Monday, December 31, 2007

ब्लॉग में क्या रखा है ?

साल खत्म होने को है और सब बधाइयाँ भेज रहे हैं । ब्लॉगिंग का यह साल कैसा रहा इस पर निश्चित ही किसी हम जैसे ठाले बैठे ने ज़रूर विचार किया होगा हम सुबह से आज की तिथि में दर्ज हो जाने भर के लिए एक पोस्ट डालने के इंतज़ार में थे।सुअवसर अब जाकर मिला है । सुबह से कडक धूप में खेलते बच्चों और मटर छीलती,स्वेटर बुनती खुश मम्मियाँ देख देख कर यह सोच रहे हैं मरी पोस्ट आज न डली तो क्या गज़ब हो जाएगा ?कई दिन से नही लिखा गया कुछ । मनीषा जी ने कुछ सवाल भेजे थे जिनमें पहला था कि -आपने ब्लॉगिंग कब और कैसे शुरु की ? फिलहाल उन्ही का उत्तर दे रही थी और सोच रही थी कि एक सवाल अपने तरफ से भी लिख दूँ कि- आपने ब्लॉगिंग कब और क्यों छोडी ?कभी-कभी बहुत दिन बीत जाते हैं कुछ लिखते नही बनता और उस र्रिदम के टूटते ही उत्साह क्षीण होने लगता है । लगता है -बेकार का काम है , टाइम खोटी होता है , इतने हम मटर् छील लेंगे ,बथुआ तोड लेंगे ,साग छाँट लेंगे ,राजमा तडक लेंगे ,इसी बहाने धूप सेक लेंगे ।कुछ नही होता । पर एक हुडक बनी ही रहती है कि ब्लॉग झाँक आयें ? कोई टिप्पणी नयी तो नही आयी ? किसी ने कुछ धाँसू लिखा? कोई विवाद तो नही हुआ ? हमारी विशेषज्ञ टिप्पणियों के बिना कोई सफल मुद्दा निबटा तो नही दिया गया ?नीचे ,बाहर ,हर जगह गाना-बजाना हो रहा है और हम परेशान आत्माओं की तरह ब्लॉग लिख रहे हैं ।सुबह से सोच रहे है -क्या बकवास काम है !पर यहाँ आज की तारीख मे दर्ज होना ज़रूरी है कि हमने साल भर लिखा और सक्रिय लेखक हैं ।दिल्ली का आज हाल बुरा है \कल राम सेतु वाली रैली ने अव्यवस्था फैलाई और आज नये साल के शौकीनों ने ट्रैफिक जाम किया हुआ हैऔर हम हारकर पोस्ट डाल रहे हैं । पतिदेव ने जवानी के दिनों की पहली पहली मूँछें उडाकर अभी अभी आयें हैं, नये साल में कुछ नया तो होना चाहिये ।यहाँ क्या नया होने वाला है?आज अज़दक की तरह इसे पतनशील पोस्ट कहने का मन हो रहा है ?

Wednesday, December 26, 2007

जलते हुए बगदाद की कहानी, एक समानांतर इतिहास |

हम अक्सर ब्लॉग के माध्यम को लेकर बडी बडी बातें करते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अस्मिता ,पहचान , मुखौटे ,नेक्सस और पता नही क्या क्या ? लेकिन ब्लॉगिंग को कितने लोग गम्भीर माध्यम के रूप में ले रहे हैं ? क्या वाकई हमने इस माध्यम की शक्ति की पहचान कर ली है ? अभी हिन्दी ब्लॉगर्स में परिपक्वता बहुत दूर की स्थिति लग रही है ,जहाँ हम अपने छोटे हितों और दोस्तियों से ऊपर उठकर वाकई गम्भीर लेखन और अभिव्यक्ति कर पाएंगे । हमारे पास अपना क्या है जो हम अपने ब्लॉग पर दे रहे हैं जो विशिष्ट है और जैसा किसी और के पास नही ? ब्लॉगर्स के सामने अभी हिट होने और टिप्पणी पाने की समस्या ही ज़्यादा गम्भीर है ।
लेकिन बगदाद की एक 27 वर्षीया चिट्ठाकार के पास युद्धभूमि के बीच बनते हुए ताज़े अनुभवों की ऐसी थाती है जो एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बन चुकी है । रिवर बेन्ड के छ्द्मनाम से लिखने वाली यह चिट्ठाकार अपने ब्लॉग बगदाद बर्निंग में बहुत से सवाल उठाती है । वह दर्ज करती है कि कैसा था युद्ध से पहले का बगदाद और सरकार की नीतियों को प्रश्न चिह्नित करती है । अपने बगदाद छोडने के प्रकरण पर वह तफसील से लिखती है ।हैरानी होती है तो केवल यह कि युद्ध की आग में जलते हुए अपने देश की यह लडकी कैसे बिन्दास कहानी अपनी तरह से कहती है । स्त्री की अभिव्यक्ति , ब्लोग के माध्यम की ताकत और प्रामाणिक अनुभवों ने ही निर्देशक कीर्ति जैन को आकर्षित किया कि वे इस ब्लॉग का नाट्य रूपांतर कर एन.एस.डी में प्रदर्शित करें ।
रिवरबेंड ने बेस्ट मिडल ईस्ट और अफ्रीका का ब्लॉगी अवार्ड भी पाया है ।

इतिहास के समापन की घोषणा जब हो चुकी ऐसे में यह ब्लॉग और ऐसे अन्य ब्ळोग एक समानांतर इतिहास रच रहे हैं । यह वैकल्पिक इतिहास है उनका जिन्हे इतिहास की प्रक्रिया में अनदेखा किया गया है क्योंकि इतिहास वस्तुत: लिखने की प्रक्रिया में ही बनता है ।

Thursday, December 20, 2007

अध्यापक हमारे देश में मज़दूर है ....

जब कहानी की बात होती है अंतोन चेखव की कहानियों की सहजता, क्षिप्रता ,और गहराई याद हो आती है । यह वो कहानी है जहाँ कहानी अपने विकास के चरम पर पहुँच जाती है ।बहुत विचित्र लगता है कि हिन्दी उपन्यास ने जो मकाम 30 साल में हासिल किया उसे हिन्दी कहानी ने एक दशक में पा लिया । खैर , अंतोन चेखव की याद आज यूँ आयी कि शिक्षक की स्थिति पर विचार करते हुए उन्होने कुछ महत्वपूर्ण बातें कह दीं थीं जो इस चाण्क्य भूमि में बडी प्रासंगिक लगीं ।

"अध्यापक को तो कलाकार होना चाहिए,अपने काम से उसे गहरा अनुराग होना चाहिए ,और हमारे देश में तो वह मज़दूर ही है.... वह भूखा है, दबा हुआ है,दो जून की रोटी खाने के डर से भयभीत है,अल्पशिक्षित व्यक्ति है।.....जबकि उसे गाँव में सबसे प्रमुख व्यक्ति होना चाहिए,ताकि वह सब सवालो का जवाब दे सके, ताकि किसान उसे आदर्णीय व्यक्ति समझें, कोई भी उस पर चीखने -चिल्लाने की जुर्रत न करे ...उसका अपमान न कर सके, जैसा कि हमारे यहाँ आएदिन सभी करते हैं- थाने दार ,दरोगा,दुकानदार,पादरी,स्कूल का प्रिंसिपल और वह बाबू जो स्कूलों का इंस्पेक्टर कहलाता हैपर जिसे शिक्षा में सुधार की नही बल्कि इस बात की हीचिंता होती है कि आदेशों के पालन में कोई कमी न रह जाए । आखिर यह बात बेतुकी है कि जिसे जनता को शिक्षित करने का,सभ्य बनाने का काम सौंपा गया हो उसे दो कौडियाँ मिलें !"

बहुत कुछ यही हालात हमारे देश में शिक्षा और अध्यापक के भी हैं । पब्लिक स्कूलों और बडी संख्या में महिला अध्यापकों को छोड दिया जाए तो सरकारी स्कूलों और नुक्कड के छुटभैय्ये स्कूलों की बहुत सी अध्यापिकाएँ इसी तरह की ज़िल्लत और शर्मिन्दगी उठाती हैं । खुद स्कूलों में काम करके देख चुकी हूँ । बहुतों के अनुभव सुन चुकी हूँ । प्रिंसिपलों और स्कूल के बाबू और यहाँ तक कि चपरासी भी उससे कई गुना हैसियत रखते हैं । सम्पन्न परिवारों की स्त्रियों के लिए यह काम पॉकेट मनी और बच्चॉं को उसी प्रतिष्ठत स्कूल में मुफ्त पढा लेने का सवाल है ।वहीं पुरुषों के लिए यह घर चलाने का सवाल होता है ।एक स्कूल मैनेजमेंट के एक सदस्य को कहते सुना था - 'कितने टीचर चाहियें? अभी ट्रक भर कर मंगवा सकता हूँ । और वह भी 1500 रु. में । यह मेरे लिए कोई समस्या नही । ' हैरानी न हों लेकिन यह सच है । समस्या बहुत जटिल है । कई मुह वाली ।जिसके कई पहलू हैं । एक पोस्ट में समे पाना सम्भव नही ।

Wednesday, December 19, 2007

सेल.सेल सेल ..लूटो लूटो लूटो....उर्फ एक बकवास पोस्ट

अपटू 50% पढ्ते ही क्या आपका दिल मचला है कभी ? हमारा तो डोलता है जी । बडे बडे ब्रांड्स पर जब 2000 का कपडा 1000 में और 800 की जुत्ती 400 में मिलती है तो सबका मन डोलता है । ये ब्रांडस का चक्कर क्या है समझ नही आता ।जब कुर्ते के साइद कट से डब्ल्यू का लाल तमगा झाँकता है या कमीज़ की जेब के कोने में एरो या स्वेटर के सीने पर मॉंटे कार्लो धडकता है तो क्या कुछ अलग लगता है ? अगर लगता है तो क्यों ? कीमत की वजह से ?माने ब्रांड का मतलब है ऊंची कीमत ।खास । विशिष्ट । जो सब जैसा नही । कुछ सुघड लोग वैसा ही माल गैर ब्रांड दूकानों से आधी कीमत पर लाते हैं और हमें उनसे सबक लेने को दिल होता है ।पर सच कहें तो मोंटे कार्लों से कहीं बेहतर रेहडी पर से 150-200 रुपए का स्वेटर खरीदना जेब को भी माफिक पडता है ।ब्रांड के एक स्वेटर की कीमत में चार-पाँच आ जाते हैं । आप इसे चीपनेस भी कह सकते हो, चीप चीज़ें खरीदना ।पर मॉल के भीतर चकाचक दूकान में 1000 का पत्ता देते जी काँप उठता है ।एक बार लाल बत्ती पर अगर्बत्ती को बेचने वाला बहुत रिरियाया तो हमने 20 रु देकर खरीद ली । औटो वाला बोला -मत दो जी ये ऐसे ही मूर्ख बानाते हैं । तब सोचा कि मॉल के भीतर बडे ब्रान्ड के शोरूम में खडे हो कर अगर हम यह नही सोचते कि यह बेवकूफ बन रहा है तो अगर्बत्ती बेचने के लिए ट्रैफिक सिग्नलों पर दौड- धूप करते आदमी से बेवकूफ बनने से क्यो डरते हैं जो अकेला किसी की रोटी नही छीन रहा ,न किसी का हक मार रहा है,न चकाचौन्ध दिखा रहा है , जो ज़मीनों के बडे -बडे सौदे करते हुए झोपडियों को नही तुडवा रहा ।जो निरीह शायद उस 5-10 रुपए के फायदे में उस दिन अच्छा खाना खा -खिला सकेगा अपने परिवार को ।
खैर यह अवांतर कथा है , मुख्य प्रसंग है लूटो की मानसिकता में बेवकूफ बनना । ऐसा कई बार हुआ कि जो पसन्द आया वह सेल में नही था ,फ्रेश अर्राइवल था ।या जो पसन्द आया उस पर 15% ही छूट थी बाकि पर 50 या 70।
जो भी हो पर सेल हर आम को खास बनने का ,विशिष्ट होने का मौका देती है । सेल का चरित्र जनहितवादी होता है।जो यूँ न खरीदे सेल पढकर ज़रूर मुँह की खाता है सेल में दरबारे खास दरबारे आम के लिए खुल जाते हैं ।यह अवसरों की समानता का अच्छा उदाहरण् है । सेल में भी जो खरीदारी न कर सके ,ब्रान्ड न ले सके वह इस जगत में निश्चय ही झख मार रहा है ।दर असल सवाल मूर्ख बनने न बनने का नही है । बल्कि किससे मूर्ख बनें का है । यह चॉयस क सवाल है । क्योंकि मूर्ख बने बिना अब गुज़ारा नही । आप किससे मूर्ख बनकर आनन्दित होना चाहते हैं ?फटीचर से या करोडपति से ?

Monday, December 17, 2007

आप कितने खाली, बेकार,आवारा, बेचैन और दीवाने हैं..?

आप कितने खाली, बेकार,आवारा, बेचैन और दीवाने हैं..? वक्ट काटना आपके लिए एक बडा प्रश्न है ?
तारे गिन गिन कर रात गुज़ारने वाला मुहावरा सुना ही होगा ? क्या ऐसी नौबत आई है आपकी ज़िन्दगी में कि कुछ करणीय न बचा हो और आपको सही सलामत पायजामा फाड कर फिर से सिलना पडा हो या घर आंगन में ज़ूँ-ज़ूँ करती मक्खियाँ मारनी ,उडानी पडी हों ?या फिर क्राइम रिपोर्ट देती क्रिमिनल looks वाली या वाले प्रेज़ेंटर को देखना पडा हो ? या वक्त का गला घोंटने के लिए कुचक्री सीरियल देखने पडे हों?
अगर आप वाकई इतने खाली, वेले टाएप इनसान हो तो आपके लिए टाइम किल्लिंग का एक नया आइडिया इन दिनों टीवी पर आ रहा है जो केवल टाइम ही नही धन की भी हत्या करेगा और यह भी साबित कर देगा कि इस दुनिया में सबसे ज़्यादा खाली,बेकार,आवारा,पागल,दीवाना ....कौन है ? सबसे पहले 50 रुपए का कोलगेट मैक्स फ्रेश लें और फिर उसके ट्रांसपेरेंट ट्यूब में से यह गिनें कि कितने कूलिंग क्रिस्टल्स हैं .... इनाम क्या है नही सुन सके क्योंकि यह धाँसू च फाँसू [आलोक जी की भाषा में] आइडिया सुनने के बाद इन कानों मे कुछ और सुनने की शक्ति न बची । ज़ाहिर है कि ट्यूब के अन्दर से ही क्रिस्टल्स नही गिने जा सकते भले ही वह पारदर्शी ट्यूब हो [एक भी गिनती गलत तो इनाम नही] तो गिनने वाला पहले बडी सावधानी से ट्यूब खाली करेगा और फिर ...... वैसे मेरी चिंता यह है कि पेस्ट को वापिस तो ट्यूब मॆं डाला नही जा सकता [वैसे एक ट्रिक मै ऐसा जानती हूँ] तो क्या निकाला गया पेस्ट किसी कटोरी, डब्बे इत्यादि में रखा जाएगा ? जो भी हो,, टी वी और बाज़ार ने समझ लिया है कि उसके सामने बैठा व्यक्ति निठल्लों की प्रजाति का है जिससे कुछ भी अगडम बगडम अपेक्षा की जा सकती है ।

Friday, December 14, 2007

वे दिन,चाँद का टेढा मुँह और मस्ती बचपन की....

कभी दिन थे ... गर्मियों के मौसम में ,जब मकान एक मंज़िल से ऊपर नही थे ,छतों पर सोया करते थे चारपाइयाँ बिछा कर और नीन्द आने तक चाँद को घूरते रहते थे कल्पना करते हुए कि उसका टेढा मुँह कैसा लगता होगा वहाँ पहुँचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों को ।

हवा की लहर चलती थी तो चेहरों पर गर्मी से खिंचा तनाव पुँछ जाता था ।बच्चे थे । नीन्द से फासला रखते थे ।जब तक कि वह पस्त न कर दे । ऊपर आँख उठाओ तो काला रहस्यमय अनंत संसार पलकें झपकाने नही देता था – क्या पता अन्धेरे में हमारे जगते-जगते तैयार हो रहा हो कोई कृष्ण छिद्र ।ब्लैक होल । भौतिकी की कक्षा में पढा हुआ सब दिमाग में कौतूहल पैदा करता था । कहीं कोई तारा गिन रहा होगा अपनी अंतिम साँसें । नक्षत्र दिशाएँ बदल रहे होंगे । खत्म होता विशाल तारा ,सूर्य से भी कई गुना बडा , जब खाली करेगा अपनी जगह अंतरिक्ष में तो उस कालिमा में अनायास ही खिंच जाएँगे आस पास के सभी पिण्ड और धीरे धीरे बहुत कुछ जब तक कि समाने को कुछ न बचे । सप्तर्षि ढूंढते थे कभी और खुश होते थे । कभी कोई हवाई जहाज़ लाल बत्तियाँ टिमकाता गुज़रता था कछुए सा । हम सोचते थे कहाँ जाता होगा ? किन्हे ले जाता होगा ? क्या उन्हें हम दिखते होंगे ?क्या हम जहाज़ में बैठ कर अपना घर पहचान पाँएंगे ?
दिन भर के रोटी-पानी की दौड-धूप से हारे माता-पिता ज्यूँ ही बिस्तर पर लेटते ,निन्दाई बेहोशी उन्हे घेर लेती थी ।टेबल फैन के आगे लेटने के लिए बच्चों में दबी अवाज़ में हुई लडाई या घमासान वे नही देख पाते थे । सुन पाते थे तो एक झिडकी ज़ोर से आ गिरती थी और ताकतवाला ,रुबाब वाला बच्चा बाज़ी मार लेता था । लातें चलती रहती थीं इस चारपाई से उस चारपाई । हम छुटकों को एक ही चारपाई पर साथ में सुलाए जाने का बडा कष्ट था ।चारपाइयाँ कम थीं । रात भर हममें धींगा-मुश्ती होती ।कभी अचानक नन्हीं बूंदे पडने लगतीं तो सोते हुए लोग हडबडा कर ,चारपाइयाँ,गद्दे ,चादरें उठा कर भागते । सूरज बडी जल्दी में रहता था उन दिनों। इधर अभी नीन्द आना शुरु होती और उधर वे खुले आकाश के नीचे सोते बेसुधे बच्चों पर किरणों के कोडे बरसाना शुरु कर देते ।रात भर लडे हम छुटकों को कोडों की यह मार भी बेअसर थी । माता कब नीचे जाकर रसोई में जुटी पिता कब बाज़ार से दूध ,भाजी-तरकारी ले आए कभी पता नही लगा । हमें अभी बहुत काम था । दिन भर खेलना था ,लडना था, कूद-फान्द करनी थी ,पेन-पेंसिल ,कॉपी,बिस्तर और फ्रॉक-रूमाल के झगडे सुलटाने थे । होमवर्क भी करना था । सो देर तक सो कर इन कामों के लिए ऊर्जा का संचय करते थे ।

सोचती हूँ तीस साल बाद हमारी संतानें “वे दिन ”किस तरह याद करेंगी ! खैर फिलहाल तो न छत नसीब है[जिन्हे नसीब है वे मच्छरों से आतंकित हैं] न आंगन नसीब है न ही वह निश्चिंतता । पर आज भी मन हो आता है खुले काले चमकते तारों भरे रहस्यमय आकाश के नीचे लेटे रहें ।पहाडों पर पहुँच कर यह सम्मोहन और भी बढ जाता है ,जब आकाश में तारे ज़मीन पर किसी बच्चे के हाथ से बिखर गये सितारों की तरह लगते है जिन्हे वह स्कूल में दिया या राखी सजाने को लाया था और जिन्हे बुहारती हुई माँ उन्हे कूडा कह दे।ऊँचाई से आसमान तारों से बेतरतीबी से अटा पडा दिखाई देता है । दिमाग में अजीब सी खुजली मचती है उन्हे देखते ,आँखें और भी गडी जाती हैं ।शायद यह सम्मोहन है ही इसलिए कि रहस्य है ।

Thursday, December 13, 2007

मरने के अलग-अलग स्टैंडर्डस्

“हम न मरै मरिहै संसारा हमको मिला जियावन हारा” ये कबीर का कॉंन्फिडेंस है अपनी भक्ति और ईश्वर के प्यार में ।पर अपन पिछले कई दिनों से ,जब से मृत्यु के शाश्वत प्रश्न पर विचार कर रहे हैं , बडे परेशान हैं ।परेशानी का कारण वाकई बडा है । खुद मृत्यु से भी बडा ।न भक्ति की है न ईश्वर से प्यार । परलोक के लिए कुछ योजना नही बनाई । सच कहें त इहलोक की भी अभी तक कोई योजना बनाई नही जा सकी । इसलिए जब आस-पास वालों को बीमा एजेंटों से बात करते मृत्यु के बाद के जीवन पर चिंतित देखा तो होश फाख्ता हो गए ,यह सोच कर कि अपन तो अभी तक खाक ही छान रहे थे मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया .... वाले अन्दाज़ में और दुनिया बीमा करा करा कर कबीर का वही दोहा गुनगुना रही है –हम न मरैं....... पर हम तो अवश्येअ ही मरिहैं और फोकटी का मरिहैं और तिस पर भी सब स्टैंडर्ड मौत मरिहैं ,हमार का होई ?? बाज़ार देवता ने जियावन हारा का रूप धर लीन्हा है । उनके पास नई नई स्कीम है । बीमा एजेंट ने चिढते हुए कहा –“लोग कडवा सच नही सुनना चाहते ,हम मरने की बात करते हैं तो बुरा मानते हैं , मरना तो सच्चाई है ,कब मौत आ जाए क्या पता । इसलिए मौत के बाद की प्लानिंग करनी चाहिए ” मैक्स या फैक्स जाने वे कहाँ से जियावन हारा की फरिश्ता बन कर आयी थीं ।उदाहरण देने लगीं – एक व्यक्ति ने एक ही प्रीमियम भरा था और कलटी हो लिए दुनिया से ,हमने सारा पैसा दिया । हम ज़्यादातर को सारा पैसा देते हैं ।बस सामान्य ,प्राकृतिक मृत्यु नही होनी चाहिये ।एक्सीडेंट में फायदा है । वह भी विमान से हो तो और अच्छा !! –वे मुस्कराईं। ट्रेन, बसों में सफर करने वाले चिरकुट चिर्कुटई मौत मरते हैं और उसी हिसाब से उनका क्लेम बनता है ।देखा जाए तो ट्रेन बस से मरना ज़्यादा कष्टकर है ।और आएदिन ये दुर्घटनाएँ होती ही रहती हैं ।हो सकता है इसीलिए बीमा वालों की नज़र में यह घाटे का सौदा हो । हवा में मृत्यु के आसार भी कम होते हैं और यह शानदार भी है !! ऊपर से ऊपर ही हो लिए !! कोई कष्ट नही । न आत्मा को न परमात्मा को न यमदूत को। न मरने वाले के परिवार को ।खबर बन जाते हैं यह फायदा अलग से ।
अब हमारी चिंता का एही कारन है । निचले दर्जे का मौत नही न चाहिए और हवा में उडने के अभी तक कोई आसार नहीं । अभी तक की जिनगानी में एअरपोर्ट का दर्शन केवल् टी वी में ही किया है । अपनी-अपनी मौत –अपनी अपनी किस्मत । ज़िन्दगी के स्टैंडर्ड से ही मौत का स्टैंडर्ड तय होता है । हम समझ गये हैं ज़मीन पर मरने में कोई फायदा नही । जिनगी की खींचतान मौत के बाद भी बनी रहती है । सो पोलिसी अब तभी लेंगे जब हवाई सफर का कुछ जुगाड हो जाए । वर्ना तो क्या फर्क पडता है कैसे जिए और क्यूँ मरे ।जियावनहारा न हमारी भक्ति से प्रसन्न होगा न योग से न ज्ञान से । उसे धन चाहिये ।

Monday, December 3, 2007

आप स्त्री और बच्चों के अलावा कुछ और नही लिख सकतीं

किसी ने पिछले दिनों चिढते से स्वर में कहा “ आप स्त्री और बच्चों के अलावा कुछ और नही लिख सकतीं ” एकबारगी मुझे बडी अटपटी और बेहूदा बात लगी । पर तभी समझ आया कि मुख्यधारा हमेशा से हाशिए के विमर्शों का उपहास करती रही है या इस्तेमाल करती रही है या अपने अनुरूप उन बातों का अर्थ बदलती रही है । बात भारी हो जाती है तो यह टिप्पणी भी मिल जाती है – क्या इससे गम्भीर नही लिख सकती थीं ? । खैर ,कुल मिला कर यहाँ कि मै क्या लिखूँ और कैसे लिखूँ का सवाल मेरे तईं है ।यह हक़ किसी और का नही । राय का और असहमति का स्वागत है सदैव ही । पर बात की उपरोक्त शैली निहायत अलोकतांत्रिक है ।लोकतंत्र सबके समान हितों , समान अवसरों , अभिव्यक्ति के समान आज़ादी और समान सम्मान की बात करता है । ऊपर की दो बातों का विश्लेषण करते हुए दो स्थितियाँ और मंतव्य साफ नज़र आते हैं ।
पहला , निहायत अलोकतांत्रिक देश और समाज में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के दुष्परिणाम ।
और दूसरा , हाशिए के विमर्शों के खिलाफ तैयार मुख्यधारा का अवचेतन ।
भरतीय समाज की नींव में ही भेद-भाव ,श्रेणी विभाजन , ऊँच-नीच की पुरातन [पौराणिक कहा जाए तो भी गलत न होगा ] धारणाएँ बसी हैं जो गाहे बगाहे हमारा सब पढे-लिखों के व्यवहार –वार्ता में सामने आती हैं । जिस देश में अभी तक जातीय ,लैंगिक , वर्गीय भेद-भाव और हिंसा के नमूने रोज़-बरोज़ अखबारों में सामने आते हो वहाँ मेरा लोकतांत्रिक होने और लोकतंत्र को जीने की बात करना वायवीय ही हो सकता है और अपेक्षा करना तो और भी गलत होगा ।

स्त्री और बच्चे ,दोनो समाज के हाशिए पर जीते हैं । एक बाल-उद्यान ब्लॉग से और चन्द स्त्रियों के ब्लॉगिंग करने से वे मुख्यधारा नही हो जाते । क्या स्त्री की सीमांतीयता का मुद्दा चुक गया है ?, क्या वह वैध आधार नही रखता ? जब स्त्री स्वयम स्त्री की समस्याओं पर बात करती है तो वह उपहास का विषय हो जाता है या केवल सहमति का और मुख्यधारा जैसे तैसे इसे निपटा देना चाहती है ब्लॉगिंग करती हूँ, समर्थ –शिक्षित हूँ रोना रोती हूँ स्त्रियों का । यह छवि है । उँह ! मुह बनाते आगे चल देना । या फिर चलताऊ फैशन है स्त्री-विमर्श तो पुरुष उस पर बात करके ज़माने के साथ हो लेता है । यूँ हर बार ही बहस को ठंडा कर दिया जाता है ।ब्लॉग-जगत के पुरुषों के लिए भी या तो स्त्री विमर्श चुका हुआ, घिसा हुआ मुद्दा है या लोकतांत्रिक दिखने भारत का ड्रामा । मित्रों के बीच चाय-पानी आने पर यदि तथाकथित स्त्री समानता और स्वतंत्रता के पैरोकार स्त्री मित्र से ही अपेक्षा रखते हैं कि वे सर्व करें क्योंकि वे यहाँ काम बेहतर तरीके से कर सकती हैं, तो उनसे दोगला कोई नही । मैं सिमोन कही जाऊँ या सरफिरी ,हाथ में तलवार लिए लडाकी आधुनिक महिला , या और कुछ लिखना नही आता तो स्त्री पर ही कलम चलाती हूँ टाइप बात क्योंकि स्त्री पर तो कोई भी लिख सकता है ; मै बुरा नही मानती क्योंकि समझती हूँ कि यहाँ मुद्दा निपटाया जा रहा है । जो हाशिये की ज़िन्दगी नही जिया ,जिसने हाशिए पर होने का दर्द नही भोगा ,अपमान नही झेला ,दमित नही हुआ ,शासित नही हुआ , शोषित नही हुआ ----- जब उस वर्ग में आ जाऊंगी तब आपको कहना न पडेगा कि स्त्री के अलावा कुछ और लिखिये ।