Monday, July 2, 2007

कॉफी सुन्दर और सजीली ...और हमारी फूहडता


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी




दो चीज़े है जिनमे‍ हम फूहड ही रह गये । एक है पीना और दूसरा तकनीक ।
काकटेल के बारे मे जब समीर जी की पोस्ट पढी तब भी बडी ग्लानि हुई ।हमे तो सीधी –साधी शराब ही समझ नही आती काकटेल जैसा गडबड झाला क्या खाक समझ आता ? जिन्हे पीने की तमीज़ न हो उनसे पीने के विषय मे‍ बात करना अइसा ही है जैसा कि फुरसतिया जी को अपनी व्यस्तताओ‍ के बारे मे बताना :)
पीने की अनपढता हमे काफी पीने मे भी है यह पिछली ब्लागर मीट मे अमित से मिलकर लगा । । आज तक बस दो ही कॉफी जानी है –अच्छी कॉफी / बुरी कॉफी ।{ वैसे कैफे कॉफी डॆ का बिना पानी वाला वाश रूम भी हमे भूला नही है । अगली मीट पास आ रही है इस लिए नॉस्ताल्जिया हमारे जिया मे हिलोर ले रहा है }
पहले सोचते थे कि काफी की बारीकियों को जाने बगैर भी मै खुशहाल जीवन जी पा रही हूँ तो।सैकडो लोग जी रहे हैं ।ज़िन्दगी पहले ही उलझी पहेली है ;मुई कॉफी भी इस घाल मेल मे शामिल हो गयी तो जीना दुश्वार हो जाएगा । अमूमन हम ऐसे तर्क अपनी अज्ञानता या आलस्य को छुपाने के लिए गढ लेते है । सो प्रमादवश हमने कभी शराब और कॉफी की किस्मों और उन्हे पीने की तहज़ीब पर कभी गौर नही फरमाया था । इसी का नतीजा एक दिन भुगत लिया । ठंडी के मौसम में कॉफी पीने की हुडक उठी । कैफ़े कॉफी डॆ पहुचे । कॉफी मांगने पर पूछा गया “कौन सी कॉफी ?” सवाल जटिल था ।एस्प्रेस्सो कुछ सुना सुना नाम था सो मांग ली हमने ।हमारी भोली सूरत पर कॉफी डे वाले को तरस आया और उसने पूछ डाला “आर यू श्योर मैम ?”
हमने भी अकड कर कहा “येस” और उसकी तरफ तुनक कर देखा । हँह ! जैसे हमे इतना भी नही पता कि एस्प्रेसो किस चिडिया ...कॉफी ..का नाम है । वह खीसे निपोरते गया और वापस आया । हाथ मे छोटी सी प्याली ,आधी भरी हुई एक काले ,गाढे , कडुवे द्रव्य से । बस क्या ? काटो तो खून नही । या खुदा ! आज 50 रु. मे ऐसी कॉफी लिखी थी नसीब में क्या यही है तेरी भक्ति का फल ?! अबोध ,मासूमो के लिए यही है तेरा न्याय ? तो ठीक है । हम उपहास स्वरूप दी हुई तेरी चीनी भी ठुकराते हैं । हा !! हमने चीनी का पाउच डाले बिना ही वो ज़हर का प्याला दो बडे घूंटो मे खाली किया और 50 का पत्ता साफ करवा कर फूट लिए वहा से ।अब उतने अबोध तो नही रहे पर फिर भी अपने हाथ की बनी, कम चीनी वाली नेसकाफे ही हमे भाती है।
आज फिर से हमे हमारी कॉफी अज्ञानता बडी शिद्दत महसूस हुई जब सजीली और सुन्दर कॉफी प्रतिबिम्ब पर रखी देखी । न जाने किन सामग्रियो और विधियो का वर्णन किया है अमित जी ने । वे कौन से नट्स है ? हा हेज़लनट्स आप कहोगे आप खुद ही नट्स हो जी । तो नट्स तो हम है ही । कॉफी वाले न सही ।हमारा तो जीना ही व्यर्थ जा रहा है ।हमे तो बस यही साधु वाणी याद आ रही है ---- जनम तेरा ब्लॉगिंग ही बीत गयो , रे तूने कबही ना कॉकटेल पीयो ,रे तूने कबही ना कैपेचिनो पियो .....रे साधो !!!!
कॉफी का प्याला प्रतिबिम्ब से साभार !

तकनीकी फूहडता पर नही लिख रहे है वामे हमारी फूहडता का परमान हमरा बिलाग है ही न!

7 comments:

Udan Tashtari said...

लिखा तो बढ़िया है. बस यही कहेंगे मौके लगते रहेंगे..आँख खुली रखो, सीख ही जाओगी..अब एस्प्रेसो न आर्डर करना सीख ही लिया आखिर...अरे, मजाक कर रहा हूँ, जी. ये लो स्माईली. :) जब नया नया यहाँ आया था..तब इस एस्प्रेसो को नहीं जानता था..हमें तो वो शादी में एस्प्रेसो मशीन से झाग वाली याद थी तब आर्डर करके किसी तरह गले उतारी थी. अब नहीं करता, इस विषय में ज्ञानी हो गया हूँ. :)

Anonymous said...

सब ट्राई करने से ही आता है जी, मैं भी इस दौर से गुज़रा हूँ। लेकिन पिछला वर्ष मेरे जीवन में काफी इंकलाबी रहा है, घर से बाहर जितना निकला हूँ उतना पहले कभी नही निकला, बरिस्ता और कैफे कॉफी डे से भी पिछले वर्ष ही परिचित हुआ था और अब जब उनकी लगभग सभी कॉफी चख ली हैं तो अपनी पसंद बन गई हैं उनमें से एकाध बेहतरीन कॉफी!! :)

मसिजीवी said...

न जी ये लोग बिन बात बहका रहे हैं। ऐसे ज्ञान की कोनो जरूरत नहीं है- वो नेस्‍कैफे वाला तरीका ठीक है- चीनी में घोटो और पानी या दूध मिलाकर पीओ और पिलाओं।
वेसे भी ज्ञानी बनने की ठान ही ली है तो कॉफी से ही बनोगी...
रही कैफे काफीडे की बात तो मीट वाले दिन से पहले ही अमित सबको सूचना दे दंगे कि अपना पानी का डब्‍बा लेकर आना है या वहॉं पानी मिल जाएगा।

Arun Arora said...

जी धन्यवाद,ज्ञान चक्षु खोलने के लिये,अब हम काफ़ी काफ़ी लेकर आयेगे,ताकी जिअतनी देर रुके पी सके,पर मसीजीवी जी ये पानी का डिब्बे वाला काम तो हम सुबह ही कर लेते है ,दिन मे बोतल ही बहुत रहेगी,क्या काफ़ी मे पानी मिला कर कोई काकटएल बनवाने वाले है क्या..?

tejas said...

आपने काफी का जिकर किया तो मुझे अहसास हुआ कि मैं अभी जिस शहर में हूं, उस शहर के लोग इस पेय पदार्थ के दिवाने हैं । विश्व के सबसे प्रसिध्द दो केफ़े यहीं से शुरू हुये हैं। मुझे भी कभी कभी मजबूरी में इसे पीना पडता है तो जब से पन्क्ति में खडे होते हैं तब से लेकर जब तक कप लेकर बाहर नही आ जाते, तब तक लगता है कि कहीं किसी को हमारे अग्यान का पता न चल जाये। मेरे कयी मित्रों का यह पेय धर्म है तो मेरी सम्वेदन्शीलता आडे आ जाती है, नही तो पूछने की इच्छा होती है कि “क्या है इस मरी काफी में?”

Anonymous said...

हम भी आप जैसे अज्ञान वालो में शामिल है. ये तो अच्छा हुआ आपने बता दिया की एक्सप्रेशो ऐसी होती है वरना दिल्ली मीट में यही नाम पहचाना सा जान ओर्डर मार देते. बचा लिया आपने. तभी कहते है ज्ञानियों की संगत में रहना चाहिए.

Unknown said...

kya bakwaas hai............