कभी पढा था जो राष्ट्र विद्वानों ,कलाकारों और साहित्य कारों को सम्मान नही देता उसका पतन नज़दीक होता है ।बहुत सही बात है । आजकल अकादमियाँ , संस्थाएँ ,चयन समितियाँ ,यही करती हैं । राजा-महाराजा युग में इसका तरीका कुछ और था । मैं कल्पना कर रही हूँ किसी दरबारी सीन की। घनानन्द ने छन्द पढा और राजा ने खुश हो कर सोने के सिक्कों की थैली उछाल दी । महाराज प्रसन्न हुए !! या मुगले-आज़म का सीन । अनारकली ने नृत्य पेश किया और बादशाह सलामत ने खुश होकर बेशकीमती हार उछाल दिया ।
कहने को सामंतवाद देश से जा चुका है । लोकतंत्र है । शासक नही हैं हमारे प्रतिनिधि हैं । ऐसे में आप यदि राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर हैं और समृद्ध व सम्मानित व्यक्ति हैं और आपको कोई कविता भावविभोर कर जाती है तो आप उस अति भावुक क्षण में क्या करेंगे ?
कवि को गले से लगा लेंगे ?आपकी आंखें नम हो जाएंगी ? अब भी सुनते हैं लता मंगेशकर को 'ए मेरे वतन के लोगों....' गाते सुन पंडित नेहरू की आंखें भीग गयी थीं ।
ऐसा ही भावुक क्षण तब आया जब सुलभ शौचालय की 30 महिला कर्मचारियों का एक दल जो यू एन रवाना होने वाला है , राष्ट्रपति से मिलने पहुँचा और उनमें से एक लक्षमी नन्दा ने अपनी एक कविता 'पतन से उड़ान की तरफ' का पाठ किया । कविता एक महिला सफाई कर्मचारी के उत्थान की बात कहती थी जिसे सुनकर राष्ट्रपति इतनी भावविभोर हुईं कि तत्काल 500 रुपए का नोट निकाल कर लक्ष्मी को थमा दिया ।लक्ष्मी अति प्रसन्न थी । यह उसके लिए एक बेशकीमती नोट था जिसे वह कभी खर्च नही करेगी । निश्चित रूप से वह 500 का नोट एक टोकन था ,कोई बहुत बड़ी राशि नही थी । और लक्ष्मी भी उसे किसी स्मृति चिह्न की तरह ही सम्भाल कर रखेगी । पर मुझे अब भी यह सामंती अदा परेशान कर रही है । राष्ट्रपति उठ कर सफाई कर्मचारी लक्षमी को गले से लगा लेतीं तो उनका सम्मान मेरे मन में कई गुना बढ जाता । पर खुश होकर या भावुकता के क्षण में जब आपके विशिष्ट ,ज़िम्मेदार हाथ जेब से कुछ निकालने को आतुर हो जाएँ तो मेरे लिए यह निश्चित ही -जहाँपनाह खुश हुए ....! वाला सामंती अन्दाज़ ही है ..अखबार जिसे अनबिलीवेबल , हार्ट्वार्मिंग ,ब्रेथ टेकिंग घटना कह रहे हैं ....
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10 comments:
आपकी बात सही है। सामंती भाव अभी हमारे प्रभु-वर्ग के मन से गया नहीं है।
बिल्कुल ठीक कह रही हैं आप।
घुघूती बासूती
ये तो चरित्र है.. प्रतिनिधि खुद को और जनता उन्हे राजा ही समझतॊ है.. तभी तो पांव छुने कि तस्विरे रोज दिखाई पडती है
आपका कहना तो दुरुस्त है.. लेकिन बडो द्वारा दी गयी भेंट को इनाम की श्रेणी में नही रखा जा सकता ये तो आशीर्वाद होता है.. स्कूल में जब मैं टेस्ट में ज़्यादा नंबर लता तो मैडम मुझे चॉकलेट देती थी.. वो सामंती प्रथा नही थी.. उस से मुझे प्रोत्साहन मिलता था.. आपका दृष्टिकोण भी ठीक है.. परंतु ये निर्भर करता है देने वाले की नियत पे.. की वो क्या समझ के दे रहा है..
सटीक मुद्दे पे सटीक लिखा है आपने!
सही-सही.. मौका लगता तो इस अदा पर वारी जाके मैं पलटकर राष्ट्रपतानी जी के हाथ दस का नोट थमाये आता..
नजर न लग जाये राष्ट्रपति जी को..कोई नजर उतार दो उनकी ५० रुपये से. हमारे खाते लिख लेना. :)
सौ फीसदी सहमत हूँ आपकी बात से.......
I liked the way u raised the issue! U deserve five lac rupees for bringing it out of the closet. thanx.
munish ,
when sh d i come to collect my money !!!
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