Wednesday, July 4, 2007

टुईयाँ गुईया ढेम्पूला की चुईयाँ

बच्चा शब्दों से खेलता है ,अपने अनुभवों को प्रस्तुत करता है ,पडताल और तर्क करता है।
पैदाहोने के साथ ही भाषा से उसका परिचय होता है ।शुरु शुरु मे बोली जाने वाली जितनी भी ध्वनियाँ और शब्द होते है ;उनका अर्थ भले ही वह न जाने पर धीरे धीरे उसके लिए वे महत्वपूर्ण हो जाते है ।और अनुभावों के साथ साथ उसका भाषा का दायरा भी बढता है और लचीलापन भी आता है ।वह भाषा के मामले में प्रयोगशील होता है । आप उसे कविता सिखाएँगे ---
Papa darling ,mamma darling ,
I love u
See your baby dancing
Just for you…
-वह अगली बार उसमे खुद से जोड देगा
papa darling, mamma darling,maasi darling , anupam darling ,nani darling
I love you…..
तो जितने भी सम्बन्ध उसे प्रिय हैं वह उन सब को लाएगा कविता के बीच ।यह जुडाव है ,अभिव्यक्ति है ,भावनात्मकता है । पापा का चश्मा गोल गोल की जगह जब मैने एक बच्चे को पापा का चश्मा रेक्टैंगल [पिता का चश्मा वाकई आयताकर लेंस वाला था ] कहते सुना तो समझ आया कि भाषा उसके लिए तर्क भी है । वह रेक्टैंगल शब्द से परिचित न होता तो यह तर्क नही कर सकता था ।
तुतलाने वाले बच्चे के लिए भी भाषा और ध्वनियाँ तक भी खेलने खुश होने का साधन है ।वे अपने मन से कुछ भी अटपटा गाते कहते हैं ।ऐसे ही बच्चे जो अभी भाषा और अर्थ नही जानते ,बस ध्वनि से हुलसते है ,के लिए एक कबीलाई लोकगीत प्रस्तुत है जिसका अर्थ उनके लिए महत्वपूर्ण नही । यह उनके खेलने और खिलखिलाने का गीत है जैसे – अक्क्ड बक्कड बम्बे बो ,.......सौ मे लगा ताला चोर निकल के भागा।
लोकगीत और विस्तार से पोस्ट पढने के लिए बाल उद्यान पर जाइए जिसका अभी नारद पर पन्जीकरण नही हुआ है ।कल ही गिरिराज जोशी जी ने हमसे यहा लिखने को कहा तो हमने सोचा कि आप सब इसे पढ पाए और प्रतिक्रिया दे सके ।

3 comments:

हरिराम said...
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हरिराम said...

हिन्दी में ऐसे बाल-साहित्य की कमी बहुत खलती थी। और विशेषकर इण्टरनेट पर उपलब्ध कराकर स्तुत्य प्रयास किया है। धन्यवाद!

Udan Tashtari said...

सार्थक प्रयास-बहुत आवश्यक्ता थी इसकी-साधुवाद!! :)