प्रमोद जी का महापुरुष उदास हैऔर अकेला है बेवकूफ बुद्धिजीवियोँ के बीच । मुझे भी हमेशा से लगा किताबें खरीदना [जो पडी रहेंगी शो केस में अपना सारा वज़न लिए], फिक्की के सेमिनार और पुस्तक विमोचन , मण्डी हाउस के बेवजह चक्कर , श्रीराम सेंटर के नाटक , आई आई सी और आई एच सी की गोष्ठियाँ और प्रदर्शनियाँ बेवकूफ बुद्धिजीवियों की बौद्धिक अय्याशी के अड्डे हैं । सोचना और उस सोच पर दुनिया को कायल् कर देना शगल है । ज्ञानदत्त ने सही पहचाना । कभी कभी एक ही के भीतर महापुरुष और बेवकूफ बुद्धिजीवी एक साथ होता है ।विखंडित स्व । स्प्लिट पर्सनैलिटी ।पर अलग भी होता है ।बेजी जी ने कहा –
महापुरुष ज्ञानियों के बीच हो या अज्ञानियों के बीच अकेला ही होता है।
हाँ पर खुश होने और रहने का ताल्लुक ज्ञान से है मैं नहीं मानती। (यकीन नहीं हो तो मुझे ही देख लें :)))
दोनो बातों से सहमत हूँ ।पर व्याख्या अपेक्षित है ।मेरा आशय भिन्न है ।कुछ कबीर की तरह है ---
सुखिया सब संसार है खावै और सोवै दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै
जिसने ज्ञान पा लिया वह कभी खुश रह ही नही सकता ।खुशी का ताल्लुक बेखबर रहने से है ।अज्ञानी होने से है ।बच्चा जब तक दुनिया के दर्द-रंज जान नही लेता वह खुश है । अबोध है मासूम है तो सब आनन्द है ।आनन्द पर वज्रपात होता है जब जान जाता है संसार को । सुख का भोंथरापन समझ लेने के बाद चैन नही मिलता ।कबीर ने जाना कि सुख और खुशी भ्रम है क्षणिक हैं ।जिनके पीछे पगलाई भीड भाग रही है वह वस्तुएँ कितनी सारहीन हैं । इसलिए कबीर दुनिया के इस चलन को देखता है और दुखी रहता है । कैसे इनसान खुद को मूर्ख बनाता है और जिए जाता है । इसलिए प्रमोद जी का महापुरुष दुखी है । वह जानता है ।बौद्धिक होना , बने रहना और दिखना क्या है । ए.सी. की हवा खाते नाटक का मंचन होते देखना और हाशिये के लोगो पर बात करना और मुद्दों को चाय-समोसे के साथ उडा देना।महापुरुष दुखी ही रहेगा और अकेला भी ।बेवकूफ बौद्धिक जब तक अज्ञानी है वह अय्याश है और उसकी हर चिंता फैशन है ।
Friday, September 28, 2007
Saturday, September 8, 2007
सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है ....
उदय प्रकाश की एक कहानी है “वारेन हेस्टिन्ग्स का सान्ड ”जिसमे एक स्थान पर उन्होने लिखा है” सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है।” बात मे दम है ।सत्ता जिसके पास भी होगी उसे ही भ्रष्ट करेगी चाहे वह स्त्री हो दलित या मज़दूर ।न न... । मेरा मन्तव्य हाशियाई-विमर्शो अर सन्घर्षो पर धूल डालना नही है । एक हाशिये का तो मै खुद भी प्रतिनिधित्व करती हूँ। यह और बात है कि एक तरह से विमर्श अपने आप में मुख्यधारा की प्रक्रिया है ।माने यह कि विमर्शकार बन कर मैँ भी मुख्यधारा हो जाती हूँ। कैसे ? जैसे आदिवासी या दलित् समाज का व्यक्ति मुख्यमंत्री बनते ही अपने समाज को भूल राजनीति की मुख्यधारा के अनुकूल आचरण करने लगता है । ये दलितों के “अभिजन” हो जाते हैं । तो सत्ता और शक्ति , विमर्श की परिधि में भी कुछ कुछ मिलती है । ये बडी अप्रत्यक्ष सी प्रक्रियाएँ हैं ।
खैर , मुद्दा वही पुराना है जिस पर पिछली पोस्ट में बात की थी । स्त्री पर बात करते हुए अक्सर हम जिन पूर्वधारणाओं से ग्रस्त रहते हैं ,और जिनके कारण हमेशा से स्त्री-विमर्श का तेल हुआ है ।ये धारणाएँ हैं--- पहला, स्त्री की लडाई या प्रतिद्वन्द्विता पुरुष से है । स्त्री को मुक्ति पुरुष से चाहिये । दूसरा, स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है । तीसरा,सभी क्षेत्रों में स्त्री के आगे बढने से स्त्री की सशक्तीकरण हो रहा है । चौथा, लडकियाँ बोर्ड के नतीजों में हमेशा आगे रहती है इसलिए वे ज़्यादा होशियार और प्रतिभावान हैं और इसलिए कहना चाहिए कि वे शिक्षित हो रही हैं ।
पहले मिथ का निराकरण का प्रयास मै पिछली पोस्ट में कर चुकी हूँ ।
अब दूसरी बात - स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है ।
इसी के जवाब की भूमिका मैने आरम्भ में बान्धी है ।यह ठीक है कि स्त्री विमर्श की झण्डाबरदार हो जाते ही मुझे मुख्यधारा वाले थोडे-बहुत लाभ तो मिलने लग जाते है लेकिन यह मानने से इनकार नही किया जा सकता कि हाशियाई-विमर्शों से एक दमित-दलित वर्ग में अस्मिता का बोध भी आया है और चेतना भी । बहुत से आन्दोलनों को खडा करने और दबी अस्मिताओं को उभारने में ये विमर्श कामयाब हुए हैं । यही इसकी शक्ति है । लेकिन वे जो हाशिये की अस्मिता नही है ,जिन्होने हाशिये पर होने के अपमान और दंशों को नही झेला ;जब वे विमर्शकार होते है तो उनका विमर्श फैशन से कम नही लगता ।साथ ही यह विमर्श के मनत्व्यों को हानि पहुँचाता है हाशिये के प्रति लोगो को असम्वेदनशील बनाता और भ्रमित करता है। तभी तो पुरुषों द्वारा अक्सर यह कह दिया जाता है कि” औरतों की लडाई सत्ता और शक्ति पाने के लिए है ”।शायद इसीलिए मनीष ने यह कहा कि मीडिया में औरतें अपनी प्रतिभा नही किसी और शक्ति के बलबूते बढ रही हैं ।यह आंशिक सत्य हो सकता है । बहस तो यह भी हो सकती है कि- सत्य क्या है यह कौन बताएगा ?अंतिम सत्य , पूर्ण सत्य कुछ नही है । सो डंके की चोट पर यह कहना कि स्त्री प्रतिभा नही प्रतिमा है – गलत होगा ।यह भी बौखलाहट भरा पूर्वाग्रह ही है ।इसका अन्य पक्ष यह भी है कि कई बार स्त्री-सशक्तिकरण के भ्रामक अर्थ ग्रहण करते हुए झंडाबरदारी करने वाली कुछ स्त्रियाँ केवल कुछ पुरुषों द्वारा मूर्ख ही बनाई जा रही होते हैं । यह किसी विमर्श का सबसे घातक पहलू है । प्रतिभा जी का राष्ट्रपति बनना भी मुझे इसी श्रेणी में लगता है ।यह स्त्री का सशक्तीकरण नही स्त्री-विमर्श की हार है जब स्त्री को मोहरा बना कर मकसद हल किया जा रहा है और लगातार स्त्री-शक्ति के गीत गाये जा रहे हैं ।
सत्ता और शक्ति स्त्री अपनी काबिलियत और हौंसलों से हासिल करती है और उसका उपयोग अपनी समझ से बेहतरीन करती है तो वह पुरुष से ज़्यादा सम्माननीय है क्योंकि जो पुरुष ने आसान रास्तों से गुज़र कर किया उसके लिए एक स्त्री ने शोलों पर चलकर रास्ता तय किया होता है ।ऐसे में अगर किरण बेदी दिल्ली की पुलिस अधीक्षक बनती तो यह वास्तविक अर्थ में स्त्री सशक्तीकरण होता ।
कहने का तात्पर्य यह कि स्त्री की लडाई सत्ता,शक्ति,नियंत्रण की शक्ति को हस्तांतरण करने की नही है ।उसकी लडाई भागीदारिता की लडाई है ।समान अवसरों और समान हकों की लडाई है । उसकी लडाई उसे हीन मानने और समझने की मानसिकता से है ।उसकी लडाई में सबसे बडा दावा मानाधिकार का दावा है ।जीवन की वैसी ही अकुंठ और बेहतर स्थितियों की लडाई जो पुरुष को उपलब्ध है ।
इस लडाई में सत्ता और शक्ति केवल उपकरण हैं ,ज़रिया है मात्र । यदि इन्हे लक्ष्य समझा गया तो लडाई का मूल बिन्दु ही नष्ट हो जाएगा। मूल लडाई व्यवस्था की संरचना के पीछे छिपी मानसिकता है । स्त्री के लिए वास्तविक गतिरोध भौतिक् जगत में नही ,मनों के भीतर ,दिमागों में, अवचेतन में हैं । सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है । इसलिए यह दावा बेकार है कि शीला दीक्षित या मायावती का मुख्यमंत्री होना इसलिए सही है कि वे किसी मर्द से बेहतर प्रशासन चलाएगी और मानवीय मूल्यों या बेहतर समाज की स्थापना कर पाएगी ।सत्ता की कज्जल-कोठरी में जो जाएगा ,कालिख तो लगेगी ही ।
अत: स्त्री होने के कारण किसी अधिकार को पाने का दावा गलत है तो उतना ही गलत दावा प्रतिपक्ष का होगा कि स्त्री होने के कारण अधिकार या सत्ता को स्त्री हासिल नही कर सकती।
खैर , मुद्दा वही पुराना है जिस पर पिछली पोस्ट में बात की थी । स्त्री पर बात करते हुए अक्सर हम जिन पूर्वधारणाओं से ग्रस्त रहते हैं ,और जिनके कारण हमेशा से स्त्री-विमर्श का तेल हुआ है ।ये धारणाएँ हैं--- पहला, स्त्री की लडाई या प्रतिद्वन्द्विता पुरुष से है । स्त्री को मुक्ति पुरुष से चाहिये । दूसरा, स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है । तीसरा,सभी क्षेत्रों में स्त्री के आगे बढने से स्त्री की सशक्तीकरण हो रहा है । चौथा, लडकियाँ बोर्ड के नतीजों में हमेशा आगे रहती है इसलिए वे ज़्यादा होशियार और प्रतिभावान हैं और इसलिए कहना चाहिए कि वे शिक्षित हो रही हैं ।
पहले मिथ का निराकरण का प्रयास मै पिछली पोस्ट में कर चुकी हूँ ।
अब दूसरी बात - स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है ।
इसी के जवाब की भूमिका मैने आरम्भ में बान्धी है ।यह ठीक है कि स्त्री विमर्श की झण्डाबरदार हो जाते ही मुझे मुख्यधारा वाले थोडे-बहुत लाभ तो मिलने लग जाते है लेकिन यह मानने से इनकार नही किया जा सकता कि हाशियाई-विमर्शों से एक दमित-दलित वर्ग में अस्मिता का बोध भी आया है और चेतना भी । बहुत से आन्दोलनों को खडा करने और दबी अस्मिताओं को उभारने में ये विमर्श कामयाब हुए हैं । यही इसकी शक्ति है । लेकिन वे जो हाशिये की अस्मिता नही है ,जिन्होने हाशिये पर होने के अपमान और दंशों को नही झेला ;जब वे विमर्शकार होते है तो उनका विमर्श फैशन से कम नही लगता ।साथ ही यह विमर्श के मनत्व्यों को हानि पहुँचाता है हाशिये के प्रति लोगो को असम्वेदनशील बनाता और भ्रमित करता है। तभी तो पुरुषों द्वारा अक्सर यह कह दिया जाता है कि” औरतों की लडाई सत्ता और शक्ति पाने के लिए है ”।शायद इसीलिए मनीष ने यह कहा कि मीडिया में औरतें अपनी प्रतिभा नही किसी और शक्ति के बलबूते बढ रही हैं ।यह आंशिक सत्य हो सकता है । बहस तो यह भी हो सकती है कि- सत्य क्या है यह कौन बताएगा ?अंतिम सत्य , पूर्ण सत्य कुछ नही है । सो डंके की चोट पर यह कहना कि स्त्री प्रतिभा नही प्रतिमा है – गलत होगा ।यह भी बौखलाहट भरा पूर्वाग्रह ही है ।इसका अन्य पक्ष यह भी है कि कई बार स्त्री-सशक्तिकरण के भ्रामक अर्थ ग्रहण करते हुए झंडाबरदारी करने वाली कुछ स्त्रियाँ केवल कुछ पुरुषों द्वारा मूर्ख ही बनाई जा रही होते हैं । यह किसी विमर्श का सबसे घातक पहलू है । प्रतिभा जी का राष्ट्रपति बनना भी मुझे इसी श्रेणी में लगता है ।यह स्त्री का सशक्तीकरण नही स्त्री-विमर्श की हार है जब स्त्री को मोहरा बना कर मकसद हल किया जा रहा है और लगातार स्त्री-शक्ति के गीत गाये जा रहे हैं ।
सत्ता और शक्ति स्त्री अपनी काबिलियत और हौंसलों से हासिल करती है और उसका उपयोग अपनी समझ से बेहतरीन करती है तो वह पुरुष से ज़्यादा सम्माननीय है क्योंकि जो पुरुष ने आसान रास्तों से गुज़र कर किया उसके लिए एक स्त्री ने शोलों पर चलकर रास्ता तय किया होता है ।ऐसे में अगर किरण बेदी दिल्ली की पुलिस अधीक्षक बनती तो यह वास्तविक अर्थ में स्त्री सशक्तीकरण होता ।
कहने का तात्पर्य यह कि स्त्री की लडाई सत्ता,शक्ति,नियंत्रण की शक्ति को हस्तांतरण करने की नही है ।उसकी लडाई भागीदारिता की लडाई है ।समान अवसरों और समान हकों की लडाई है । उसकी लडाई उसे हीन मानने और समझने की मानसिकता से है ।उसकी लडाई में सबसे बडा दावा मानाधिकार का दावा है ।जीवन की वैसी ही अकुंठ और बेहतर स्थितियों की लडाई जो पुरुष को उपलब्ध है ।
इस लडाई में सत्ता और शक्ति केवल उपकरण हैं ,ज़रिया है मात्र । यदि इन्हे लक्ष्य समझा गया तो लडाई का मूल बिन्दु ही नष्ट हो जाएगा। मूल लडाई व्यवस्था की संरचना के पीछे छिपी मानसिकता है । स्त्री के लिए वास्तविक गतिरोध भौतिक् जगत में नही ,मनों के भीतर ,दिमागों में, अवचेतन में हैं । सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है । इसलिए यह दावा बेकार है कि शीला दीक्षित या मायावती का मुख्यमंत्री होना इसलिए सही है कि वे किसी मर्द से बेहतर प्रशासन चलाएगी और मानवीय मूल्यों या बेहतर समाज की स्थापना कर पाएगी ।सत्ता की कज्जल-कोठरी में जो जाएगा ,कालिख तो लगेगी ही ।
अत: स्त्री होने के कारण किसी अधिकार को पाने का दावा गलत है तो उतना ही गलत दावा प्रतिपक्ष का होगा कि स्त्री होने के कारण अधिकार या सत्ता को स्त्री हासिल नही कर सकती।
Friday, September 7, 2007
मोहल्ले का स्त्री-विमर्श और कुछ छूटे हुए मुद्दे
मोहल्ले पर आजकल स्त्री-विमर्श चल रहा है ।अच्छा है । पर पीडा इस बात की है कि विमर्श एकांगी दृष्टिकोण को लिए चल रहा है । सारी बात चीत के बाद लगता है कि मुद्दा मात्र यह रह गया है कि ‘स्त्रियाँ हर क्षेत्र में प्रगति कर रही है और भारत की किस्मत लिख रही हैं ‘जैसा कि पूजा के लेख से ध्वनित होता है या फिर ठीक उलट कि ‘स्त्रियाँ आगे तो बढ रही हैं लेकिन प्रतिभा के बलबूते नही किन्ही और ही मानदनडों पर ‘।माने लडाई बहस एक सरफेस के ऊपर काई सी जम रही है जिसके नीचे की गहराई अभेद्य और अगम्य हो जाएगी अगर यह विमर्श कुछ पल और यूँही चलता रहा। इसलिए सोचा कि कुछ वास्तविक मुद्दे उठ जाने चाहिये इससे पहले कि बात में बात सा कुछ न बचे और शब्द रीत जाएँ और अर्थ चुक जाएँ ।
मेरी समझ से स्त्री के आगे बढने या न बढने से कहीं ज़रूरी बातें और हैं । इसलिए पहले तो उन मिथों से निबटना ज़रूरी है जो हर इस बहस में शामिल व्यक्ति की पूर्वधारणा के रूप में काम कर रहा है । ये मिथ है -
पहला, स्त्री की लडाई या प्रतिद्वन्द्विता पुरुष से है । स्त्री को मुक्ति पुरुष से चाहिये । दूसरा, स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है । तीसरा,सभी क्षेत्रों में स्त्री के आगे बढने से स्त्री की सशक्तीकरण हो रहा है । चौथा, लडकियाँ बोर्ड के नतीजों में हमेशा आगे रहती है इसलिए वे ज़्यादा होशियार और प्रतिभावान हैं और इसलिए कहना चाहिए कि वे शिक्षित हो रही हैं ।
अब इन मिथों का निराकरण -
स्त्री की लडाई ,दर असल , पुरुष से नही पितृसत्ता से है जिसका समान रूप से शिकार पुरुष भी है ;इसलिए स्त्री की मुक्ति या लडाई पुरुष की भी मुक्ति और लडाई है ।लेकिन अफसोस यह है कि इस् मुद्दे पर स्त्री व पुरुष एक दूसरे को प्रतिद्वन्द्वी मानते हैं और सारी ऊर्जा अवास्तविक शत्रु से जूझने में निबट जाती है ।मायने यूँ समझिए कि, जब एक स्त्री अपनी पारम्परिक भूमिकाओं से निकल कर मनचीता करना चाहती है तो उसका रास्ता रोकने वालों में पितृसत्ता के चौकीदार पुरुष ही बाधा नही बनते बल्कि इसी व्यवस्था में रची-पगी स्त्रियाँ भी उतनी ही बाधक बनती हैं ।पुरुषो को समझना होगा कि वे एक कितने ही शिक्षित हो जाएँ वे एक बन्धी बन्धाई परिपाटी के अनुरूप ही व्यवहार कर रहे हैं । यह भी समझना होगा कि पुरुष का साथ ही गंतव्य है और मंतव्य है न कि पुरुष से मुक्ति । पुरुषों को धरती से मिटाकर स्त्रियाँ कहाँ जाएँगी ?
इसलिए कामना साथ की ही है चाहे वह इच्छित साथ लड कर लेना पडे ।
“चक दे इंडिया” इस मायने में एक अच्छा उदाहरण सामने लाती है ।लडकियों की टीम वर्ल्ड कप में जाने लायक है यह सिद्ध करने के लिए उसे लडकों की टीम के साथ खेलना पडता है । वास्तव में भी जब जब स्त्री की क्षमताओं पर विचार हुआ है तो उसका पैमाना पुरुष ही रहा है ।स्त्री अपने आप में कुछ नही अगर उसकी प्रतिभा पुरुष की प्रतिभा से टक्कर लेने लाबिल नही है ।यहाँ ये कायनात के दो अलग ,पूरक प्राणी ,साथी न होकर दो लडाके हो जाते हैं। जिसमें एक अपनी भिन्न शारीरिक और मानसिक शक्तियों व क्षमताओं के कारण हीन साबित होता है।इसलिए शारीरिक क्षमता को सिद्ध करने के लिए प्रजनन और पोषण से ही बात नही बनती स्त्री को पहलवानी भी करनी पडती है ;और वह करती है;खुद को साबित करने के लिए ये वे अग्नि-परीक्षाएँ हैं जिनसे वह आज भी गुज़रती है ,और सफल भी होती है । शारीरिक क्षमताएँ और काबिलियत सिद्ध करने के लिए अभी तक पुरुष से नही कहा गया है कि-“चलो जी, तुम्हे तब मानेंगे जब बच्चा पैदा करके दिखाओ “
तो लडाई दो विपरीत लिंगियों की नही है । उनके सामाजी करण की प्रक्रिया और उसके पीछे के संसकारों या मानसिकता से है ।
समानता के मायने क्या है ? इस पर भी सोचने की ज़रूरत है । बाकी मिथों का जवाब अगली पोस्ट में ।यूँ भी पिछली पोस्ट विचारों के प्रवाह में बहुत दीर्घ हो गयी थी ।इसलिए अभी इतना ही । बहस आमंत्रित है .........
मेरी समझ से स्त्री के आगे बढने या न बढने से कहीं ज़रूरी बातें और हैं । इसलिए पहले तो उन मिथों से निबटना ज़रूरी है जो हर इस बहस में शामिल व्यक्ति की पूर्वधारणा के रूप में काम कर रहा है । ये मिथ है -
पहला, स्त्री की लडाई या प्रतिद्वन्द्विता पुरुष से है । स्त्री को मुक्ति पुरुष से चाहिये । दूसरा, स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है । तीसरा,सभी क्षेत्रों में स्त्री के आगे बढने से स्त्री की सशक्तीकरण हो रहा है । चौथा, लडकियाँ बोर्ड के नतीजों में हमेशा आगे रहती है इसलिए वे ज़्यादा होशियार और प्रतिभावान हैं और इसलिए कहना चाहिए कि वे शिक्षित हो रही हैं ।
अब इन मिथों का निराकरण -
स्त्री की लडाई ,दर असल , पुरुष से नही पितृसत्ता से है जिसका समान रूप से शिकार पुरुष भी है ;इसलिए स्त्री की मुक्ति या लडाई पुरुष की भी मुक्ति और लडाई है ।लेकिन अफसोस यह है कि इस् मुद्दे पर स्त्री व पुरुष एक दूसरे को प्रतिद्वन्द्वी मानते हैं और सारी ऊर्जा अवास्तविक शत्रु से जूझने में निबट जाती है ।मायने यूँ समझिए कि, जब एक स्त्री अपनी पारम्परिक भूमिकाओं से निकल कर मनचीता करना चाहती है तो उसका रास्ता रोकने वालों में पितृसत्ता के चौकीदार पुरुष ही बाधा नही बनते बल्कि इसी व्यवस्था में रची-पगी स्त्रियाँ भी उतनी ही बाधक बनती हैं ।पुरुषो को समझना होगा कि वे एक कितने ही शिक्षित हो जाएँ वे एक बन्धी बन्धाई परिपाटी के अनुरूप ही व्यवहार कर रहे हैं । यह भी समझना होगा कि पुरुष का साथ ही गंतव्य है और मंतव्य है न कि पुरुष से मुक्ति । पुरुषों को धरती से मिटाकर स्त्रियाँ कहाँ जाएँगी ?
इसलिए कामना साथ की ही है चाहे वह इच्छित साथ लड कर लेना पडे ।
“चक दे इंडिया” इस मायने में एक अच्छा उदाहरण सामने लाती है ।लडकियों की टीम वर्ल्ड कप में जाने लायक है यह सिद्ध करने के लिए उसे लडकों की टीम के साथ खेलना पडता है । वास्तव में भी जब जब स्त्री की क्षमताओं पर विचार हुआ है तो उसका पैमाना पुरुष ही रहा है ।स्त्री अपने आप में कुछ नही अगर उसकी प्रतिभा पुरुष की प्रतिभा से टक्कर लेने लाबिल नही है ।यहाँ ये कायनात के दो अलग ,पूरक प्राणी ,साथी न होकर दो लडाके हो जाते हैं। जिसमें एक अपनी भिन्न शारीरिक और मानसिक शक्तियों व क्षमताओं के कारण हीन साबित होता है।इसलिए शारीरिक क्षमता को सिद्ध करने के लिए प्रजनन और पोषण से ही बात नही बनती स्त्री को पहलवानी भी करनी पडती है ;और वह करती है;खुद को साबित करने के लिए ये वे अग्नि-परीक्षाएँ हैं जिनसे वह आज भी गुज़रती है ,और सफल भी होती है । शारीरिक क्षमताएँ और काबिलियत सिद्ध करने के लिए अभी तक पुरुष से नही कहा गया है कि-“चलो जी, तुम्हे तब मानेंगे जब बच्चा पैदा करके दिखाओ “
तो लडाई दो विपरीत लिंगियों की नही है । उनके सामाजी करण की प्रक्रिया और उसके पीछे के संसकारों या मानसिकता से है ।
समानता के मायने क्या है ? इस पर भी सोचने की ज़रूरत है । बाकी मिथों का जवाब अगली पोस्ट में ।यूँ भी पिछली पोस्ट विचारों के प्रवाह में बहुत दीर्घ हो गयी थी ।इसलिए अभी इतना ही । बहस आमंत्रित है .........
Thursday, September 6, 2007
एक पगलाए वक्त में रस-चर्चा
जब काव्य में रस की बात होती है तो सबसे पहले रसराज श्रृंगार [आम भाषा में प्रेम –और उसके भी दोनो पक्ष संयोग और वियोग ] का नाम आता है ।“पृथ्वीराज रासो” की परम्परा के रासो काव्य युद्ध और श्रृंगार के वर्णनों से अटे पडे हैं। यानि वीर और श्रृंगार रस इनमें प्रमुख हैं। श्रृंगार का बखान क्या करूँ, वह हमेशा प्रासंगिक रहेगा और सबका स्वानुभूत भी । युद्ध के वर्णनों में मिलने वाले वीर रस और अन्य दो रस- रौद्र व जुगुप्सा मुझे बात करने को अधिक प्रासंगिक जान पड रहे हैं ।चलिए वीर रस की बात करें।वीर रस की प्रेरक स्थितियाँ होती हैं जब अधर्म , अत्याचार और अन्याय का सर्वत्र बोलबाला हो ।खलनायक के दुराचरण और निर्बलों पर उसका अन्याय वीर रस के नायक को भडकाने और रस की पूर्ण निष्पत्ति में सहयोग देते हैं। ऐसे में जननायक के रूप में खडा नायक वीर रस से स्फूर्त और सद्दुदेश्य से संचरित होता है और उसका वीरतापूर्वक शस्त्र उठा कर शत्रु पर वार करना वीर रस का निष्पादन करता है । ऐसे में रौद्र रस वीर का सहयोगी बन कर प्रकट होता है । रौद्र शब्द अधिकांश लोगों ने शिव के रौद्रावतार या रौद्र रूप के विषय में सुना होगा । रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है [स्थायी भाव माने वे मूल भाव जो आदिम काल से मनुष्य के मन में रहते आये है और रहेंगे ,और अनुकूल अवसर आते ही प्रकट हो जाते हैं] ।यह क्रोध दुराचारी के चिढाने और हरकतों से बाज़ न आने पर वीर नायक में उतपन्न होता है।ऐसे में नायक की क्रोध से आंखे लाल होना, बाँह ,होंठ फडकना ,हुंकार करना, चुनौती देना रौद्र रस का सृजन करते हैं। ये दोनो रस मिलकर युद्ध के वातावरण को सजीव बनाते हैं तो वहीं युद्ध के बाद लाशों और् खून् से लिथडे कटे शरीर ,मरघट सी नीरवता और गिद्धों चीलों का लाशों में से आँख जिह्वा नोच नोच कर खाना ऐसा घृणित वातावरण बनाते हैं जिनसे जुगुप्सा रस की निष्पत्ति होती है माने कै करवा सकने की क्षमता वाला उबकाई भरा वातावरण्।
यह वीरता प्रदर्शन और क्रोध कभी भी निर्बल और शोषित के प्रति नही होता ।उद्देश्य की पवित्रता और धर्म संस्थापना की मंशा से ही होता है। लेकिन अगर क्रोध और बल-प्रदर्शन कमज़ोर के प्रति होने लगे,मानो कंस का मथुरावासियों पर अत्याचार , तो वहाँ क्या रस होगा ;न,न...रसाभास....रसाभाव.....या शायद रसभंग ! रसभंग की ये स्थितियाँ हमें आज हर ओर दीख पड रही हैं ।डारविन के विकासवाद [survival of the fittest] ने यूँ भी प्रतिस्पर्द्धा में निर्बलों के पिछड जाने और सबलों के और और सबल होते जाने को वैज्ञानिक वैधता दे ही दी तो कार् मालिक और चालक के रिक्शेवाले के प्रति असम्वेदनशील होकर जैसे तैसे आगे बढ जाने में अचरज क्या है ? मनों का बोझ लादे असहाय रिकशावाला लाख चाह कर भी जो कुछ नही कर सकता,और उसे भी उसी सडक पर ही चल कर आगे तक जाना है उस पर भी बेसब्र गाडियाँ लगातार “पीं-पीं” चींखती रहती हैं और थूक में चबाई सभ्य गालियाँ उस पर फेंकते हुए सबसे आगे बढ जाती हैं।यहाँ कार मालिक का रौद्र रूप रौद्र रस की खिल्ली सी उडाता लगता है । क्या यह आँखें लाल होना क्रोध से बाँहें फडकना अधर्मी,दुराचारी के कुकृत्यों के कारण है ? यह रौद्र है ? या पागलपन ? शायद पागलपन ही है । ये अतिवादी प्रतिक्रियाएँ और अकारण का गुस्सा जिसमें पगलाया आदमी एक उमा खुराना पर गुस्सा होकर कई निरपराधों के वाहन जला डालता है या सीलिंग के विरोध में सडकों पर उतर आकर पत्थरबाज़ी करता,ट्रकें जलाता है। या कमज़ोर को सामने देखते ही जिसे अचानक अपनी शक्ति का भान हो जाता है जिसके दम्भ में वह सडक पर ही पीट पीट कर किसी की हत्या कर डालता है । या वर्दी का गुंडा “मारो साले को !” कहते हुए प्रशासन की दी हुई बंदूक से, समर्पण को तैयार निहत्थे गुण्डे को भून डालता है । ऐसे लोगो को कौन सा वीर कहा जाए ? युद्धवीर ...दानवीर ... कर्मवीर....दयावीर....। न । न यह वीरता है न यह कोई रस है ।महज़ बल-प्रदर्शन वीरता नही और महज़ क्रोध रौद्र नही ।यह दिमागी बुखार है जिसका कोई वैक्सीन नही ।वर्ना पडोसी के कुत्ते को जान से सिर्फ इसलिए मार डालना कि उसका भौंकना पसन्द नही,या अपनी ही संतान को मार डालना सिर्फ इसलिए कि वह पिता के हिस्से के चिप्स खा गया दुरुस्त दिमागी हालत के लक्षण तो कतई नही हैं ।गरीब परिवारों के बच्चों की बोटियाँ चबाने वाले मोनिन्दर सिंह ही वहशी नही हैं सिर्फ ।यह इस पगलाए वक्त के हर उस आदमी का वहशी जुनून है जिसे अपने हाथ् का डंडा और असहाय की चमडी दीखती है बस ।
तो वीर और रौद्र रस की स्थितियाँ आज सम्भव नहीं । ये दोनो रस रस चर्चा में बहिष्कृत होने चाहिए । ये निहायत अप्रासंगिक हैं । बचा –जुगुप्सा रस । वह निहायत प्रासंगिक है ।निठारी की कोठी के भीतरी नज़ारे को यदि कोई कवि छन्दोबद्ध करे तो जुगुप्सा रस का अब तक का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण बन पडेगा ।भीड के विरोध-प्रदर्शन और पुलिस के शांति-प्रयासों के बाद का सडकों का नज़ारा भी जुगुप्सा रस के लिए मॉडीफाएड स्थिति होगी ।इसे रस भंग कहने वाले मूर्ख होंगे । अब बाकि बचे रसों की बात । हास्य रस् भी श्रृंगार का साथी है और कभी अप्रासंगिक नही होने वाला । करुण रस तो शायद अब रसराज हो जाए क्योंकि सर्वत्र स्थितियाँ इसकी प्रेरक ही हैं । सरकारी-प्रशासनिक अफसरों-गुंडो और आतंकवाद के दौर में भय रस भी अति प्रासंगिक है और वैज्ञानिक –प्रौद्योगिक तरक्की के चलते अद्भुत रस भी यदा-कदा दीख जाएगा । अभी बहुत कुछ अद्भुत होना बाकी है ।भक्ति रस विवादास्प्द रस की श्रेणी में है क्योंकि भक्ति वाले शांत रस और उसके स्थायी भाव निर्वेद में कोई रुचि न रखकर धर्म और राजनीति में अधिक दिलचस्पी दिखा रहे है ।बम-बम भोला में रमते हुए लाठी बल्लम लिए कुश्ती के दाव पेंच भी खेलते रहते हैं । वात्सल्य रस या कहे माता पिता का संतान के प्रति प्रेम –यह भी प्रश्न चिह्नित है ।इसकी प्रतिकूल परिस्थितियाँ वात्सल्य भाव के पुष्टिकरण में बाधा बन रहा है ।केवल कृष्ण की बाल-लीलाओं में आनन्द लेने को जेंडर-बायस कहा जा रहा है ।बालिका-शिशु की अठखेलियों को अभी तक नज़रान्दाज़ किया गया है।
सो नतीजा यह कि सब रसों में वीर और रौद्र रस को छोडकर बाकि सभी रस काव्य में और समाज में अपनी अपनी प्रासंगिकता के लिए अडे है ।रौद्र और वीर को या तो अपना स्वरूप बदलना होगा या मिटना होगा या अप्रासंगिक होना होगा माने सिर्फ किताब तक सीमित रहना ।ऐसी कोई स्थिति समाज में नही होगी जिससे प्रेरित हो कर हम वीर या रौद्र का उदाहरण दे सकें या जिनके आधार पर कवि काव्य लिख सके ।
यह वीरता प्रदर्शन और क्रोध कभी भी निर्बल और शोषित के प्रति नही होता ।उद्देश्य की पवित्रता और धर्म संस्थापना की मंशा से ही होता है। लेकिन अगर क्रोध और बल-प्रदर्शन कमज़ोर के प्रति होने लगे,मानो कंस का मथुरावासियों पर अत्याचार , तो वहाँ क्या रस होगा ;न,न...रसाभास....रसाभाव.....या शायद रसभंग ! रसभंग की ये स्थितियाँ हमें आज हर ओर दीख पड रही हैं ।डारविन के विकासवाद [survival of the fittest] ने यूँ भी प्रतिस्पर्द्धा में निर्बलों के पिछड जाने और सबलों के और और सबल होते जाने को वैज्ञानिक वैधता दे ही दी तो कार् मालिक और चालक के रिक्शेवाले के प्रति असम्वेदनशील होकर जैसे तैसे आगे बढ जाने में अचरज क्या है ? मनों का बोझ लादे असहाय रिकशावाला लाख चाह कर भी जो कुछ नही कर सकता,और उसे भी उसी सडक पर ही चल कर आगे तक जाना है उस पर भी बेसब्र गाडियाँ लगातार “पीं-पीं” चींखती रहती हैं और थूक में चबाई सभ्य गालियाँ उस पर फेंकते हुए सबसे आगे बढ जाती हैं।यहाँ कार मालिक का रौद्र रूप रौद्र रस की खिल्ली सी उडाता लगता है । क्या यह आँखें लाल होना क्रोध से बाँहें फडकना अधर्मी,दुराचारी के कुकृत्यों के कारण है ? यह रौद्र है ? या पागलपन ? शायद पागलपन ही है । ये अतिवादी प्रतिक्रियाएँ और अकारण का गुस्सा जिसमें पगलाया आदमी एक उमा खुराना पर गुस्सा होकर कई निरपराधों के वाहन जला डालता है या सीलिंग के विरोध में सडकों पर उतर आकर पत्थरबाज़ी करता,ट्रकें जलाता है। या कमज़ोर को सामने देखते ही जिसे अचानक अपनी शक्ति का भान हो जाता है जिसके दम्भ में वह सडक पर ही पीट पीट कर किसी की हत्या कर डालता है । या वर्दी का गुंडा “मारो साले को !” कहते हुए प्रशासन की दी हुई बंदूक से, समर्पण को तैयार निहत्थे गुण्डे को भून डालता है । ऐसे लोगो को कौन सा वीर कहा जाए ? युद्धवीर ...दानवीर ... कर्मवीर....दयावीर....। न । न यह वीरता है न यह कोई रस है ।महज़ बल-प्रदर्शन वीरता नही और महज़ क्रोध रौद्र नही ।यह दिमागी बुखार है जिसका कोई वैक्सीन नही ।वर्ना पडोसी के कुत्ते को जान से सिर्फ इसलिए मार डालना कि उसका भौंकना पसन्द नही,या अपनी ही संतान को मार डालना सिर्फ इसलिए कि वह पिता के हिस्से के चिप्स खा गया दुरुस्त दिमागी हालत के लक्षण तो कतई नही हैं ।गरीब परिवारों के बच्चों की बोटियाँ चबाने वाले मोनिन्दर सिंह ही वहशी नही हैं सिर्फ ।यह इस पगलाए वक्त के हर उस आदमी का वहशी जुनून है जिसे अपने हाथ् का डंडा और असहाय की चमडी दीखती है बस ।
तो वीर और रौद्र रस की स्थितियाँ आज सम्भव नहीं । ये दोनो रस रस चर्चा में बहिष्कृत होने चाहिए । ये निहायत अप्रासंगिक हैं । बचा –जुगुप्सा रस । वह निहायत प्रासंगिक है ।निठारी की कोठी के भीतरी नज़ारे को यदि कोई कवि छन्दोबद्ध करे तो जुगुप्सा रस का अब तक का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण बन पडेगा ।भीड के विरोध-प्रदर्शन और पुलिस के शांति-प्रयासों के बाद का सडकों का नज़ारा भी जुगुप्सा रस के लिए मॉडीफाएड स्थिति होगी ।इसे रस भंग कहने वाले मूर्ख होंगे । अब बाकि बचे रसों की बात । हास्य रस् भी श्रृंगार का साथी है और कभी अप्रासंगिक नही होने वाला । करुण रस तो शायद अब रसराज हो जाए क्योंकि सर्वत्र स्थितियाँ इसकी प्रेरक ही हैं । सरकारी-प्रशासनिक अफसरों-गुंडो और आतंकवाद के दौर में भय रस भी अति प्रासंगिक है और वैज्ञानिक –प्रौद्योगिक तरक्की के चलते अद्भुत रस भी यदा-कदा दीख जाएगा । अभी बहुत कुछ अद्भुत होना बाकी है ।भक्ति रस विवादास्प्द रस की श्रेणी में है क्योंकि भक्ति वाले शांत रस और उसके स्थायी भाव निर्वेद में कोई रुचि न रखकर धर्म और राजनीति में अधिक दिलचस्पी दिखा रहे है ।बम-बम भोला में रमते हुए लाठी बल्लम लिए कुश्ती के दाव पेंच भी खेलते रहते हैं । वात्सल्य रस या कहे माता पिता का संतान के प्रति प्रेम –यह भी प्रश्न चिह्नित है ।इसकी प्रतिकूल परिस्थितियाँ वात्सल्य भाव के पुष्टिकरण में बाधा बन रहा है ।केवल कृष्ण की बाल-लीलाओं में आनन्द लेने को जेंडर-बायस कहा जा रहा है ।बालिका-शिशु की अठखेलियों को अभी तक नज़रान्दाज़ किया गया है।
सो नतीजा यह कि सब रसों में वीर और रौद्र रस को छोडकर बाकि सभी रस काव्य में और समाज में अपनी अपनी प्रासंगिकता के लिए अडे है ।रौद्र और वीर को या तो अपना स्वरूप बदलना होगा या मिटना होगा या अप्रासंगिक होना होगा माने सिर्फ किताब तक सीमित रहना ।ऐसी कोई स्थिति समाज में नही होगी जिससे प्रेरित हो कर हम वीर या रौद्र का उदाहरण दे सकें या जिनके आधार पर कवि काव्य लिख सके ।
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