Saturday, December 29, 2018

इंस्टेंट तीन तलाक़ : बिल का पास होना और मर्दों की हाय-तौबा


तस्वीर द हिन्दू डॉट कॉम से साभार

शाज़िया आले अहमद


टीवी डिबेट में ज़्यादातर मौलाना तलाक़ ए बिद्अत को बुरा मानते और इस बात की पैरवी करते हैं कि इंस्टेंट तीन तलाक़ नहीं दिया जाना चाहिये जबकि मुस्लिम मआशरे की बात की जाए तो ज़्यादातर मुसलमान क़ुरआन के मुताबिक़ तलाक़ के बारे में जानते ही नहीं थे ।


ये अनजाने में नहीं हुआ इसमें एक सोची समझी साज़िश थी औरतों को कण्ट्रोल करने की । क़ुरआन के मुताबिक़ तलाक़ के लिये मुस्लिम मर्दों और औरतों को जागरूक ही नहीं किया गया । भला हो संघियों का जिनकी मुसंघियों से रस्साकशी के चलते मुसलमानों को काफ़ी हद तक क़ुरआन के मुताबिक़ तलाक़ का पता चला ।


बचपन से देख रही हूँ रमजान शुरू होने से पहले सहरी, इफ़्तार के वक़्त की जानकारी के लिये मस्जिदों और दीगर जगहों से कैलेंडर बंटना शुरू हो जाते थे जिनमें रमज़ान से मुताल्लिक़ कुछ दुआएँ भी लिखी होती हैं ।


ये कैलेंडर लग़भग हर घर में मिलेंगे । इसी तरह शबे बारात और बकरीद के मुताल्लिक़ भी पर्चे बांटे जाते हैं जिनमें इबादत का तरीक़ा और क़ुरबानी का तरीक़ा गोश्त की तक़सीम का ज़िक्र होता है । लेकिन आज तक क़ुरआन के मुताबिक़ तलाक़ की जानकारी के लिये किसी मस्जिद, किसी उलेमा, किसी जलसे से, किसी जमात से कोई पहल नहीं हुयी ।



पीस टीवी पर ज़ाकिर नाइक को सुनकर मैंने भी पहली बार क़ुरआन खोलकर देखा उनकी बताई आयतों को देखा जिनमें तलाक़ का ज़िक्र था जो कि व्यवहारिक और बेहतरीन तरीक़ा था, ये 2004 की बात है शायद । इससे पहले मेरी एक कज़िन इंस्टेंट तीन तलाक़ की भेंट चढ़ चुकी थी जो उसके शौहर ने गुस्से और नशे की हालत में दी थी बाद में उसे अपनी ग़लती पर पछतावा भी हुआ इस तरह दो ज़िंदगियाँ तबाह हो गयीं ।
ऐसे हज़ारों किस्से हैं । ये एक सबसे करीबी था इसलिये मेरी बेचैनी, तकलीफ़ भी सबसे ज़्यादा थी ।


दरवाज़े दरवाज़े घुमने वाली जमातों ने भी कभी मुसलमानों को औरतों के हक़ों को लेकर जागरूक नहीं किया नाही तलाक़ का सही तरीक़ा बताया । अक्सर लोग कहते हैं कि गुमराह लोगों तक इस्लाम पहुँचाने में इन जमातों की अहम रोल है जो काफ़ी हद तक सच भी है ।


लेकिन इन अल्लाह के बन्दों को भी औरतों के हुक़ूक़ से कोई सरोकार नहीं रहा । जब मुसलमान औरतों की हालत पर गैर मुस्लिम तंज़ कसते है उस वक़्त ये रटा रटाया जुमला "इस्लाम औरतों को सबसे ज़्यादा हुक़ूक़ देता है ।"  का नारा बुलन्द करते हैं ये जुमला इतना ही झुटा और खोखला है जितना बीजेपी का नारा "महिला के सम्मान में बीजेपी मैदान में " है ।


अगर वक़्त रहते उम्मते मुस्लिमा के अलमबरदार अपनी झूटी अना को किनारे रखकर इंस्टेंट तीन तलाक़ को ख़ारिज कर क़ुरआन के मुताबिक़ तलाक़ को मुस्लिम मआशरे में राइज़ करते तो आज ज़लील ओ ख़्वार न होना पड़ता ।

इंस्टेंट तीन तलाक़ मुस्लिम औरतों पर थोपा जाने वाला सबसे बड़ा ज़ुल्म था जिसकी वजह से कितनी औरतें ज़िंदा लाशों में तब्दील हो गयीं ।



मज़े और हैरत की बात ये है मुर्दा लाशों पर खड़े लोगों ने ज़िंदा लाशों पर खड़े लोगों को इंसाफ और क़ुरआन सिखा दिया ।

अगर पूर्वग्रह को छोड़कर, लोकसभा में स्मृति ईरानी के भाषण की बात की जाए तो बेहतरीन बोली जिसकी वक़ालत की उम्मीद तथाकथित उलेमा सी की जानी चाहिये थी वो एक काफ़िर ( बक़ौल तथाकथित उलेमा) ने की,,,,,,इससे ज़्यादा शर्मिंदगी की बात क्या होगी ।



 शाज़िया आले अहमद दिल्ली की निवासी हैं जो फेसबुक के ज़रिए सामाजिक मुद्दों पर खरी- खरी लिखती रही हैं। मन और पेशे से वे एक शिक्षक हैं। स्थायी पता, लखनऊ।



Wednesday, October 29, 2014

शब्दों से भर जाना ही रीत जाना है।

रीत जाने के दिन
बहुत मुश्किल होते हैं...
कुढे हुए मन होते हैं
मानो वह रहस्य
जो सभी जानते हैं आस पास
और रह पाते हैं सामान्य
हमें मालूम न हो पाए कैसे भी...।
सपने मे खुद को देखा है
ज़ोर से चिल्लाते
जिस विकृत-अबूझ भाषा में
वह भी तो किसी एकांत में
नहीं हुई थी निर्मित
और जिस पढत की भाषा में होती है
व्याख्यायित वह चींख
वहाँ तक बँधे पुल का भी
अपना समाज शास्त्र नहीं है क्या ?
नहीं है सो जाने से डर स्वप्न के कारण
दरअस्ल
उसी भाषा का भय है मुझे
जिसमें मनोवैज्ञानिकों ने
लिख दिए शास्त्र
और ऐसी किताबों में
रीत जाने की व्याख्याएँ कितनी सरल होती हैं।
सरल होते होते उलझ गया है सब।
कम से कम मेरे साथ।
अब जाना है
पर्यायों की खोज  में निकलना कितनी मूर्खता है
जबकि पर्यायों , विपर्ययों ,विशेषणों और शब्दों से
भर जाना ही रीत जाना है।

Wednesday, October 15, 2014

जो आएगा बीच में उसकी हत्या होगी


तुमने कहा
बहुत प्यार करता हूँ
अभिव्यक्ति हो तुम
जीवन हो मेरा
नब्ज़ हो तुम ही
आएगा जो बीच में
हत्या से भी उसकी गुरेज़ नहीं
संदेह से भर गया मन मेरा
जिसे भर जाना था प्यार से
क्योंकि सहेजा था जिसे मैंने
मेरी भाषा
उसे आना ही था और
वह आई निगोड़ी बीच में
तुम निश्शंक उसकी
कर बैठे हत्या
फिर कभी नहीं पनपा
प्यार का बीज मेरे मन में
कभी नहीं गाई गई
मुझसे रुबाई
सोचती हूँ
इस भाषा से खाली संबंध में
फैली ज़मीन पर
किन किंवदंतियों की फसल बोऊँ
कि जिनमें
उग आएँ आइने नए किस्म के
दोतरफा और पारदर्शी
क्योंकि तुमने कहा था
जो आएगा बीच में
उसकी हत्या होगी ।

Friday, October 10, 2014

भाषा सिर्फ शब्द नहीं है न !

ठीक ही होगा यह जो
समझाते रहे हो तुम
कि एक धुरी होती है जीवन की
कि इतना कुछ
जो कहती ही रहती हूँ मैं
समेटा जा सकता है
एक शब्द में

और उसी एक के गिर्द घूमते हुए
अस्तित्ववान होती है परिधि
जिसमें वलयाकार लिपटी हैं वे परतें
जिन्हें उघाड़ना चाहती हूँ मैं

मैं चिंतित नहीं हूँ कि
क्या एक शब्द से
तुम निभा लोगे पूरा जीवन !!
मुझे भय है
क्या होगा ध्वनियों का
रंगों और बिजलियों का
अँधेरे और रोशनियों का
 इशारों और आकारों  का
जिन्हें छूकर मैं पा लेती हूँ
देखना
बोलना हो जाता है
गिरने में अँधेरा सुनती हूँ
और बिजलियों में पढ लेती हूँ आक्रोश
तुम्हारी पंक्तियों के   अंतरालों  में
लिख लेती हूँ कविता।

भाषा सिर्फ शब्द नहीं है न !

Saturday, September 20, 2014

पिछली सदियों में


पिछली सदियों में
जितना खालीपन था उससे
 मैं लोक भरती रही
तुमसे चुराई हुई भाषा में और चुराए हुए समय में भी।
तुम्हारी उदारता ने मेरी चोरी को
चित्त न धरा ।
न धृष्टता माना।
न ही खतरा।
 हर बोझ पिघल जाता था
जब नाचती थीं फाग
गाती थी सोहर
काढती थी सतिया
बजाती थी गौना ।
मैं खुली स्त्री हो जाती थी।
मुक्ति का आनंद एक से दूसरी में संक्रमित होता था।
कला और उपयोग का संगम
गुझिया गोबर गीत का मेल
अपने अभिप्राय रखते थे मेरी रचना में
इतिहास मे नहीं देती सुनाई जिसकी गूँज
मैं लिखना चाहती हूँ
उसकी चींख जो
मुझे बधिर कर देगी जिस दिन
उससे पहले ही।
मुझे अलंकरण नहीं चाहिए
न ही शिल्प
सम्भालो तुम ही
सही कटावों और गोलाइयों की
नर्म गुदगुदी
अभिभूत करती कविता !
मुझसे और बोझ उठाए नहीं उठता।
नीम के पेड़ के नीचे
चारपाई पर औंधी पड़ी हुई
सुबह की ठंडी बयार और रोशनी के शैशव में
आँख मिचमिचाती  मैं
यानि मेरी देह की
दृश्यहीनता सम्भव होगी जब तक
मैं तब तक नहीं कर पाओँगी प्रतीक्षा
मुझे अभी ही कहना है कि
मुझे गायब कर दिया गया भाषा का अपना हिस्सा
शोधना होगा अभी ही।






















Thursday, April 29, 2010

सिनेमा देखने जाएंगे तो गँवारू ही कहलाएंगे, मूवी देखिए जनाब !!

आप अपने घर को फ्लैट कहना पसन्द करते हैं या अपार्टमेंट ? फिल्म देखने जाएँ तो उसे सिनेमा देखना कहेंगे या मूवी ? भई तय रहा कि आप 'सिनेमा देखने जाएंगे ' तो गँवारू ही कहलाएंगे । मूवी देखिए जनाब !! ई मूवी अमेरिका वाला भाई लोग ने बनाया है न!

गुलामी कोई देश केवल भौतिक रूप से नही करता। गुलाम देश की भाषा भी गुलामी के संकेत देने लगती है और धीरे धीरे दिमाग ही गुलाम हो जाते हैं।अंग्रेज़ की गुलामी के दौर मे उपनिवेश का आर्थिक शोषण-दोहन किया जाता था । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र शोषण के इस रूप को समझ रहे थे और कभी छिपे -खुले ज़ाहिर भी कर रहे थे ।'निज भाषा ' की उन्नति भी उनकी चिंता थी । उनकी ये मारक लाइने नही भूलतीं -

अंग्रेज़ राज सुख साज सजै सब भारी
पै धन बिदेस चलि जात इहै अति ख्वारी

वे ।कहने को आज हम आज़ाद हैं , पर क्या वाकई ? ये बड़े सवाल हैं , जिन पर रह रह कर मन मे विचार उठते हैं , दबते हैं , अपनी लाचारी से कराह उठती है , बैठ जाती है!और एक बड़े भारतीय जनसमूह के मन मे तो ऐसे सवाल उठते ही नही होंगे । उपनिवेशवाद ने आर्थिक गुलामी से कैसे मानसिक -भाषाई गुलामी का रूप ले लिया है यह अह्सास तीव्र रूप में कल हमें हुआ जब बच्चो के एक स्कूल की पत्रिका मे ब्रिटिश अंग्रेज़ी के शब्दों के नए अमेरिकी इस्तेमाल पढे वर्ना शायद मैं इस ओर कभी ध्यान न देती कि ब्रिटेन की अंग्रेज़ी को सर माथे लेने वाली कौम कब धीरे धीरे अमेरिकी अंग्रेज़ी को अपना कर इठलाने लगी।

देखिए -
अमेरिकन इंग्लिश - ब्रिटिश इंग्लिश
Apartment ----------Flat
Bar -----------------Pub
Cab -----------------Taxi
Corn ----------------Maize
Movie ---------------Cinema
Pants ---------------Trousers
Eraser---------- ----Rubber
Sick -----------------Ill
Vacation------------- Holiday
Can------------ tin
Flashlight ----------Torch
Overpass---------- Flyover
Faculty -------------Staff

ओह ! इरेज़र को रबर बोलना कितना खतरनाक हो गया है आप जानते नही है क्या ।

पहले कुठाराघात हिन्दी पर किया , स्वाभिमान को खतम करने के लिए ....अब देखिए हम उन्हे भी पीछे छोड़ कित्ता आगे आ गए हैं । अब हम सबसे बड़े बॉस की गुलामी में नाक ऊंची करते हैं।

Wednesday, April 28, 2010

आप कितने बड़े "मैंने" हैं

आप अक्सर कुछ लोगों से बात करना , मिलना अवॉइड करना चाहते हैं अलग अलग कारणों से।स्वाभाविक भी है।हर किसी से नही मिलता मन। लेकिन दुनिया ऐसे नही चलती न!कभी न कभी आपको उनसे टकराना ही पड़ता है।रियल दुनिया की दोस्ती छोड़कर आप वर्चुअल स्पेस मे ही भाग कर क्यों न आ जाएँ ..आप उस प्रवृत्ति से बच नही सकते जिसे हम अपनी मित्र मंडली मे "मैने" कहकर अभिव्यक्त करते हैं।

ये मैने कौन होते हैं?

मैने वे है जो आत्माभिभूत हैं और साथ ही जिन्हें लगता है कि समाज -बिरादरी -मित्र मण्डली में अपेक्षित स्थान सम्मान और आदर उन्हे नही मिल रहा जबकि वे तो कितने महान हैं।
आप उनसे टकराए नही कि उधर से शुरु हो जाएगा ....." आप ऐसा कैसे कह सकते हैं मैनें ज्ञान-विज्ञान का प्रसार किया है, मैने अपने सारे अंग मृत्यु से पहले ही दान दे दिए हैं, मैने अपनी पत्नी को अधिकार दिए हैं, मैने अपना पतिव्रत धर्म निभाया है, मैने तो ...मैने कभी किसी का अहसान नही लिया...मैने कभी बे ईमानी ....मैने ये.. मैने वो .... अरे आप क्या समझते हैं मैने सारी ज़िन्दगी हिन्दी की सेवा करने मे बिता दी....भई मैने ..........
मैने किसी की एक भी फालतू बात नही सुनी आजतक .. मैने अपने बच्चों को सबसे अच्छी एजुकेशन दी है , मैने तो अपने बच्चों को हमेशा फ्रीडम दी है.मैने... मैने ...मैं तो साफ साफ बात करता हूँ हमेशा चाहे बुरी लगे .... मै बहू-बेटी (या बेटा-बेटी भी हो सकता है) मे कोई फर्क नही करती ....

"मैनें तो हमेशा ही सधी हुई लेखनी चलाई है ... मैने हिन्दी ब्लॉग जगत मे हमेशा ही विवेक - विश्लेषण की चेतना पैदा करने की कोशिश की है....आप क्या जाने मैनें हिन्दी ब्लॉग जगत मे किस किस बात का प्रसार किया और इसी मे अपना जीवन लगा दिया...मैने हिन्दी ब्लॉगिंग के लिए ...ब्ला ब्ला ....मैने हिन्दी ब्लॉग जगत मे ...ब्ला ... ..मैने ....मैने ...मैने.......

और आप मेरी मेहनत को क्षण भर मे एक खराब टिप्पणी करके नष्ट कर देना चाहते हैं ....मैने कभी किसी को खराब कमेंट नही दिया...मैने कभी किसी की पोस्ट की बुराई नही की..... मैने किसी विवाद का आगाज़ नही किया ......मै तो आपके ब्लॉग पर कभी नही गया आपको ही क्या ज़रूरत पड़ी थी यहाँ आकर मवाद बिखेरने की...
हुँह !

आप जानते हैं मैने कैसे कैसे हालात मे अपना कॉलम लिखा है ?अपनी बीमारी के बाद अस्पताल से निकलते ही मैने फलाँ को बेटी के अपार्टमेंट में बुलाकर अपना कॉलम लिखवाया और नियत समय पर 'हँस' मे भेजा ..और आप यूँ की कह देते हैं कि हमने फलाँ लेख गलत लिखा (यह हिम्मत!!) साहित्य के लिए मैने जो जो सहा है कोई नही सह सकता , सबसे बढकर मैने हिन्दी की जितनी सेवा की है वह कोई नही कर सकता (निराला या कोई प्रेमचन्द भी नही) इतने साल मैने साहित्य के लिए झोंक दिए।मैने हमेशा प्रतिक्रियाओ का सम्मान किया।मैने कभी रुपए पैसे का हिसाब नही रखा।
और आपने किया ही क्या है जो टिप्पनी करने चले आते हैं?


आप हँसते हँसते कहेंगे कि जी हाँ आपने , आपने , आपने ....
सब कुछ आपने ...
हम तुच्छ प्रानी जाने क्यों इस धरती पर कीड़ों की तरह बिलबिला रहे हैं जबकि सारी क्रांति , सारा धर्म कर्म , सारा ज्ञान विज्ञान का प्रचार , सारी विद्वत्ता , सारा परोपकार तो आप ही करते आए हैं कर रहे हैं!!हम तो बे ईमान हैं, कामचोर हैं, हिन्दी की सेवा नही करते, विज्ञान का तो भी नही जानते,बच्चों को सबसे घटिया सस्ते स्कूल मे पढाते हैं,सबकी फालतू बात भी हम ही सुनते हैं...उधार करते हैं, हम अधर्मी हैं ....सबके अहसान लेते हैं ...हम साफ बात नही करते.. आप धन्य हैं ! अब हमे जाने दीजिए प्लीज़!अपन तो ये भी नही जानते कि यहाँ करने क्या आए हैं !
और आप पिण्ड छुड़ाकर भागेंगे।

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चिंता न करें , इस लेख की कोई कड़ियाँ नही आने वालीं। वैसे आप तो जानते ही हैं मैने कभी व्यक्तिगत आक्षेप नही किए , न ही मैने किसी का कभी दिल दुखाया , मैने तो यही सोचा है कि कुछ समझ का विस्तार हिन्दी ब्लॉग जगत मे कर सकूँ ... भई मैने तो मैने मैने कभी नही किया :)