Tuesday, January 20, 2009

जो ब्लॉग तक मे नही है

प्रशांत की पोस्ट "प्रेम करने वाली लड़की जिसके पास एक डायरी थी" पढकर सहसा मन मे आया कि वाकई हर लड़की के पास एक ऐसी लिखी-अनलिखी डायरी ज़रूर होती है जिसे वह अपने प्रेमी-पति-निकटस्थ से छिपाती है।यूँ यह व्यक्तिगत स्पेस का मामला माना जा सकता है क्योंकि यह कतई ज़रूरी नही कि हर व्यक्ति अपनी डायरी को सार्वजनिक करना,या कम से कम कुछ दोस्तो के साथ बांटना ही चाहे।यह उसका अपना इलाका है और मनोविज्ञान की माने तो मानव मन की कई ऐसी परते हैं जिसके बारे मे वह खुद भी बहुत नही जानता तो दूसरे तो क्या ही जानेंगे।मै क्या और कितना बताना चाहती हूँ यह तय करना मेरा अधिकार है ,सही है।
लेकिन बात मै कहीं और भी ले जाना चाह्ती हूँ।
चूँकि "डायरी" हिन्दी लेखन की एक अलग विधा है सो इतना तो तय है कि किसी व्यक्ति की नितांत निजी अभिव्यक्तियों में कुछ ऐसा ज़रूर है जो डायरी लेखन को एक विधा का दर्जा दिलाता है।बाहर की दुनिया में देखे गए ,भोगे गए अनुभवों की कोई व्यक्ति कैसी व्याख्या करता है और उस व्याख्या मे उसके अपने जीवन के भोगे गए ,देखे गए यथार्थ क्या भूमिका अदा करते हैं यह जानना बहुत दिलचस्प हो सकता है।और अक्सर उपयोगी !
वह डायरी जहाँ कोई लड़की अपने राज़ छिपाती है वह अप्रत्यक्षत: उसके समाज ,उसके परिवेश,उसके समय और उसकी मन:स्थिति की आलोचना के लिए पुष्ट आधार बन सकते हैं।ठीक वैसे ही जैसे सपना की डायरी या आज से लगभग एक शताब्दी पूर्व लिखी गयी दुखिनी बाला की जीवनी।
अब मै यह सोचती हूँ कि हम जब खुद को छिपाना चाहते हैं तो उसके पीछे की मानसिकता क्या है ? क्या हम एक विशिष्ट छवि को बरकरार रखना चाहते हैं? और नितांत निजी डायरी शायद दुनिया की नज़रों मे आपको पतनशील ,बागी , बेवफा ,बे ईमान ,कायर ,पागल या ऐसा कुछ लेबल दिलवा सकती है जिसके कारण आपकी बनाई छवि , अपेक्षित छवि टूट सकती है और आपका सीधा सपाट चलता खुशहाल(जो शायद प्रतीत ही होता है)जीवन नष्ट हो सकता है।
ऐसे मे भी मुझे लगता है कि बाहरी दबाव डायरी लिखने और फिर उसे छिपाने के पीछे काम करते हैं , ऐसा कतई नही है कि कोई व्यक्ति चूँकि एक निरपेक्ष जीव है इसलिए वह यह प्राइवेसी चाहता है।इस मायने मे पर्सनल जो भी है वह दर असल पॉलीटिकल है।
इस या उस ब्लॉग पर लिखते हुए भी किसी का दिमाग यदि सावधान दिमाग है तो वह खुद ब खुद शब्दों,वाक्यों,घटनाओं मे एक ऐसा फिल्टर लगा देगा कि जो सामने आए वह वही हो जो वह चाहता है कि आए।शायद कुछ मानक हैं ,कुछ मापदण्ड जिसके अनुसार हम अपनी हर एक पोस्ट सम्पादित करते हैं और वही दिखाते हैं जो दिखाना ठीक हो मानको के अनुरूप।ये मानक कौन तय करता है? समाज !

लेकिन मानव मन की यह चालाकी क्या हर बार काम करती है ? कहीं न कहीं लाइनों के बीच का अनलिखा दिख जाता है और ताड़ने वाला दिमाग उस महत्वपूर्ण अनलिखे को समझ कर नृतत्वशास्त्र ,समाज्रशास्त्र,साहित्यशास्त्र,सबॉल्टर्न इतिहास जैसे महत्वपूर्ण ज्ञान शाखाओं के लिए अमूल्य अवदान दे जाता है।
मै सचमुच चाहती हूँ कि प्रेम करने वाली उस लड़की की डायरी मै पढ सकूँ और जान सकूँ कि वह सरल लड़की कैसे बनाई गयी थी,खुद को छिपाना उसे कैसे सिखाया गया था ,उसकी सामाजिक कंडीशनिंग किस तरह हुई थी और प्रेम को लेकर उसकी अवधारणा अपनी थी या समाज की दी हुई?जो भी हो मै उम्मीद करना चाहती हूँ कि प्रेम करने वाली लड़की अपने परिवेश परिवार और समाज के दबावों से मुक्त होकर प्रेम करे और उसकी डायरी सामाजिक लर्निंग के विखण्डन की प्रक्रिया की ओर उसे ले जाए ..इस तरह से डायरी लिख लिख कर छिपाने की उसे ज़रूरत न रह जाए और कभी अचानक हाथ लग जाने पर उसकी डायरी सपना की डायरी की तरह सन्न ,अवाक कर देने वाली न हो।

Friday, January 9, 2009

अस्तित्व की आत्मा है गन्ध

फिल्मों की समीक्षा कभी लिखी नही इसलिए ऐसा कोई अनुभव नही है (फिल्म समीक्षा यह है भी नही)पर आम भारतीय नागरिक होने के नाते आस-पास ,परिवार,राजनीति,कल्चर,इतिहास सभी पर छींटाकशी करने की अपनी भी कुछ आदत है ही :-)आप इसे व्यंग्य समझ सकते हैं पर यह सच बात है।
खैर ,
आज की चिट्ठाचर्चा की शुरुआत मे एक फिल्म का ज़िक्र किया था मैने।"पर्फ्यूम : द स्टोरी ऑफ़् अ मर्डरर" जो साल 2006 मे आई थी।मूल रूप से यह फिल्म पैट्रिक ससकिंड के जर्मन मे लिखे गए उपन्यास "डास पर्फ्यूम"(1985)पर आधारित है।अठाहरवी शताब्दी के फ्रांस मे जन्मा जॉन बप्टीस ग्रैनुली जिसके पास सूँघने की अद्वितीय शक्ति है मछली बाज़ार मे मछली बेचने वाली एक स्त्री की पाँचवी संतान है जिसे अपनी अन्य संतानो की तरह माँ बाज़ार के बच जन्मते ही अपने शरीर से अलग कर देती है मरने के लिए और वापस खड़ी हो जाती है मछली खरीदने आए ग्राहकों के सामने।लेकिन वह बालक रो उठता है और आस पास वाले जान जाते है ,माँ को फाँसी पर लटकाया जाता है हत्या के जुर्म मे और ग्रेनुली अनाथालय भेजा जाता है।आठ नौ वर्ष की अवस्था मे उसे एक दास के रूप मे बेच दिया जाता है। इसी दासत्व के दौरान तरुण होने पर उसे काम के सिलसिले मे एक पर्फ्यूमर बाल्दिनि के घर जाने का मौका मिलता है।यहीं बाल्दिनी को उसकी अनोखी घ्राण शक्ति का पता चलता है और बाल्दिनि की शागिर्दी मे ग्रेनुली दुनिया की बेहतरीन सेंट बनाता है।लेकिन अब भी उसकी मुश्किल है कि इंसान की गन्ध को कैसे सुरक्षित किया जा सकता है।और खूबसूरती को संजोने के लिए उसकी गन्ध को सहेज लेना ही सबसे अच्छा तरीका है ताकि वह कभी न मरे ।उसे वह लड़की नही भूलती जिसका पीछा वह उसके बदन से आती एक विचित्र खुशबू के कारण करता है और अनचाहे ही उस की जान ले लेता है।उसे अपने आस पास के मानवीय शरीरों की गन्ध एक दूसरे से अलहदा साफ पता चलती है।
इसी बेचैनी मे एक गुफा मे सात साल के एकांतवास के बाद उसे अहसास होता है कि जहाँ हर इंसान के बदन मे एक गन्ध बसती है जो उनके अस्तित्व का प्रमाण है वहीं उसका अपना शरीर नितांत गन्धरहित है।
अपने मास्टर बाल्दीनी के बताए एक ऐसे पर्फ्यूम को बनाना सीखने के लिए वह ग्रास Grasse की ओर निकल पड़ता है जिसे सूँघते ही मनुष्यों को अहसास हो कि वे स्वर्ग मे हैं और सभी के मन मे सात्विक , पवित्र भावनाएँ भर जाएँ।इस सेंट के लिए वह एक के बाद एक 25 कुमारी लड़कियों की क्रूरता से हत्या करता है और उनके बालों सहित पूरे शरीर की गन्ध को उनकी को निचोड- लेता है।अंतत: शहर के कोतवाल की खूबसूरत बेटी लौरा के बदन की गन्ध मिलाकर एक ज़रा से शीशी मे जो सेंट तैयार होता है उसे वह अपने पकड़े जाने के बाद सारे शहर के बीच ऊंचे मंच पर जल्लाद के सामने जब खोलता है और सिर्फ एक बूँद रुमाल पर रखकर उड़ा देता है ..तो आस पास सब बदल जाता है ..कसाई पैरों पर गिरकर उसे एंजल कहता है ,बिशप सहित शहर के सभी लोग रात भर प्यार ,स्नेह और मानवीय भावनाओं मे डूबे हिप्नोटाइज़ से रह जाते हैं।

उधर ग्रेनुली अपनी जन्म स्थली पर वापस जाता है और कसाइयों मच्छीमारों के हिंसक ,अशिक्षित ,अमानवीय लोगों के झुँड के बीच वह शीशी खुद पर ही डाल लेता है। देखते ही देखते इनसानो का वह झुँड उसे इस कदर लिपटता है कि अनतत: कुछ नही बचता।

फिल्म एक थ्रिलिन्ग , भयमिश्रित , रहस्यमयी प्रभाव छोडती है। एक फिल्म के रूप मे बहुत प्रभावी है। माना जाता है कि उपन्यास के मुकाबले उसे कम क्रूर दिखाया गया है। कुल मिलाकर फिल्म शॉकिंग है।
यदि उपन्यासकार की दृष्टि से देखा जाए तो यह मुझे ज़्यादा डराने वाली बात थी कि उपन्यास मे थ्रिल्ल , सनसनी , शॉक के प्रभाव को अतिशय बनाने के लिए खूबसूरत , वर्जिन लडकियों की सीरियल मर्डर की योजना बनाई गयी है। यूँ हैरान नही होना चाहिये क्योंकि कवाँरी लड़कियों के महत्व के साथ साथ इस तरह की अमानवीयता संसार भर की सभ्यताओं की विशेषता है। और यूँ भी यह इस विचार की अच्छी पोषक है कि मानवीय गुण और मानवीय सम्वेदों को प्रभावित करने वाली गन्ध केवल फीमेल मे होती है।शायद ब्यूटी,स्त्री,और सात्विकता को पर्याय बना दिया गया है।
एक दूसरी बात जो मुझे समझ नही आती वह है फिल्म का ऐतिहासिक सन्दर्भ ।क्या यह कथा काल्पनिक है ? या इस तरह का कोई प्रमाण हमें अठाहरवीं शताब्दी के फ्रांस मे मिलता है?जैसा कि विकिपीडिया -इसे इतिहास और साहित्य का हाइब्रिड कह्ता है।
जो भी है उपन्यास पढना वाकई एक अलग अनुभव होगा जब फिल्म ही तरह तरह की गन्धों का जीवंत अह्सास करवा देने मे सक्षम है तो उपन्यासकार की इस बेस्ट सेलर को पढना और भी रोमांचकारी होगा।
फिलहाल यूट्यूब पर से एक क्लिपिंग दे रही हूँ -