Friday, July 27, 2007
बरसात के बाद
बरसात के बाद भीगे पत्तों की महक के साथ काली धुली, अकेली सडक पर चलते हुए वे दोनो जाने क्या कुछ सोच रहे थे।चुप्पी दीवार न थी पर सहारा तो थी ही ।शायद दोनो में से कोई भी पहल करने का जोखिम नही उठाना चाहता था । कीचड भरी फ़ुटपाथ पर रपटते हुए ,कदमों को धीरे-धीरे नज़ाकत से उठाते हुए हलकी डगमगाहट में कान्धे से कान्धा टकरा जाता है । एक सुखद अनूभूति के साथ लडकी कदमों को फिर से डगमग़ा जाने देती है ।वह चंचल है ।लडका समझ रहा है । वह सम्भाल लेता है हाथों का सहारा देकर और उसका तुरंत ही हाथ छोड देना लडकी को खिझा देता है वह कुछ और देर थामे रह ता तो ?लडका शांत और गम्भीर है ;जैसे बहुत कुछ हो उसके पास कहने के लिए या कुछ भी न हो कहने के लिए लडकी से ।या शायद वह सोच रहा हो कि इस समय मेँ वह और बहुत से काम निपटा सकता था । लडकी को उसपर लाड आता है ।घर से बाहर उसके भीतर की अल्हड प्रेमिका करवटें लेने लगती है ।वह उसका सर गोद मेँ रख कर थके मुख को चूम लेना चाह्ती है ।लडके के भीगे –बिखरे बालों को समेटने के लिए उसका मन मचलता है,पर सडक पर ? कोई बात नही ।वह हाथ बढाती है तो लडका कहता कुछ नही भवें सिकोडता हुआ उसे नादानी न करने को कहता- सा देखता है।फिर पलट कर पीछे और दाएँ -बाएँ देखता है। लडकी उबासी लेने लगती है ।उसका मन बुझने लगता है।उसे समझ नही आता कि वे दोनो साथ क्यों हैं और लगातार चल क्यों रहे हैं !वह पार्क के बेंच पर बैठना चाहती है ,वह लडके के कन्धे पर सर रखना चाह्ती है । वह चाहती है कि लडका उसके नर्म रेशमी बालों में उंगलियाँ फिराए और इस प्रेमिल नीरवता में वह घर लौट कर सैकडों कर्म करने और कई भूमिकाएँ निभाने के लिए वापस समेट ले ऊर्जा ।अचानक उसने पलट कर लडके की ओर देखा –लडका अब लडका सा नही रहा । वह आदमी हो गया है ।या वह आदमी ही था ? क्या मैने इसे आज से पहले कभी नही देखा इस तरह ?अचानक लडकी के तेवर बदलते हैं ।वह कदमों को मोड लेती है बाज़ार की ओर जैसे सहसा याद आ गया हो कोई बहुत ज़रूरी काम । आदमी नही पूछता ।मानो वह तेवर समझ गया हो । वह सब समझ जाता है ।वह इसलिए अनूकूल व्यवहार कर पाता है। कमरे के भीतर चाहे जो हो । वह बाहर एक ज़िम्मेदार पति है ।लडकी याद दिलाती है कि बाज़ार से उसे लेना है सासू माँ के अचार डालने को सौंफ और कलौंजी । और सुबह का टिफिन पैक करने को अल्यूमीनियम फ़ॉएल ।
Thursday, July 26, 2007
ढेला और पत्ती
बाल उद्यान पर पढिये ढेले और पत्ती की कहानी ।साथ ही यह अनुरोध भी कि आप अपने बच्चों के बनाए चित्र या उनकी लिखी कविता या कोई भी चटपटी बात जो उनके नन्हे मुख से निकल कर हमें गुदगुदा जाती है --मुझे या बाल उद्यान के किसी अन्य सदस्य को ई-मेल के ज़रिये भेजिये । हमे उसे प्रकाशित कर प्रसन्नता होगी ।
मर्दवादी समाज और व्यवस्था का एक और उदाहरण
अभी असीमा पर बात करते करते मुद्दे पूरी तरह उठे भी नही हैं ,पूजा चौहान के प्रतिरोध के प्रतीकों को समझा भी नही गया है कि एक और उदाहरण पेश है मर्दवादी समाज और व्यवस्था का हमारे सामने ‘किरण बेदी’ के रूप मे जो दिल्ली की कमिश्नर बनने की दौड में पीछे धकेल दी गयीं हैं ।‘अ वूमेन हू डेयर्स ‘।डॆयरिंग वूमेन के लिए हमारे समाज के पास गालियाँ और ताने हैं तो व्यवस्था के पास भी अपने हथियार है ।क्योंकि निर्णय लेने की स्थिति जब पुरुष की होगी तो निश्चित रूप से वह व्यवस्था के और अपने हित में एक पुरुष को ही चुनेगा ।आज राष्ट्र की पहली महिला राष्ट्रपति जब कमान सम्भाल रही हैं तो किरण बेदी –देश की पहली महिला आई.पी.एस को देश ने निराश किया है ।असीमा जब मुँह खोलती है तो अकेली पड जाती है ।गालियों और धमकियों की शिकार होती है । क्या मायने यह है कि जब भी पुरुषवादी व्यवस्था मे महिला हिम्मत करेगी तो उसे मुँह की खानी होगी ?मेरी सोच गलत है तो यह भी बताया जाए कि किरण बेदी के साथ हुए अन्याय को हम किस दृष्टि से देखें? क्या यह सर उठाती स्त्री से मर्दवादी व्यवस्था की ईर्ष्या ?? राष्ट्रपति चुनाव में प्रतिभा पाटिल को भी तो मोहरा बनाया गया है राजनीति का ।इसे महिला-सम्मान और सशक्तिकरण की नज़र से दिखाया जा रहा है ताकि पीछे की राजनीति को ढँका जा सके ।अत्यंत खेद की बात है कि आज तक भी हम स्त्रियों को मोहरा बना रहे हैं या रास्ते से बडी चालाकी से हटा रहे हैं ।डर है अपनी सालो की सत्ता के खोने का ?
याद करना होगा कि यह वही दिल्ली पुलिस है जो लडकियों से छेडछाड को रोकने के लिए अपने विज्ञापनो में समाज के मर्दों का आहवान करती है ।जिस विभाग की मानसिकता समाज की स्त्रियों के लिए ऐसी है वह विभाग की स्त्रियों के लिए क्या सोचता होगा यह अनुमान लगाया जा सकता है ।
किरण बेदी से दो साल जूनियर युद्ध वीर सिह को दिल्ली का कमिश्नर बनाया गया है ।वे २००९ मे रिटायर होन्गे और किरण बेदी तब तक रिटायर हो चुकी होन्गी । मेरिट और सीनियॊरिटी ---किसआधार पर यह फ़ैसला लिया गया है क्या यह जानने का कष्ट महिला सशक्तिकरण की दुहाई देने वाली सरकार करेगी ? क्या आम जनता को नही लगता कि यहां कुछ गलत हुआ है ?
जब भी यह सोचने की कोशिश करो कि ’सब ठीक ही है शायद ’तभी एक प्रमाण मिल जाता है सब गलत होने का ।अपनी बेटियो को किरण बेदी बनाने के ख्वाब देखने वाले माता-पिता शायद अब कभी ऐसा ख्वाब देखने की बेवकूफ़ी नही करेन्गे । शायद इससे बेहतर वे अपनी बेटी को ऐसे अफ़सर से ब्याहना ज़्यादा पसन्द करेन्गे !!सवाल उठ रहे है लगातार तब तक जब तक कि सवालो का अन्तहीन सिलसिला सत्ता के एकाधिपतियो को आतन्कित न कर दे ।
याद करना होगा कि यह वही दिल्ली पुलिस है जो लडकियों से छेडछाड को रोकने के लिए अपने विज्ञापनो में समाज के मर्दों का आहवान करती है ।जिस विभाग की मानसिकता समाज की स्त्रियों के लिए ऐसी है वह विभाग की स्त्रियों के लिए क्या सोचता होगा यह अनुमान लगाया जा सकता है ।
किरण बेदी से दो साल जूनियर युद्ध वीर सिह को दिल्ली का कमिश्नर बनाया गया है ।वे २००९ मे रिटायर होन्गे और किरण बेदी तब तक रिटायर हो चुकी होन्गी । मेरिट और सीनियॊरिटी ---किसआधार पर यह फ़ैसला लिया गया है क्या यह जानने का कष्ट महिला सशक्तिकरण की दुहाई देने वाली सरकार करेगी ? क्या आम जनता को नही लगता कि यहां कुछ गलत हुआ है ?
जब भी यह सोचने की कोशिश करो कि ’सब ठीक ही है शायद ’तभी एक प्रमाण मिल जाता है सब गलत होने का ।अपनी बेटियो को किरण बेदी बनाने के ख्वाब देखने वाले माता-पिता शायद अब कभी ऐसा ख्वाब देखने की बेवकूफ़ी नही करेन्गे । शायद इससे बेहतर वे अपनी बेटी को ऐसे अफ़सर से ब्याहना ज़्यादा पसन्द करेन्गे !!सवाल उठ रहे है लगातार तब तक जब तक कि सवालो का अन्तहीन सिलसिला सत्ता के एकाधिपतियो को आतन्कित न कर दे ।
Monday, July 23, 2007
निजी कितना निजी है और कब तक ?कवि कितना मानव है ?
एक बार हमने लिखा था कि पुरुष आमतौर पर एक प्रोग्रेसिव पत्नी नही चाहते। पत्नी प्रोग्रेसिव अच्छी तो लगती है ,मगर दूसरे की । किसी व्यक्ति की जिन खूबियों की वजह से हम उससे प्रेम करने लगते हैं ,विवाह के बाद वही हमें अपनी दुश्मन जान पडती हैं ।सो प्रेमिका की प्रोग्रेसिव बातें मनमोहिनी होती हैं, वो लडकी सबसे अलग लगती है जिसे आप पसन्द करने लगते हैं ।वही पत्नी बन जाए तो पुरुष सबसे पहले उसी खूबी को,बोल्डनेस ,स्मार्टनेस, प्रोग्रेसिव थिंकिंग को समाप्त करने की चेष्टाएँ शुरु कर देता है ।विवाह के बाद वह अचानक चाहने लगेगा कि मेरी पत्नी मेरे माता-पिता के पैर छुए,उनकी इज़्ज़त में अपना सर पल्लू से ढँके, मेरे परिवार को अपने कामों पर तर्जीह दे,पलट कर जवाब न दे,शांति बनाए रखने के लिए जो जैसा है उसे वैसा चलने दे । यह स्थिति पत्नियों के साथ भी है ।किसी पेंटर को उसकी कला की वजह से पसन्द किया विवाह किया ,बाद में वही पेंटिंग अपनी सौत लगने लगती है ।
लेकिन यहाँ अंतर इतना आ जाता है कि पत्नी की चाहत और मांगें अपने लिए होती हैं ।अपने परिवार और समाज के लिए नही ।उसे वक्त चाहिये –अपने लिए ।ध्यान चाहिये –अपनी ओर ।कंसर्न चाहिये –खुद के लिए ।परिवार को तो वह छोड ही चुकी होती है ।कई बार विरोध सह कर विवाह करने पर समाज को भी नकार चुकी होती है । इस मायने मे स्त्री पुरुष से ज़्यादा मनोबल और ईमानदार इरादे लिए होती है । परिवार को छोड भी दे कोई पुरुष तो उसका मोह कभी नही छूटता और समाज से उसकी लडाई केवल इच्छा से विवाह करने तक ही रहती है ।विवाह के बाद वह खुद समाज के दबावों मे जीता है और परमपरा सम्मत जीवन चलाना चाह्ता है ।
कोई दो लोग क्यो प्रेम करते है,विवाह करते है ,सम्बन्ध-विच्छेद करते हैं यह उनका नितांत निजी मसला होता है ।माना ।लेकिन सिर्फ तब तक जब तक कि वहाँ भावनत्मक उत्पीडन ,मानसिक शोषण ,असमानता और धोखा नही है ।दो प्रेमियों का रिश्ता जब केवल स्त्री-पुरुष स्तरीकरण के समीकरण में जीने लगता है तो वह पूरी स्त्री जाति और पुरुष जाति की समस्या हो जाती है ।पिटना –पीटा जाना ,भावनात्मक ब्लैकमेलिंग करना,धोखे मे रखना ,किसी भी स्त्री-पुरुष का निजी मसला नही रह जाता ।असीमा भट्ट को अभिव्यक्ति का मंच मिला यह अच्छा ही है। वर्ना अर्चना जैसी कई लडकियाँ इस ‘निजी ‘के दर्द को कभी अभिव्यक्त नही करतीं और रिश्ते की मर्यादा साथ लेकर घर के पंखे से लटक जाती हैं, बिना एक भी सबूत छोडे दोषियों के खिलाफ । शक ,डर , दबाव ,उत्पीडन को मर्यादा के नाम पर क्योंकर दफ्न रखना चाहिये ?क्या हम केवल आत्महत्या का उपाय ही छोडना चाह्ते हैं स्त्री के लिए ?पूजा चौहान भी अभद्र है ।असीमा रिश्ते के निजी पक्षों को समाज के बीच उछाल रही है ।अगर वे आत्महत्या कर लेतीं तो हम कभी नही जान पाते कि ये दो लोगों के निजी रिश्ते कितने कुरूप हो सकते है ।अर्चना का ज़िक्र मसिजीवी ने अपनी एक पोस्ट में किया था ।अगर वह शर्मसार होने से बचने की कोशिश न करती और पति के दुर्व्यवहार को कभी बयान करती तो शायद उसकी मृत्यु के बाद ही सही ,वह पति सलाखों के पीछे होता ।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी । सच अपने सम्पूण रूप मे कुछ नही होता । वह विखंडित है ।सच के कई पहलू होते हैं ।लेकिन इन विखंडित सत्यों के बीच हमें अपने सच का एक चेहरा बनाना होता है । यह सच का हमारा निजी पाठ है ।असीमा का सच अगर सच का एक पहलू है तो भी वह भयानक है । साथ ही वह घुटने –कुढने की बजाय कह देने की राह दिखाता है ।जो किसी हाल में गलत नही है । चुप्पी की परम्परा से कहीं बेहतर है जो आत्महत्या की ओर ले जाती है
एक और बात । सत्य और सौन्दर्य हम सभी देखते हैं । साहित्यकार ही उसे कह पाता है ।क्योंकि वह सम्वेदनशीलता के साथ और भीतरी नज़र से देखता है ।वह कार्यों व्यवहारों को उनके कारण सहित पकडना चाहता है । उसकी सम्वेदनशीलता मानव विशेष के लिए नही सामान्य के लिए होती है । इसलिए उसके लेखन और जीवन में विरोध दिखाई दे तो हमें उसके लेखन ही नही उसकी सम्वेदन शीलता पर भी शक करना होगा ।अभय जी ने लिखा
‘’ यह उम्मीद पाल लेना कि उच्च सौन्दर्य बोध की रचनाएं करने वाला कवि अपने निजी जीवन के हर क्षण में उसी उच्च संवेदना से संचालित होगा और एक अतिमानव की भाँति सारे क्लेश-द्वेष से मुक्त होगा.. ऐसी कल्पना ही कवि की मनुष्यता के साथ अन्याय है.. आखिर कवि मनुष्य ही तो है.. कोई संत तो नहीं..”
बेशक ।वह भी मनुष्य है ।आचार्य रामचन्द्र शुकल ने लिखा था कि कविता का लक्ष्य है ---मनुष्यता की रक्षा करना ।तो हम उस कवि से मानव होने की ही उम्मीद कर रहे है ।वह अति मानव न हो । पर कम से कम अमानवीय तो न हो जाए ।सडक के भिखारी को भीख देना और घर के भीतर नौकर को पीटना ----क्या यह मानवीयता ही है ?
कवि को कम से कम मानव के ओहदे से तो नीचे नही गिरना चाहिये ।
बाकि आगे कहूंगी अभी तो इतना ही ...................
लेकिन यहाँ अंतर इतना आ जाता है कि पत्नी की चाहत और मांगें अपने लिए होती हैं ।अपने परिवार और समाज के लिए नही ।उसे वक्त चाहिये –अपने लिए ।ध्यान चाहिये –अपनी ओर ।कंसर्न चाहिये –खुद के लिए ।परिवार को तो वह छोड ही चुकी होती है ।कई बार विरोध सह कर विवाह करने पर समाज को भी नकार चुकी होती है । इस मायने मे स्त्री पुरुष से ज़्यादा मनोबल और ईमानदार इरादे लिए होती है । परिवार को छोड भी दे कोई पुरुष तो उसका मोह कभी नही छूटता और समाज से उसकी लडाई केवल इच्छा से विवाह करने तक ही रहती है ।विवाह के बाद वह खुद समाज के दबावों मे जीता है और परमपरा सम्मत जीवन चलाना चाह्ता है ।
कोई दो लोग क्यो प्रेम करते है,विवाह करते है ,सम्बन्ध-विच्छेद करते हैं यह उनका नितांत निजी मसला होता है ।माना ।लेकिन सिर्फ तब तक जब तक कि वहाँ भावनत्मक उत्पीडन ,मानसिक शोषण ,असमानता और धोखा नही है ।दो प्रेमियों का रिश्ता जब केवल स्त्री-पुरुष स्तरीकरण के समीकरण में जीने लगता है तो वह पूरी स्त्री जाति और पुरुष जाति की समस्या हो जाती है ।पिटना –पीटा जाना ,भावनात्मक ब्लैकमेलिंग करना,धोखे मे रखना ,किसी भी स्त्री-पुरुष का निजी मसला नही रह जाता ।असीमा भट्ट को अभिव्यक्ति का मंच मिला यह अच्छा ही है। वर्ना अर्चना जैसी कई लडकियाँ इस ‘निजी ‘के दर्द को कभी अभिव्यक्त नही करतीं और रिश्ते की मर्यादा साथ लेकर घर के पंखे से लटक जाती हैं, बिना एक भी सबूत छोडे दोषियों के खिलाफ । शक ,डर , दबाव ,उत्पीडन को मर्यादा के नाम पर क्योंकर दफ्न रखना चाहिये ?क्या हम केवल आत्महत्या का उपाय ही छोडना चाह्ते हैं स्त्री के लिए ?पूजा चौहान भी अभद्र है ।असीमा रिश्ते के निजी पक्षों को समाज के बीच उछाल रही है ।अगर वे आत्महत्या कर लेतीं तो हम कभी नही जान पाते कि ये दो लोगों के निजी रिश्ते कितने कुरूप हो सकते है ।अर्चना का ज़िक्र मसिजीवी ने अपनी एक पोस्ट में किया था ।अगर वह शर्मसार होने से बचने की कोशिश न करती और पति के दुर्व्यवहार को कभी बयान करती तो शायद उसकी मृत्यु के बाद ही सही ,वह पति सलाखों के पीछे होता ।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी । सच अपने सम्पूण रूप मे कुछ नही होता । वह विखंडित है ।सच के कई पहलू होते हैं ।लेकिन इन विखंडित सत्यों के बीच हमें अपने सच का एक चेहरा बनाना होता है । यह सच का हमारा निजी पाठ है ।असीमा का सच अगर सच का एक पहलू है तो भी वह भयानक है । साथ ही वह घुटने –कुढने की बजाय कह देने की राह दिखाता है ।जो किसी हाल में गलत नही है । चुप्पी की परम्परा से कहीं बेहतर है जो आत्महत्या की ओर ले जाती है
एक और बात । सत्य और सौन्दर्य हम सभी देखते हैं । साहित्यकार ही उसे कह पाता है ।क्योंकि वह सम्वेदनशीलता के साथ और भीतरी नज़र से देखता है ।वह कार्यों व्यवहारों को उनके कारण सहित पकडना चाहता है । उसकी सम्वेदनशीलता मानव विशेष के लिए नही सामान्य के लिए होती है । इसलिए उसके लेखन और जीवन में विरोध दिखाई दे तो हमें उसके लेखन ही नही उसकी सम्वेदन शीलता पर भी शक करना होगा ।अभय जी ने लिखा
‘’ यह उम्मीद पाल लेना कि उच्च सौन्दर्य बोध की रचनाएं करने वाला कवि अपने निजी जीवन के हर क्षण में उसी उच्च संवेदना से संचालित होगा और एक अतिमानव की भाँति सारे क्लेश-द्वेष से मुक्त होगा.. ऐसी कल्पना ही कवि की मनुष्यता के साथ अन्याय है.. आखिर कवि मनुष्य ही तो है.. कोई संत तो नहीं..”
बेशक ।वह भी मनुष्य है ।आचार्य रामचन्द्र शुकल ने लिखा था कि कविता का लक्ष्य है ---मनुष्यता की रक्षा करना ।तो हम उस कवि से मानव होने की ही उम्मीद कर रहे है ।वह अति मानव न हो । पर कम से कम अमानवीय तो न हो जाए ।सडक के भिखारी को भीख देना और घर के भीतर नौकर को पीटना ----क्या यह मानवीयता ही है ?
कवि को कम से कम मानव के ओहदे से तो नीचे नही गिरना चाहिये ।
बाकि आगे कहूंगी अभी तो इतना ही ...................
Saturday, July 21, 2007
पुल के नीचे
अगर मै गलत नही हूँ तो सुदर्शन की कहानी ही है “हार की जीत” ,बचपन मे पढा करते थे ।बाबा भारती का घोडा सुल्तान जिसकी चाह्त मे था डाकू खडक सिँह ।वह कहानी एक कारण से हमेशा याद रह जाती है ।कोढी,भिखारी के भेस मे खडक सिँह जब बाबा भारती को चकमा देकर सुल्तान को ले भागता है तो बाबा कहते है –“मेरी एक विनति सुनते जाओ ! जो तुमने मेरे साथ किया उसका ज़िक्र किसी से न करना । वर्ना लोग किसी असहाय की मदद करने से कतराएँगे ।“ लेकिन खडग सिँह ने किसी से कहा या नही यह तो नही बता सकती लेकिन यह सबको मालूम हो गया जाने कैसे ।आज हम किसी की मदद करने से पहले सौ बार सोचते है ,कोई पतली गली ढूँढने लग जाते हैं।एक किस्म के लोग इस द्वन्द्व में पडते ही नही ।उनकी बहुत स्पष्ट सोच होती है ।एक तीसरी किस्म के लोग ऐसे दृश्य सिर्फ फिल्मो मे ही देखते हैं ।उनकी गाडी कभी उन मोडों से नही गुज़रती जहाँ भिखारियों के झुण्ड हैं ।एक किस्म और है उन लोगों की जो भीख देकर अपने कद को थोडा और बढा महसूस करते हैं ।
दिल्ली के अधिकतर ट्रैफिक सिग्नल भिखारियों के किसी न किसी गिरोह के इलाकें हैं जिनकी हदें और लक्ष्य साफ तौर पर निर्धारित हैं ।मै भयभीत रहती हूँ जब मूलचन्द की रेड लाइट पर रुकते ही दो औरतें गोद में नवजात शिशु और एक हाथ में दूध की मैली –गन्दी-खाली बोतल लिए ,भावशून्य चेहरे के साथ बुदबुदाती हुई तब तक खडी रहती है जब तक आप उसे वहाँ से हट जाने को कह न दें ।इनमें एक को उसकी गर्भावस्था से ही देख रही हूँ ।वह सडक से एक हफ्ता गायब रही ।वापस लौटी एक नन्ही जान के साथ।हैरानी तब होती है जब हरी बत्ती होते ही आप इन्हे लडते-खिलखिलाते अपने अड्डों की ओर लौटते हुए देखें।मै मूलचन्द के इस चौराहे पर रुकने से घबराती हूँ ।मेरे सामने वे नवजात शिशु जो पैदा हो रहे है और सहज ही भिखारियों की नई पीढी मे शामिल हो रहे है :कुपोषित ,सम्वेदना से रहित ,इज़्ज़त और नैतिकता की अवधारणाओं से नितांत अनजान्,विकास की किसी मुख्यधारा मे समाहित हो सकने के किसी भी सम्भावना से परे ,अपराध की ओर प्रेरित ,भूख के दायरे मे सोचने वाले और समाज को गाली भरी नज़रों से घूरते हुए ।शहर के भूगोल मे पुलों के नीचे बसी यह “गन्दगी" दिल्ली के सिटी ऑफ फ्लाईओवर्स बनने के साथ साथ एक और समानांतर सिटी की रचना कर रही है जिससे हम बचना चाह्ते है ,जिसे देखते ही हम चेहरे सिकोड लेते हैं । कुछ समय पहले चित्रा मुदगल की कहानी “भूख” पढी थी :मार्मिक ।रोंगटे खडी करने वाली ।एक असहाय स्त्री जिसके पास एक नवजात शिशु के अलावा दो और बच्चे, अस्पताल मे पडा घायल पति है और रोज़गार का कोई ज़रिया नही क्योंकि गोद के बच्चे वाली स्त्री को कोई काम कैसे दे ।वह एक ऐसी स्त्री को अपना बच्चा दिन भर के लिए उधार देती है जो भिखारिन है ।भिखारिन माँ को आश्वासन देती है कि बच्चे को वह दूध देगी ।लेकिन पेट भरेगा तो बच्चा रोएगा कैसे ।वह रोएगा नही तो साहबों के दिल कैसे पिघलेंगे ।सो दिन भर् वह भिखारिन बच्चे को भूखा रख कर रुलाती और पैसे मांगती ।बच्चे की माँ मजदूरी करके घर मे बाकी बच्चॉ के लिए भोजन जुटाती ।शाम को भिखारिन जब बच्चा लौटाती तब तक वह रो रोकर थक चुका होता और अक्सर सो जाता । एक दिन वह बच्चा लौटा कर जाती है रोती हालत मे ।माँ नही जानती कि वह भूखा है। वह भात की पतीली की ओर बढता है तो वह उसे चंटा देती है ।कई दिन के भूखे शिशु का शरीर सह नही पाता । वह उसे अस्पताल लेकर दौडती है ।लेकिन व्यर्थ!डाक्टरनी कहती है –“बच्चे को भूखा रखती थी क्या ? उसकी आंते चिपक गयीं ,सूख गयीं ।मार दिया भूखा रख -रख कर ।“
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“भिक्षावृत्ति “यानी भीख मांगना एक पेशा है ।अधिकतर् भिखारी पेशेवर भिखारी हैं और उनके इस पेशे में एक टूल की तरह इस्तेमाल होने वाली मानवीय सम्वेदनाएँ हैं । सवाल बहुत बडे बडे हैं जिन्हे हम उठने ही नही देते। भीख देकर हम वहीं कर्तव्य समाप्त समझते हैं :फिर चाहे वह भीख देने वाले हम हों या खुद सरकार ।राज्य की ज़िम्मेदारी यहाँ समाज की ज़िम्मेदारी से ज़्यादा बडी है ।
“कफन “के घीसू-माधव जैसों के बारे में सोचने की प्रक्रिया शुरू करने का जो बीडा प्रेमचन्द ने लिया वह चित्रा मुदगल तक आते आते एक बडी सच्चाई हो जाता है ।लेकिन व्यवस्था वहीं की वहीं है ।समाज और राज्य की संरचना में ये हाशिये पहले से भी ज़्यादा उभर कर दिखाई दे रहे हैं । मानवीय सम्वेदनाएँ खो रही हैं दोनो ओर – भीख मांगने वालों मे और देने वालों में ।‘कफन’ में प्रसव पीडा में माधव की पत्नी का कोठरी मे उपेक्षित रह कर दम तोडना और बाहर बैठ कर बाप-बेटे का आलू भून -भून कर खाना ,इस डर से उठ कर अन्दर बहू के पास न जाना कि कही दूसरा ज़्यादा आलू न खा जाए -----एक ऐसा घृणित चित्र उभारता है कि पाठक हतप्रभ और अवाक रह जाने के अलावा कुछ सोच नही पाता ।यहाँ मानवीयता शर्मसार होती है ;राज्य –समाज और व्यवस्था प्रश्नचिह्नित होती हैं।प्रेमचन्द लिखते हैं---“जिस समाज में रात –दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी [घीसू-माधव] हालत् से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे ,कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे ,वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी “
जिस समाज और व्यवस्था मे “मजूरी कोई करे और मज़ा कोई और लूटे “वाली स्थिति होगी वहाँ पेशेवर भिखारी और घीसू-माधव कैसे न होंगे ।
दिल्ली के अधिकतर ट्रैफिक सिग्नल भिखारियों के किसी न किसी गिरोह के इलाकें हैं जिनकी हदें और लक्ष्य साफ तौर पर निर्धारित हैं ।मै भयभीत रहती हूँ जब मूलचन्द की रेड लाइट पर रुकते ही दो औरतें गोद में नवजात शिशु और एक हाथ में दूध की मैली –गन्दी-खाली बोतल लिए ,भावशून्य चेहरे के साथ बुदबुदाती हुई तब तक खडी रहती है जब तक आप उसे वहाँ से हट जाने को कह न दें ।इनमें एक को उसकी गर्भावस्था से ही देख रही हूँ ।वह सडक से एक हफ्ता गायब रही ।वापस लौटी एक नन्ही जान के साथ।हैरानी तब होती है जब हरी बत्ती होते ही आप इन्हे लडते-खिलखिलाते अपने अड्डों की ओर लौटते हुए देखें।मै मूलचन्द के इस चौराहे पर रुकने से घबराती हूँ ।मेरे सामने वे नवजात शिशु जो पैदा हो रहे है और सहज ही भिखारियों की नई पीढी मे शामिल हो रहे है :कुपोषित ,सम्वेदना से रहित ,इज़्ज़त और नैतिकता की अवधारणाओं से नितांत अनजान्,विकास की किसी मुख्यधारा मे समाहित हो सकने के किसी भी सम्भावना से परे ,अपराध की ओर प्रेरित ,भूख के दायरे मे सोचने वाले और समाज को गाली भरी नज़रों से घूरते हुए ।शहर के भूगोल मे पुलों के नीचे बसी यह “गन्दगी" दिल्ली के सिटी ऑफ फ्लाईओवर्स बनने के साथ साथ एक और समानांतर सिटी की रचना कर रही है जिससे हम बचना चाह्ते है ,जिसे देखते ही हम चेहरे सिकोड लेते हैं । कुछ समय पहले चित्रा मुदगल की कहानी “भूख” पढी थी :मार्मिक ।रोंगटे खडी करने वाली ।एक असहाय स्त्री जिसके पास एक नवजात शिशु के अलावा दो और बच्चे, अस्पताल मे पडा घायल पति है और रोज़गार का कोई ज़रिया नही क्योंकि गोद के बच्चे वाली स्त्री को कोई काम कैसे दे ।वह एक ऐसी स्त्री को अपना बच्चा दिन भर के लिए उधार देती है जो भिखारिन है ।भिखारिन माँ को आश्वासन देती है कि बच्चे को वह दूध देगी ।लेकिन पेट भरेगा तो बच्चा रोएगा कैसे ।वह रोएगा नही तो साहबों के दिल कैसे पिघलेंगे ।सो दिन भर् वह भिखारिन बच्चे को भूखा रख कर रुलाती और पैसे मांगती ।बच्चे की माँ मजदूरी करके घर मे बाकी बच्चॉ के लिए भोजन जुटाती ।शाम को भिखारिन जब बच्चा लौटाती तब तक वह रो रोकर थक चुका होता और अक्सर सो जाता । एक दिन वह बच्चा लौटा कर जाती है रोती हालत मे ।माँ नही जानती कि वह भूखा है। वह भात की पतीली की ओर बढता है तो वह उसे चंटा देती है ।कई दिन के भूखे शिशु का शरीर सह नही पाता । वह उसे अस्पताल लेकर दौडती है ।लेकिन व्यर्थ!डाक्टरनी कहती है –“बच्चे को भूखा रखती थी क्या ? उसकी आंते चिपक गयीं ,सूख गयीं ।मार दिया भूखा रख -रख कर ।“
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“भिक्षावृत्ति “यानी भीख मांगना एक पेशा है ।अधिकतर् भिखारी पेशेवर भिखारी हैं और उनके इस पेशे में एक टूल की तरह इस्तेमाल होने वाली मानवीय सम्वेदनाएँ हैं । सवाल बहुत बडे बडे हैं जिन्हे हम उठने ही नही देते। भीख देकर हम वहीं कर्तव्य समाप्त समझते हैं :फिर चाहे वह भीख देने वाले हम हों या खुद सरकार ।राज्य की ज़िम्मेदारी यहाँ समाज की ज़िम्मेदारी से ज़्यादा बडी है ।
“कफन “के घीसू-माधव जैसों के बारे में सोचने की प्रक्रिया शुरू करने का जो बीडा प्रेमचन्द ने लिया वह चित्रा मुदगल तक आते आते एक बडी सच्चाई हो जाता है ।लेकिन व्यवस्था वहीं की वहीं है ।समाज और राज्य की संरचना में ये हाशिये पहले से भी ज़्यादा उभर कर दिखाई दे रहे हैं । मानवीय सम्वेदनाएँ खो रही हैं दोनो ओर – भीख मांगने वालों मे और देने वालों में ।‘कफन’ में प्रसव पीडा में माधव की पत्नी का कोठरी मे उपेक्षित रह कर दम तोडना और बाहर बैठ कर बाप-बेटे का आलू भून -भून कर खाना ,इस डर से उठ कर अन्दर बहू के पास न जाना कि कही दूसरा ज़्यादा आलू न खा जाए -----एक ऐसा घृणित चित्र उभारता है कि पाठक हतप्रभ और अवाक रह जाने के अलावा कुछ सोच नही पाता ।यहाँ मानवीयता शर्मसार होती है ;राज्य –समाज और व्यवस्था प्रश्नचिह्नित होती हैं।प्रेमचन्द लिखते हैं---“जिस समाज में रात –दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी [घीसू-माधव] हालत् से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे ,कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे ,वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी “
जिस समाज और व्यवस्था मे “मजूरी कोई करे और मज़ा कोई और लूटे “वाली स्थिति होगी वहाँ पेशेवर भिखारी और घीसू-माधव कैसे न होंगे ।
Friday, July 13, 2007
हैरी पोटर का बाज़ार और फीनिक्स का ऑर्डर !!
हरी पुत्तर का बाज़ार फिर से गर्म है और जे के राउलिंग ने इस महान सीरीज़ के आखरी सातवें उपन्यास को 21 जुलाई को बाज़ार मे उतारने का फैसला कर लिया है ।किताब से फिल्म की ओर बढी हरी पुत्तर की क्रेज़ ने मास हिस्टीरिया की स्थिति अख्तियार कर ली है ।जादू और अय्यारी का एक युग शुरु हुआ था चन्द्रकांता के साथ ।उसे बीते एक शताब्दी हो गयी है ।चन्द्रकांता ने आरम्भिक अवस्था के हिन्दी गद्य का बडा उपकार किया था।पर उस तिलिस्म से निकलने मे हिन्दी की रीतिकालीन प्रवृत्तियों को काफी समय लगा कि यहा फिर लौट कर आयी है जादू और फंतासी लेकर हैरी पोटर !पर चूंकि यह पस्चिम का तिलिस्म है सो इसे बकवास नही माना जाए प्लीज़ ! ।ढेर् सारा थ्रिल्ल और एडवेंचर के साथ साथ इस बार हैरी पोटर मे रोमांस को भी एड कर दिया गया है ।यानी 18 वर्षीय हीरो का पहला किस्स ऑर्डर ऑफ फेनिक्स मे मिलेगा ।आखिर हैरी अब बडा हो गया है ।और वैसे भी वह सिर्फ बच्चो की पसन्द नही है बलकि25-26 वर्षीय युवा भी उसके दीवाने है।शायद उन्ही के लिए यह किस खास तौर से रखी गयी है ।यूँ भी हैरी पिछले 8-10 वर्षो मे युवा हो गया है।तो यह स्वाभाविक ही था ।इसलिए जहा तक यह कहा जा रहा है कि यह किताब की फिल्म जगत पर विजय है तो मुझे कहना होगा कि फिल्म और किताब दोनो का गठबन्धन करने वाले बाज़ार और इसका प्रसार करने वाले संचार-तंत्र की विजय है यह । यह दीवानापन ,कहना पडेगा कि साफतौर पर मार्किट जेनेरेटिड है ।जिस देश के लोग सुनीता विलियम्स को ज़बर्दस्ती भारतीय मान कर माथे पर उसका नाम गुदवा सकते है वे बाज़ार या मीडिया जेनेरेटिड किसी भी क्रेज़ मे गर्व से शामिल होते हैं ।हैरी का विज्ञापन करने मे कोई पीछे नही है ।एच ,टी ने अपना एक पूरा पृष्ठ समर्पित् किया है हैरी को । हैरी पोटर क्विज़ ,हैरी पोटर टी शर्ट ,हैरी पोटर की जादुई छडी ,पोस्टर ...और न जाने क्या क्या 1पूरा बाज़ार हैरी मय है ।हैरी को पढना उसकी शब्दावली से परिचित होना और उसकी लेटेस्ट फिल्म देखना बच्चो के बीच स्टैंडर्ड का मुद्दा है ।यह अमरीका की मुख्यधारा मे सीधा शामिल हो जाने का सिम्बल है ।आप हैरी पोटर नही पढते तो आप पिछडे हुए ,गंवार आउटडेटिड् हैं ।हम तो अब तक भी मिट्टी के ढेले और आमकी पत्ती की कहानी सुना रहे है । हाफ ब्लड प्रिंस ,वोल्देमोर्ट डम्बल्डोर हर्माइनी कैसे कैसे नाम !पुनर्निवास कालोनी मे बने किसी सरकारी स्कूल् के बालक से पूछ लीजिए कौन है हैरी पोटर ?
इतने बडे स्तर पर जे के राउलिंग का बाज़ार मुझे हमेशा से हैरान करता रहा है । क्या वाकई हैरी पोटर एक महान धारावाहिक उपन्यास है ?
Thursday, July 12, 2007
अपना ब्लॉग हिट करें !
आज तक न जाने कितने लोगों ने हमें अपना ब्लॉग हिट करने के तरीके बताए ।पंगेबाज जी ने तो किसी के जूते उधार लेकर और उन्हे दिखा दिखा कर हिट होने के 5 तरीके बताए ।उनके एक तरीके को आलोक जी पूरी निष्ठा से फॉलो कर रहे हैं। कैसे ?अजी जा कर देखिये आजकल उनकी हर पोस्ट ब्रह्म मुहूर्त में 4 से 6 बजे के बीच प्रकाशित होती है और उनका खिलता चेहरा सारा दिन नारद पर दिखलाई देता रहता है ।और समीर जी ने ‘मान गये कवि “ को हिट करने का राज़ भी बताया ही था । ऐरी गैरी नही विशेषज्ञों की टिप्पणीयाँ पाने के तरीके भी टिप्पेषणा-पीडितों के लिए रवि जी ने बतलाए है ।इतना ही नही-उनकी इस निस्वार्थ हिन्दी सेवा मे--------
"दूसरों के चिट्ठों पर डलवाने हेतु असभ्य, गाली-गलौज वाली टिप्पणियों हेतु प्रीमियम सेवा भी उपलब्ध है."
पर ध्यान रहे------
" इसके लिए ऊपर दिए रेट में ढाई सौ प्रतिशत प्रीमियम लिया जावेगा."
तो ई तो ठहरा महन्गा सौदा ।अब हम भी कुछेक किफ़ायती ,घरेलू नुस्खे बता देते हैं । वैसे बताने नही वाले थे । पर ये नुस्खे भी ब्लॉग हिट करवा सकते है ।क्यों ? तो कद्रदान !मेहरबान !
* हिट दोप्रकार के उपलब्ध हैं –काला हिट और लाल हिट । काला वाला है मच्छरों के लिए और लाल वाला कॉक्रोचिज़ के लिए ।यू नो ?तो पहले यह डिसाएड कीजिए कि आप किस श्रेणी में हैं ।
@इसका इस्तेमाल बडा आसान है ।अपना ब्लॉग खोलिए ।हिट का कैप हटाइए । स्प्रे कीजिए । ज़्यादा असर के लिए यही क्रिया दोहराइए । *दूसरा हिट करने का तरीका – जितना ज़ोर से हिट करना हो उतना ही दमदार जूता [गोला शू ,भीगा चमडे का जूता , खटारा पनहिया ,या कोमल मन वाले हो तो जनानी जुत्ती भी ले सकते हो ] अब अपना ब्लॉग खोलिए और ‘’’पटैक .............##@@ ज़ोर से हिट करिए ।जितना चाहे उतना हिट करिए ,करते रहिए जब तक कि सबसे ज़्यादा हिट वाले ब्लॉगर न बन जाएँ ।
****इन नुस्खों की खासियत यह है कि ये स्वावलम्बन की प्रेरणा उत्पन्न करते हैं । आपको अपना ब्लॉग हिट करने के लिए किसी की टिप्पणियो की ,किसी लोकप्रियता सूची की ,सक्रियता क्रम की या किसी भी धडाधड स्वामी की ज़रूरत नही पडेगी ।यानी हिटिंग में टोटल आत्मनिर्भरता ! **** आप निश्चिंत होकर”””” ब्लॉगिंग फॉर ब्लॉगिंग सेक”” कर सकते है । किसी से रिश्तेदारी बढाए बिना ,फालतू मे औपचारिअकता दिखाए बिना । केवल वह कह सकते है जो कहना चाहते हैं ।इससे भाई-चारा निभाने की आवश्यकता खत्म होती है ।
**ब्ळागुनिया -----सारी! ----चिकन्गुनिया से अपने ब्लाग की हिफ़ाज़त करें।
****अब हे हे हे कर के पीठ खुजाने और खुजलाने का निमंत्रण देने की भी आवश्यकता नही । *****चाहें तो पहले छोटा हिट आज़मा कर देखें 75 रु.इंट्रोडक्टरी ऑफर !
*****जल्दी करें ऑफर सिर्फ टिप्पणी मिलने पर..............
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तो ई तो ठहरा महन्गा सौदा ।अब हम भी कुछेक किफ़ायती ,घरेलू नुस्खे बता देते हैं । वैसे बताने नही वाले थे । पर ये नुस्खे भी ब्लॉग हिट करवा सकते है ।क्यों ? तो कद्रदान !मेहरबान !
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@इसका इस्तेमाल बडा आसान है ।अपना ब्लॉग खोलिए ।हिट का कैप हटाइए । स्प्रे कीजिए । ज़्यादा असर के लिए यही क्रिया दोहराइए । *दूसरा हिट करने का तरीका – जितना ज़ोर से हिट करना हो उतना ही दमदार जूता [गोला शू ,भीगा चमडे का जूता , खटारा पनहिया ,या कोमल मन वाले हो तो जनानी जुत्ती भी ले सकते हो ] अब अपना ब्लॉग खोलिए और ‘’’पटैक .............##@@ ज़ोर से हिट करिए ।जितना चाहे उतना हिट करिए ,करते रहिए जब तक कि सबसे ज़्यादा हिट वाले ब्लॉगर न बन जाएँ ।
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Sunday, July 8, 2007
एक निर्विचार पोस्ट की रेज़गारी...
आज के लिए कोई विचार नही कोई विषय नही और कुछ कहना भी नही बच रहा है । पर जबकि हम सोचते है कि विचार शून्यता हिअ तब भी शायद किसी निर्विकार ,अज्ञेय ,अमूर्त किस्म की विचार प्रक्रिया कही बहुत भीतर चालू होती है । बिलकुल उसी अन्दाज़ में ,गालिब के शब्दो मे ----
"न था कुछ तो खुदा था ...
कुछ ना होता तो खुदा होता ..........."
प्लेटो ने विचार को सर्वोपरी सत्ता माना था । सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।उनकी दृष्टि में यह वस्तुजगत उस विचार तत्व की ही नकल है ।और साहित्य आदि कलाएँ इस नकल यानी वस्तुजगत की नकल हैं । सो इतने नकलीपन के बीच यदि खालीपन का अहसास हो तो अस्वाभाविक क्या है :)
तो वाकई जब हमे लगता है कि मन रीता है और मस्तिष्क की सारी शक्ति चुक गयी है ,एक निर्वात की सी स्थिति है तब भी शायद वह अपने आप में एक विचार-विकलता की सी स्थिति होती है। शायद सारा दार्शनिक चिंतन ऐसी दिमागी खालीपन की स्थिति मे उपजता हो .जब हम दीन-दुनिया से बेज़ार होकर जीवन मे अब तक की इकट्ठी हुई रेज़गारी को देखते है ं और एक दीर्घ निश्वास के साथ उसे वापस अपनी गुल्लक में डाल देते हैं :शायद यह सोच कर कि फिलहाल तो इससे कुछ बनने वाला नही है ।:)
आज ऐसी ही स्थिति में मसिजीवी की पोस्ट पर दिया कमेंट देख कर,और दिन भर की अपनी बातों का विश्लेषण कर ऐसा लगा कि यह निर्विचार होना उतना भी निर्वैचारिक नही है ----
"शर्मसार तो हुए ही है ।चाहे शर्मसार कितने हुए है यह अलग बात है ।प्रतिरोध का यह तरीका भारत जैसे देश के लिए वाकई शॉकिंग था । जहाँ स्त्री को हमेशा से घर की इज़्ज़त का वास्ता दे देकर घर के लोग अपमानित करते रहे उत्पीडन करते रहे उनके खोखलेपन और मानसिक शोषण को धता बताते हुए पूजा का यह प्रतिरोध एक असरकार तमाचा साबित हुआ है । "---
वैसे पूजा का प्रतिरोध एक भदेस किस्म का प्रतिरोध है । जिसमें किसी नारी संगठन को आवाज़ नही दी गयी , प्रेस की शक्ति का सहारा नही लिया गया ,किताबे , कहानिया नही लिखी गयी न पढी गयीं । उसने किसी अनामिका , जर्मेन ग्रियर, सीमोन दे बोवुआर उमा चक्रवर्ती .....को नही पढा । पढा होता तो शायद ऐसा कभी नही कर पाती।
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सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।आप चाहे तो आज़मा कर देख लें । यह पोस्ट भी इसी प्रयोग का एक नतीजा ही है ।
"न था कुछ तो खुदा था ...
कुछ ना होता तो खुदा होता ..........."
प्लेटो ने विचार को सर्वोपरी सत्ता माना था । सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।उनकी दृष्टि में यह वस्तुजगत उस विचार तत्व की ही नकल है ।और साहित्य आदि कलाएँ इस नकल यानी वस्तुजगत की नकल हैं । सो इतने नकलीपन के बीच यदि खालीपन का अहसास हो तो अस्वाभाविक क्या है :)
तो वाकई जब हमे लगता है कि मन रीता है और मस्तिष्क की सारी शक्ति चुक गयी है ,एक निर्वात की सी स्थिति है तब भी शायद वह अपने आप में एक विचार-विकलता की सी स्थिति होती है। शायद सारा दार्शनिक चिंतन ऐसी दिमागी खालीपन की स्थिति मे उपजता हो .जब हम दीन-दुनिया से बेज़ार होकर जीवन मे अब तक की इकट्ठी हुई रेज़गारी को देखते है ं और एक दीर्घ निश्वास के साथ उसे वापस अपनी गुल्लक में डाल देते हैं :शायद यह सोच कर कि फिलहाल तो इससे कुछ बनने वाला नही है ।:)
आज ऐसी ही स्थिति में मसिजीवी की पोस्ट पर दिया कमेंट देख कर,और दिन भर की अपनी बातों का विश्लेषण कर ऐसा लगा कि यह निर्विचार होना उतना भी निर्वैचारिक नही है ----
"शर्मसार तो हुए ही है ।चाहे शर्मसार कितने हुए है यह अलग बात है ।प्रतिरोध का यह तरीका भारत जैसे देश के लिए वाकई शॉकिंग था । जहाँ स्त्री को हमेशा से घर की इज़्ज़त का वास्ता दे देकर घर के लोग अपमानित करते रहे उत्पीडन करते रहे उनके खोखलेपन और मानसिक शोषण को धता बताते हुए पूजा का यह प्रतिरोध एक असरकार तमाचा साबित हुआ है । "---
वैसे पूजा का प्रतिरोध एक भदेस किस्म का प्रतिरोध है । जिसमें किसी नारी संगठन को आवाज़ नही दी गयी , प्रेस की शक्ति का सहारा नही लिया गया ,किताबे , कहानिया नही लिखी गयी न पढी गयीं । उसने किसी अनामिका , जर्मेन ग्रियर, सीमोन दे बोवुआर उमा चक्रवर्ती .....को नही पढा । पढा होता तो शायद ऐसा कभी नही कर पाती।
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सो खुदा विचार की ही तरह ..जब कुछ नही होता तब भी रहता है ।आप चाहे तो आज़मा कर देख लें । यह पोस्ट भी इसी प्रयोग का एक नतीजा ही है ।
Wednesday, July 4, 2007
आइए सर्फ़ोली बोली सीखे
बी.ए. ऑनर्स के प्रथम वर्ष की परीक्षाएँ समाप्त हुईं तो बहुत सा वक्त एकाएक पहाड सा हो गया था। सोचा द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में लगे टेक्स्ट को ही पढा जाए । श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी इसी समय सामने आया । उसकी महिमा सुन तो चुके ही थे अब होता यूँ था कि वह उपन्यास हमें लत की तरह लग गया । रात मे जब घर के लोग चैन की बंसी बजाते ,हम फूहड हँसी हँस हँस कर उनकी निद्रा मे खलल डालते । डाँट पडी , फटकार लगाई गयी । फिर उन्हे आदत हो गयी । अब मेरे रातों को [जैसे पीपल पर कोई......] ज़ोर से हँसने पर घरवाले कहते ‘रागदरबारी “ पढ रही होगी । खैर,अब बहुत समय हुआ । रागदरबारी का भूत हमें हॉंंट नही करता । पर एक चीज़ है जो यदा –कदा गुदगुदाती है । एक पात्र हुआ करता था रागदरबारी में। जोगनाथ ।पूरा पियक्कड ।एकदम टुन्न रहने वाला ।यदा-कदा नालियों में गिरा पडा मिलने वाला ।उसकी एक विचित्र बोली थी ।गाँव-जवार के लोग उसे सर्फोली बोले कहते थे ।इसका व्याकरण कुछ यों था कि आप एक शब्द के सभी वर्णो के बीच मे र्फ लगाएँगे ।नही समझे न!
एक बार जोगनाथ पीकर नाले में गिरा हुआ था । किसी की मदद की दरकार थी उसे । पडे पडे किसी के आहट सुनाई दी तो जोगनाथ बोला । उधर से किसी ने पूछा ‘कौन है साला ?” जोगनाथ ने उत्तर दिया “ मर्फै हूँ !जर्फोगनाथ ! किर्फ़िस सर्फ़ाले ने यर्फ़हा कर्फ़ाटे गर्फ़ाडे है ?“ मर्फाने यर्फह कि कर्फोन है सर्फाला ?आर्फज भी जर्फब मर्फज़ाक कर्फने का मर्फन हर्फोता है तो हर्फम जर्फोगनाथ को यर्फाद कर्फ लेते है !समझे कि नही !
कोड भाषा के रूप मे सर्फोली बोली बडी फायदेमन्द है । इसमें भद्दी भद्दी बाते आराम से कही जा सकती है ।क्यो ?इसके बोलने मे बडा मज़ा है । उससे ज़्यादा मज़ा जो कुछ लोगो को मा बहन करने मे आता है ।यह भी भाषा की एक अंगडाई है .प्रयोग है ,विभिन्नता है ।सो भाषाई नवीनता और प्रयोगशीलता के लिए एक ही तरफ क्यो बढना चाह्ते है।
साहित्य में भाषा की विभिन्न भंगिमाएँ और शब्दावलियाँ एक वातावरण विशेष को जीवंत और यथार्थ बनाने के लिए आती है । गाली एक भाषिक संरचना है । और सामाजिक संरचना की ही तरह है । यदि समाज स्त्री-विरोधी ,दलित-विरोधी है तो भाषा मे उसके प्रमाण भी है । गालियो के समाजशास्त्र को देखे तो यह और स्पष्ट तौर पर समझ आएगा ।ऐसे मे एक दलित या स्त्री या किसी भी हाशिये की अस्मिता द्वारा जब अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति होगी तो भाषा के सारे मर्दवादी ,ब्राह्मणवादी तवर वहा उपस्थित होंगे जिनका उद्देश्य लेखक द्वारा अपनी भडास निकालना नही होता वरन .उस वातावरण को सजीव करना , उस पात्र विशेष की मानसिकता को उभारना होता है ।यदि मुझे स्त्री निन्दक और शोषक पात्र को किसी कहानी में रचना होगा तो मै उस पात्र के मुख से वही भाषा कहलवाऊंगी जिसका इस्तेमाल मोहल्ला पर हाल ही मे हुआ है ।व्यक्तिगत पत्राचार ,निबन्ध ,लेख सार्वजनिक औपचारिक लेखन मे ऐसी च्युइंगम-वाली भाषा सरासर बदतमीज़ी है , राजनीती है , कुंठा है , कुत्सित है ।
एक बार जोगनाथ पीकर नाले में गिरा हुआ था । किसी की मदद की दरकार थी उसे । पडे पडे किसी के आहट सुनाई दी तो जोगनाथ बोला । उधर से किसी ने पूछा ‘कौन है साला ?” जोगनाथ ने उत्तर दिया “ मर्फै हूँ !जर्फोगनाथ ! किर्फ़िस सर्फ़ाले ने यर्फ़हा कर्फ़ाटे गर्फ़ाडे है ?“ मर्फाने यर्फह कि कर्फोन है सर्फाला ?आर्फज भी जर्फब मर्फज़ाक कर्फने का मर्फन हर्फोता है तो हर्फम जर्फोगनाथ को यर्फाद कर्फ लेते है !समझे कि नही !
कोड भाषा के रूप मे सर्फोली बोली बडी फायदेमन्द है । इसमें भद्दी भद्दी बाते आराम से कही जा सकती है ।क्यो ?इसके बोलने मे बडा मज़ा है । उससे ज़्यादा मज़ा जो कुछ लोगो को मा बहन करने मे आता है ।यह भी भाषा की एक अंगडाई है .प्रयोग है ,विभिन्नता है ।सो भाषाई नवीनता और प्रयोगशीलता के लिए एक ही तरफ क्यो बढना चाह्ते है।
साहित्य में भाषा की विभिन्न भंगिमाएँ और शब्दावलियाँ एक वातावरण विशेष को जीवंत और यथार्थ बनाने के लिए आती है । गाली एक भाषिक संरचना है । और सामाजिक संरचना की ही तरह है । यदि समाज स्त्री-विरोधी ,दलित-विरोधी है तो भाषा मे उसके प्रमाण भी है । गालियो के समाजशास्त्र को देखे तो यह और स्पष्ट तौर पर समझ आएगा ।ऐसे मे एक दलित या स्त्री या किसी भी हाशिये की अस्मिता द्वारा जब अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति होगी तो भाषा के सारे मर्दवादी ,ब्राह्मणवादी तवर वहा उपस्थित होंगे जिनका उद्देश्य लेखक द्वारा अपनी भडास निकालना नही होता वरन .उस वातावरण को सजीव करना , उस पात्र विशेष की मानसिकता को उभारना होता है ।यदि मुझे स्त्री निन्दक और शोषक पात्र को किसी कहानी में रचना होगा तो मै उस पात्र के मुख से वही भाषा कहलवाऊंगी जिसका इस्तेमाल मोहल्ला पर हाल ही मे हुआ है ।व्यक्तिगत पत्राचार ,निबन्ध ,लेख सार्वजनिक औपचारिक लेखन मे ऐसी च्युइंगम-वाली भाषा सरासर बदतमीज़ी है , राजनीती है , कुंठा है , कुत्सित है ।
टुईयाँ गुईया ढेम्पूला की चुईयाँ
बच्चा शब्दों से खेलता है ,अपने अनुभवों को प्रस्तुत करता है ,पडताल और तर्क करता है।
पैदाहोने के साथ ही भाषा से उसका परिचय होता है ।शुरु शुरु मे बोली जाने वाली जितनी भी ध्वनियाँ और शब्द होते है ;उनका अर्थ भले ही वह न जाने पर धीरे धीरे उसके लिए वे महत्वपूर्ण हो जाते है ।और अनुभावों के साथ साथ उसका भाषा का दायरा भी बढता है और लचीलापन भी आता है ।वह भाषा के मामले में प्रयोगशील होता है । आप उसे कविता सिखाएँगे ---
Papa darling ,mamma darling ,
I love u
See your baby dancing
Just for you…
-वह अगली बार उसमे खुद से जोड देगा
papa darling, mamma darling,maasi darling , anupam darling ,nani darling
I love you…..
तो जितने भी सम्बन्ध उसे प्रिय हैं वह उन सब को लाएगा कविता के बीच ।यह जुडाव है ,अभिव्यक्ति है ,भावनात्मकता है । पापा का चश्मा गोल गोल की जगह जब मैने एक बच्चे को पापा का चश्मा रेक्टैंगल [पिता का चश्मा वाकई आयताकर लेंस वाला था ] कहते सुना तो समझ आया कि भाषा उसके लिए तर्क भी है । वह रेक्टैंगल शब्द से परिचित न होता तो यह तर्क नही कर सकता था ।
तुतलाने वाले बच्चे के लिए भी भाषा और ध्वनियाँ तक भी खेलने खुश होने का साधन है ।वे अपने मन से कुछ भी अटपटा गाते कहते हैं ।ऐसे ही बच्चे जो अभी भाषा और अर्थ नही जानते ,बस ध्वनि से हुलसते है ,के लिए एक कबीलाई लोकगीत प्रस्तुत है जिसका अर्थ उनके लिए महत्वपूर्ण नही । यह उनके खेलने और खिलखिलाने का गीत है जैसे – अक्क्ड बक्कड बम्बे बो ,.......सौ मे लगा ताला चोर निकल के भागा।
लोकगीत और विस्तार से पोस्ट पढने के लिए बाल उद्यान पर जाइए जिसका अभी नारद पर पन्जीकरण नही हुआ है ।कल ही गिरिराज जोशी जी ने हमसे यहा लिखने को कहा तो हमने सोचा कि आप सब इसे पढ पाए और प्रतिक्रिया दे सके ।
पैदाहोने के साथ ही भाषा से उसका परिचय होता है ।शुरु शुरु मे बोली जाने वाली जितनी भी ध्वनियाँ और शब्द होते है ;उनका अर्थ भले ही वह न जाने पर धीरे धीरे उसके लिए वे महत्वपूर्ण हो जाते है ।और अनुभावों के साथ साथ उसका भाषा का दायरा भी बढता है और लचीलापन भी आता है ।वह भाषा के मामले में प्रयोगशील होता है । आप उसे कविता सिखाएँगे ---
Papa darling ,mamma darling ,
I love u
See your baby dancing
Just for you…
-वह अगली बार उसमे खुद से जोड देगा
papa darling, mamma darling,maasi darling , anupam darling ,nani darling
I love you…..
तो जितने भी सम्बन्ध उसे प्रिय हैं वह उन सब को लाएगा कविता के बीच ।यह जुडाव है ,अभिव्यक्ति है ,भावनात्मकता है । पापा का चश्मा गोल गोल की जगह जब मैने एक बच्चे को पापा का चश्मा रेक्टैंगल [पिता का चश्मा वाकई आयताकर लेंस वाला था ] कहते सुना तो समझ आया कि भाषा उसके लिए तर्क भी है । वह रेक्टैंगल शब्द से परिचित न होता तो यह तर्क नही कर सकता था ।
तुतलाने वाले बच्चे के लिए भी भाषा और ध्वनियाँ तक भी खेलने खुश होने का साधन है ।वे अपने मन से कुछ भी अटपटा गाते कहते हैं ।ऐसे ही बच्चे जो अभी भाषा और अर्थ नही जानते ,बस ध्वनि से हुलसते है ,के लिए एक कबीलाई लोकगीत प्रस्तुत है जिसका अर्थ उनके लिए महत्वपूर्ण नही । यह उनके खेलने और खिलखिलाने का गीत है जैसे – अक्क्ड बक्कड बम्बे बो ,.......सौ मे लगा ताला चोर निकल के भागा।
लोकगीत और विस्तार से पोस्ट पढने के लिए बाल उद्यान पर जाइए जिसका अभी नारद पर पन्जीकरण नही हुआ है ।कल ही गिरिराज जोशी जी ने हमसे यहा लिखने को कहा तो हमने सोचा कि आप सब इसे पढ पाए और प्रतिक्रिया दे सके ।
Monday, July 2, 2007
कॉफी सुन्दर और सजीली ...और हमारी फूहडता
दो चीज़े है जिनमे हम फूहड ही रह गये । एक है पीना और दूसरा तकनीक ।
काकटेल के बारे मे जब समीर जी की पोस्ट पढी तब भी बडी ग्लानि हुई ।हमे तो सीधी –साधी शराब ही समझ नही आती काकटेल जैसा गडबड झाला क्या खाक समझ आता ? जिन्हे पीने की तमीज़ न हो उनसे पीने के विषय मे बात करना अइसा ही है जैसा कि फुरसतिया जी को अपनी व्यस्तताओ के बारे मे बताना :)
पीने की अनपढता हमे काफी पीने मे भी है यह पिछली ब्लागर मीट मे अमित से मिलकर लगा । । आज तक बस दो ही कॉफी जानी है –अच्छी कॉफी / बुरी कॉफी ।{ वैसे कैफे कॉफी डॆ का बिना पानी वाला वाश रूम भी हमे भूला नही है । अगली मीट पास आ रही है इस लिए नॉस्ताल्जिया हमारे जिया मे हिलोर ले रहा है }
पहले सोचते थे कि काफी की बारीकियों को जाने बगैर भी मै खुशहाल जीवन जी पा रही हूँ तो।सैकडो लोग जी रहे हैं ।ज़िन्दगी पहले ही उलझी पहेली है ;मुई कॉफी भी इस घाल मेल मे शामिल हो गयी तो जीना दुश्वार हो जाएगा । अमूमन हम ऐसे तर्क अपनी अज्ञानता या आलस्य को छुपाने के लिए गढ लेते है । सो प्रमादवश हमने कभी शराब और कॉफी की किस्मों और उन्हे पीने की तहज़ीब पर कभी गौर नही फरमाया था । इसी का नतीजा एक दिन भुगत लिया । ठंडी के मौसम में कॉफी पीने की हुडक उठी । कैफ़े कॉफी डॆ पहुचे । कॉफी मांगने पर पूछा गया “कौन सी कॉफी ?” सवाल जटिल था ।एस्प्रेस्सो कुछ सुना सुना नाम था सो मांग ली हमने ।हमारी भोली सूरत पर कॉफी डे वाले को तरस आया और उसने पूछ डाला “आर यू श्योर मैम ?”
हमने भी अकड कर कहा “येस” और उसकी तरफ तुनक कर देखा । हँह ! जैसे हमे इतना भी नही पता कि एस्प्रेसो किस चिडिया ...कॉफी ..का नाम है । वह खीसे निपोरते गया और वापस आया । हाथ मे छोटी सी प्याली ,आधी भरी हुई एक काले ,गाढे , कडुवे द्रव्य से । बस क्या ? काटो तो खून नही । या खुदा ! आज 50 रु. मे ऐसी कॉफी लिखी थी नसीब में क्या यही है तेरी भक्ति का फल ?! अबोध ,मासूमो के लिए यही है तेरा न्याय ? तो ठीक है । हम उपहास स्वरूप दी हुई तेरी चीनी भी ठुकराते हैं । हा !! हमने चीनी का पाउच डाले बिना ही वो ज़हर का प्याला दो बडे घूंटो मे खाली किया और 50 का पत्ता साफ करवा कर फूट लिए वहा से ।अब उतने अबोध तो नही रहे पर फिर भी अपने हाथ की बनी, कम चीनी वाली नेसकाफे ही हमे भाती है।
आज फिर से हमे हमारी कॉफी अज्ञानता बडी शिद्दत महसूस हुई जब सजीली और सुन्दर कॉफी प्रतिबिम्ब पर रखी देखी । न जाने किन सामग्रियो और विधियो का वर्णन किया है अमित जी ने । वे कौन से नट्स है ? हा हेज़लनट्स आप कहोगे आप खुद ही नट्स हो जी । तो नट्स तो हम है ही । कॉफी वाले न सही ।हमारा तो जीना ही व्यर्थ जा रहा है ।हमे तो बस यही साधु वाणी याद आ रही है ---- जनम तेरा ब्लॉगिंग ही बीत गयो , रे तूने कबही ना कॉकटेल पीयो ,रे तूने कबही ना कैपेचिनो पियो .....रे साधो !!!!
काकटेल के बारे मे जब समीर जी की पोस्ट पढी तब भी बडी ग्लानि हुई ।हमे तो सीधी –साधी शराब ही समझ नही आती काकटेल जैसा गडबड झाला क्या खाक समझ आता ? जिन्हे पीने की तमीज़ न हो उनसे पीने के विषय मे बात करना अइसा ही है जैसा कि फुरसतिया जी को अपनी व्यस्तताओ के बारे मे बताना :)
पीने की अनपढता हमे काफी पीने मे भी है यह पिछली ब्लागर मीट मे अमित से मिलकर लगा । । आज तक बस दो ही कॉफी जानी है –अच्छी कॉफी / बुरी कॉफी ।{ वैसे कैफे कॉफी डॆ का बिना पानी वाला वाश रूम भी हमे भूला नही है । अगली मीट पास आ रही है इस लिए नॉस्ताल्जिया हमारे जिया मे हिलोर ले रहा है }
पहले सोचते थे कि काफी की बारीकियों को जाने बगैर भी मै खुशहाल जीवन जी पा रही हूँ तो।सैकडो लोग जी रहे हैं ।ज़िन्दगी पहले ही उलझी पहेली है ;मुई कॉफी भी इस घाल मेल मे शामिल हो गयी तो जीना दुश्वार हो जाएगा । अमूमन हम ऐसे तर्क अपनी अज्ञानता या आलस्य को छुपाने के लिए गढ लेते है । सो प्रमादवश हमने कभी शराब और कॉफी की किस्मों और उन्हे पीने की तहज़ीब पर कभी गौर नही फरमाया था । इसी का नतीजा एक दिन भुगत लिया । ठंडी के मौसम में कॉफी पीने की हुडक उठी । कैफ़े कॉफी डॆ पहुचे । कॉफी मांगने पर पूछा गया “कौन सी कॉफी ?” सवाल जटिल था ।एस्प्रेस्सो कुछ सुना सुना नाम था सो मांग ली हमने ।हमारी भोली सूरत पर कॉफी डे वाले को तरस आया और उसने पूछ डाला “आर यू श्योर मैम ?”
हमने भी अकड कर कहा “येस” और उसकी तरफ तुनक कर देखा । हँह ! जैसे हमे इतना भी नही पता कि एस्प्रेसो किस चिडिया ...कॉफी ..का नाम है । वह खीसे निपोरते गया और वापस आया । हाथ मे छोटी सी प्याली ,आधी भरी हुई एक काले ,गाढे , कडुवे द्रव्य से । बस क्या ? काटो तो खून नही । या खुदा ! आज 50 रु. मे ऐसी कॉफी लिखी थी नसीब में क्या यही है तेरी भक्ति का फल ?! अबोध ,मासूमो के लिए यही है तेरा न्याय ? तो ठीक है । हम उपहास स्वरूप दी हुई तेरी चीनी भी ठुकराते हैं । हा !! हमने चीनी का पाउच डाले बिना ही वो ज़हर का प्याला दो बडे घूंटो मे खाली किया और 50 का पत्ता साफ करवा कर फूट लिए वहा से ।अब उतने अबोध तो नही रहे पर फिर भी अपने हाथ की बनी, कम चीनी वाली नेसकाफे ही हमे भाती है।
आज फिर से हमे हमारी कॉफी अज्ञानता बडी शिद्दत महसूस हुई जब सजीली और सुन्दर कॉफी प्रतिबिम्ब पर रखी देखी । न जाने किन सामग्रियो और विधियो का वर्णन किया है अमित जी ने । वे कौन से नट्स है ? हा हेज़लनट्स आप कहोगे आप खुद ही नट्स हो जी । तो नट्स तो हम है ही । कॉफी वाले न सही ।हमारा तो जीना ही व्यर्थ जा रहा है ।हमे तो बस यही साधु वाणी याद आ रही है ---- जनम तेरा ब्लॉगिंग ही बीत गयो , रे तूने कबही ना कॉकटेल पीयो ,रे तूने कबही ना कैपेचिनो पियो .....रे साधो !!!!
कॉफी का प्याला प्रतिबिम्ब से साभार !
तकनीकी फूहडता पर नही लिख रहे है वामे हमारी फूहडता का परमान हमरा बिलाग है ही न!
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