Saturday, July 21, 2007

पुल के नीचे

अगर मै गलत नही हूँ तो सुदर्शन की कहानी ही है “हार की जीत” ,बचपन मे पढा करते थे ।बाबा भारती का घोडा सुल्तान जिसकी चाह्त मे था डाकू खडक सिँह ।वह कहानी एक कारण से हमेशा याद रह जाती है ।कोढी,भिखारी के भेस मे खडक सिँह जब बाबा भारती को चकमा देकर सुल्तान को ले भागता है तो बाबा कहते है –“मेरी एक विनति सुनते जाओ ! जो तुमने मेरे साथ किया उसका ज़िक्र किसी से न करना । वर्ना लोग किसी असहाय की मदद करने से कतराएँगे ।“ लेकिन खडग सिँह ने किसी से कहा या नही यह तो नही बता सकती लेकिन यह सबको मालूम हो गया जाने कैसे ।आज हम किसी की मदद करने से पहले सौ बार सोचते है ,कोई पतली गली ढूँढने लग जाते हैं।एक किस्म के लोग इस द्वन्द्व में पडते ही नही ।उनकी बहुत स्पष्ट सोच होती है ।एक तीसरी किस्म के लोग ऐसे दृश्य सिर्फ फिल्मो मे ही देखते हैं ।उनकी गाडी कभी उन मोडों से नही गुज़रती जहाँ भिखारियों के झुण्ड हैं ।एक किस्म और है उन लोगों की जो भीख देकर अपने कद को थोडा और बढा महसूस करते हैं ।
दिल्ली के अधिकतर ट्रैफिक सिग्नल भिखारियों के किसी न किसी गिरोह के इलाकें हैं जिनकी हदें और लक्ष्य साफ तौर पर निर्धारित हैं ।मै भयभीत रहती हूँ जब मूलचन्द की रेड लाइट पर रुकते ही दो औरतें गोद में नवजात शिशु और एक हाथ में दूध की मैली –गन्दी-खाली बोतल लिए ,भावशून्य चेहरे के साथ बुदबुदाती हुई तब तक खडी रहती है जब तक आप उसे वहाँ से हट जाने को कह न दें ।इनमें एक को उसकी गर्भावस्था से ही देख रही हूँ ।वह सडक से एक हफ्ता गायब रही ।वापस लौटी एक नन्ही जान के साथ।हैरानी तब होती है जब हरी बत्ती होते ही आप इन्हे लडते-खिलखिलाते अपने अड्डों की ओर लौटते हुए देखें।मै मूलचन्द के इस चौराहे पर रुकने से घबराती हूँ ।मेरे सामने वे नवजात शिशु जो पैदा हो रहे है और सहज ही भिखारियों की नई पीढी मे शामिल हो रहे है :कुपोषित ,सम्वेदना से रहित ,इज़्ज़त और नैतिकता की अवधारणाओं से नितांत अनजान्,विकास की किसी मुख्यधारा मे समाहित हो सकने के किसी भी सम्भावना से परे ,अपराध की ओर प्रेरित ,भूख के दायरे मे सोचने वाले और समाज को गाली भरी नज़रों से घूरते हुए ।शहर के भूगोल मे पुलों के नीचे बसी यह “गन्दगी" दिल्ली के सिटी ऑफ फ्लाईओवर्स बनने के साथ साथ एक और समानांतर सिटी की रचना कर रही है जिससे हम बचना चाह्ते है ,जिसे देखते ही हम चेहरे सिकोड लेते हैं । कुछ समय पहले चित्रा मुदगल की कहानी “भूख” पढी थी :मार्मिक ।रोंगटे खडी करने वाली ।एक असहाय स्त्री जिसके पास एक नवजात शिशु के अलावा दो और बच्चे, अस्पताल मे पडा घायल पति है और रोज़गार का कोई ज़रिया नही क्योंकि गोद के बच्चे वाली स्त्री को कोई काम कैसे दे ।वह एक ऐसी स्त्री को अपना बच्चा दिन भर के लिए उधार देती है जो भिखारिन है ।भिखारिन माँ को आश्वासन देती है कि बच्चे को वह दूध देगी ।लेकिन पेट भरेगा तो बच्चा रोएगा कैसे ।वह रोएगा नही तो साहबों के दिल कैसे पिघलेंगे ।सो दिन भर् वह भिखारिन बच्चे को भूखा रख कर रुलाती और पैसे मांगती ।बच्चे की माँ मजदूरी करके घर मे बाकी बच्चॉ के लिए भोजन जुटाती ।शाम को भिखारिन जब बच्चा लौटाती तब तक वह रो रोकर थक चुका होता और अक्सर सो जाता । एक दिन वह बच्चा लौटा कर जाती है रोती हालत मे ।माँ नही जानती कि वह भूखा है। वह भात की पतीली की ओर बढता है तो वह उसे चंटा देती है ।कई दिन के भूखे शिशु का शरीर सह नही पाता । वह उसे अस्पताल लेकर दौडती है ।लेकिन व्यर्थ!डाक्टरनी कहती है –“बच्चे को भूखा रखती थी क्या ? उसकी आंते चिपक गयीं ,सूख गयीं ।मार दिया भूखा रख -रख कर ।“
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“भिक्षावृत्ति “यानी भीख मांगना एक पेशा है ।अधिकतर् भिखारी पेशेवर भिखारी हैं और उनके इस पेशे में एक टूल की तरह इस्तेमाल होने वाली मानवीय सम्वेदनाएँ हैं । सवाल बहुत बडे बडे हैं जिन्हे हम उठने ही नही देते। भीख देकर हम वहीं कर्तव्य समाप्त समझते हैं :फिर चाहे वह भीख देने वाले हम हों या खुद सरकार ।राज्य की ज़िम्मेदारी यहाँ समाज की ज़िम्मेदारी से ज़्यादा बडी है ।
कफन “के घीसू-माधव जैसों के बारे में सोचने की प्रक्रिया शुरू करने का जो बीडा प्रेमचन्द ने लिया वह चित्रा मुदगल तक आते आते एक बडी सच्चाई हो जाता है ।लेकिन व्यवस्था वहीं की वहीं है ।समाज और राज्य की संरचना में ये हाशिये पहले से भी ज़्यादा उभर कर दिखाई दे रहे हैं । मानवीय सम्वेदनाएँ खो रही हैं दोनो ओर – भीख मांगने वालों मे और देने वालों में ।‘कफन’ में प्रसव पीडा में माधव की पत्नी का कोठरी मे उपेक्षित रह कर दम तोडना और बाहर बैठ कर बाप-बेटे का आलू भून -भून कर खाना ,इस डर से उठ कर अन्दर बहू के पास न जाना कि कही दूसरा ज़्यादा आलू न खा जाए -----एक ऐसा घृणित चित्र उभारता है कि पाठक हतप्रभ और अवाक रह जाने के अलावा कुछ सोच नही पाता ।यहाँ मानवीयता शर्मसार होती है ;राज्य –समाज और व्यवस्था प्रश्नचिह्नित होती हैं।प्रेमचन्द लिखते हैं---“जिस समाज में रात –दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी [घीसू-माधव] हालत् से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे ,कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे ,वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी “

जिस समाज और व्यवस्था मे “मजूरी कोई करे और मज़ा कोई और लूटे “वाली स्थिति होगी वहाँ पेशेवर भिखारी और घीसू-माधव कैसे न होंगे ।

13 comments:

विजेंद्र एस विज said...

हाँ..यथार्थ है..जिससे हम सभी रोज रूबरू होते है..कही भी किसी भी लाल बत्ती पर..विषय अच्छा है..गहरा चिंतन है..वाकई हैरानी होती है जब बत्ती हरी होने पर यह लोग आपस मे लडते हसते अपनी झुग्गियो की ओर भागते है..अपने नवजातो का इस्तेमाल बखूबी करते है..कुछ समझ नही आता..हमेशा बच्चो का हाथ जला..माथा फूटा हुआ..खून टपकता रहता है...जाने कैसी अदाकारी है उनकी या कोई हकीकत...
एक कविता लिखी थी "लाल बत्तियोँ मे साँस लेता एक वक्त" http://vijendrasvij.blogspot.com/2007/06/blog-post_29.html
समय मिले तो पढियेगा.

काकेश said...

अच्छी खबर ली आपने.

राज भाटिय़ा said...

सुजाता जी,बात आप ने लाख टके की हे,खड्ग सिह को तो शर्म आ गई थी,लेकिन आज कितने खड्ग सिह हे आप्नो के रुप मे,?????

note pad said...

विजेन्द्र जी आपकी कविता पढी ।सुन्दर है।वाकई यह वक्त कभी नही बदला।

ePandit said...

आप इतना संवेदनशील भी लिखती हैं मालूम न था, अब तक तो मैं आपको बस व्यंग्यदार लेखन के लिए ही जानता था।

Arun Arora said...

संवेदनाये भी मर जाती है,शमशान के पंडो की तरह. ये सब ड्रामा कर रहे है और इसी वजह से कभी किसी को वाकई जरुरत होती है और वो ....

Sagar Chand Nahar said...

बहुत ही मार्मिक लेख और कहानी भूख के अंश पढ़ने के बाद तो मन बहुत आहत हो गया। हम सब भी इसी हालत के दोषी हैं और भिखारी खुद भी। टिप्प्णी बहुत लम्बी हो सकती है अत: एक लेख लिख दिया है जो संभवत कल तक पोस्ट होगा।

अनूप शुक्ल said...

संवेदनशील् लेख!

Divine India said...

यथार्थ व संवेदनशील रचना…।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

सुजाता जी,
जब बम्बई मेँ थी तब ऐसे ही हर ट्राफिक सिँगनल पे अलग अलग तरह के भिखारीयोँ को देखा था
अब बरसोँ बीत गये ...अमरीका के कुछ महानगरोँ मेँ, "होम -लेस पीपल " दीख जाते हैँ
मानव जाति के पीडीत तबक्के के प्रति आपका लिखा मार्मिक लगा --
सोचना ये है कि, इनकी स्थिती कब सुधरेगी ?
या, सुधरेगी भी या नहीँ ?
स स्नेह,
-- लावण्या

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर लगा यह आलेख पढ़ना. अति संवेदनशील.

mamta said...

आज ही सुबह ऐसी ही एक लाल बत्ती पर एक आदमी छोटे से बच्चे को लेकर जिसका हाथ जला हुआ था भीख माँग रहा था । बड़ी यथार्थ से जुडी हुई कहानियो का आपने जिक्र किया है। ये हालात ना तो पहले बदले और ना ही अब बदले है।

Anonymous said...

वैसे देखने-देखने की बात है....मुझे लगता है...सतह के नीचे उनकी ज़िन्दगी और हमारी ज़िन्दगी में कोई खास फर्क नहीं....जिजीविषा...मानवता...और न जाने क्या-क्या....नंगा करके देखो तो उनमें और हममें कोई फर्क ही नहीं...