Wednesday, October 29, 2014

शब्दों से भर जाना ही रीत जाना है।

रीत जाने के दिन
बहुत मुश्किल होते हैं...
कुढे हुए मन होते हैं
मानो वह रहस्य
जो सभी जानते हैं आस पास
और रह पाते हैं सामान्य
हमें मालूम न हो पाए कैसे भी...।
सपने मे खुद को देखा है
ज़ोर से चिल्लाते
जिस विकृत-अबूझ भाषा में
वह भी तो किसी एकांत में
नहीं हुई थी निर्मित
और जिस पढत की भाषा में होती है
व्याख्यायित वह चींख
वहाँ तक बँधे पुल का भी
अपना समाज शास्त्र नहीं है क्या ?
नहीं है सो जाने से डर स्वप्न के कारण
दरअस्ल
उसी भाषा का भय है मुझे
जिसमें मनोवैज्ञानिकों ने
लिख दिए शास्त्र
और ऐसी किताबों में
रीत जाने की व्याख्याएँ कितनी सरल होती हैं।
सरल होते होते उलझ गया है सब।
कम से कम मेरे साथ।
अब जाना है
पर्यायों की खोज  में निकलना कितनी मूर्खता है
जबकि पर्यायों , विपर्ययों ,विशेषणों और शब्दों से
भर जाना ही रीत जाना है।

Wednesday, October 15, 2014

जो आएगा बीच में उसकी हत्या होगी


तुमने कहा
बहुत प्यार करता हूँ
अभिव्यक्ति हो तुम
जीवन हो मेरा
नब्ज़ हो तुम ही
आएगा जो बीच में
हत्या से भी उसकी गुरेज़ नहीं
संदेह से भर गया मन मेरा
जिसे भर जाना था प्यार से
क्योंकि सहेजा था जिसे मैंने
मेरी भाषा
उसे आना ही था और
वह आई निगोड़ी बीच में
तुम निश्शंक उसकी
कर बैठे हत्या
फिर कभी नहीं पनपा
प्यार का बीज मेरे मन में
कभी नहीं गाई गई
मुझसे रुबाई
सोचती हूँ
इस भाषा से खाली संबंध में
फैली ज़मीन पर
किन किंवदंतियों की फसल बोऊँ
कि जिनमें
उग आएँ आइने नए किस्म के
दोतरफा और पारदर्शी
क्योंकि तुमने कहा था
जो आएगा बीच में
उसकी हत्या होगी ।

Friday, October 10, 2014

भाषा सिर्फ शब्द नहीं है न !

ठीक ही होगा यह जो
समझाते रहे हो तुम
कि एक धुरी होती है जीवन की
कि इतना कुछ
जो कहती ही रहती हूँ मैं
समेटा जा सकता है
एक शब्द में

और उसी एक के गिर्द घूमते हुए
अस्तित्ववान होती है परिधि
जिसमें वलयाकार लिपटी हैं वे परतें
जिन्हें उघाड़ना चाहती हूँ मैं

मैं चिंतित नहीं हूँ कि
क्या एक शब्द से
तुम निभा लोगे पूरा जीवन !!
मुझे भय है
क्या होगा ध्वनियों का
रंगों और बिजलियों का
अँधेरे और रोशनियों का
 इशारों और आकारों  का
जिन्हें छूकर मैं पा लेती हूँ
देखना
बोलना हो जाता है
गिरने में अँधेरा सुनती हूँ
और बिजलियों में पढ लेती हूँ आक्रोश
तुम्हारी पंक्तियों के   अंतरालों  में
लिख लेती हूँ कविता।

भाषा सिर्फ शब्द नहीं है न !

Saturday, September 20, 2014

पिछली सदियों में


पिछली सदियों में
जितना खालीपन था उससे
 मैं लोक भरती रही
तुमसे चुराई हुई भाषा में और चुराए हुए समय में भी।
तुम्हारी उदारता ने मेरी चोरी को
चित्त न धरा ।
न धृष्टता माना।
न ही खतरा।
 हर बोझ पिघल जाता था
जब नाचती थीं फाग
गाती थी सोहर
काढती थी सतिया
बजाती थी गौना ।
मैं खुली स्त्री हो जाती थी।
मुक्ति का आनंद एक से दूसरी में संक्रमित होता था।
कला और उपयोग का संगम
गुझिया गोबर गीत का मेल
अपने अभिप्राय रखते थे मेरी रचना में
इतिहास मे नहीं देती सुनाई जिसकी गूँज
मैं लिखना चाहती हूँ
उसकी चींख जो
मुझे बधिर कर देगी जिस दिन
उससे पहले ही।
मुझे अलंकरण नहीं चाहिए
न ही शिल्प
सम्भालो तुम ही
सही कटावों और गोलाइयों की
नर्म गुदगुदी
अभिभूत करती कविता !
मुझसे और बोझ उठाए नहीं उठता।
नीम के पेड़ के नीचे
चारपाई पर औंधी पड़ी हुई
सुबह की ठंडी बयार और रोशनी के शैशव में
आँख मिचमिचाती  मैं
यानि मेरी देह की
दृश्यहीनता सम्भव होगी जब तक
मैं तब तक नहीं कर पाओँगी प्रतीक्षा
मुझे अभी ही कहना है कि
मुझे गायब कर दिया गया भाषा का अपना हिस्सा
शोधना होगा अभी ही।