Monday, April 9, 2007

आर यू फीलिंग लकी टुडे..?

वैसे तो हमारा नियति मे विश्वास है ,या कहें समय के साथ साथ हो ही चला है। 'वैसे तो' इसलिए कहा कि ज़्यादातर लोग सोचते है कि प्रोग्रेसिव थिंकिंग और नियति का मेल नही है । यूँ भी नियति मे हमारे विश्वास का मतलब 'नियतिवादी' होना नही है । ऐसा कतई नही है कि हम यह सोच कर बैठ जाते हों कि नियति जहाँ ले चलं वहाँ चल देंगे। पर निरंतर प्रयत्नशील रहते हुए भी कई बार देखा है कि परिणाम अपेक्षा से परे या भिन्न या उलट होता है । फिर भी हम सोचते हैं और लगातार काम करते रहते हैं। इसके पीछे भी नियति का विश्वास ही लगता है क्योंकि कब कहाँ क्या हो जाएगा हमेशा इसकी भनक आप नही पा सकते। हो सकता है कि नियति ने कुछ रच ही रखा हो जो देर सवेर मिल जाएगा या जिसे हम सहेजे बैठे है वह नष्ट होने वाला हो ।
दरअसल जीवन की अनिश्चितता से ही नियति का खयाल जन्म लेता है।

खैर यह बोरिंग संभाषण तो केवल भूमिका है।बाज़ार हमे लकी बताता है अपने अनुसार।
हमारे विचार को उद्दीप्त किया गूगल के इस प्रश्न ने--आर यू फीलिंग लकी टुडे?
हम सोच रहे हैं कि यह चक्कर क्या है कि हमारा लकी होना , स्वस्थ होना, ज़िम्मेदार होना, विकासमान होना, समझदार होना यह सब विग्यापन हमे बताते है जिनके पीछे एक बडा खौफनाक बाज़ार रौद्र मुद्रा मे हमे लीलने को खडा है। कुछ भी हो हमे खरीदारी करनी चहिए , हमें मॉल मे घुस कर उसकी चकाचौंध पर निछवर होते हुए अपनी जेब खाली कर देनी चाहिए। हमें बडे बडे शो रूम मे घुस कर खाली हाथ नहीं लौटना चाहिए । कुछ न कुछ चढावा ज़रूर चढा कर आना चाहिए। ऐसे मे मध्यवर्ग की गत सब्से बुरी होती है । मॉल मे जाने की औकात नहीं , यह वह स्वीकार नही कर सकता: वहाँ बिना लुटे आना ,मन मारना, वह यह बे इज़्ज़ती भी बरदाश्त नही कर सकता। इसलिए 50 रुपए की कॉफी पीकर या एक पेन खरीदकर वह कलटी हो लेता है।
मॉल के बाहर खडे हुए लगता है वह हमसे कह रहा हो -" आओ! मुझमे खो जाओ। सब कुछ निछावर कर दो। लूट पाट करो ,चोरी, डकैती करो कुछ भी करो ;मुझ पर पैसा लुटाओ।फेंको पैसा, फिर देखो मै तुम्हे आनंद मे सरबोर कर दूँगा ।"
और हम अपनी चादर देखे बिना पाँव पसारने लग जाते हैं।
बेचने और बिकने की कला ,जीवन की कला होती जा रही है । बेचना और बिकना नही जानते तो इस माया जगत मे तुम्हारा हो ना निरर्थक है। तुम्हे मर जाना चाहिए और नही मरते तो बेशर्म माने जाओगे ।बज़ार के तिरस्कार के बाद भी जीते हो? 1 रुपया वापस माँगते हो? डूब मरो। यूँ ही उडा देने के लिए तुम्हारे पास 100 -500 रुपए भी नहीं। ऑटो वाला बिन्दास बोलता है--"- 5 रु. ही तो ज़्यादा माँग रहा हूँ ।इतना तो जायज़ है। सभी देते है।"
सब सीखने लगे है यह भाषा, बिकने- बेचने की भाषा, मॉल की भाषा ,नफे की भाषा।।और हमें लूट कर हमपर ही अहसान दिखाना इस कला की जान है ।लुटने वाले को लगना चाहिए कि उसका फायदा हो रहा है ।वह कितना लकी है कि उसे एक के साथ एक फ्री का ऑफर मिला है। वह खुशकिस्मत है कि पिज़्ज़ा घर वालो ने उसे एक पिज़्ज़ा के साथ दो पेय मुफ्त दिये है ।'कॉम्बो ऑफर' "ईकोनोमील"। वह लकी है। अन्यथा जहाँ वह झँकता भी नही जेब कटने के डर से आज वहाँ 500 रु. फेंक कर आएगा।

यहाँ तक कि कल हमारे पास फोन आया । सिटिबैंक वालों ने लकी ड्रॉ करके मुझे 1 लाख रुपए का लोन देने के लिए चुना है ।मुझ पर कर्ज़ चडाने के लिए मेरा चुनाव किया गया और मुहझे लकी भी कहा जा रहा है?
भींगा हुआ जूता मारना इसे ही कहते हैं क्या ?
ऐसे लोगों की बात ना सुनने पर हमे खडूस, पिछडा हुआ, गरीब वगैरह वगैरह समझा जाता है।
ठेले वाले भी इस कला से अनजान नही रहे। पूरी कोशिश कर वह इस होड मे शामिल हो रहे है। कहना चाहिए लूट मे वे भी शामिल है।
32 रु. किलो भिंडी,32रु. किलो करेले और इसी तरह बाकी भी। लेकिन सीज़न मे कुछ सब्ज़ियाँ बुरी तरह पिटती हैं।10 के दो किलो आलू मिल रहे थे कुछ दिन पहले। लेकिन रेहडी वाले की शर्त थी कि 2 किलो से कम आलू नही लेने दिए जाएँगे। गोभी 15 का आधा किलो देंगे, पर पाव भर लोगे तो 10 का पाव देंगे।
मरते क्या ना करते। ले ही जाते है उनकी शर्त पर सब्ज़ी और खुद को भाग्यवान समझते है कि हमे इतने सस्ते मे इतनी सब्ज़ी मिली। एकाध बुज़ुर्ग को उनसे भिडते भी देखा है। जिन्हे सब्ज़ी वाले बाद मे पागल और न जाने क्या क्या कहते हैं।
करोडपति बनने के लिए पहले फोन पर के बी.सी वालों के प्रश्नो का देर तक उत्तर दो ,फोन का बिल 2000 रु. , फिर भी आप हॉट सीट पर पहुँचे कोई गारंटी नही।
मोबाएल पर 8888 वाले सवाल पर सवाल करेंगे ,आप जवाब दोगे कार वगैरह जीतने के लिए। सब सही बताने पर मैसेज आएगा -play daily to win ....
मोबाएल का एक महीने मे आने वाला बिल एक दिन मे हो जाता है और आप धीरज खोकर आगे से न खेलने का ठानते हो। पर उस दिन जो लुटाया ,वह तो बाज़ार खा चुका ,उसका क्या?
15 रु का प्लास्टिक 150 रु. मे खिलौने के रूप मे खरीदने को मना करने पर हमारा बेटा खुद को वंचित मह्सूस करता है और हमें क़ंजूस कहता है ।

बज़ार तेरी जय हो । तू चाहे तो कुछ भी संभव है। तू चाहे तो ऊँचे दाम मे हमें गोबर बेच दे और हम फिर भी मानेंगे कि आज हम लकी हैं। हम लकी है कि आज हम बाज़ार के मुर्गे बने ।

7 comments:

काकेश said...

चलिये अच्छा लिखा आपने ..बाजार की ये संस्कृति ही तो हमें बेतहाशा खर्च करने पर विवश कर रही है और हम इसे अपनी नियति मान जुड़ रहे हैं उसी भेड़-चाल में..

संजय बेंगाणी said...

आज आप लक्की है. टिप्पणीयाँ मिल रही है.
बाजार को हम चला रहे हैं, बाजार हमे चला रहा है. कहे तो दोनो एक दुसरे को खुजा रहे हैं.

बहरहाल लिखा अच्छा है.

Shuaib said...

टिप्पणीयों से हम भी आपको लक्की बनाते पर क्या है कि आपको टिप्पणी देने के लिए लॉग इन होना पडता है - ज़रा लॉग इन हटादें तो फिर हमें भी लक्की बनने का मौका मिलजाए।

Udan Tashtari said...

सत्य किन्तु विचारणीय:

बेचना और बिकना नही जानते तो इस माया जगत मे तुम्हारा हो ना निरर्थक है।

-बहुत खूब बात कही है.

-इसी मायाजाल का फायदा बाजार उठाता है.

बढ़िया आलेख, बधाई.

Tarun said...

आइ एम नॉट क्योंकि मेरी पीठ में बहुत खुजली हो रही है और कोई खुजा नही रहा ;) वैसे बाजार की नियति यही है तभी तो ये उठेगा, अब देखियेगा ना आपने भी तो ऐलान किया था चिट्ठे के बाजार में कि तू मेरी पीठ खुजा मैं तरी पीठ खुजाऊंगा ;)

वैसे आपने कभी ट्राई किया है क्या ये :)

रवि रतलामी said...

"...भींगा हुआ जूता मारना इसे ही कहते हैं क्या ?..."

यह तो मख़मल में लपेट कर जूता मारना हुआ :)

विजेंद्र एस विज said...

बहुत खूब... वाकई बढिया आलेख है..