वह 6 साल का नटखट बालक नही जानता था कि “सस्पेंडिड” के मायने क्या होते हैं| स्कूल से सस्पेंशन और वह भी उस काम के लिए जो उसकी उम्र में नीन्द और भूख जैसी ज़रूरत है , स्वभाव है ।इसलिए बहुत सम्भव है उसके लिए “नॉटी”होने की सज़ा स्वरूप मिला स्कूल से 6 दिन का सस्पेंशन अचानक मिली छुट्टियों से कम मज़ेदार न हो। लेकिन उसका यह भोलापन कुठाराघात का शिकार हो गया है और बचपन की मौज मस्ती काफूर हो गयी है। वह स्थान जिसे अब तक परिवार और मन्दिर की तरह एक पवित्र संस्था मानने की परम्परा है ,जहाँ हम अपने बच्चों को मानवीयता, शिष्टाचार और जीने की तमीज़ सीखने भेजते हैं वही स्थान उस बचपन के लिए कितना खतरनाक और अमानवीय हो सकता है इसके साक्षात उदाहरण हम कई बार देख चुके हैं। टैगोर इंटरनेशनल स्कूल के पहली कक्षा के छात्र लव दुआ के साथ जो हुआ वह एक और घण्टी है उस खतरे की जो स्कूलों मे जाने वाली हमारी नन्ही जानों पर आन पड़ा है।
स्कूल में जब बच्चा पहला कदम रखता है तो उसकी आयु मात्र 3 साल होती है ,वह परिवार माँ-दादी –दादा के संरक्षण और दुलार से पहली बार बाहर निकलता है , उसके लिए सारी दुनिया वयस्कों का बनाया एक ऐसा तिलिस्म होती है जिसमें कब कहाँ हाथ रख देने पर कौन सा खज़ाना खुल जाएगा या कब कौन सी दीवार ढह पड़ेगी या ज्वाला मुखी फट पड़ेगा वह नही जानता । उसके लिए खेल , आनंद ,और शरारत के साथ साथ एक सहज प्रश्नाकुल जिज्ञासा के अतिरिक्त और कुछ समझ आने वाला नही होता। ऐसे में जब स्कूल उस नन्हे जीव को भावनात्मक सुरक्षा देने के स्थान पर दुत्कार , प्रताड़ना और उलाहने देता है तो स्कूल का मतलब ही बदल जाता है।वहाँ जाना भय का पर्याय हो जाता है और छुट्टी आनन्द का।
अभी “तारे ज़मीन पर ” जैसी फिल्में बहुत पुरानी नहीं हुईं जिसे सराह सराह कर अभिभावक-शिक्षक थक नही रहे थे। शारीरिक दण्ड जाने कब से स्कूलों मे प्रतिबन्धित
मैं समझने की कोशिश करना चाहती हूँ उस मनस्थिति को ,उस वातावरण को जिसमें अध्यापक एक दरिन्दे मे तब्दील होता है और स्कूल जेलखाने में।प्रबन्धकों का दबाव, कार्यभार की अधिकता, वेतन की कमियाँ वगैरह । लेकिन किसी भी तरह यह बात समझ नही आ रही कि किसी 6 साल के बच्चे का “नटखट” होना असहज , अस्वाभाविक बात कैसे है।क्या बालपन अपराध है ? दिल्ली और एन सी आर के बहुत से मान्यता प्राप्त स्कूल हमारे अधिकांश बच्चों के साथ यही सुलूक कर रहे हैं। वे न केवल उनके बचपन की हत्या कर रहे हैं वरन उनकी समझ की भी हत्या करके उन्हें वह समझा रहे हैं जो वे समझते हैं कि ठीक है।स्कूल के पहले ही दो-तीन दिनों में नन्हे बच्चे को , जो शिक्षक को अभिभावक से भी बड़ा दर्जा देता है उन्हें समझा दिया जाता है कि तुम मूर्ख हो – कुछ नही जानते – इसलिए चुपचाप सुनना तुम्हारा परम कर्तव्य है।अधिकांश अध्यापक इस समझ के साथ आते हैं कि बच्चा कोरा कागज़ है। शुरुआती दिनों में ही उन पर “स्लो”, “नॉटी”,”सुस्त” “स्मार्ट””डिसलेक्सिक” जैसे लेबल चिपका दिये जाते हैं और बारहवीं कक्षा तक वे अध्यापकों के कवच की तरह काम करते हैं।और हद है कि 12 साल मे बालक की उस प्रवृत्ति मे कोई बदलाव नही होता ।प्रतिस्पर्द्धा की अन्धी दौड़ मे अपने बच्चों को आगे रहने काबिल बनाने के लिए अभिभावक स्कूल के इस व्यवहार से निभाने की भरपूर कोशिश करते हैं।अधिकांश स्थितियों में तो वे इस बात से परिचित भी नही होते कि जो शिक्षण पद्धतियाँ उसके बच्चे के स्कूल में अपनाई जा रही हैं उनमें कहीं गड़बड़ है ।
इसमें कोई शंका नही कि छोटे बच्चे के लिए स्कूल का सबसे बड़ा उद्देश्य होना चाहिये कि बच्चे का स्कूल जाने का मन करे लेकिन अफसोस कि उसी को हासिल करने मे स्कूल असफल हैं । इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि स्कूल में पहुँचते ही बच्चे को भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा का आश्वासन मिले और वह भरोसा करना सीखे । गिजुभाई ने प्राथमिक शिक्षा पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘दिवास्वप्न’ क्यों रखा था यह कुछ कुछ अनुमान होने लगा है।दिनदहाड़े ,खुली आँखों से सपना देखने की हिमाकत करना असम्भव को साकार होते देखने के बराबर है।प्राथमिक शिक्षा को लेकर वे जैसे सम्वेदनशील थे वह अध्यापकों,अभिभावकों व स्कूल प्रबन्धनों के लिए मिसाल होना चाहिये ।पर अफसोस कि शिक्षा जगत प्राथमिक शिक्षा में बच्चे के प्रति सम्वेदनशील होना शायद कभी नही सीख पाया। शिक्षक-प्रशिक्षण के विभिन्न कोर्सों की यह सबसे बड़ी कमी है कि वे अध्यापकों को बालमन और बाल प्रवृत्तियों को समझना ही नही सिखा पा रहे।वे नही सिखा पा रहे कि नटखट होना बच्चे का स्वभाव है, नैसर्गिक प्रवृत्ति है।वे उन्हें पहले दिन से ही प्रौढ बना देना चाहते हैं।
स्कूलों को पहले दिन से ही ट्रेंड बच्चे चाहिये जो अपना काम समय पर पूरा करने , टेस्ट में नम्बर लाने , कक्षा मे चुप बैठने, अध्यापक के कहे को पत्थर की लकीर मानने , और अपनी समझ –सहजता-बालपन का त्याग करके इस दोहे का गूढार्थ समझ लें ।6-7 साल का बच्चा बाहर खुले-खिले बड़े मैदान में तितली को उड़ता देख उसे पकड़ने की बजाए श्याम पट्ट पर लिखी पढाई को टीपे ।जब बच्चे का व्यवहार अध्यापक के अनुरूप नही होता तो उसे अनेक तरीकों से हतोत्साहित किया जाता है।ऐसे में लीक से हटकर चलने वाले बच्चे या तो हतोत्सहित और असहाय महसूस करते हैं या बागी हो जाते हैं ; और उनके बागी स्वभाव को स्कूल व अध्यापक तरह तरह के अपराधों की श्रेणी मे रखकर विचित्र प्रकार के दण्ड की व्यवस्था करता है ।
अब तक की हमारी समाजिक -शैक्षिक अधिगम ने यही सिखाया है कि जो बच्चा जितनी जल्दी व्यवस्था से समझौता कर ले ,अपनी वैयक्तिक विशिष्टताओं को छोड़ एक “यूनिफॉर्मिटी” के तहत भीड़ बन जाए ,उतना ही सफल और सुखी होगा ।“खेलोगे कूदोगे होगे खराब..” जैसी कहावतें सुना सुना कर हमें और हमारे बच्चों को ऐसा भीरू,चुप्पीपसन्द ,कायर और रीढविहीन बना दिया गया है कि हम खुद सवाल उठाए बिना स्कूल के कायदों पर चलने लगते हैं। “करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान” ने घिस-घिस और रट-रट की मानसिकता को बुद्धिमता का पर्याय बना दिया।सवाल उठाने की संस्कृति न हमें मिली , न हमारे बच्चों को मिल रही है। ऐसे में लव दुआ का केस और डराता है कि हर दिन अपने बच्चे को स्कूल भेजते हुए अनजाने भय से रूह काँपती है कि कहीं हमारे दिल का टुकड़ा कैसी कैसी छींटाकशी , पिटाई ,अपमान , भेदभाव और भेद-भाव को सह रह होगा या ईश्वर न करे किसी दिन जीवन भर के लिए किसी भयंकर मानसिक-शारीरिक क्षति का शिकार न हो जाए।
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11 comments:
5 वर्ष तक के बच्चों को खेल खेल में ही शिक्षा देने के लिए नर्सरी और केजी की शुरूआत की गयी , पर अभी वे स्कूल खेल न होकर बच्चों के लिए जेल बन गए हैं।
school buisness ho gaye hain aur student product.ab school,college ke vigyapan chhapne lage hain,kahi ki seva,kahe ka mandir sab dukandaari chal rahi hai,bahut hi sahi likha aapne aapki bebeki ko salam
school buisness ho gaye hain aur student product.ab school,college ke vigyapan chhapne lage hain,kahi ki seva,kahe ka mandir sab dukandaari chal rahi hai,bahut hi sahi likha aapne aapki bebeki ko salam
बहुत ही सुविचारित,सुचिंतित राईट अप ! दरअसल हमारी शिक्षा प्रणाली इतनी दोषपूर्ण है कि कुछ मत कहिये .बाल मन की समझ एक माँ को तो रहती है मगर जैसे ही वह किसी स्कूल ,ख़ास कर मशरूमों की तरह उग रहे पब्लिक स्कूलों की देहरी लाघता है उसका सामना एक नृशंस परिवेश से होता है जो उसकी अभिरुचियों और सृजन क्षमता को समूल नष्ट करने पर उतारू हो रहती हैं -क्या कारण है कि आज भी हम कई क्षेत्रों में दुनिया के सामने लल्लू बने हुए हैं -नोबेल पुरकार निल,पेटेंट अँगुलियों पर ......!
आप की यह पोस्ट बाल मन को लेकर हो रहे तमाम विमर्शों के लिए एक सन्दर्भ आलेख की भूमिका में रहेगी !
स्नेहाशीष -बहुत अच्छा लिखती हैं आप -इसे बनाएं रखें !
स्कूलों में अब स्कूल जैसा कुछ नहीं रहा है. पहले माता-पिता बच्चों को स्कूल में एक अच्छा इंसान बनने के लिए भेजते थे. अब तो माता-पिता इस बात की ही चिंता करते रहते हैं कि बच्चा रोज स्कूल से सही-सलामत घर आ जाए. पहले कहा जाता था कि भगवान किसी को वकील और डाक्टर के चक्कर में न डाले. अब यह भी कहना चाहिए कि भगवान् किसी को स्कूल के चक्कर में न डाले. पर मजबूरी है, जैसे कोई डाक्टर या वकील से हमेशा नहीं बच सकता, बैसे ही कोई स्कूल से हमेशा नहीं बच सकता. पैदा हुआ है तो स्कूल जाना ही होगा और वह सब झेलना होगा जिसकी इस लेख में चर्चा की गई है. बहुत ही अच्छा लेख है यह.
i m impressed. its reallly very good. thoughtfull
Rakesh Kaushik
स्कूल जाना भी डरावना है...
पूरा लेख पढने के बाद मैं सोच में पड़ गया कि जल्द ही इन स्थितियों का सामना मुझे भी करना पड़ेगा। कैसे बचाऊँ बच्चे का बचपन....
प्रभावी एवं विचारणीय आलेख!!
सुजाता जी, वाकई यह तकलीफदेह स्थिति है। यह पंक्ति लिखने के बाद लग रहा है कि तकलीफदेह तो बहुत कोमल शब्द है इस स्थिति के लिए। बहरहाल,गुरु अब रहे कहां? सब तो टीचर हो गए। अध्यापन धर्म अब कहां? यह तो प्रफेशन हो चुका है। तो इन टीचरों के प्रफेशनलिज्म को देखकर (सौ में नब्बे, दस अब भी अपना दायित्व निभा रहे हैं)अब जब मैं हिंदी में टीचर लिखता हूं, तो मुझे लगता है जैसे इस शब्द के आगे फ वर्ण भी होता है, जो साइलेंट हो गया है।
सामयिक चिन्ता...
थोड़े दिनों में टीवी और ट्यूशन दो राहूकेतू और तैयार खड़े है.
थोड़ा और बड़ा होते ही मोबाइल फिर बाइक..
खुदा खैर करे....
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