Saturday, September 8, 2007

सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है ....

उदय प्रकाश की एक कहानी है “वारेन हेस्टिन्ग्स का सान्ड ”जिसमे‍ एक स्थान पर उन्होने लिखा है” सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है।” बात मे‍ दम है ।सत्ता जिसके पास भी होगी उसे ही भ्रष्ट करेगी चाहे वह स्त्री हो दलित या मज़दूर ।न न... । मेरा मन्तव्य हाशियाई-विमर्शो‍ अर सन्घर्षो‍ पर धूल डालना नही है । एक हाशिये का तो मै खुद भी प्रतिनिधित्व करती हूँ। यह और बात है कि एक तरह से विमर्श अपने आप में मुख्यधारा की प्रक्रिया है ।माने यह कि विमर्शकार बन कर मैँ भी मुख्यधारा हो जाती हूँ। कैसे ? जैसे आदिवासी या दलित् समाज का व्यक्ति मुख्यमंत्री बनते ही अपने समाज को भूल राजनीति की मुख्यधारा के अनुकूल आचरण करने लगता है । ये दलितों के “अभिजन” हो जाते हैं । तो सत्ता और शक्ति , विमर्श की परिधि में भी कुछ कुछ मिलती है‌‍ । ये बडी अप्रत्यक्ष सी प्रक्रियाएँ हैं ।
खैर , मुद्दा वही पुराना है जिस पर पिछली पोस्ट में बात की थी । स्त्री पर बात करते हुए अक्सर हम जिन पूर्वधारणाओं से ग्रस्त रहते हैं ,और जिनके कारण हमेशा से स्त्री-विमर्श का तेल हुआ है ।ये धारणाएँ हैं--- पहला, स्त्री की लडाई या प्रतिद्वन्द्विता पुरुष से है । स्त्री को मुक्ति पुरुष से चाहिये । दूसरा, स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है । तीसरा,सभी क्षेत्रों में स्त्री के आगे बढने से स्त्री की सशक्तीकरण हो रहा है । चौथा, लडकियाँ बोर्ड के नतीजों में हमेशा आगे रहती है इसलिए वे ज़्यादा होशियार और प्रतिभावान हैं और इसलिए कहना चाहिए कि वे शिक्षित हो रही हैं ।
पहले मिथ का निराकरण का प्रयास मै पिछली पोस्ट में कर चुकी हूँ ।
अब दूसरी बात - स्त्री-विमर्श किसी भी अन्य हाशियाई –विमर्श की ही तरह सत्ता-विमर्श है।यानी यह सत्ता पाने की जंग है ।
इसी के जवाब की भूमिका मैने आरम्भ में बान्धी है ।यह ठीक है कि स्त्री विमर्श की झण्डाबरदार हो जाते ही मुझे मुख्यधारा वाले थोडे-बहुत लाभ तो मिलने लग जाते है लेकिन यह मानने से इनकार नही किया जा सकता कि हाशियाई-विमर्शों से एक दमित-दलित वर्ग में अस्मिता का बोध भी आया है और चेतना भी । बहुत से आन्दोलनों को खडा करने और दबी अस्मिताओं को उभारने में ये विमर्श कामयाब हुए हैं । यही इसकी शक्ति है । लेकिन वे जो हाशिये की अस्मिता नही है ,जिन्होने हाशिये पर होने के अपमान और दंशों को नही झेला ;जब वे विमर्शकार होते है तो उनका विमर्श फैशन से कम नही लगता ।साथ ही यह विमर्श के मनत्व्यों को हानि पहुँचाता है हाशिये के प्रति लोगो को असम्वेदनशील बनाता और भ्रमित करता है। तभी तो पुरुषों द्वारा अक्सर यह कह दिया जाता है कि” औरतों की लडाई सत्ता और शक्ति पाने के लिए है ”।शायद इसीलिए मनीष ने यह कहा कि मीडिया में औरतें अपनी प्रतिभा नही किसी और शक्ति के बलबूते बढ रही हैं ।यह आंशिक सत्य हो सकता है । बहस तो यह भी हो सकती है कि- सत्य क्या है यह कौन बताएगा ?अंतिम सत्य , पूर्ण सत्य कुछ नही है । सो डंके की चोट पर यह कहना कि स्त्री प्रतिभा नही प्रतिमा है – गलत होगा ।यह भी बौखलाहट भरा पूर्वाग्रह ही है ।इसका अन्य पक्ष यह भी है कि कई बार स्त्री-सशक्तिकरण के भ्रामक अर्थ ग्रहण करते हुए झंडाबरदारी करने वाली कुछ स्त्रियाँ केवल कुछ पुरुषों द्वारा मूर्ख ही बनाई जा रही होते हैं । यह किसी विमर्श का सबसे घातक पहलू है । प्रतिभा जी का राष्ट्रपति बनना भी मुझे इसी श्रेणी में लगता है ।यह स्त्री का सशक्तीकरण नही स्त्री-विमर्श की हार है जब स्त्री को मोहरा बना कर मकसद हल किया जा रहा है और लगातार स्त्री-शक्ति के गीत गाये जा रहे हैं ।
सत्ता और शक्ति स्त्री अपनी काबिलियत और हौंसलों से हासिल करती है और उसका उपयोग अपनी समझ से बेहतरीन करती है तो वह पुरुष से ज़्यादा सम्माननीय है क्योंकि जो पुरुष ने आसान रास्तों से गुज़र कर किया उसके लिए एक स्त्री ने शोलों पर चलकर रास्ता तय किया होता है ।ऐसे में अगर किरण बेदी दिल्ली की पुलिस अधीक्षक बनती तो यह वास्तविक अर्थ में स्त्री सशक्तीकरण होता ।
कहने का तात्पर्य यह कि स्त्री की लडाई सत्ता,शक्ति,नियंत्रण की शक्ति को हस्तांतरण करने की नही है ।उसकी लडाई भागीदारिता की लडाई है ।समान अवसरों और समान हकों की लडाई है । उसकी लडाई उसे हीन मानने और समझने की मानसिकता से है ।उसकी लडाई में सबसे बडा दावा मानाधिकार का दावा है ।जीवन की वैसी ही अकुंठ और बेहतर स्थितियों की लडाई जो पुरुष को उपलब्ध है ।
इस लडाई में सत्ता और शक्ति केवल उपकरण हैं ,ज़रिया है मात्र । यदि इन्हे लक्ष्य समझा गया तो लडाई का मूल बिन्दु ही नष्ट हो जाएगा। मूल लडाई व्यवस्था की संरचना के पीछे छिपी मानसिकता है । स्त्री के लिए वास्तविक गतिरोध भौतिक् जगत में नही ,मनों के भीतर ,दिमागों में, अवचेतन में हैं । सत्ता तो भ्रष्ट करती ही है । इसलिए यह दावा बेकार है कि शीला दीक्षित या मायावती का मुख्यमंत्री होना इसलिए सही है कि वे किसी मर्द से बेहतर प्रशासन चलाएगी और मानवीय मूल्यों या बेहतर समाज की स्थापना कर पाएगी ।सत्ता की कज्जल-कोठरी में जो जाएगा ,कालिख तो लगेगी ही ।
अत: स्त्री होने के कारण किसी अधिकार को पाने का दावा गलत है तो उतना ही गलत दावा प्रतिपक्ष का होगा कि स्त्री होने के कारण अधिकार या सत्ता को स्त्री हासिल नही कर सकती।

5 comments:

dpkraj said...

बहुत प्रभावपूर्ण एवं सशक्त अभिव्यक्ति
दीपक भारतदीप

रवीन्द्र प्रभात said...

आपके प्रयास सराहनीय है और में अपने ब्लॉग पर आपका ब्लॉग लिंक कर दिया है।
रवीन्द्र प्रभात

बसंत आर्य said...

क्या खूब लिखा आपने. वारेन हेस्टिन्ग्स के सान्ड के बहाने से.

36solutions said...

पढिये आज मेरा पोस्‍ट बस्‍तर और नक्‍सल पर आरंभ में

Anonymous said...

सुजाता, बहुत अच्छा लिखा है आपने, महिला पुरुष दो अलग वर्ग होते हुए भी वर्ग शत्रु नही है, और महिला मुक्ती कि लड़ाई इस समाज को दोनो के लिए मानवीय बनाने की लड़ाई है. जितनी जरूरी ये stri के लिए है उतनी ही पुरुष के लिए भी. फिर भी "जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर परायी" वाली कहावत यहाँ भी लागू होती है. और वर्तमान मे औरतों की कीमत पर मर्दों की एयासी है, औरतों को भी गुलामी के कुछ फयादे मिलते है। और जब तक ये रहेगी , जीवन मे उन्मुक्त संम्बंध , सच्चा प्रेम, सच्ची संवेदना नही आएगी। दूनिया मे कितना कलह मचा बंधुआ मजदूरी को लेकर, बेगार आंदोलन जहाँ तहां खडे हुए, पर आज भी बेगार या बिन किसी मूल्य के स्त्री श्रम पर किसी कि उंगली नही उठती। ये स्त्री के जीने कि शर्त है, घर परिवार मे शांती की शर्त है। रिश्तेदारियों मे निभाह की शर्त है। पुरुष पूरा पूरा दिन स्त्री मुक्ती पर बात करते बिता देंगे, राजनैतिक आन्दोलन खडे कर देंगे, महिलाओं को गोटी की तरह खेल कर रास्त्रपती , प्रधानमंत्री भी बना देंगे, पर रसोई मे माँ का या पत्नी का हाथ बताते उन्हें जैसे मौत आती है। दफ्तरों मे महिलाओं की प्रगती और पिछड़ने की खुंदक मे उनके लिए वेश्यवाचक शब्द इस्तेमाल करने से बाज़ नही आते।