Wednesday, August 20, 2008

साहित्य अकादमी मे बे-कार जाने का अंजाम


कभी कभी कुछ घटनाएँ या समान्य सी लगने वाली बात-चीत पर भी ज़रा ध्यान दिया जाए तो विचित्र और अक्सर महत्वपूर्ण तथ्य ,अनुभव या समझ प्राप्त होती है।यूँ ही कल हमारे साथ हुआ।सहित्य अकादमी, मण्डी हाउस ,में एक कार्यक्रम के लिए गये थे।विश्विद्यालय के छात्रों के प्रयासों से छपने वाली पत्रिका सामयिक मीमांसा के लोकार्पण का अवसर था।अभी कार्यक्रम ख्त्म नही हुआ था ,पर मुझे जाना था सो मै उठकर चली आयी।गेट के भीतर ही खड़ी मै अपनी एक मित्र की प्रतीक्षा कर रही थी कि गार्ड को न जाने कैसे हमारी फजीहत करने की सूझी।वह कुर्सी से खड़ा हुआ और एक गत्ते से सीट झाड़ता हुआ बोला -"मैडम बैठ जाएँ,गाड़ी आएगी तब आ जाएगी"
मुझे तत्काल कुछ न सूझा ,क्या कहूँ ,मेरे होंठ बस फड़क रहे थे कुछ उगलते नही बन रहा था।अब वह फिर बोला
"बैठिये मैडम , गाड़ी आती होगी "
मैने कहा-"नही ठीक है , आप ही बैठिये"
"हम तो दिन भर बैठते ही हैं मैड्म आप बैठिये खड़ी क्यों रहेंगी जब तक गाड़ी आती है" उसने जिस भी अन्दाज़ मे यह कहा मुझे ऐसा लगा कि मेरा उपहास उड़ाया है।मै लाल-पीली हो रही थी,मन मे आया एक अच्छी सी गाली उस पर पटक के मारूँ । हद है !एक तो गाड़ी , वह भी ड्राइवर वाली !!मैं बस या मेट्रो से नही जा सकती।
तभी गुस्सा काफूर हुआ ,गार्ड की इस बात से एकाएक लगा कि क्या साहित्य अकादमी में ऐसी ही महिलाएँ आती हैं जिनके पास ड्राइवर वाली गाड़ी होती है? मेरे इस अभाव{?}की बात रहने दें तो सोचती हूँ कि साहित्य अकादमी आते जाते रहना अफोर्ड करने के लिए एक खास वर्गीय चरित्र की मांग करता है क्या? वह भी एक स्त्री से ?बहुत सम्भव है कि एक मध्यवर्गीय नौकरीपेशा स्त्री के पास साहित्य अकादमी के लिए न तो वक़्त बचता होगा न ही ज़रूरत। यह बौद्द्धिक अय्याशी वह अफोर्ड नही कर सकती होगी।बौद्द्धिक अय्याशी न भी कहूँ तो यह भटकना , आवारगी उसके लिए कहाँ !!मैं भी तो यही सोच कर भागी थी घर कि 8 बज रहे हैं रात के , कल का दिन चौपट हो जाएगा।बेटे का यूनिट टेस्ट है कल। पति को पढाने को कह तो दिया है पर एक घण्टा और यहाँ रुकने का मतलब है कि खाना आज भी बाहर् से आयेगा।वे भी थके होंगे, अभी घर पहुँचे होंगे ।यहाँ न आती तो दिन भर की थकान उतारने के बाद खाना बनाने के अलावा भी समय बच जाता {ब्लॉगिंग के लिए}।उस पर अभी बाहर सड़क पर जाकर औटो या बस या मेट्रो में धक्के खाने थे।शोफर ड्रिवेन कार !! आह !यह दुनिया मेरे लिए नही है!नही है!मेरे लिए नही है तो ,किसी स्कूल टीचर ,क्लर्क के लिए या किसी भी सर्वहारा के लिए तो कैसे ही हो पाएगी।उस गार्ड के लिए भी नही जो रोज़ वहाँ गेट पर चौकी दारी करता है। इसलिए बौद्धिक अय्याशी है।

फिर एकाएक दूसरी बात सोची , गार्ड ने कहा था -हम तो बैठते ही हैं दिन भर । गार्ड दिन भर बैठता ही है तो .....!खैर , वह गार्ड कितनी तंख्वाह पाता होगा कि दिन भर वह "खड़ा" रहे और मैडमों व सरों को सल्यूट मारे या तमाम तहज़ीब व आदर सहित उन्हें गाड़ी का इंतज़ार बैठ कर करने को कहे।
बहुत साधारण सी बातें और हमारा मन भी उन्हें कहाँ कहाँ ले जाता है।सब ठीक है।सब ऐसा ही है। ऐसा ही चलता रहेगा।क्या सच ?