Wednesday, October 29, 2014

शब्दों से भर जाना ही रीत जाना है।

रीत जाने के दिन
बहुत मुश्किल होते हैं...
कुढे हुए मन होते हैं
मानो वह रहस्य
जो सभी जानते हैं आस पास
और रह पाते हैं सामान्य
हमें मालूम न हो पाए कैसे भी...।
सपने मे खुद को देखा है
ज़ोर से चिल्लाते
जिस विकृत-अबूझ भाषा में
वह भी तो किसी एकांत में
नहीं हुई थी निर्मित
और जिस पढत की भाषा में होती है
व्याख्यायित वह चींख
वहाँ तक बँधे पुल का भी
अपना समाज शास्त्र नहीं है क्या ?
नहीं है सो जाने से डर स्वप्न के कारण
दरअस्ल
उसी भाषा का भय है मुझे
जिसमें मनोवैज्ञानिकों ने
लिख दिए शास्त्र
और ऐसी किताबों में
रीत जाने की व्याख्याएँ कितनी सरल होती हैं।
सरल होते होते उलझ गया है सब।
कम से कम मेरे साथ।
अब जाना है
पर्यायों की खोज  में निकलना कितनी मूर्खता है
जबकि पर्यायों , विपर्ययों ,विशेषणों और शब्दों से
भर जाना ही रीत जाना है।

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