Friday, January 9, 2009

अस्तित्व की आत्मा है गन्ध

फिल्मों की समीक्षा कभी लिखी नही इसलिए ऐसा कोई अनुभव नही है (फिल्म समीक्षा यह है भी नही)पर आम भारतीय नागरिक होने के नाते आस-पास ,परिवार,राजनीति,कल्चर,इतिहास सभी पर छींटाकशी करने की अपनी भी कुछ आदत है ही :-)आप इसे व्यंग्य समझ सकते हैं पर यह सच बात है।
खैर ,
आज की चिट्ठाचर्चा की शुरुआत मे एक फिल्म का ज़िक्र किया था मैने।"पर्फ्यूम : द स्टोरी ऑफ़् अ मर्डरर" जो साल 2006 मे आई थी।मूल रूप से यह फिल्म पैट्रिक ससकिंड के जर्मन मे लिखे गए उपन्यास "डास पर्फ्यूम"(1985)पर आधारित है।अठाहरवी शताब्दी के फ्रांस मे जन्मा जॉन बप्टीस ग्रैनुली जिसके पास सूँघने की अद्वितीय शक्ति है मछली बाज़ार मे मछली बेचने वाली एक स्त्री की पाँचवी संतान है जिसे अपनी अन्य संतानो की तरह माँ बाज़ार के बच जन्मते ही अपने शरीर से अलग कर देती है मरने के लिए और वापस खड़ी हो जाती है मछली खरीदने आए ग्राहकों के सामने।लेकिन वह बालक रो उठता है और आस पास वाले जान जाते है ,माँ को फाँसी पर लटकाया जाता है हत्या के जुर्म मे और ग्रेनुली अनाथालय भेजा जाता है।आठ नौ वर्ष की अवस्था मे उसे एक दास के रूप मे बेच दिया जाता है। इसी दासत्व के दौरान तरुण होने पर उसे काम के सिलसिले मे एक पर्फ्यूमर बाल्दिनि के घर जाने का मौका मिलता है।यहीं बाल्दिनी को उसकी अनोखी घ्राण शक्ति का पता चलता है और बाल्दिनि की शागिर्दी मे ग्रेनुली दुनिया की बेहतरीन सेंट बनाता है।लेकिन अब भी उसकी मुश्किल है कि इंसान की गन्ध को कैसे सुरक्षित किया जा सकता है।और खूबसूरती को संजोने के लिए उसकी गन्ध को सहेज लेना ही सबसे अच्छा तरीका है ताकि वह कभी न मरे ।उसे वह लड़की नही भूलती जिसका पीछा वह उसके बदन से आती एक विचित्र खुशबू के कारण करता है और अनचाहे ही उस की जान ले लेता है।उसे अपने आस पास के मानवीय शरीरों की गन्ध एक दूसरे से अलहदा साफ पता चलती है।
इसी बेचैनी मे एक गुफा मे सात साल के एकांतवास के बाद उसे अहसास होता है कि जहाँ हर इंसान के बदन मे एक गन्ध बसती है जो उनके अस्तित्व का प्रमाण है वहीं उसका अपना शरीर नितांत गन्धरहित है।
अपने मास्टर बाल्दीनी के बताए एक ऐसे पर्फ्यूम को बनाना सीखने के लिए वह ग्रास Grasse की ओर निकल पड़ता है जिसे सूँघते ही मनुष्यों को अहसास हो कि वे स्वर्ग मे हैं और सभी के मन मे सात्विक , पवित्र भावनाएँ भर जाएँ।इस सेंट के लिए वह एक के बाद एक 25 कुमारी लड़कियों की क्रूरता से हत्या करता है और उनके बालों सहित पूरे शरीर की गन्ध को उनकी को निचोड- लेता है।अंतत: शहर के कोतवाल की खूबसूरत बेटी लौरा के बदन की गन्ध मिलाकर एक ज़रा से शीशी मे जो सेंट तैयार होता है उसे वह अपने पकड़े जाने के बाद सारे शहर के बीच ऊंचे मंच पर जल्लाद के सामने जब खोलता है और सिर्फ एक बूँद रुमाल पर रखकर उड़ा देता है ..तो आस पास सब बदल जाता है ..कसाई पैरों पर गिरकर उसे एंजल कहता है ,बिशप सहित शहर के सभी लोग रात भर प्यार ,स्नेह और मानवीय भावनाओं मे डूबे हिप्नोटाइज़ से रह जाते हैं।

उधर ग्रेनुली अपनी जन्म स्थली पर वापस जाता है और कसाइयों मच्छीमारों के हिंसक ,अशिक्षित ,अमानवीय लोगों के झुँड के बीच वह शीशी खुद पर ही डाल लेता है। देखते ही देखते इनसानो का वह झुँड उसे इस कदर लिपटता है कि अनतत: कुछ नही बचता।

फिल्म एक थ्रिलिन्ग , भयमिश्रित , रहस्यमयी प्रभाव छोडती है। एक फिल्म के रूप मे बहुत प्रभावी है। माना जाता है कि उपन्यास के मुकाबले उसे कम क्रूर दिखाया गया है। कुल मिलाकर फिल्म शॉकिंग है।
यदि उपन्यासकार की दृष्टि से देखा जाए तो यह मुझे ज़्यादा डराने वाली बात थी कि उपन्यास मे थ्रिल्ल , सनसनी , शॉक के प्रभाव को अतिशय बनाने के लिए खूबसूरत , वर्जिन लडकियों की सीरियल मर्डर की योजना बनाई गयी है। यूँ हैरान नही होना चाहिये क्योंकि कवाँरी लड़कियों के महत्व के साथ साथ इस तरह की अमानवीयता संसार भर की सभ्यताओं की विशेषता है। और यूँ भी यह इस विचार की अच्छी पोषक है कि मानवीय गुण और मानवीय सम्वेदों को प्रभावित करने वाली गन्ध केवल फीमेल मे होती है।शायद ब्यूटी,स्त्री,और सात्विकता को पर्याय बना दिया गया है।
एक दूसरी बात जो मुझे समझ नही आती वह है फिल्म का ऐतिहासिक सन्दर्भ ।क्या यह कथा काल्पनिक है ? या इस तरह का कोई प्रमाण हमें अठाहरवीं शताब्दी के फ्रांस मे मिलता है?जैसा कि विकिपीडिया -इसे इतिहास और साहित्य का हाइब्रिड कह्ता है।
जो भी है उपन्यास पढना वाकई एक अलग अनुभव होगा जब फिल्म ही तरह तरह की गन्धों का जीवंत अह्सास करवा देने मे सक्षम है तो उपन्यासकार की इस बेस्ट सेलर को पढना और भी रोमांचकारी होगा।
फिलहाल यूट्यूब पर से एक क्लिपिंग दे रही हूँ -

8 comments:

प्रवीण त्रिवेदी said...

फिल्मों की समीक्षा कभी लिखी नही इसलिए ऐसा कोई अनुभव नही है (फिल्म समीक्षा यह है भी नही)पर आम भारतीय नागरिक होने के नाते आस-पास ,परिवार,राजनीति,कल्चर,इतिहास सभी पर छींटाकशी करने की अपनी भी कुछ आदत है ही :-)आप इसे व्यंग्य समझ सकते हैं पर यह सच बात है।


फ़िर भी अच्छा विवेचन!!!
जानकारी के साथ नए अनुभव!!!

विष्णु बैरागी said...

थीम तो यह नहीं थी किन्‍तु 'हाउस आफ वेक्‍स' का ट्रीटमेण्‍ट भी लगभग ऐसा ही था।
अंगे्रजी वैसे भी बहुत ही कम समझ में आती है किन्‍तु कथानक की जो बानगी आपने दी है, उससे जिज्ञासा पैदा हुई है। कभी अवसर मिला तो यह फिल्‍म देखना चाहूंगा।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

खुशबु या पर्फ्युम का बडा विशद व जटील इतिहास है
मनुष्य की ध्राणेन्द्रीय से जुडी शक्ति है यह --
फ्रान्स इस पेशे से अबजो फ्रेन्क कारोबार कर कमाता है -
भारत कई सारे,
मूल गँधोँ के निर्यात मेँ अग्रणी है पर फ्रान्स जैसे इत्र बना नहीँ पाया
-क्यूँ ?
क्या कारण है पता नहीँ -
मगर आज इस फिल्म के बारे मेँ आप से ही जान पाई हूँ
और मैँ ऐसी डरावनी फिल्मेँ
नहीँ देखती ...
पर इत्र के सँसार मेँ
दीलचस्पी है
इस कारण से शायद देखूँगी
आप समीक्षा करती रहीयेगा -
काफी सही लिखा है सुजाता जी :)
स्नेह,
- लावण्या

विधुल्लता said...

इस खुशबू भरी किंतु डरावनी फिल्म की कथा प्रस्तुति के लिए धन्यवाद ...पर मैं ऐसी फिल्में नही देखती ..पर कथय और खुशबू का कोई तो आधार है और मानव गंध के अतिचार मैं गुथी हुई ..देखि जा सकती है, सोचेंगे

स्वप्नदर्शी said...

You reminded me of a research seminar I attended many years ago.

In some lower organisms, memory is retained actually, as a memory of smell.

In many organisms, including humans, body smell and sexual behavior is also are interconnected. However, because of ethical issues, the effect of human pheromones have not be subjected to detailed experimental analysis.

Another thing the french literature of that era, has several crime related best seller books including those of Saad, who was a convict, and wrote about a murder mystery and depicted women character of his novel completely as an object for male. Including that those characters, will like to be stamped with the name of their owner, seek pleasure in serial rapes, and physical violence, and their private parts being boxed in a key and locks.

I wonder, why the intellectual french society of that era did seek pleasure, in imagining that criminal treatment to women?

Or may be at that time the women have started to stand as a human being, in a atmosphere of "Paris commune", and started to visualize themselves more equal than ever to their male counterparts.

and this type of literature and its popularity shows the resistance of society for the change to come.

Thanks for reminding me of few thing which I use to read in my previous incarnation.

सुजाता said...

human pheromones ke baare me batane ke lie dhanyavad Svapndarshi ji. koii link yadi upayogi ho to vah bhi bataaiyega mujhe .

आनंद said...

इंटरेस्टिंग फिल्‍म लगती है। देखना पड़ेगा।


- आनंद

इरशाद अली said...

आपका लिखना आत्यिमता और सहजता से भरा हूआ है। बहूत दिनों से आपकी पोस्ट पर टिप्पणी देना चाहता था आज आपने ऐसी पोस्ट दे ही दी है। बहूत बहूत मुबारकबादों के साथ
इरशाद