Thursday, April 29, 2010

सिनेमा देखने जाएंगे तो गँवारू ही कहलाएंगे, मूवी देखिए जनाब !!

आप अपने घर को फ्लैट कहना पसन्द करते हैं या अपार्टमेंट ? फिल्म देखने जाएँ तो उसे सिनेमा देखना कहेंगे या मूवी ? भई तय रहा कि आप 'सिनेमा देखने जाएंगे ' तो गँवारू ही कहलाएंगे । मूवी देखिए जनाब !! ई मूवी अमेरिका वाला भाई लोग ने बनाया है न!

गुलामी कोई देश केवल भौतिक रूप से नही करता। गुलाम देश की भाषा भी गुलामी के संकेत देने लगती है और धीरे धीरे दिमाग ही गुलाम हो जाते हैं।अंग्रेज़ की गुलामी के दौर मे उपनिवेश का आर्थिक शोषण-दोहन किया जाता था । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र शोषण के इस रूप को समझ रहे थे और कभी छिपे -खुले ज़ाहिर भी कर रहे थे ।'निज भाषा ' की उन्नति भी उनकी चिंता थी । उनकी ये मारक लाइने नही भूलतीं -

अंग्रेज़ राज सुख साज सजै सब भारी
पै धन बिदेस चलि जात इहै अति ख्वारी

वे ।कहने को आज हम आज़ाद हैं , पर क्या वाकई ? ये बड़े सवाल हैं , जिन पर रह रह कर मन मे विचार उठते हैं , दबते हैं , अपनी लाचारी से कराह उठती है , बैठ जाती है!और एक बड़े भारतीय जनसमूह के मन मे तो ऐसे सवाल उठते ही नही होंगे । उपनिवेशवाद ने आर्थिक गुलामी से कैसे मानसिक -भाषाई गुलामी का रूप ले लिया है यह अह्सास तीव्र रूप में कल हमें हुआ जब बच्चो के एक स्कूल की पत्रिका मे ब्रिटिश अंग्रेज़ी के शब्दों के नए अमेरिकी इस्तेमाल पढे वर्ना शायद मैं इस ओर कभी ध्यान न देती कि ब्रिटेन की अंग्रेज़ी को सर माथे लेने वाली कौम कब धीरे धीरे अमेरिकी अंग्रेज़ी को अपना कर इठलाने लगी।

देखिए -
अमेरिकन इंग्लिश - ब्रिटिश इंग्लिश
Apartment ----------Flat
Bar -----------------Pub
Cab -----------------Taxi
Corn ----------------Maize
Movie ---------------Cinema
Pants ---------------Trousers
Eraser---------- ----Rubber
Sick -----------------Ill
Vacation------------- Holiday
Can------------ tin
Flashlight ----------Torch
Overpass---------- Flyover
Faculty -------------Staff

ओह ! इरेज़र को रबर बोलना कितना खतरनाक हो गया है आप जानते नही है क्या ।

पहले कुठाराघात हिन्दी पर किया , स्वाभिमान को खतम करने के लिए ....अब देखिए हम उन्हे भी पीछे छोड़ कित्ता आगे आ गए हैं । अब हम सबसे बड़े बॉस की गुलामी में नाक ऊंची करते हैं।

Wednesday, April 28, 2010

आप कितने बड़े "मैंने" हैं

आप अक्सर कुछ लोगों से बात करना , मिलना अवॉइड करना चाहते हैं अलग अलग कारणों से।स्वाभाविक भी है।हर किसी से नही मिलता मन। लेकिन दुनिया ऐसे नही चलती न!कभी न कभी आपको उनसे टकराना ही पड़ता है।रियल दुनिया की दोस्ती छोड़कर आप वर्चुअल स्पेस मे ही भाग कर क्यों न आ जाएँ ..आप उस प्रवृत्ति से बच नही सकते जिसे हम अपनी मित्र मंडली मे "मैने" कहकर अभिव्यक्त करते हैं।

ये मैने कौन होते हैं?

मैने वे है जो आत्माभिभूत हैं और साथ ही जिन्हें लगता है कि समाज -बिरादरी -मित्र मण्डली में अपेक्षित स्थान सम्मान और आदर उन्हे नही मिल रहा जबकि वे तो कितने महान हैं।
आप उनसे टकराए नही कि उधर से शुरु हो जाएगा ....." आप ऐसा कैसे कह सकते हैं मैनें ज्ञान-विज्ञान का प्रसार किया है, मैने अपने सारे अंग मृत्यु से पहले ही दान दे दिए हैं, मैने अपनी पत्नी को अधिकार दिए हैं, मैने अपना पतिव्रत धर्म निभाया है, मैने तो ...मैने कभी किसी का अहसान नही लिया...मैने कभी बे ईमानी ....मैने ये.. मैने वो .... अरे आप क्या समझते हैं मैने सारी ज़िन्दगी हिन्दी की सेवा करने मे बिता दी....भई मैने ..........
मैने किसी की एक भी फालतू बात नही सुनी आजतक .. मैने अपने बच्चों को सबसे अच्छी एजुकेशन दी है , मैने तो अपने बच्चों को हमेशा फ्रीडम दी है.मैने... मैने ...मैं तो साफ साफ बात करता हूँ हमेशा चाहे बुरी लगे .... मै बहू-बेटी (या बेटा-बेटी भी हो सकता है) मे कोई फर्क नही करती ....

"मैनें तो हमेशा ही सधी हुई लेखनी चलाई है ... मैने हिन्दी ब्लॉग जगत मे हमेशा ही विवेक - विश्लेषण की चेतना पैदा करने की कोशिश की है....आप क्या जाने मैनें हिन्दी ब्लॉग जगत मे किस किस बात का प्रसार किया और इसी मे अपना जीवन लगा दिया...मैने हिन्दी ब्लॉगिंग के लिए ...ब्ला ब्ला ....मैने हिन्दी ब्लॉग जगत मे ...ब्ला ... ..मैने ....मैने ...मैने.......

और आप मेरी मेहनत को क्षण भर मे एक खराब टिप्पणी करके नष्ट कर देना चाहते हैं ....मैने कभी किसी को खराब कमेंट नही दिया...मैने कभी किसी की पोस्ट की बुराई नही की..... मैने किसी विवाद का आगाज़ नही किया ......मै तो आपके ब्लॉग पर कभी नही गया आपको ही क्या ज़रूरत पड़ी थी यहाँ आकर मवाद बिखेरने की...
हुँह !

आप जानते हैं मैने कैसे कैसे हालात मे अपना कॉलम लिखा है ?अपनी बीमारी के बाद अस्पताल से निकलते ही मैने फलाँ को बेटी के अपार्टमेंट में बुलाकर अपना कॉलम लिखवाया और नियत समय पर 'हँस' मे भेजा ..और आप यूँ की कह देते हैं कि हमने फलाँ लेख गलत लिखा (यह हिम्मत!!) साहित्य के लिए मैने जो जो सहा है कोई नही सह सकता , सबसे बढकर मैने हिन्दी की जितनी सेवा की है वह कोई नही कर सकता (निराला या कोई प्रेमचन्द भी नही) इतने साल मैने साहित्य के लिए झोंक दिए।मैने हमेशा प्रतिक्रियाओ का सम्मान किया।मैने कभी रुपए पैसे का हिसाब नही रखा।
और आपने किया ही क्या है जो टिप्पनी करने चले आते हैं?


आप हँसते हँसते कहेंगे कि जी हाँ आपने , आपने , आपने ....
सब कुछ आपने ...
हम तुच्छ प्रानी जाने क्यों इस धरती पर कीड़ों की तरह बिलबिला रहे हैं जबकि सारी क्रांति , सारा धर्म कर्म , सारा ज्ञान विज्ञान का प्रचार , सारी विद्वत्ता , सारा परोपकार तो आप ही करते आए हैं कर रहे हैं!!हम तो बे ईमान हैं, कामचोर हैं, हिन्दी की सेवा नही करते, विज्ञान का तो भी नही जानते,बच्चों को सबसे घटिया सस्ते स्कूल मे पढाते हैं,सबकी फालतू बात भी हम ही सुनते हैं...उधार करते हैं, हम अधर्मी हैं ....सबके अहसान लेते हैं ...हम साफ बात नही करते.. आप धन्य हैं ! अब हमे जाने दीजिए प्लीज़!अपन तो ये भी नही जानते कि यहाँ करने क्या आए हैं !
और आप पिण्ड छुड़ाकर भागेंगे।

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चिंता न करें , इस लेख की कोई कड़ियाँ नही आने वालीं। वैसे आप तो जानते ही हैं मैने कभी व्यक्तिगत आक्षेप नही किए , न ही मैने किसी का कभी दिल दुखाया , मैने तो यही सोचा है कि कुछ समझ का विस्तार हिन्दी ब्लॉग जगत मे कर सकूँ ... भई मैने तो मैने मैने कभी नही किया :)

Tuesday, April 27, 2010

बच्चे हमारे खेत की मूली नही हैं !


















खुला बड़ा मैदान हो , घास हो , मिट्टी हो और दो चार बच्चे ...अब उन्हे किसी की परवाह नही ..वे मुक्त हैं ,उनकी दुनिया किसी वयस्क का उपनिवेश नही है , वे अपने नियम खुद बनाएंगे , खुद ही फैसला सुनाएंगे ..वे मिट्टी मे लोट पोट होंगे ...आप डपटते रहिए..वे आनन्द के गोते लगाएंगे ..आप झरने से बहते कल-कल पानी ,हवा मे झूमते पेड़ों की ताली बजाती पत्तियों और बुलबुलों के कलरव का सा आनन्द लेंगे उनके इस आनन्द भरे खेल मे।
लेकिन यह भी सपने जैसा लगता है।महानगरों में बच्चों के खेलने की जगहें लगातार कम हो रही हैं , मॉल बढ रहे है।जो पार्क हैं भी वे या तो बूढों के अड्डे हैं या जवानों ने सुबह शाम वॉक के लिए कब्ज़ा लिए हैं।बच्चों के लिए चेतावनियाँ लिख दी गयी हैं - साइकिल चलाना मना है , गेन्द लाना मना है , पकड़े जाने पर जुर्माना ...छोटे छोटे बच्चे सड़क पर क्रिकेट खेलें या साइकिल चलाएँ क्या ?
खेलना बच्चों के लिए ठीक वैसे ही ज़रूरी और नैसर्गिक क्रिया है जैसे कि भूख लगने पर भोजन करना।और जो अनुभवी हैं वे जानते हैं कि खेलना बच्चों को खाने से भी अधिक ज़रूरी और प्रिय दिखाई पड़ता है।खेल का समय बच्चों का वह स्पेस है जो बड़ों की दुनिया मे किसी भी तरह उन्हे हासिल नही होता।प्रकृति के समीप होना , आस पास को जानना , भावनात्मक , समाजिक और शारीरिक विकास के लिए 'खेलना'एक बेहद ज़रूरी बात है जिसे तमाम शिक्षाविद, समाजशास्त्री, बाल विशेषज्ञ बार बार कह चुके।शिशु-शिक्षण प्रणालियों में किंडरगार्टन और मॉंन्टेसरी पद्धति सभी मे खेल के द्वारा सीखने पर ज़ोर दिया गया।खेल मानवीय विकास का बेहद नैसर्गिक और बेहद सामान्य तरीका है।

बाहर खेलने की जगहें और अवसर ही नही रहेंगे तो बच्चे अपने आप टी वी , कम्प्यूटर जैसे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की ओर रुख करेंगे।इसका एक बड़ा कारण शिक्षा और खेल पर बराबर ज़ोर न होना भी है । कितने स्कूल खेलने के लिए छोटे बच्चों को रोज़ के टाइम टेबल मे जगह देते हैं।नर्सरी का बच्चा भी पूरा दिन कक्षा मे बन्धक की तरह बिठाया जाता है। खिड़की से बाहर झाँकने और पढने के घण्टे में तितली पकड़ने मे मस्त होने पर बुरी तरह लताड़ा जाता है, दोस्त बनाने की कोशिश में शिक्षक की झिड़कियाँ खाता है , उस नन्हे आज़ाद पंछी को लगातार 'चुप' रहने को कहा जाता है।उन्हे खेलने दीजिए , बढने दीजिए ..नही तो वे कुण्ठित हो जाएंगे ।कैसे इन्हे समझाएँ कि स्कूल को जेल मत बनाईये जहाँ खेलने का समय बचाने के लिए बच्चा अपना टिफिन छोड़ दे और दिन भर भूखा रहे ।प्राण जाए पर खेल न जाए !
ऐसे मे यह महसूस होता है कि शिक्षा के अधिकार से भी ज़रूरी बाल- अधिकार 'खेलने का अधिकार' है जिसे हम बच्चों से छीन रहे हैं। राजेश जोशी की कविता 'बच्चे काम पर जा रहे हैं 'एक और दर्दनाक पक्ष दिखाती है।यहाँ वे बच्चे हैं जो किसी भी अधिकार से वंचित हैं , दर असल वे बचपन से ही वंचित हैं । वे असमय प्रौढ हो जाने को अभिशप्त हैं।खेल -कूद की उम्र मे काम पे जाना और पढने की बजाए गाहक को रिझाना सीखना उनके साथ वह अमानवीय अत्याचार है जिसे रोकने मे राज्य और समाज दोनों ही नाकाबिल साबित हुए हैं।

किसी भी समाज और देश का भविष्य इससे तय होता है कि वह अपने बच्चों ,भावी नागरिकों के साथ कैसे पेश आता है।बच्चे हमारे खेत की मूली नही हैं ! उन्हे उनका बचपन नही मिलना इस बात का संकेत है कि हमें हमारा भविष्य नही मिलेगा !

Wednesday, April 1, 2009

एलिस इन वंडरलैंड

अच्छी लड़की ।सीधा कॉलेज ।कॉलेज से सीधा घर ।आँखे हमेशा नीची । लम्बी बाह के कुर्ते और करीने से ढँकता दुपट्टा ।पढने मे होशियार ।शाम को कभी घर से बाहर नही निकली । छत पर अकेली नही गयी । यहाँ कैम्पस में सारी शिक्षा ,सारी संरचनाएँ ढह गयीं छत और आँगन और सड़कें एकाकार हो गयीं ।आज़ादी का पहला अहसास ।हॉस्टल के कमरे में पहली बार वोदका को लिम्का मे मिलाकर पिया और घंटों मदहोश रही ।खों-खों करते सिगरेट का पहला कश खींचा ।कैम्पस में ढलती शाम को सडक के दोनो किनारे फूटपाथ के किनारे बनी मुँडेरी पर दो दो छायाएँ दिखाई पड़ जातीं । मुख पर एक स्मित रेखा खिंच आती ।हॉस्टल की ज़िन्दगी । परम्परावादी घरों से निकली हुई लडकी के लिए एक एडवेंचर "एलिस इन वंडर्लैंड "जैसा ।कोई देख नही रहा ।देखता भी हो तो मेरी बला से,कौन फूफा- मामा- ताया -ताई लगता है ।
बहुत चाहा था कि हमें भी हॉस्टल भेज दिया जाए लेकिन माँ-पिताजी ने साफ इनकार कर दिया -'हॉस्टल में लड़कियाँ बिगड़
जाती हैं , और ज़रूरत भी क्या है हॉस्टल मे रहने की घर से कॉलेज एक घण्टा ही तो दूर है '।तो हमारा बस नही चला ,और कैसे कह देते कि बिगड़ना ही तो चाहते हैं हम भी , या हिम्मत नही हुई पूछ लें कि 'बिगड़ना क्या होता है '। तीखी प्रतिक्रिया के बाद खुद पर से ही विश्वास डगमगा गया और माता पिता का तो ज़रूर डगमगाया ही होगा यह सोच कर कि जाने क्यो अच्छी भली लड़की ऐसा कह रही है ,किसने सिखा -पढा दिया , गलत सोहबत मे तो नही पड गयी ।
बहुत सालों तक युनिवर्सिटी आते जाते देखती रही इठलाती लड़कियों को जो पी जी विमेंस मे आकर ठहरती थीं । वे अपने कपड़े खुद खरीदने जातीं , भूख लगने पर और मेस का खाना पसन्द न आने पर अन्य इलाज क्या हो सकते थे वे जानती थीं ,तमाम प्रलोभन सामने होने पर भी वे परीक्षाओं के दिनों मे जम कर पढाई करती थीं ,शहर के किसी कोने मे अकेले आना जाना जानती थीं ।
इधर हम फूहड़ता ही हद थे ।माँ के साथ ही हमेशा कपड़े जूते खरीदे । उन्हीं के साथ हमेशा घूमे । उन्हीं के साथ फिल्में देखीं ।कॉलेज हमेशा एल-स्पेशल से गये । कॉलेज भी एल-स्पेशल ही था । दिल्ली के पॉश इलाके का कॉंनवेंट कॉलेज । सामने भी एल -स्पेशल कॉलेज। नॉन एल-स्पेशल कॉलेज हमारे इलाके से बहुत दूर हटके थे । कोने मे पड़ा हुआ एक ऊंची ठुड्डी वाला कॉलेज जिसमें पढ कर हमने टॉप तो किया पर दुनियादारी में सबसे नीचे रह गये ।

उस वक़त मे हम यह भी सुना करते थे कि हॉस्टल मे पढी लड़की की शादी मे भी अड़चन आती है।भावी ससुराल वाले समझते हैं कि ज़रूर तेज़ तर्रार होगी वर्ना इतनी दूर आकर हॉस्टल मे कैसे रह पाती?शादी के बाद सबको नाच नचा देगी।
वह यही चाहते है कि लड़कियाँ दबें,वे झुकें,वे मिट जाएँ ॥ मै सोचती हूँ कि बिगड़ना लड़की के लिए कितना ज़रूरी है और तेज़ तर्रार होना भी।आत्मनिर्भरता की जो शिक्षा हॉस्टल मे रहते मिल जाती है वह झुकने और मिटने दबने नही देती।।माहौल थोड़ा बदला है शायद घर की घुटन और हॉस्टल की आज़ादी में अंतर कम हो गया है । पर अब भी बाहर से आयी लड़कियाँ यहाँ ज़िन्दगी के कड़े पाठ सीख रही हैं । उन सी आत्मनिर्भरता हममें अब जाकर आयी है , यह देख ईर्ष्या होती है । घर से दूर अकेले ,अनजान शहर में रहना और आना-जाना जो विवेक पैदा करता है वह सीधे कॉलेज और कॉलेज से सीधे घर वाली लड़्कियाँ शायद ही वक़्त रहते सीख पाती हैं ।

आज से दस साल पहले के मुकाबले आज दिल्ली जैसे शहर का वातावरण कहीं अधिक उन्मुक्त है।लेकिन इस उन्मुक्ति के आकाश में क्या वह आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान सच में दमक पाया है जिसकी मुझे हरदम उम्मीद है? जो उन्मुक्त हैं वे बेहद हैं केवल वर्गीय अंतर के कारण।साथ ही इस स्वतंत्रता मे समझ और सोच भी शामिल है इसका मुझे कुछ सन्देह है।
जो बन्धी थीं वे अब भी बन्धी हैं।रोज़ के समाचार उन्हें और डराते हैं।जो सचेत हुई हैं वे अब भी बहुत कम हैं!लड़की न जाने इस वंडरलैंड में कब तक भटकती रहेगी और अपनी पहचान खोज पाएगी !

Saturday, February 14, 2009

प्यार करने वाले कभी डरते नही,जो डरते हैं वो ...


जी हाँ , शायद वैलेंटाइंस डे का रंग है यह, मैने कभी नही मनाया, पर आज मनाने का मन है।जाती हूँ गुलाब खरीदने।पर पहले दो लाइने लिख दूँ।सोच रही हूँ,प्यार पर कुछ कहने का क्या हक बनता है जबकि इस एक नाम के मायने हर एक के लिए अलग अलग हो जातें हों।इसलिए प्यार क्या है पर नही कहना ही सब कुछ कह देने जैसा है।'ये भी नही,ये भी नही'करके शायद कोई उस तक पहुँच पाए।
शायद यह आश्चर्य की बात नही कि समाज फिल्मों मे प्यार करने वालों को जुदा होते देख जितना रोता है उतना ही खफा होता है जब यह सीन अपने घर मे देखने को मिल जाए। कत्लो गारत मच जाती है,लड़के-लड़कियाँ सूली से लटका दिए जाते हैं,राजवंशों के प्रेम की बात तो बिलकुल ही नही करूंगी।ऑनर किलिंग्स और इमोशनल ब्लैकमेलिंग पर केन्द्रित है मेरी दृष्टि।
ऐसा क्या है कि हमारा समाज प्यार का समर्थन नही करता लेकिन विवाह का पूरा पूरा समर्थन उसे प्राप्त है चाहे वह विवाह पीड़ादायक ही क्यो न हो, उसे निभाए चले जाना बहुत ज़रूरी बना दिया जाता है।अगर मै प्यार की फितरत पर जाऊँ तो बात कुछ समझ मे आती है।प्रेम अपने मूल स्वरूप मे आपको आज़ाद करता है, हिम्मत देता है,बहुत बार बागी बना देता है,अपनी ख्वाहिशों के प्रति सचेत करता है,और अकेलेपन की चाहत रखता है।
इसके ठीक विपरीत विवाह बान्धता है,उलझाता है,सामाजिक सुरक्षा सबसे ऊपर होती है,घरबारी आदमी पंगा नही लेना चाहता,समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहता है,ख्वाहिशों का केन्द्र बदल कर "अन्य" हो जाताहै,और विवाह हमेशा सार्वजनिक उत्सव की तरह मनाया जाता है और यह दखलान्दाज़ी ताउम्र चलती रहती है।
विवाह संस्थाबद्ध है तो प्रेम व्यवस्था-भंजक है।प्रेम एकांत है विवाह सामाजिक स्वीकृति है।शादी के नियम हो सकते हैं,प्यार का कोई रूल नही।

प्रेम और विवाह के इस मूल स्वरूप को समझ लेने के बाद साफ हो जाता है कि कोई भी मॉरल-सेना क्यों प्यार का विरोध करती है।प्यार आज़ाद करता है और हम आज़ाद ही तो नही होने देना चाह्ते।इसलिए आस पड़ोस ,घर परिवार नाते रिश्तेदारों से लेकर सभी प्यार के विरुद्ध अपने अपने बल्लम उठा कर खड़े दिखाई देते हैं।

समाज और व्यक्ति का यह द्वन्द्व हमेशा चलता रहता है और समाज दण्ड और पुरसकार की नीति अपना कर हमेशा ही व्यक्ति को नियंत्रित करने के प्रयास मे रत रहता है।यह दण्ड कंट्रोल करने वाले ग्रुप की समझ के मुताबिक घर-
निकाला भी हो सकता है,जायदाद से बेदखली भी हो सकती है,मौत भी हो सकती है या पार्क बेंच पर बैठा देख शादी करवा देना भी हो सकता है।
मुझे यह कहने मे कतई शक नही कि हमारा समय और समाज प्रेम विरोधी है,इसलिए मुझे हैरानी नही कि बहुत से माता-पिता वैलेंटाइंस डे की खिलाफत से प्रसन्न दिखाई दे रहे हों और मन ही मन मे राम सेना की जयजयकार भी कर रहे हों।प्यार अच्छा है, पर कहानियों में.....जिन्हें पीढी दर पीढी सुनाया जाए हीर-रांझे, सोनी-महिवाल की दुखांत गाथा के रूप मे अवास्तविक स्वप्नलोक की सूरत देकर।और सीख दी जाए हमेशा राम-सीता के वैवाहिक प्रेम के आदर्श की,प्रेम निवेदन पर जहाँ काट दी जाए नाक किसी स्त्री की।

Friday, February 13, 2009

यारी टुटदी है तो टुट जाए...

अशोक कुमार पाण्डेय said...
अरे अविनाश जी
विगत दस पान्च सालो का एक गाना बताइये जो स्त्री विरोधी ना हो!
फ़िल्म अब बाज़ारू माध्यम है और बाज़ार के लिये औरत की देह एक सेलेबल कमोडिटी तो और उम्मीद क्या की जाये।

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यूँ मै भी सहमत हूँ कि पंजाबी मे इस तरह की प्रेमभरी झिड़की लड़के लड़कियों को दी जाती है,मोए,मरजाणे,फिट्टे मूँ वगैरह वगैरह ....गाना लोकप्रिय हो रहा है...
पर फिलहाल मै सोच रही हूँ कि एक गीत कम से कम बॉलीवुड मे ऐसा है जो स्त्री विरोधी नही सुनाई देता, हालाँकि देखने से गीत मे हलकापन आता है पर सुनने पर यह किसी चोखेरबाली के शब्द प्रतीत होते हैं।हमारी तो बिन्दिया चमकेगी और चूड़ी खनकेगी , आप दीवाने होंते हों तो होते रहिए हम अपना रूप कहाँ ले जाएँ भला!!हम तो नाचेंगे आप नाराज़ होते हों तो हों!जवानी पर किसी का ज़ोर नही,इसलिए लाख मना करे दुनिया पर मेरी तो पायल बजेगी,मन होगा तो मैं तो नाचूंगी, छत टूटती है तो टूट जाए।और उस पर भी गज़ब लाइने यह कि - मैने तुझसे मोहब्बत की है, गुलामी नही की सजना ,दिल किसी का टूटे चाहे कोई मुझसे रूठे मै तो खेलूंगी , यारी टुटदी है तो टुट जाए।जिस रात तू बारात ले कर आएगा , मै बाबुल से कह दूंगी मै न जाऊंगी न मै डोली मे बैठूंगी , गड्डी जाती है तो जाए।फिल्म के सन्दर्भ से परे हटाकर ,एक प्रेमी को प्रेमिका की यह बातें कहते सुनें तो मुमताज़ चोखेरबाली ही नज़र आएगी।

आप सुनिए और बताइए -

Thursday, February 12, 2009

पिंक चड्डी - बहस का फोकस तय कीजिए

पिंक चड्डी का आह्वान सैंकड़ों कमेंटस दिला सकता है खास तौर से जब आपका ध्यान पिंक चड्डी का आह्वान करने वाली एक स्त्री पर केन्द्रित हो।पितृसत्तात्मक मानसिकता के आगे क्या रोचक बिम्ब उजागर होता होगा यह कल्पना करके? इसलिए सूसन की हिमाकत पर कीचड़ उछालना-उछलवाना ज़रूरी है जो उस बिम्ब का इस्तेमाल आपको शर्मिन्दा करने के लिए कर रही है जिसकी कल्पनाओं मे कभी किसी पुरुष ने ब्रह्मानंद की प्राप्ति की हो।आफ़्टर आल रात के दो बजे किसी बार मे पिंक चड्डी पहन नाचने वाली लड़की को झेला (एंजॉय)किया जा सकता है, मुँह पर तमाचे की तरह आ पड़ने वाली पिंक चड्डी का सामूहिक विरोध स्वरूप उपहार भेजने वाली को कैसे सहा जा सकता है?मेरी दिली इच्छा है कि टिप्पणी कार वाला काम करके सभी कमेंट्स को यहाँ चेप दूँ पर वही जाकर पढ लें , मै अपनी बात कहूंगी,यह काम टिप्पणीकार के लिए ही छोड़ दूँ।

यह पोस्ट देखी और इस बात से कतई हैरान नही थी कि पिंक चड्डी आह्वान के पीछे की ऐतिहासिक गतिविधियों को किनारे पर धकेल कर भ्रष्ट होती स्त्रियाँ और भ्रष्ट होते स्त्री आन्दोलन पर ही बहस होने वाली है क्योंकि शायद वहाँ पोस्ट का फोकस ही यह था।
मै समझना चाहती हूँ कि पिंक चड्डी की ज़रूरत क्यों आ पड़ी होगी?

पिंक प्रतीक है - स्त्रैण का ।
चड्डी और वह भी जनाना - प्रतीक है स्त्री की प्राइवेट स्पेस का।


अब देखिए -
पब मे दिन दहाडे(रात के दो भी नही बजे थे)आप लड़कियों को खदेड़ खदेड़ कर मार मार कर चपत घूँसे लगा लगा कर और दुनिया भर के पत्रकार बुला कर उनके सामने अपने शौर्य का प्रदर्शन कर रहे हैं।किसी स्त्री के अंग को आपको हर्ट करने , छूने का अधिकार किसने दिया? उसके इस प्राइवेट स्पेस मे दखल देने का अधिकार आपको किसने दिया?उन लड़कों को मैने पिटते नही देखा जो उस वक़्त साथ थे।यह कितना अपमानजनक था किसी स्त्री के लिए एक सभ्य मनुष्य़ समझ सकता है।
अगर दुनियावाले लड़कियों मे यह डर बैठाना चाहते हैं कि रात को दो बजे घूमोगी तो हम तो रेप ही करेंगे तो मुझे लगता है कि अहिंसात्मक विरोध के लिए प्राइवेट स्पेस के प्रतीक के रूप मे पिंक चड्डी से बेहतर विकल्प नही हो सकता,जबकि इस लोकतांत्रिक देश की सरकार मुतालिख जैसों को कानून के साथ खिलवाड़ करने की छूट दे रही हो और हर गली नुक्क्ड़ पर दो चार संस्कृति के स्वयमभू ठेकेदार लड़कियों का राह चलना दूभर कर दें और हम मे से कोई किसी एक स्त्री की फजीहत करते हुए उसके मोबाइल का नम्बर बांटने लगें।

कुछ लोग इंतज़ार मे है कि देखते हैं कौन शर्मिन्दा होता है - मुतालिख या निशा सूसन ?

इस प्रश्न मे निहित है कि वे मान कर चल रहे हैं कि इस मुद्दे मे उनका कोई कंसर्न नही , वे तमाशबीन की तरह केवल और केवल सूसन के शर्मिन्दा होने की बाट जोह रहे हैं।भई, स्त्री अपनी चड्डी भेजेगी तो शर्मिन्दा उसे ही होना चाहिए न !!

जो समाज जितना बन्द होगा और जिस समाज मे जितनी ज़्यादा विसंगतियाँ पाई जाएंगी वहाँ विरोध के तरीके और रूप भी उतने ही अतिवादी रूप मे सामने आएंगे।सूसन के यहाँ अश्लील कुछ नही, लेकिन टिप्पणियों मे जो भद्र जन सूसन पर व्यक्तिगत आक्षेप कर रहे हैं वे निश्चित ही अश्लील हैं।मुझे लगता है यह तय कर लेना चाहिये कि इस बहस का फोकस क्या है , सूसन या रामसेना या पिंक चड्डी या स्त्री के विरुद्ध बढती हुई पुलिसिंग और हिंसा।

या चड्डी निर्माता और चड्डी विक्रेता या तहलका ।

बड़ा मुद्दा क्या है ? असल मुद्दा क्या है?