स्त्री अपनी छवि को देवत्व से शोभित करना छोड दे। पुरातन छवि मे जडी रहेन्गी तो नवीन का निर्माण होगा कैसे भला । सो मानवियो से मेरा विनम्र अनुरोध है कि खुद को SUPER WOMAN सिद्ध कर के किसी से भी "आदर्श"" होने का प्रमाण पत्र न ले। उतना भर ईमान्दारी से करे जितना कर सकती है । बाकि पुरुष के लिये छोड दे । वह इसे सहर्ष अपना लेगा ,पहल करके तो देखिए.

कस्तूरी क्या करे महिला दिवस पर...?

मै आज हुमक हुमक उठती थी
महिला दिवस पर, सुबह सुबह देखे अखबार
महिला दिवस कैसे मनाया जा रहा है
दिल्ली हाट मे, फ़िक्की मे ,नेशनल स्टेडियम मे ,
राष्ट्र सन्घ मे , तय कर लिया
मै तो जाउन्गी दिल्ली हाट
क्योकि प्रीति ज़िन्टा आएगी वहा आज
पर कस्तूरी आज
उदास सी लग रही है, सूजा हुआ कि "कस्तूरी ! तुझे क्या हुआ है?
आज नारी सम्मान उत्सव पर तू
हताश क्यो है?" क्योकि मै जानती हू कि कल उसकी बस्ती मे
उसने फ़ासी पर लटकती देखी थी
पडोसन की लाश और बिलख्ते बच्चे उसके आसपास ।
वह आज खिन्न है, उसे छुट्टी चाहिये थी मुह है
चुपचाप धो रही है कपडे, मान्ज रही है
बर्तन और बुहार रही है आन्गन मेरा
मै उससे पूछ नही पा रही
अस्पताल जाने के लिए अपनी
जली हुई ननद को देखने
मैने कर दिया था मना
क्योन्कि आज मुझे महिला दिवस पर
अटेन्ड करने थे कई कार्यक्रम जाना था
कई उत्सवो मे
कस्तूरी क्या करेगी छुट्टी लेकर कि
वह तो
इतना ही जानती है कि उसे निपटाने है अभी
मुझ सी महिलाओ के कई घर और!

Wednesday, March 7, 2007

शोहरत पैसे और चकाचौन्ध का आत्महन्ता पहलू

"आषाद का एक दिन "[मोहन राकेश]के कालिदास की बेचैनी जितनी वास्तविक लगती है उतना ही गुमनाम ,लघु मानव को हैरान करती है। वह समझ नही पाता कि जिन चीज़ो के लिये वह स‌घर्ष करते हुए जीता है उन्हे भरपूर पाकर भी कोई निराश, कुन्ठित, हताश कैसे हो जाता है।यह "खास" होने का अकेलापन है शायद जो एक बनावट भरे जीवन मे विषाद की परछाई खडी कर देता है और सम्वेदनशील मन उस परछाई से चाह कर भी पीछा नही छुडा पाता।""वो लम्हे"" ऐसे ही विषाद की घटाओ से घिरी फ़िल्म है जो बालीवुड स्टार की मनःस्थिति के असामान्य हो जाने को दर्ज करती है। इस अभिनेत्री मे सुइसाइडल टेन्डेन्सी है जिसका जन्म स्ट्रगल के दिनो मे पैदा हुए एक अनुपस्थित छवि के भय से होता है। उसे एक ऐसी ईर्ष्यापूर्ण लड्की दिखाई देती है जो उसे भीड से अलग होते ही अकेले मे घेर कर मार डालना चाहती है।"हैलूसिनेशन" कही जाने वाली यह एक दिमागी बीमारी है. कन्गना रनौत ने अभिनय ठीक-ठाक कर लिया है लेकिन वे मुझे अकेली ऐसई अभिनेत्री लगी जिसके चेहरे पर केवल एक विषाद का ही भाव आता है उनकी "गैन्गस्टर" मे भी यही भाव प्रमुख है. पता नही उन्हे बेस्ट न्यु कमर और फ़ेस आफ़ द इयर अवार्ड कैसे मिल गया. खैर मुद्दा यह नही है। प्रसिद्ध गायिका ब्रिट्नी स्पीयर्स का भई यही हाल है आजकल । उनमे भी सुइसाइडल टेन्डॆन्सी पाई गई है और वे अस्पताल मे है. वे अस्पताल मे चिल्लाते हुए घूमती है"i am fake! i am fake!" हैरानी है कि केवल कुछ के ही साथ ऐसा क्यो होता है। बाकि खुद को इससे कैसे बचा ले जाते है।य कि उनके अनतर्मन मे कभी प्रश्न खडे ही नही होते सत्य और नकलीपन को लेकर,स्व और स्व की दूसरो द्वारा निर्मित छवि को लेकर। शायद ऐसे खन्डित व्यक्तित्व वाले लोग हम सामान्य समझ्र जान्र वाले लोगो से ज़्यादा सच्चे है जिनमे खुद के भीतर झाकने का साहस है फिर भले ही वे बाकि लोगो को असामान्य क्यो न दिखाई दे।

Tuesday, March 6, 2007

पोस्टे‌‌‌‌ ही पोस्टे - केवल लिखे, मिले नही


भारतीय रेल मे सवार होकर दिल्ली छोडते हुए ,जहा जगह मिले वही‍ लिखा मिलता है-रिश्ते ही रिश्ते,मिले या लिखे। कुछ ऐसा ही हाल है ब्लाग्स का. सभी को कुछ लिखना है सो लिख रहे है इसलिए एक हमार ब्लाग भी चल निकला है तो नियमित रूप से पोस्टियाने का कर्त्तव्य बनता है.अब जैसे ही लोग अपना ब्लाग छोडे वैसे ही उन्हे देखने को मिले- पोस्टे ही पोस्टे.तबही तो मज़ा आए .कल हिन्दी ब्लागरो ने हमारा बहुत स्वागत किया. हम सच कहू, तो डर गए है. तो ""गुरु"" लोग को नमस्कार! अब देखिये आज की मुक्त आलोचन के युग मे "गुरु" का क्या अर्थ है यह मै तय लेखक के हाथ मे तो है नही, सो ह्म कितना भी कहे कि यह "गुरु " लीडर या सरगना वाला नही, यह "गुरुकान्त देसाई"[मनि रत्नम] वाला भी नही, TV सीरियल [नुक्कड] वाला भी नही,और न ही यह सिद्धू जी वाला है तो आप भला मान जायेन्गे क्या? मानना भी नही चहिये.यह मानने का ज़माना नही है। यह मनवाने का ज़माना है।तो "गुरु" .........!

Monday, March 5, 2007

इस महिला दिवस पर गूगल का उपहार


इस बार गूगल ने स्त्रियो को अपने लोगो मे स्थान देकर महिला दिवस का उपहार दिय है। मध्य प्रदेश की सरकार के gender budget या कहे महिला केन्द्रित budget के साथ साथ सूचना और प्रसारण मन्त्रालय तथा महिला एवम बाल विकास मन्त्रालय भी इस अवसर पर चूका नही है। ५ से ९ मार्च तक वह भी फ़िल्मोत्सव का आयोजन कर रहा है। युनाइटेड नेशन के अन्तर्राश्ट्रीय कान्फ़्रेन्स के अलावा न जाने और कित्ने उपहार स्त्रियो को अभी मिलने बाकी है । देखना अब यह है कि "आम औरत" की झोली मे कौन सा उपहार टपकेगा जिसकी पहुच न तो युनाइटेड नेशन तक है न इन्टरनेट तक और न ही "आम" बजट तक। सीमान्त { हाशिये} की स्त्री की भी अपनी एक मुख्यधारा है। अत: सीमान्त के भी सीमान्त के लिये भी क्य कही कोई उपहार रखा है?